पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढे़ | नीरज नयन नेह जल बाढे़ ||
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा | एहि तें अधिक कहौं मैं कहा ||
मैं जानऊँ निज नाथ सुभाऊ | अपराधिहु पर कोह न काऊ ||
मो पर कृपा सनेहु बिसेखी | खेलत खुनिस न कबहूँ देखी ||
सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू | कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू ||
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही | हारेंहूँ खेल जितावहिं मोंही ||
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन |
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन ||
बिधि ना सकेउ सहि मोर दुलारा | नीच बीचु जननी मिस पारा ||
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा | अपनी समुझि साधु सुचि को भा ||
मातु मंदि मैं साधु सुचाली | उर अस आनत कोटि कुचाली ||
फरह कि कोदव बालि सुसाली | मुकता प्रसव कि संबुक काली ||
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू | मोर अभाग उदधि अवगाहू ||
बिनु समझें निज अघ परिपाकू | जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ||
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा | एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा ||
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू | लागत मोहि नीक परिनामू ||
साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ |
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ ||
भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमती जगतु सबु साखी ||
देखी न जाहिं विकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं ||
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला ||
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा ||
बिन पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ ऐहि घाए ||
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू ||
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई ||
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं विषम बिषु तापस तीछी ||
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि |
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि ||