दिव की ज्वलित शिखा सी उड़ तुम जब से लिपट गयी जीवन में, तृषावंत मैं घूम रहा कविते ! तब से व्याकुल त्रिभुवन में ! उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है, जहाँ पथिक जल की झांकी में एक बूँद के लिए विकल है। घर-घर देखा धुआं पर, सुना, विश्व […]
अनाज की पैदावार बढ़ी या नहीं, यह तो ईश्वर जाने या महंगाई, मगर हाकिमों की पैदावार का क्या कहना. कोई ए.ओ., बी.ओ., सी.ओ. हैं तो कोई ए.बी.ओ., बी.सी.ओ., सी.डी.ओ. और न जाने कितने ‘ओ’ हैं कि अंग्रेज़ी वर्णमाला के भी होश गुम हैं कि अब ओ के साथ कौन से अक्षर जोड़े जाएँ. उस पर […]
हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाएँगे, कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाऍंगे। हम बहता जल पीनेवाले मर जाएँगे भूखे-प्यासे, कहीं भली है कटुक निबोरी कनक-कटोरी की मैदा से, स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में अपनी गति, उड़ान सब भूले, बस सपनों में देख रहे हैं तरू की फुनगी पर के झूले। ऐसे थे […]
सेन साहब की नई मोटरकार बँगले के सामने बरसाती में खड़ी है—काली चमकती हुई, स्ट्रीमल इंड; जैसे कोयल घोंसले में कि कब उड़ जाए. सेन साहब को इस कार पर नाज है — बिल्कुल नई मॉडल, साढ़े सात हजार में आई है. काला रंग, चमक ऐसी कि अपना मुंह देख लो. कहीं पर एक धब्बा […]
महीनों से मन बेहद-बेहद उदास है। उदासी की कोई खास वजह नहीं, कुछ तबीयत ढीली, कुछ आसपास के तनाव और कुछ उनसे टूटने का डर, खुले आकाश के नीचे भी खुलकर साँस लेने की जगह की कमी, जिस काम में लगकर मुक्ति पाना चाहता हूँ, उस काम में हज़ार बाधाएँ; कुल ले-देकर उदासी के लिए […]
कविता वह साधन है जिसके द्वारा शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है। राग से यहां अभिप्राय प्रवृत्ति और निवृत्ति के मूल में रहनेवाली अंत:करणवृत्ति से है। जिस प्रकार निश्चय के लिए प्रमाण की आवश्यकता होती है उसी प्रकार प्रवृत्ति या निवृत्ति के लिए भी कुछ विषयों का […]
हल चलाने वाले का जीवन हल चलाने वाले और भेड़ चराने वाले प्रायः स्वभाव से ही साधु होते हैं। हल चलाने वाले अपने शरीर का हवन किया करते हैं। खेत उनकी हवनशाला है। उनके हवनकुंड की ज्वाला की किरणें चावल के लंबे और सुफेद दानों के रूप में निकलती हैं। गेहूँ के लाल-लाल दाने इस […]
जिस प्रकार सुख या आनंद देनेवाली वस्तु के संबंध में मन की ऐसी स्थिति को जिसमें उस वस्तु के अभाव की भावना होते ही प्राप्ति, सान्निध्य या रक्षा की प्रबल इच्छा जग पड़े, लोभ कहते हैं। दूसरे की वस्तु का लोभ करके उसे लोग लेना चाहते हैं, अपनी वस्तु का लोभ करके उसे लोग देना […]
हिन्दी के आरंभिक उपन्यासों में देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता अग्रगण्य है। यह उपन्यास पहली बार 1893 में प्रकाशित हुआ था। कहते हैं, इस उपन्यास को पढ़ने के लिए बहुत से लोगों ने देवनागरी सीखी। तिलिस्मी-अय्यारी की रहस्यमय और रोमांचक दुनिया की सैर कराने वाला यह उपन्यास आज भी उतना ही लोकप्रिय है। न सिर्फ इस […]