काजर की कोठरी खंड-13 (अंतिम खंड)
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सरला और शिवनंदन के शादीवाले दिन का हाल बयान करते हैं। वह दिन पारसनाथ और हरिहरसिंह के लिए बड़ी खुशी का दिन था। हरनंदन की इच्छानुसार बाँदी ने पूरा-पूरा बंदोबस्त कर दिया था और इसी बीच में हरनंदन और पारसनाथ को कई दफे बाँदी के यहाँ जाना पड़ा और इसका नतीजा जाहिर में दोनों ही के लिए अच्छा निकला। जिस दिन शादी होनेवाली थी उस दिन पारसनाथ ने शादी का कुल सामान उसी मकान में ठीक किया जिसमें सरला कैद थी। आदमियों में से केवल पारसनाथ, हरिहरसिंह, सुलतानी, सरला और शिवनंदन के पुरोहित उस मकान में दिखाई दे रहे थे, इनके अतिरिक्त पारसनाथ का भाई धरणीधर भी इस काम में शरीक था, जो आधी रात के समय शिवनंदन को लाने के लिए उसके मकान पर गया हुआ था।
रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी, मकान के अंदर चौक में शादी का सब सामान ठीक हो चुका था, कसर इतनी ही थी कि शिवनंदन आवें और दो-चार रस्में पूरी करके शादी कर दी जाए। थोड़ी ही देर में वह कसर भी जाती रही अर्थात दरवाजे का कंडा खटखटाया गया और जब मामूली परिचय लेने के बाद पारसनाथ ने उसे खोला तो शिवनंदनसिंह को साथ लिए हुए धरणीधर ने उस मकान के अंदर पैर रक्खा। इस समय शिवनंदन के साथ केवल एक आदमी था, जिसे पारसनाथ वगैरह पहिचानते न थे। शिवनंदन पूरे तौर से दूल्हा बने हुए थे। वह मकान के अंदर जिस समय दाखिल हुए उस समय मोटे और स्याह कपड़ों से अपने तमाम बदन को छिपाए हुए थे, पर जिस समय वह स्याह कपड़ा उतारकर उन्होंने दूर रख दिया उस समय लोगों ने देखा कि उनके ठाठ में किसी तरह की कमी नहीं है। अबा-कबा और जामा -जोड़ा से पूरी तरह लैस हैं। सिर पर बहुत बड़ी मंदोल और बादले का बना सेहरा और उसके ऊपर फूलों के सेहरे ने उनके चेहरे को पूरी तरह से ढक रक्खा था।
खैर शिवनंदनसिंह नाम मात्र के मड़वे में बैठाए गए और पुरोहित जी ने पूजा की कार्रवाई शुरू की। यद्यपि पारसनाथ वगैरह को जल्दी थी और वे चाहते थे कि दो पल ही में शादी हो-हवा के छुट्टी हो जाए, मगर पुरोहित जी को यह बात मंजूर न थी। वे चाहते थे कि पद्धति और विधि में की कमी न होने पावे, अस्तु, लाचार होकर पारसनाथ वगैरह को उनको इच्छानुसार चलना पड़ा।
पारसनाथ ने कन्यादान किया और एक तौर पर यह शादी राजी-खुशी के साथ तै पा गई। इसी समय में पारसनाथ ने कलम-दवात और कागज सरला के सामने रख दिया और कहा, ”अब वादे के मुताबिक तू लिख दे कि मैंने अपनी प्रसन्नता से शिवनंदन के साथ अपना विवाह कर लिया, इसमें न तो किसी का दोष है और न किसी ने मुझ पर किसी तरह का दबाव डाला है।“
सरला ने इस बात को मंजूर किया और पुर्जा लिखकर पारसनाथ के हाथ में दे दिया। जब पारसनाथ ने उसे पढ़ा तो उसमें यह लिखा हुआ पाया–
“मुझे अपने पिता की आज्ञानुसार हरनंदनसिंह के अतिरिक्त किसी दूसरे के साथ विवाह करना स्वीकार न था। यद्यपि मेरे भाइयों ने इसके विपरीत काम करने की इच्छा से मुझे कई प्रकार के दुख दिए और बड़े-बड़े खेल खेले, मगर परमात्मा ने मेरी इज्जत बचा ली और अंत में मेरी शादी हरनंदनसिंह ही के साथ हो गई।”
पुर्जा पढ़कर पारसनाथ को ताज्जुब मालूम हुआ और वह क्रोध-भरी आँखों से सरला की तरफ देखने लगा, पर उसी समय यकायक दरवाजे पर किसी के खटखटाने की आवाज आई। जब धरणीधर ने जाकर पूछा कि ‘आप कौन है?’ तो जवाब में बाहर से किसी ने बही पुराना परिचय अर्थात ‘गूलर का फूल’ कहा। दरवाजा खोल दिया गया और धडधडाते हुए कई आदमी मकान के अंदर दाखिल हो गए।
जो लोग इस तरह मकान के अंदर आए, वे गिनती में चालीस से कम न होंगे। उनके साथ बहुत-सी मशालें थीं और कई आदमी हाथ में नंगी तलवारें लिए हुए मारने-काटने के लिए भी तैयार दिखाई दे रहे थे। उन लोगों ने आते ही पारसनाथ, धरणीधर और हरिहरसिंह की मुश्कें बाँधी लीं और एक आदमी ने आगे बढ़कर पारसनाथ से कहा, ”कहो मेरे चिरंजीव, मिजाज कैसा है? क्या तुम इस समय भी अपने चाचा को संन्यासी के भेष में देख रहे हो?”.
मशालों की रोशनी से इस समय दिन के समान उजाला हो रहा था। पारसनाथ ने अपने चाचा लालसिंह को सामने खड़ा देख भय और लज्जा से मुँह फेर लिया और उसी समय उसकी निगाह शिवनंदन, रामसिंह, सूरजसिंह और कल्याणसिंह पर पड़ी, जिन्हें देखते ही तो वह एकदम घबड़ा गया।
अब हम थोड़ी-सी रहस्य की बातों का लिखना उचित समझते हैं! सुलतानी असल में बाँदी की लौंडी न थी। उसे रामसिंह ने बाँदी के यहाँ रहकर भेदों का पता लगाने के लिए मुकर्रर किया था और रामसिंह की इच्छानुसार सुलतानी ने बड़ी खूबी के साथ अपना काम पूरा किया। वह हरनंदन के हाथ की लिखी हुई केवल उसी चिट्ठी को लेकर सरला के पास नहीं गई थी, जो बाँदी ने लिखवाई थी बल्कि और भी एक चिट्ठी लालसिंह के हाथ की लेकर गई थी, जिसमें लालसिंह ने सच्चा-सच्चा हाल लिखकर सरला को ढाढ़स दी थी और यह भी लिखा था कि तुम्हारा बाप वास्तव में संन्यासी नहीं हुआ बल्कि समयानुसार काम करने के लिए छिपा हुआ है, अस्तु, इस समय जो कुछ सुलतानी कहे, उसके अनुसार काम करना तुम्हारे लिए अच्छा होगा।
यही सबब था कि सरला ने सुलतानी की बात स्वीकार कर ली और जो कुछ उसने मंत्र पढ़ाया, उसी के अनुसार काम किया। शिवनंदनसिंह, रामसिंह के आधीन था और जो कुछ उसने किया वह सब रामसिंह की इच्छानुसार था। दूल्हा बनकर दुष्टों के घर जाने के समय शिवनंदन अलग हो गया और दूल्हा का काम हरनंदन ने पूरा किया। सेहरा इत्यादि बँधे रहने के सबब किसी तरह का गुमान न हुआ और तब तक राजा साहब की भी मदद आन पहुँची, जिसका बंदोबस्त पहिले ही से सूरजसिंह ने कर रक्खा था। यद्यपि यह सब बातें उपन्यास में गुप्त थीं परंतु ध्यान देकर पढ़नेवालों को ऊपर के बयानों से अवश्य झलक गया होगा, तथापि जिन्होंने न समझा हो उनके लिए संक्षेप में लिख देना हमने उचित जाना।
पारसनाथ, धरणीधर और हरिहरसिंह इत्यादि जेल में पहुँचाए गए और हरनंदनसिंह, सरला तथा अपने मित्रों को लिए लालसिंह अपने घर पहुँचे। उस समय उनके घर में जिस तरह की खुशी हुई उसका बयान करना व्यर्थ कागज रंगना है, मगर बाजार में हर एक की जुबान से यही निकलता था कि अपनी रंडी बाँदी की बदौलत हरनंदनसिंह ने सरला का पता लगा लिया।