जननी निरखति बान धनुहियाँ।
बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ।।
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।
“उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे”।।
कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भइ जाहु भूप पहँ, भैया।
बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया”
कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी।
तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी।।