भोजपुर की ठगी : अध्याय ११: नौरत्न
अध्याय ११: नौरत्न
संध्या बीत गयी है, निर्मल आकाश में छठ का चन्द्रमा हँस रहा है। नौरत्न के पास के गाँव में रामलीला की धूम है। सारा गाँव रामलीला देखने को एकत्र हुआ है, सिर्फ गूजरी नहीं गयी है। वह अपनी झोपड़ी में बिछौना बिछाकर चिराग चलाये बैठी है। इतने में रामलीला के बाजे बजे। गूजरी मन-ही-मन बोली – “भगवान् ने जिनको सुख दिया है, वे सुख करें। मैं अभागिनी सिर्फ दुःख भोगूंगी। मेरे भाग्य में सुख लिखा ही नहीं है तो सुख भोगूंगी कैसे? परन्तु मैं अपने ही मन के दोष से दुख पाती हूँ – नहीं तो मुझे कमी किस बात की है? लोग मुझसे नहीं बोलते न बोलें, इसकी मुझे परवा नहीं है। मैं उसके पीछे क्यों मरती हूँ? वह मेरा कौन है? वह डाकू है, खूनी है, उसकी चिंता मैं क्यों करती हूँ? नहीं अब उसकी चिंता नहीं करुँगी – उसका नाम नहीं लूंगी, अब उसे भूल जाउंगी।”
इसी वक़्त डाकू भोला पंछी नंगी तलवार हाथ में लिए गंभीर चेहरा बनाए उस झोपडी से कुछ दूर गंगा किनारे टहलते हुए सोच रहा था –गूजरी कौन है? उससे मेरा क्या सम्बन्ध है? वह देखने में जरा खूबसूरत है, इसी से उसे प्यार करता हूँ। तो इससे क्या उसका गुलाम हो जाऊंगा? वह जो कहेगी वही मुझे करना होगा? ऐं! वह मेरा जनेऊ उतरवायेगी, मेरी डकैती छुड़ावेगी, तब मुझ पर राजी होगी?
इसी बीच में “राय साहब! राय साहब” कहकर किसी ने पुकारा।
भोला राय ने कहा –“क्यों रे आ गया?”
काले भुजंग हट्टे-कटते जवान ने सामने आकर सलाम किया। उसका नाम अबिलाख बिन्द है। यह एक मशहूर चोर है। उसने धीरे से पूछा – “क्यों राय साहब। काम तमाम हो गया?”
भोला-“नहीं।”
अबिलाख – “अरे यह आपने अच्छा नहीं किया।”
भोला – “तू बोलनेवाला कौन है?”
अबिलाख-“अब वह सब भेद जान गयी है, हमारी पातालपुरी देख आई है तब उसको जिन्दा रहने देना उचित नहीं।”
भोला-“इसका विचार मैं करूँगा।”
अबि. – “राय जी! आप माया में फंस गए हैं, बात अच्छी नहीं होती है, तलवार जरा मुझे तो दें।”
भो.-“(गुस्से से) ख़बरदार।”
अ.-“आप क्या कहते हैं? आपकी एक स्त्री के लिए हम सब लोग जान देंगे क्या?”
भो.-“जान नहीं देनी होगी। तू एक काम कर।”
अ.-“क्या?”
भो.-“चौसा से एक नाव आ रही है, उसमें एक स्त्री है। वह चुरामनपुर के कायस्थ घराने की है। उसके बदन पर बहुत जेवर हैं, साथ में एक प्यादा, एक खवास और एक लाला है। समझा, झट जाकर पकड़ तो ले।”
अ.-“आप भी चलिए न?”
भो. –“नहीं, मेरी तबियत अच्छी नहीं है।”
“तो मैं घुरहू और चिरागू को बुला लूँ।” – यह कहकर अबिलाख चला गया।
कुछ देर बाद भोला राय सीधे गूजरी की झोपड़ी में दाखिल हुआ। उस समय वह कोयल की तरह गा रही थी, अपने राग पर आप मोहित थी। भोला को देखते ही वह गीत छोड़कर ठठाकर हंसने लगी, बोली – “राय जी तुम बहुत दिन जिओगे, मैं अभी तुम्हारा नाम लेती थी।”
भो.-“परन्तु तू अभी मारेगी। मैं भी अभी तेरा नाम लेता था।”
गू-“तुम्हारे मुहं पर फूल बरसे, ऐसा ही हो।”
भोला-“मरने की इतनी साध क्यों है?”
गू.-“जिसे सुख नहीं है उसको जीने की साध क्यों होगी?”
भो.-“तुझे सुख नहीं है तो किसे सुख है? यों हँसने, गाने में जो मस्त है उसे सुख नहीं है?”
गूजरी ने कहा –“राय जी! मेरा दुःख कोई नहीं समझता, इसी से मैं गीत गाती हूँ। मेरे गीत में रुलाई छोड़कर और कुछ नहीं है। बड़े दुःख से मैं गाती हूँ। अड़ोसिन-पड़ोसिन मुझे देख मुहं फेरकर चली जाती हैं। मुझसे कोई बोलता नहीं। यह क्या कम दुःख है। फिर मेरे मुंह पीछे सभी मुझे गाली देते हैं, डाइन-चुड़ैल कहते हैं। भला बताओ तो मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? मैं कुत्ते-बिल्ली से भी बदतर हूँ, मुझे जीने की साध क्यों होगी? – यह कहकर गूजरी रोने लगी, उसके आँखों से आंसुओं की धारा बह चली।
भोला-“दुर पगली। रोती क्यों है? तुझसे कोई नहीं बोलता तो बला से, तू मेरे साथ बातचीत किया कर, मुझे प्यार कर, मैं तुझे प्यार करूँगा।”
गू.-“तू मुझे क्यों प्यार करेगा? क्या तुझे प्यारी नहीं है?”
भो.-“मेरे कौन है?”
गू.-“तेरी स्त्री नहीं है? क्या तू नहीं जानता कि स्त्री को प्यार करना चाहिये?”
भो.- “यह तुझसे किसने कहा कि मेरे स्त्री है?”
गू.-“नहीं है?”
भो.-“नहीं।”
गू.-“झूठ मत बोल; तू इतना बड़ा मर्द है, भला कौन विश्वास करेगा कि तेरा ब्याह नहीं हुआ?”
भो.-“अगर हुआ है तो तेरा क्या?”
गू.-“अगर तेरी स्त्री है तो उसी को लेकर घर-गृहस्थी चला। मेरे पास क्यों आता है?”
भो.-“मैंने उसे छोड़ दिया है।”
गू.-“अपनी स्त्री कौन छोड़ता है? तूने उसे क्यों छोड़ा?”
भो.-“वह काली-कुरूपा थी मुझे पसंद नहीं आई इसीसे उसे छोड़ दिया।”
गू.-“तो मैं क्या गोरी हूँ?”
भो.-“तू काली है तो क्या, मैं तुझे चाहता हूँ। मैं तुझे प्यार करूँगा।”
गू.-“मुझे विश्वास नहीं होता कि तू मुझे चाहता है।”
भो.-“विश्वास क्यों नहीं होता?”
गू.-“तू डाकू है।”
भो.-“मैं डाकू हूँ तो तेरा क्या?”
गू.-“डाकू का कौन विश्वास करता है? मुझे कैसे विश्वास होगा कि तू मुझे प्यार करेगा?”
भो.-“अविश्वास का क्या कारण है?”
गू.-“जिसको दया-माया नहीं है, जो मछली की तरह आदमी को मारता है वह क्या कभी किसी को प्यार कर सकता है?”
भोला ने कहकहा लगाकर कहा – “आदमी मारता हूँ तो तेरा क्या? तुझे क्या नहीं प्यार करूँगा?”
गू.-“हाय रे। तू यह काम छोड़ दे। तू क्यों आदमियों की जान लेता है? जिनको मारता है, वे न जाने कितना कष्ट सहकर मरते हैं, तुझे जरा भी दया नहीं आती।”
भो. –“मेरे न मारने से वे अगर कभी न मरते, मरने का कष्ट नहीं पाते तो मैं उन्हें नहीं मारता। मैं आदमी को भयानक मृत्यु कष्ट से बचा देता हूँ और सिर्फ मृत्यु कष्ट ही क्या सब प्रकार के कष्ट से सदा के लिए रिहा कर देता हूँ। मैं क्या बुरा काम करता हूँ?”
गू.-“न, बड़ा अच्छा काम करते हो। बेटा रोजगार करके बूढ़े बाप और अंधी माँ को खिलाता है पर तू उनको मार डालता है, जिस बेचारी ने नन्हें बच्चों को किस तरह पाल-पोस बड़ा किया है। उस स्त्री के स्वामी के भी तू खोपड़ी तोड़ डालता है, बड़ा पुण्य करता है।”
भो.-“और अगर वे रोग से मरते तब किसको दोष देती? आदमी की जिन्दगी में दुःख ही दुःख है, मेरी समझ में ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे मनुष्य-वंश शीघ्र नष्ट हो जाय।”
गू.-“सब आदमी मरेंगे और तू जीता रहेगा। मुहं-झौंसा तू ही क्यों नहीं मर जाता कि वंश की बाला एकदम दूर हो जाय।”
भो.-“पगली, तुझे छोड़कर मैं कभी नहीं मरूँगा।”
गू.-“अच्छा तो पहले मुझे मार पीछे आप मर।”
भो.-“अभी नहीं, पहले कुछ दिन तुझे लेकर गृहस्थी कर लूँ तो पीछे बेफिक्र होकर मरूँगा, मरूँगा जरूर।”
गू.-“मुझे लेकर गृहस्थी करेगा, डाका डालना छोड़ देगा? जनेऊ फेंक देगा?”
गूजरी की इस बात से भोला का चेहरा राहुग्रस्त सूर्य की तरह भयंकर बन गया। उसका सारा अंग डोल गया। वह बोला – “क्या डकैती छोडूंगा? क्या तू जानती नहीं है कि मैं अपने बाप का कपूत हूँ?”
गू.-“सो कहने की दरकार क्या है? मैं तो पहले ही कह चुकी हूँ कि तेरा क्या विश्वास? जब तू डकैती नहीं छोड़ेगा, जनेऊ नहीं फेकेंगा, मुझसे सगाई नहीं करेगा तब तू मेरा कौन है? जीते जी मैं अपना धर्म नहीं बिगाड़ूँगी।”
बोला-“तेरा ही धर्म बड़ा है और मेरा धर्म कोई चीज नहीं है। एक बिन्द की लड़की के लिए मैं जनेऊ फेंक दूंगा, धर्म नष्ट करूँगा?”
गू.-“डाकू का धर्म-कर्म क्या है रे मुँहझौंसा? तू इसी लिए मेरे यहाँ मरने आता है, धोखा देकर मेरा धर्म बिगाड़ने आता है?”
बोला-“रख अपना धर्म, छोटी जात का भी कोई धर्म है। बिन्द भर लड़की सत्त दिखाने चली है?”
गू.-“देखो राय जी। मैं बड़ी दुखिया हूँ, कटे घाव पर नमक मत छिड़को, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, तुम मेरे घर से जाओ।”
भोला –“तो क्या सचमुच तू जीना नहीं चाहती?”
गू.-“नहीं, घड़ी भर भी नहीं तू मेरे घर से जा।”
भोला और कुछ न कहकर चेहरा बेहद गंभीर बनाए वहां से चला गया। गूजरी दरवाजा बंद करके बिछौने पर आ बैठी। मन ही मन बोली – “जब इतनी दूर चली आई हूँ तब नहीं लौटूंगी। जिसके लिए सर्वस त्याग दिया उसके हाथ से मर जाना ही ठीक है।”