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कुकुरमुत्ता – छद्म प्रगतिशीलता पर प्रहार

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कुकुरमुत्ता निराला की श्रेष्ठ और सर्वाधिक विवादित रचनाओं में से एक है। प्रकाशन के तुरन्त बाद बाद से ही कुकुरमुत्ता को लेकर आलोचकों में मतभेद सामने आने लगे। कुकुरमुत्ता एक व्यग्यं रचना है। इस बात पर तो मतैक्य था परन्तु विवाद इस बात पर था कि यह व्यंग्य किस पर है। शुरूआती दौर में आमतौर पर यह माना गया कि कविता में गुलाब शोषक बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में सामने आता है और कुकुरमुत्ता सर्वहारा वर्ग का प्रतीक है। इन प्रतीकों को ग्रहण करके आलोचकों ने यह घोषणा की कि वहाँ व्यंग्य गुलाब …….शोषक वर्ग पर है वस्तुतः अगर व्यंग्य को गुलाब पर माने तो यह व्यंग्य ही नहीं रह जायेगा क्योंकि कविता के प्रथम खण्ड में प्रत्यक्षतः कुकुरमुत्ते के द्वारा गुलाबको हेय और स्वयं को श्रेष्ठ ठहराया गया है। इस अर्थ में यह कविता व्यंग्य की बजाय अभिधात की कविता बन जायेगी। व्यंग्य को नहीं समझ पाने के कारण रामविलास शर्मा ने कुकुरमुत्ता के व्यंग्य को सर्वतोन्मुखी कहा है। वस्तुतः यह भ्रम प्रतीकों की सही व्याख्या नहीं करने के कारण उत्पन्न हुआ। कुकुरमुत्ता के वक्तव्यों आधर पर आलोचकों ने गुालब को सामंतकार पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधि माना है लेकिन गौर करे तो देखेंगे कि गुलाब यहाँ जीवन में जो कुछ भी सुरिूचि सम्पन्न है, कलात्मक है उसका प्रतिनिधित्व करता है।

1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद तथाकथित प्रगतिवादी आलोचकों का एक बड़ा जत्था तैयार हुआ जिसके लिये साहित्य की रचना का मानदण्ड सिर्फ और सिर्फ माक्र्सवादी सिद्धान्त के थे। जनवाद और प्रगतिवाद के नाम पर ऐसी हर उस चीज का विरोध शुरू हो गया जो कलात्मक थी। सुन्दर थी या जो सुरूचिपूर्ण थी। मानव कलात्मक होने का मतलब जनविरोधी होना है। कार्लमाक्र्स ने अपने मित्र फ्रेड रिक एग्जेल को लिखे पत्र में यह माना है कि साहित्य में विचारधारा के ऊपर से नहीं दिखनी चाहिए बल्कि वह उसकी कलात्मकता के साथ रची बसी होना चाहिए। हमारे यहाँ प्रगतिवादी आलोचना इसकी उल्टी राह पकड़ी। साहित्य में विचारधारा की मांग इतनी हावी हो गयी कि कलात्मकता जैसे साहित्यक मूल्य गौड़ हो गये। शरीर की भूख को ही एक मात्र सत्य मान लिया गया। मानसिक सन्तुष्टि की कोई कीमत नहीं रही। गेहूं के लिए ‘गुलाब’ की बलि दे दी गयी। वस्तुतः मानसिक सन्तुष्टि ही मनुष्य को पशु से अलग करती है। अन्यथा शारीरिक भूख की दृष्टि से उनमें कोई अन्तर नहीं है परन्तु तत्कालीन साम्यवादी आलोचक इसे मानने की तत्पर नहीं थे। जहां निराला का व्यंग्य ऐसे ही साम्यवादियों पर है जिनके लिए हर सुरूचि सम्पन्न वस्तु जन विरोधी है। प्रारम्भ में पाठ्यक्रम को यह भ्रम हो सकता है कि वहाँ व्यंग्य का निशाना गुलाब है लेकिन कविता के दोनों खण्डों को गौर से देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यंग्य वहाँ गुलाब पर नहीं बल्कि कुकुरमुत्ता पर है। उगते ही गुलाब की खुशबू रंग और चमक देखकर कुकुरमुत्ते का गुलाब पर आक्रमण प्रारम्भ हो जाता है। तत्कालीन साम्यवादी शब्दावली में जो भी बाते शोषकवर्ग को कहीं जाती थी वह सारी कुकुरमुत्ता गुलाब पर उड़ेल देता है। इसके बाद उसकी अपनी श्रेष्ठता का बखान प्रारम्भ होता है। संसार की हर चीज या उससे बनी है या उसकी नकल है, वहीं एक मात्र शाश्वत है बाकी सब कुछ नश्वर है। श्रेष्ठता के बखान के इस क्रम में कुकुरमुत्ता पाठक की दृष्टि में एवं वो ही हस्यास्पद बना लेता है संसार की हर वसतु से येन-केन-प्रकारेण खुद को जोड़ने की कोशिश उसे हंसी का पात्र बना देती है और यही पाठक को कवि के व्यंग्य का असली निशाना दिख जाता है।
कुकुरमुत्ता अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए कहता कि वह खुद उगता है-
‘ और अपने से उगा मैं’
दरअसल यह उसकी श्रेष्ठता को नहीं उसकी तुच्छता की सिद्ध करता है जो कहीं भी कभी भी उग आता है।
कुकुरमुत्ता या तत्कालीन साम्यवादी हर उस चीज का विरोध कर रहे थे जो मनुष्य की मानसिक भूख को शांत कर रही थी। उनकी नजर में मानिसक संतुष्टि की तलाश श्रम से पलायन थी। इसलिए जन विरोधी थी। जाहिर है कवि निराला ऐसा नहीं मानते थे। उनकी नजर में मानिसिक संतुष्टि भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी जितनी शारिरिक संतुष्टि उल्लेखनीय है कि लगभग लगभग इसी समय श्री रामधारी सिंह दिनकर ने .. रामकृष्ण बेनीपुरी ने ‘गेहूं ….. गुलाब’ के नाम से एक सारगर्भित निबन्ध लिखकर जीवन में दोनों के बराबर महत्व को प्रतिपादित किया था। परन्तु उस दौर के तथाकथित सव्रहारा वर्ग के प्रतिनिधि इसी कुकुरमुते की तरह व्यवहार कर रहे थे अर्थात् उनकी नजर में गेहूं का ही महत्व है और गुलाब त्याज्य है। रामविलास शर्मा जी ने यह तर्क योजना लूम्पेन प्रोलेतेपित (लम्पट सर्वहारा) की बतायी है- कुकुरमुत्ता ने गुलाब का कैपिटलिस्ट कहा उसे अमीरों का धारा बताया, उस पर साधरणों से अलग रहने का दोष लगाया। इससे कुछ प्रगति प्रेमी आलोचकों ने उसे सर्वहारा वर्ग का प्रतीक मानकर उसका काफी वन्दन अभिनंदन किया है। लेकिन कुकुरमुत्ता की तर्क योजना जिस वर्ग दृष्टि का परिचय देती है वह प्रोलेहेत्पित की नहीं, लूम्पेन प्रोलेतेत्पिति की है, शहर के आवारा टूट पूंजियों का दृष्टि को जो क्रांतिकारी और संघर्ष का रास्ता दौड़कर अराजकतावादी नीति अपनाते है।’ वस्तुतः यह तर्क योजना सिर्फ लूम्पेन प्रतियोतित की नहीं थी बल्कि तत्कालीन सम्पूर्ण प्रगतिवादी आन्दोलन की थी। इसी तर्क योजना से पल्थ, जैनेन्ड, अज्ञेय, मुक्तिबोध जैसे लेखकों को अयाथर्थवादी करार दिया गया। कुकुरमुत्ता के माध्यम से निराला का प्रहार इसी तर्कदृष्टि पर है। स्पष्टतः या व्यंग्य का शिकार गुलाब नहीं कुकुरमुत्ता है। कविता के दूसरे खण्ड को आमतौर पर महत्वहीन समझा गया है लेकिन जैसे ही हम दूसरे खण्ड को पहले खण्ड से मिलाकर देखते है व्यंग्य स्पष्ट हो जाता ही बड़ी-बड़ी बाते करने वाला कुकुरमुत्ता अन्ततः कबाब बनाकर खा जाने लापक रहता है। अपनी बेटी से कुकुरमुत्ते के कबाब की तारीफ सुनकर नवाब भी कुकुरमुत्ते का कबाब खाना चाहता है। लेकिन माली कहता है कुकुरमुत्ता अब उगाये नहीं उगता। जो चीज उगाये न उगे वह किसी परम्परा से जुड़ी नहीं होती। यह उसकी श्रेष्ठता का नहीं बल्कि तुच्छता का प्रतीक है। सुरूचि सम्पन्न, शाश्वत मूल्यों का प्रतीक गुलाब रह जाना है और कला विरोधी कुकुरमुत्ता बाहर और गोली के उदर में पहुंच जाता है। यह शाश्वत कलात्मक मूल्यों की स्थापना है और प्रगतिवाद के नाम पर कला विरोध का निषेध है।
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विजया सती

एक नई व्याख्या रोचक महत्वपूर्ण