समकालीन काव्य
सभ्यता का कवच
सभ्यता के दूसरे छोर पर अपने पैरों से एक गोरा दबाए बैठा है एक काले की गर्दन और काला चिल्ला रहा है- ‘आई कांट ब्रीद-आई कांट ब्रीद’ सभ्यता के इस छोर पर जन्मना स्वघोषित श्रेष्ठ कुछ इस तरह से बुने बैठे हैं मायाजाल जिसमें फंसा है अधिकतर का गला बोला […]
नया पुराना
जमाने की प्रेम – पाठशाला जब गुलाबों के बगीचे में लगा करती थी, मेरी कविता तब बूढ़ी नदी पर बने टूटे हुए पुल पर बैठ झरबेरी के फल खाया करती थी, और अब तुम्हारे घिसे – पुराने प्रेम की महापुरानी लालटेन इसकी नई गुलेल के निशाने पर है!
मैं बनना चाहता हूँ अच्छा पापा
मैं एक पेड़ होना चाहता हूँ जिसके नीचे मेरी बेटियाँ खेलें घर-घर जिसकी डाल पर वे और सावन दोनों झूलें झूम झूमकर मैं चिड़िया होना चाहता हूँ कि ला सकूँ दूर देश से दाने और डाल सकूँ उनके मुँह में बड़े प्रेम से बड़े जतन से मैं अपनी बेटियों के […]