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भोजपुर की ठगी : अध्याय 16 : मुंशी जी की बैठक

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अध्याय 16 : मुंशी जी की बैठक 

मुंशीजी बैठक में आकर एक कुर्सी पर बैठ गये। खवास  सामने अलबेला रख गया था। मुंशीजी ने तमाखू पीते-पीते कहा-“बाहर जो लोग शोरगुल मचा रहे हैं उनको यहाँ बुलाओ।”
दरोगा, जमादार और लट्ठ लिये कई चौकीदार बैठक में आये। उनके साथ हमलोगों का पुराना परिचित अबिलाख बिन्द भी आया था। दारोगा फ़तेहउल्ला ने हरप्रकाश की तरफ उँगली दिखाकर अबिलाख से पूछा-“यही आदमी है!”
अबिलाख – “हाँ सरकार!”
दारोगा – “तुम्हारा नाम हरप्रकाश लाल है?”
मुंशीजी ने फतेहउल्ला के मुँह की तरफ ताककर मुसकुराते हुए व्यंग्य से कहा-“जी हाँ हुजूर!”
दारोगा -“तुम्हारे नाम गिरफ्तारी का वारंट है। कल रात को तुमने हीरासिंह के रेशम की किश्ती लूट ली है और एक नौकर को मार डाला है। तुम्हे थाने चलना पड़ेगा।”
मुंशी-“अच्छी बात है। खड़े क्यों हैं? तशरीफ का टीकरा रखिये।”
दारोगा- “दिल्लगी क्यों करते हो?”
मुंशीजी ने कहा – “वाह बड़े मियाँ! आपसे मैं दिल्लगी करूँगा?” आपने इतनी दूर का रास्ता तयकर, इतनी तकलीफ उठाकर बन्दे के यहाँ कदमरंजा फरमाया है तो आपकी खातिर बात करना मुझे लाजिम नहीं है? आप कैसी बात कहते हैं?”
यह कहकर उन्होंने एक बार जोर से तमाखू खींचा, चिलम की आग जल उठी उन्होंने जलती हुई चिलम उतारकर दारोगा साहब की दाढ़ी के पास ले जाकर बड़ी नरमी से कहा-“पीजिये मियाँ साहब!”
दारोगा साहब “तौबा” “तौबा” कहते हुए मुँह फेरकर दोनों हाथ से दाड़ी झाड़ने लगे।
“क्यों बदमाश! तू इतना गुस्ताख है?”
कहकर जमादार ने मुंशीजी की गर्दन पर हाथ रक्खा परन्तु तुरन्त ही मुंशीजी की ठोकर से दस हाथ दूर जा गिरा।
फिर मुंशीजी ने एक चौकीदार की लाठी छीन ली और ऐसी भयानक मूर्ती धारण कर ली कि किसी को उनकी तरफ जाने की हिम्मत नहीं होती थी। उनको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो उनके शरीर में कई हाथियों का बल आ गया है। उन्होंने गम्भीर स्वर में चौकीदारों से कहा-“अगर भला चाहते हो तो लाठियाँ यहाँ रख दो।”
चौकीदार एक दूसरे का मुँह देखने लगे।
“हथियार क्यों रखेंगे? चोरी करके और खून करके तुम नवाब बन गये हो?”
कहकर जमादार ने चौकीदार की लाठी ले ली। अबिलाख भी लाठी लिये आगे बढ़ा और दोनों ने गरजकर एक साथ मुंशी पर हमला किया। महल में चिल्लाहट और चारों ओर हाय-हाय मच गई।
मुंशीजी बड़ी दिलेरी से इस प्रकार लाठी भाँजने लगे कि देखकर जबरदस्त डाकू अबिलाख भी सहम गया। वह लाठी फेंककर एक तरफ जा बैठा। दलीपसिंह और पाँडे ने तलवार दिखाकर चौकीदारों को रोका। जमादार बेइज्जती और नौकरी के डर से कुछ देर लड़ने के बाद चोट खाकर धरती पर लोट गया।
“दलीपसिंह! सब लट्ठ जमा कर के यहाँ रक्खो” कहकर मुंशीजी फिर कुर्सी पर आ बैठे।
मुंशीजी ने दारोगा की तरफ कटाक्ष करके मुसकुराते हुए पूछा-“हाँ मिया साहब ! तो आप मुझे जेल में लम्बी म्याद तक रखना चाहते हो न? हीरा का कितना रुपया खाया है?”
दारोगा – “तो आप नहीं जाइएगा? अगर नहीं जाना हो तो हम लोग यहाँ रहकर क्या करेंगे? हमलोग भी जाएँ।”
मुंशीजी-“अजी वाह बड़े मियाँ, अभी जाइयेगा? हाथ मुँह धोइये। दो-चार लड्डू खाइये, जरा ठंढा से हो लीजिए तो जाइयेगा जाने के लिए इतना घबराते क्यों हैं?आइये, आइये इस कमरे में बैठिये।”
दारोगा साहब दल-बल सहित बड़े चाव से एक बे-खिड़की की कोठरी में जाकर बैठे।
दलीपसिंह ने दो बड़े-बड़े तालों से उसका दरवाजा बन्द कर दिया।
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