आज स्कूल का वार्षिक फंक्शन है, सुबह सात बजे से मैं यहीं हूं… सारी तैयारियां अपने चरम पर हैं। रिहर्सल जितनी होती थी, हो चुकी। पिछले महीने तो मैंने पांच-पांच, छ:-छ: घंटे रिहर्सल करवायी है, जब तक बच्चे थककर चूर नहीं हो जाते। सुबह सात से शाम छ: बजे तक…। आज तो बस बारी-बारी तैयार […]
अभी-अभी लाउडस्पीकर पर बताया गया है कि गाड़ी लगभग दो घंटे लेट हो जाएगी। पास ही खड़े एक सैनिक अफसर ने बताया कि रास्ते में बड़े-बड़े स्टेशनों पर जनता इन लोगों के स्वागत के लिए इकट्ठा हो गई है। इसलिए यहाँ पहुँचते-पहुँचते इतनी देर हो जाना तो नेचुरल है। उसे इस बात से कोई परेशानी […]
सुकिया के हाथ की पथी कच्ची ईंटें पकने के लिए भट्टे में लगाई जा रही थीं। भट्टे के गलियारे में झरोखेदार कच्ची ईंटों की दीवार देखकर सुकिया आत्मिक सुख से भर गया था। देखते-ही-देखते हजारों ईंटें भट्टे के गलियारे में समा गई थीं। ईंटों के बीच खाली जगह में पत्थर का कोयला, लकड़ी, बुरादा, गन्ने […]
मौसमे-बहार के फलों से घिरा बेहद नज़रफ़रेब गेस्टहाउस हरे-भरे टीले की चोटी पर दूर से नज़र आ जाता है। टीले के ऐन नीचे पहाड़ी झील है। एक बल खाती सड़क झील के किनारे-किनारे गेस्टहाउस के फाटक तक पहुँचती है। फाटक के नज़दीक वालरस की ऐसी मूँछोंवाला एक फ़ोटोग्राफ़र अपना साज़ो-सामान फैलाए एक टीन की कुर्सी […]
बहार फिर आ गई। वसन्त की हल्की हवाएँ पतझर के फीके ओठों को चुपके से चूम गईं। जाड़े ने सिकुड़े-सिकुड़े पंख फड़फड़ाए और सर्दी दूर हो गई। आँगन में पीपल के पेड़ पर नए पात खिल-खिल आए। परिवार के हँसी-खुशी में तैरते दिन-रात मुस्कुरा उठे। भरा-भराया घर। सँभली-सँवरी-सी सुन्दर सलोनी बहुएँ। चंचलता से खिलखिलाती बेटियाँ। […]
‘‘ऐ मर कलमुँहे !’ अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाजा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा, ‘‘तोरे पेट में फोनोगिराफ उलियान बा का, जौन भिनसार भवा कि तान तोड़ै लाग ? राम जानै, रात के कैसन एकरा दीदा लागत है !’’ मारे डर के कि कहीं घेघा […]
वह दूर से दिखाई देती आकृति मिस पाल ही हो सकती थी। फिर भी विश्वास करने के लिए मैंने अपना चश्मा ठीक किया। निःसन्देह, वह मिस पाल ही थी। यह तो खैर मुझे पता था कि वह उन दिनों कुल्लू में रहती हैं, पर इस तरह अचानक उनसे भेंट हो जाएगी, यह नहीं सोचा था। […]
चाहे धूल-भरा अन्धड़ हो, चाहे ताज़ा-ताज़ा, साफ़ आसमान, गांव की तरफ़ नज़र उठती, तो वह ज़रूर उस बूढ़े पीपल से टकराती, जो दक्खिन को जानेवाले छोर पर खड़ा जाने कब से आसमान को निहार रहा है। हां, जब आसमान घिरा होता, ऊदे-ऊदे बादल झुककर गांव की बंसवारियों को दुलराने लगते, तो वह पहले से कहीं […]
भुवाली की एक छोटी सी कॉटेज में लेटा-लेटा मैं सामने के पहाड़ देखता हूँ। पानी भरे, सूखे-सूखे बादलों के घेरे देखता हूँ। बिना आँखों के भटक-भटक जाती धुन्ध के निष्फल प्रयास देखता हूँ। और फिर लेटे-लेटे अपने तन का पतझार देखता हूँ। सामने पहाड़ के रूखे हरियाले में रामगढ़ जाती हुई पगडंडी मेरी बाँह पर […]