भोजपुर की ठगी : अध्याय १२ : गंगा की धारा
अध्याय १२ : गंगा की धारा
छठ की रात तीन घड़ी बीत गयी है। डोरा के पास जंगल की नाहर से एक छोटी सी नाव निकलकर गंगा जी में आई। हीरासिंह के डाकुओं में से अबिलाख बिन्द, सागर पांडे, बुद्धन मुसहर तथा और दो आदमी उस पर सवार हैं। सागर पांडे ने जम्हाई ली और चुटकी बजाकर कहा – “क्यों रे कहीं तो कुछ दिखाई नहीं देता।”
अबिलाख – “आँखें बंद किये हो क्या पांडे? देखते नहीं वह जा रही है।”
सागर – “कहाँ रे?”
अ.-“वाह! अरे वह क्या है। चरित्रवन के पास पहुंचना चाहती है। नाव जल्दी चलाओ।”
नाव खूब तेजी से पूरब की ओर चली और आगे जाती हुई नाव के पास पहुँच गयी।
अबिलाख ने पूछा –“नाव कहाँ जायेगी?”
उस नाव के एक मांझी ने खड़े होकर और उसको घूरकर पूछा –“तुमलोग कौन हो?”
अ.-“हमलोग मल्लाह हैं। आपलोग कहाँ जायेंगे सरकार?”
माँझी – “हमलोग आरा जायेंगे। तुमलोग कहाँ जाओगे?”
अबिलाख.-“हमलोग सेमरी जायेंगे। बाबूजी तमाखू पीयेंगे जरा आग दोगे।”
आरा जाने वाली नाव में एक मिरजापुरी प्यादा था, उसने गंभीर स्वर से कहा – “आग कहाँ बा रे?”
अबिलाख-“कोई तमाखू तो पी रहा है।”
सागर पांडे ने जरा मुहं बनाकर कहा – “क्यों नहीं मिलेगी?”
मिरजापुरी-“नहीं मिलेगी सरऊ।”
पूर्वोक्त मांझी ने मिरजापुरी से कहा – “अजी लड़ते क्यों हो? ज़रा आग ही लेगा न।” – डांड़ियों ने डांड़ रोक दिया, नाव खड़ी हो गयी। अबिलाख कूदकर उस नाव में चला गया, बुद्धन मुसहर भी कूद आया।
अबिलाख – “क्यों सरकार! आग दो।”
मांझी-“शायद यह मल्लाह तमाखू पीता है देखो।”
मल्लाह-“आग देता हूँ।”
“अच्छा मैं आग जिला लेता हूँ।” – कहकर अबिलाख नाव के भीतर घुस गया। इतने में बुद्धन ने धक्का मारकर मिरजापुरी प्यादे को पानी में गिरा दिया। इसके बाद ही पिस्तौल की आवाज हुई और बुद्धन नाव में लोटकर खून फेंकने लगा। उस मांझी ने हाथ की पिस्तौल सागर पांडे की तरफ लागाकर कहा – “अगर जान प्यारी है तो ख़बरदार भागने की कोशिश मत करना।”
सागर पांडे – “नहीं सरकार। भागूँगा क्यों? यह लीजिये नाव की पतवार छोड़ देता हूँ” – कहकर पानी में कूद पड़ा। नाव के और दो डाकुओं ने भी उसी का रास्ता लिया। नाव चक्कर खाती हुई एक तरफ को चली। इधर नाव में हाथबाहीं को घूम देखकर उस पिस्तौल वाले ने पूछा – “क्यों जी दलीप। काबू में नहीं आता?”
दिलीप ने कहा – “सरकार। आइये।”
पिस्तौल लिए हरप्रकाशलाल ने नाव के भीतर घुसकर देखा कि दलीप सिंह उस जबरदस्त डाकू की छाती पर चढ़कर उसका हथियार छीनना चाहता है लेकिन कामयाब नहीं होता है। उन्होंने तुरंत हथियार छीन लिया और रस्सी से उसके हाथ-पैर अच्छी तरह बांधकर बाहर आये और मल्लाहों को खूब जोर से नाव चलाने को कहा। नाव फर्राटे के साथ चली।
दलीप – “सरकार। अब उधर जाने की क्या दरकार है?”
मुंशी जी- “जगन्नाथ सिंह को ढूंढना चाहिए न?”
दलीप.- “ऐसी तेज धारा है, न जाने कहाँ बह गया। आप कहाँ ढूंढेंगे?”
मुं. – “नहीं, नहीं, एक बार ढूंढना चाहिए। अरे वहां आग लगी है क्या? आसमान एकदम लाल हो गया है और हौरा मचा हुआ है।”
मल्लाह – “हाँ सरकार। जोर से आग लगी है।”
मुं-“अच्छा, यहाँ नाव लगाओ।”
दलीप. – “सरकार! डाकुओं की यह नाव बही जाती है पकडूँ?”
मुं.-“अरे नाव के नीचे से कौन पुकार रहा है?”
दलीप.-“कौन है जगन्नाथ सिंह?”
जगन्नाथ- “अरे हम तो मर गए भयवा।”
मुं.-“अरे धरो धरो। ऊपर खींच लो।”
मल्लाहों ने नाव रोकी। देखा कि प्यादा नाव की पतवार पकड़ अधमरा सा हो रहा है। उसको ऊपर खींचकर नाव चलाई गयी। मुंशीजी के हुक्म से नौरत्न के घाट पर नाव आकर लगी।
मुंशीजी ने दलीप सिंह के साथ किनारे उतरकर देखा कि एक झोपड़ा जल रहा है। आग की लपट आकाश चूमना चाहती है। गांववाले हल्ला मचाते हुए अपना-अपना घर बचाने का बंदोबस्त कर रहे हैं। हरप्रकाश लाल ने उस जले हुए झोपड़े के पास जाकर सुना कि भीतर कोई स्त्री चिल्ला रही है। वे बिना कुछ आगा-पीछा किये, जान की परवा छोड़ पैर से किवाड़ तोड़ कर झोपड़े में घुस गए और तुरंत एक स्त्री को कंधे पर लिए बाहर निकल आये। यह स्त्री थी, वही मुखरा गूजरी। गूजरी के जरा होश में आने पर मुंशीजी ने पूछा – “तुम्हारे घर में आग कैसे लगी?”
गूजरी ने कहा – “मुझे कुछ मालूम नहीं, मैं सो गयी थी।”
मुंशी-“यहाँ तुम्हारा कोई अपना है?”
गू.-“मेरा कोई नहीं हिया।”
गू.-“मेरा कोई नहीं है।”
मुंशी-“तब तुम इस रात को कहाँ रहोगी?”
गू.-“जहाँ होगा वही पड़ रहूंगी। घर गया तो पेड़ तो है।”
मुंशीजी ने कुछ सोचकर कहा – “देखो, नवमी के दिन तुम एक बार मेरे मकान पर आना मैं तुम्हें कुछ दूंगा। सरेजा मेरा मकान है, मेरा नाम हरप्रकाश लाल है। याद रहेगा तो?”
गू.-“सरकार। जितने दिन जीऊँगी उतने दिन याद रहेगा आपका नाम मुंशी हरप्रकाशलाल है? मैं समझती थी कि मुंशी जी बूढ़े होंगे।”
मुंशीजी हँसते हुए नाव पर चढ़े। मल्लाहों ने नाव चलाई।