कैमरे का बटन दबाते हुए अनन्त ने अपनी साथिन से कहा, “खींचने में कोई दस मिनट लग जाएँगे-टाइम देना पड़ेगा।” और बटन दबाकर वह कैमरे से कुछ अलग हटकर पत्थर के छोटे-से बेंच पर अपनी साथिन के पास आ बैठा। वह सारा दिन दोनों ने इस प्रतीक्षा में काटा था कि कब शाम हो और […]
लाला शंकरदयाल अपने शहर के प्रसिद्ध वकील थे। उनकी पत्नी ब्रजेश्वरी की मृत्यु प्रायः चार मास पहले हुई थी। तब से वकील साहब के मन की दशा शोचनीय हो उठी थी। वह सब समय चिंताग्रस्त दिखाई देते थे और लोगों से मिलना-जुलना उन्होंने प्रायः छोड़ दिया था। जो कोई भी मुवक्किल उनके पास आता था, […]
जयराज की तीस वर्ष की अवस्था होगी. धुन में बँधा, सदा कामकाज में रहता है. अपने प्रांत की कांग्रेस का वही प्राण है. लोग उसे बहुत मानते हैं. उन्हें छोड़ और वह रहता किसके लिए है? अविवाहित है और उससे विवाह का प्रस्ताव करने की हिम्मत किसी को नहीं होती. सबेरे का वक्त था. नौ […]
एक गहन वन में दो शिकारी पहुंचे. वे पुराने शिकारी थे. शिकार की टोह में दूर – दूर घूम रहे थे, लेकिन ऐसा घना जंगल उन्हें नहीं मिला था. देखते ही जी में दहशत होती थी. वहां एक बड़े पेड़ की छांह में उन्होंने वास किया और आपस में बातें करने लगे. एक ने […]
मौन-मुग्ध संध्या स्मित प्रकाश से हँस रही थी। उस समय गंगा के निर्जन बालुकास्थल पर एक बालक और बालिका सारे विश्व को भूल, गंगा-तट के बालू और पानी से खिलवाड़ कर रहे थे। बालक कहीं से एक लकड़ी लाकर तट के जल को उछाल रहा था। बालिका अपने पैर पर रेत जमाकर और थोप-थोपकर एक […]
शहर के एक ओर तिरस्कृत मकान। दूसरा तल्ला, वहां चौके में एक स्त्री अंगीठी सामने लिए बैठी है। अंगीठी की आग राख हुई जा रही है। वह जाने क्या सोच रही है। उसकी अवस्था बीस-बाईस के लगभग होगी। देह से कुछ दुबली है और संभ्रांत कुल की मालूम होती है। एकाएक अंगीठी में राख होती […]
‘‘यह कभी हो ही नहीं सकता, देविन्दरलालजी!’’ रफ़ीकुद्दीन वकील की वाणी में आग्रह था, चेहरे पर आग्रह के साथ चिन्ता और कुछ व्यथा का भाव। उन्होंने फिर दुहराया, ‘‘यह कभी नहीं हो सकता देविन्दरलालजी!’’ देविन्दरलालजी ने उनके इस आग्रह को जैसे कबूलते हुए, पर अपनी लाचारी जताते हुए कहा, ‘‘सब लोग चले गये। आपसे मुझे […]
बाजार में एक नई तरह की पाजेब चली है। पैरों में पड़कर वे बड़ी अच्छी मालूम होती हैं। उनकी कड़ियां आपस में लचक के साथ जुड़ी रहती हैं कि पाजेब का मानो निज का आकार कुछ नहीं है, जिस पांव में पड़े उसी के अनुकूल ही रहती हैं। पास-पड़ोस में तो सब नन्हीं-बड़ी के पैरों […]
दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते ही मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझिल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था… मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा […]