पद्मावत-सुआ खंड- भाग-2
बँधिगा सुआ करत सुख केली । चूरि पाँख मेलेसि धरि डेली ॥
तहवाँ बहुत पंखि खरभरहीं । आपु आपु महँ रोदन करही ॥
बिखदाना कित होत अँगूरा । जेहि भा मरन डह्न धरि चूरा ॥
जौं न होत चारा कै आसा । कित चिरिहार ढुकत लेइ लासा ?॥
यह बिष चअरै सब बुधि ठगी । औ भा काल हाथ लेइ लगी ॥
एहि झूठी माया मन भूला । ज्यों पंखी तैसे तन फूला ॥
यह मन कठिन मरै नहिं मारा । काल न देख, देख पै चारा ॥
हम तौ बुद्धि गँवावा विष-चारा अस खाइ ।
तै सुअटा पंडित होइ कैसे बाझा आइ ?॥5॥
अर्थ: सुखों में खेलता सुआ कैद हो गया. तब बहेलिये ने उसके पंख मरोड़ कर उसे पिटारे में डाल दिया. वहाँ और भी बहुत सारे पक्षी थे, जिनमें खलबली मची थी. सभी अपना-अपना रोना रो रहे थे. ईश्वर ने विष से भरा फल क्यों उत्पन्न किया, जिसे खाकर यूं मरना पड़ा और पंख तुड़वाने पड़े. अगर हम चारे के लोभी नहीं होते तो बहेलिये के चंगुल में नहीं फंसते. इस लोभ रुपी विष ने सबकी बुद्धि हर ली और कालरुपी बहेलिये ने सबको फँसा लिया. इस विष के चारे ने हमारी बुद्धि हर ली. इस झूठी माया के चक्कर में मन भूल गया जिसके कारण पंख मरोड़े गए. मन को मारना बड़ा कठिन है. इसे चारा दिखाई दिया पर काल दिखाई नहीं दिया.
पक्षियों ने सुए से कहा, ‘हे सुए, हमने तो बुद्धि गँवा कर विष रुपी चारा खा लिया, लेकिन तुम तो पंडित थे, कैसे इस चक्कर में फँस गए.
सुए कहा हमहूँ अस भूले । टूट हिंडोल-गरब जेहि भूले ॥
केरा के बन लीन्ह बसेरा परा साथ तहँ बैरी केरा ॥
सुख कुरबारि फरहरी खाना । ओहु विष भा जब व्याध तुलाना ॥
काहेक भोग बिरिछ अस फरा । आड लाइ पंखिन्ह कहँ धरा ?॥
सुखी निचिंत जोरि धन करना । यह न चिंत आगे है मरना ॥
भूले हमहुँ गरब तेहि माहाँ । सो बिसरा पावा जेहि पाहाँ ॥
होइ निचिंत बैठे तेहि आडा । तब जाना खोंचा हिए गाडा ॥
चरत न खुरुक कीन्ह जिउ, तब रे चरा सुख सोइ ।
अब जो पाँद परा गिउ, तब रोए का होइ ? ॥6॥
अर्थ: सुए (तोते) ने कहा, “मैं भी ऐसे ही धोखे में आ गया. वह झूला टूट गया, जिस पर मैं गर्व से झूल रहा था. मैंने केले के वन में आश्रय लिया था, लेकिन वहाँ कँटीले बेरों का साथ मिल गया. ख़ुशी से आवाजें निकलना और सुखपूर्वक फल खाना, यही मेरा काम था. बहेलिये के आते ही सब ज़हर हो गया. भोग करने के लिए यह पेड़ क्यों फला, जिसका लोभ दिखाकर बहेलिये ने सबको कैद कर लिया. मैं निश्चिंत होकर उस डाल पर बैठ गया और भूल का पता तब चला, जब ह्रदय में बहेलिये का कांटा गड़ा. वैसे ही, जैसे लोग धन इकट्ठा करते रहते हैं, यह सोचे बिना कि एक दिन मरना है. मैं भी गर्व में फूलकर उसे भूल गया, जिसके कारण सबकुछ पाया था.
चारा खाते समय मन में कोई खटका नहीं था. उस समय तो सुख की अनुभूति हो रही थी. अब जब गले में फंदा पड़ गया तो रोने से क्या होगा?
सुनि कै उतर आँसु पुनि पोंछे । कौन पंखि बाँधा बुधि -ओछे ॥
पंखिन्ह जौ बुधि होइ उजारी । पढा सुआ कित धरै मजारी ?॥
कित तीतिर बन जीभ उघेला । सो कित हँकरि फाँद गिउ मेला ॥
तादिन व्याध भए जिउलेवा । उठे पाँख भा नावँ परेवा ॥
भै बियाधि तिसना सँग खाधू । सूझै भुगुति, न सूझ बियाधू ॥
हमहिं लोभवै मेला चारा । हमहिं गर्बवै चाहै मारा ॥
हम निचिंत वह आव छिपाना । कौन बियाधहि दोष अपाना ॥
सो औगुन कित कीजिए जिउ दीजै जेहि काज ।
अब कहना है किछु नहीं, मस्ट भली, पखिराज ॥7॥
अर्थ: तोते का उत्तर सुनकर सबने अपने आँसू पोंछ लिए. सोचने लगे- कौन है वो, जिसने हमें पंख तो दिया, लेकिन बुद्धि में ओछा बनाया. यदि पक्षियों में बुद्धि का प्रकाश होता तो पढ़ा-लिखा तोता बिल्ली की चपेट में कैसे आता? वन के एकांत में रहने वाला तीतर क्यों अपना मुँह खोल कर बहेलिये को बुलाता और स्वयं अपने गले में फंदा डलवाता. जिस दिन से हमारे पंख उगे बहेलिया हमारा दुश्मन बना. भोजन की तृष्णा ही सबसे बड़ा रोग है. हमें भोजन दिखाई देता है, उसके पीछे छिपा बहेलिया नहीं दिखता. हम ही अपने लालच में चारे के चक्कर में फँसते हैं. हमारा गर्व ही हमारी मृत्यु का कारण है. हम निश्चिंत रहते हैं और वह छिपकर आकर हमें फँसा लेता है. इसमें बहेलिये का दोष नहीं, सारा कसूर हमारा है. वह अवगुण ही क्यों किया जाय, जिसके कारण मौत को अपनाना पड़े. अब हे पक्षीराज, कुछ भी कहने से बेहतर चुप रहना है.