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रात और जाग

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रात देर तक जागना
और देर रात जाग जाना
बड़ा भयंकर अंतर है
दोनों परिस्थितियों में,
पहली में जहां आप
अपनी मर्ज़ी से जाग रहे हैं
और वक़्त बिता रहे हैं
मनपसंद कामों में
किसी फ़िल्म या किताब
या किसी की बातों में डूबे
सुनहले भविष्य का सपना बुनते
ख़ुश – ख़ुश जाग रहे होते हैं।
दूसरी में तो जैसे
कोई अंधेरे का पिशाच
ठोकर मार कर जगा जाता है
कोई नन्हा बच्चा जैसे
जाग गया हो बैमाता का
थप्पड़ खा कर..
फिर ये जाग
याद दिलाएगा
एक एक कर
वे सारी गलतियां
जो आपने कर रखी हैं
जाने या अनजाने..
दिल को कचोटता
मरोड़ता एहसास
कि आपके लगभग दोस्तों की
नौकरी लग चुकी है
और शादी भी हो चुकी है।
या कोई ऐसा प्रपंच
दिखाई देगा
आंखों में तैरता हुआ
जिसे आप दशकों पहले
भुला कर बैठे हैं।
याद दिलाएगा कि
मां बीमार रहने लगी हैं
पिता न जाने कितने दिन और…
भाई आवारा निकल गया
बहिन ब्याह की आशा में
दिन पर दिन सूख रही है।
ये चंद पल
एक बार पूरा पहिया ही
घुमा के रख देते हैं
कि कब कब कौन कौन सी
गलतियां की गई हैं।
किसी अनचाहे रिश्ते के
पछतावे से
आंसू बन कर
ढुलक जायेगा आंख की
कोरों पर, तमाम अतीत
और भविष्य दिखेगा
किसी गहरे, अंधेरे कुएं जैसा।
सारी उम्मीदों को
ख़तम करता हुआ
ये वक़्त उकसाएगा
कि ख़ुद को ही
क्यूं न ख़त्म कर लिया जाए।
तो जागने और जागने का वक्त
चुनना होगा
बहुत सोच समझ कर।

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सुंदर रचना…