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कोरोया फूल

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कोरोया फूल छोटानागपुर की वादियों में बहुतायत रूप में पाया जाता है, यह एक जंगली फूल है, और यह छोटानागपुर वासियों के लोक गीतों में भी रच बस गया है। कहानी, एक आदिवासी अधिकारी के गैर आदिवासी कन्या से विवाह और उनसे उत्पन्न समस्याओं और सांस्कृतिक जटिलताओं का चित्रण प्रस्तुत करती है । 


मैं अपने दफ्तर में बैठा कुछ फाइलें निपटाने में लगा था। चपरासी ने अंदर आकर मेरे हाथ में एक चिट थमाई और मेरे आदेश का इंतजार करने लगा। मैंने चिट पर लिखे नाम को पढ़ा, नाम जाना पहचाना था लेकिन मैं सोच में पड़ गया कि आगंतुक को चिट भिजवाने की क्या जरूरत थी, वह सीधे अंदर आ सकते थे, आखिर वे मेरे ही समुदाय के, समकक्ष अधिकारी और विभागीय आदमी थे। मैंने चपरासी को उन्हें अंदर भेजने को कहा, परदा हटा और चिट वाले शख्स अंदर आए। उन्हें देख मैं अवाक रह गया, उनकी हालत देख मेरी आँखों को विश्वास नही हो रहा था। आते ही उन्होंने किंचित सकुचाते हुए मुस्कुराने का प्रयास किया और अभिवादन किया। मैंने खड़े होकर जवाब में मिलाने को हाथ बढ़ाया और बैठने को कहा। उन्होंने एक मैली सी शर्ट पहन रखी थी, जिसका कालर उखड़ गया था और एकाध जगह फटी हुई थी। मैंने कहा-

‘‘कैसे हैं? यह क्या हाल बनाकर रखा है? सब ठीक तो है न? कैसे आना हुआ?‘‘

उनकी स्थिति देख अचरज युक्त दया आ रही थी। उन्होंने आंखें नीची करके ही कहा-

‘‘तबीयत ठीक नहीं है साहब, कुछ पैसों की जरूरत थी, क्या मुझे पचास रुपए देंगे?‘‘

उनकी मांग पर मैं आश्चर्य से जड़ हो गया, लेकिन स्वयं को संभालते हुए मैंने कहा-

‘‘वे तो मिल जाएंगे, पर ये तो बताइए अभी आप कहां पदस्थ हैं?‘‘

उन्होंने कहा-

‘‘कुछ मत पूछिए साहब, कभी फुर्सत में बताऊंगा।‘‘

हर कोने से उनकी दयनीयता टपक रही थी। उनके साथ भीतर आने वाला व्यक्ति उनका आटो चालक था जो उनसे अधिक स्मार्ट प्रतीत हो रहा था। मैंने सोचा अब अधिक सवाल जवाब करना उचित नहीं है, यह भी सोचा कि पचास रुपए कैसे दूं अतः मैंने सौ रुपए का नोट बढ़ाया। उन्होंने रुपए प्राप्त किए और धन्यवाद कहते हुए उठे और तेजी से कमरे से बाहर चले गए।

       मैं जड़वत् बैठा उन्हें कमरे से बाहर जाते देखता रहा। मैंने फाइलें एक ओर रख दीं और उस शख्स के विषय में सोचता हुआ अतीत में खो गया। उनको जहां तक मैं जानता था और उनके बारे में जो भी सुना था, वह सब एक-एक करके चलचित्र के समान आंखों के सामने तैरने लगे।

       मन बार-बार पूछ रहा था-‘‘क्या यह वही थे?‘‘ इस दिन से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व हम लोगों ने एक साथ विभाग में ज्वाइनिंग दी थी। उस वर्ष हमारे समुदाय से काफी संख्या में विभाग में युवा चयनित हुए थे और प्रदेश के विभिन्न शहरों में उन्होंने ज्वाइनिंग दी थी। हम चार-पांच लोगों ने संभागीय मुख्यालय में ज्वाइन किया था, जबकि इनकी प्रथम नियुक्ति राजधानी में हुई थी। वह सुडौल, हंसमुख, मिलनसार और गोरा चिट्टा, होशियार नौजवान था। हम लोगों की तुलना में अधिक स्मार्ट और दबंग लगता था। वह महत्वाकांक्षी भी था। देहात के स्कूल में पढ़ा होने के बावजूद अंग्रेजी में उसकी अच्छी पकड़ थी।

       साथ नौकरी के दौरान उसके बचपन की एक घटना ज्ञात हुई थी। हुआ यह कि इत्तेफाक से उसका और पड़ोस के गांव की एक बच्ची का बप्तिस्मा संस्कार एक ही दिन में एक साथ संपन्न हुआ था। उसके पिता और बच्ची के पिता गहरे दोस्त थे। बप्तिस्मा के बाद आपस में बतियाते हंसी मजाक करते लड़की के पिता ने अपनी बच्ची का संबंध दोस्त के इसी बेटे से करने की बात कही लड़के के बाप ने भी उत्साह में और मजाक में हां कर दी। दोनों परिवारों में बहुत आत्मीयता और अंतरंगता पहले से ही थी ।

       समय के साथ दोनों बच्चे बड़े होते गए। मजाक में कही गई बात ने गंभीर रूप धारण किया। दोनों परिवारों के बीच आना-जाना, मेल-मिलाप चलता रहा। अब वे आपस में समधी-समधिन कहकर भी संबोधित करने लगे थे। गांव वाले भी उन दोनों परिवारों के इस समर्पित संबंध को देख अचरज करते थे। कभी-कभी ऐसे रिश्तों के किस्से गांव देहात में देखने-सुनने को मिल जाते हैं।

       दोनों बच्चे बड़े होते गए और समय के साथ उन्हें भी इस बात का अहसास हो गया कि वे एक दूजे के लिए हैं। उस इलाके में उन दोनों के बारे में प्रायः सब जानते थे। वे भी एक मर्यादा के अंतर्गत मिलते-जुलते थे। गिरजे के बाद, बाजार में, सामुदायिक कार्यक्रम में वे दोनों अलग से पहचाने जाते थे। लोग उन दोनों को श्रद्धा की निगाह से देखते थे। मैं उनके व्यक्तित्व या सुंदरता के बारे में डिटेल में नहीं जा रहा हूं, परन्तु इतना अवश्य है कि कुंडुख समाज के हिसाब से उनका व्यक्तित्व औसत से कुछ हटकर था।

       दोनों ने हाई स्कूल की परीक्षा पास की। लड़का कॉलेज के लिए बड़े शहर में गया और अंततः प्रदेश की राजधानी पहुंच गया। लड़की पारिवारिक स्थिति के कारण आगे पढ़ नहीं पाई और उसने रोजगार योग्य प्रशिक्षण में ध्यान केन्द्रित करना उचित समझा। अब अलग-अलग रहने पर भी नियमित रूप से पत्राचार होता था, उनके प्यार में किसी प्रकार की कोई आंच नहीं आई।

       डिग्री हासिल करने के बाद लड़के ने राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा दी और कुछ दिनों के लिए आराम करने घर आ गया। उसे स्वयं पर इतना भरोसा था कि वह परीक्षा में पास हो ही जाएगा अतः वह निशि्ंचत होकर गांव की जिंदगी में आनन्द लेने लगा। दोनों नियमित रूप से मिलते, साथ में चर्च जाते, बाजार जाते, कभी नदी तट की सैर पर तो कभी जंगल की सैर पर निकल जाते थे। लड़की को सरई के पेड़ और कोरोया फूल बहुत पसंद थे। लड़के ने हास्टल के साथियों से कह रखा था कि वे उसे रिजल्ट की जानकारी शीघ्र भेजें। पूरे हास्टल में उसका दबदबा था, अतः यह कोई समस्या नहीं थी।

       देखते ही देखते दो-चार महीने कैसे निकल गए इसका पता ही नहीं चला। गर्मी का मौसम आ गया था। सचमुच जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा हो और प्यार के कोमल झकोरे मिलते रहें, तो समय के निकलने का कोई पता नहीं चलता है। एक-एक पल तब पहाड़ सा लगता है जब समय खराब चल रहा होता है।

       आखिर जिस चीज का इंतजार था वह आ ही गई। एक दिन लड़के को टेलीग्राम मिला जिसमें उसके परीक्षा में उत्तीर्ण होने की खबर थी और दो-चार माह के दरम्यान साक्षात्कार होने की संभावना व्यक्त की गई थी। उसने यह अच्छी खबर अपनी गर्ल फ्रेन्ड को दी। वह बड़ी प्रसन्न हुई। उसने उसकी सफलता के लिए बधाई दी और साक्षात्कार में सफलता के लिए अग्रिम शुभकामनाएं दीं। वह खुशी से झूम उठी थी।

       देखते ही देखते छुट्टी के दिन बीत गए और लौटने का दिन निकट आ गया। इस बीच वे बराबर साथ-साथ घूमते रहे। गांव के आस-पास जंगल थे। गर्मी का मौसम होते हुए भी सरई के पेड़ नए एवं कोमल पत्तों से लदे थे और कोरोया फूल खिलकर खुलकर झूम रहे थे। कोरोया की यही विशेषता है कि वह गर्मी के मौसम में खिलता है और उसकी मादक खुशबू से सारा जंगल और आस-पास का इलाका महकता है। वे दोनों नदी तट पर सैर को जाते और किसी चट्टान पर बैठकर जंगल से आने वाली कोरोया फूल की खुशबू का आनन्द लेते थे।

       उन दिनों में उस इलाके में आवागमन के सीमित साधन थे। सड़कें कच्ची थीं और शाम सबेरे इक्का-दुक्का बसें ही चलती थीं जो यात्रियों से ठसाठस भरी रहती थीं। जाने के दिन वे सड़क के किनारे के जामुन पेड़ की छांव में बैठे बस का इंतजार कर रहे थे। बस के आने में अभी देर थी। उस आस-पास कोरोया फूल का समूह झूम रहा था। लड़के ने गर्ल फ्रेन्ड को कोरोया फूल का एक गुच्छा थमाया और कहा-

‘‘इसी कोरोया फूल की तरह महकती रहना।‘‘

उसने उसकी वेणी में भी कुछ फूल खोंस दिए। लड़की ने भी कोरोया फूल का गुच्छा उसे देते हुए कहा-

‘‘कोरोया फूल की महक याद रखना। सोचना यह मेरी ही महक है, जो तेरे आंगन में महकेगी। तुम इस फूल की विशेषता जानते हो न? यह सूखे में खिलता है। यह रेतीली-पथरीली जमीन पर बढ़ता है; इसके लिए न खाद, न पानी, न दवा की जरूरत होती है। झुलसाने वाली गरमी में भी यह हरे पत्तों को ओढ़े खिलकर इठलाता है। तुम शहर जा रहे हो, वहां तो गुलाब और तरह-तरह के फूल मिलते हैं। सुना है शहरी बालाएं तुम जैसे होनहार को अपने प्रेम जाल में फंसाने में माहिर होती है। याद रखना वे गमले के गुलाब के फूल हैं, जिन्हें नियमित रूप से खाद-पानी और दवा की जरूरत होती है। इनके अभाव में गुलाब के पौधे, फूल सूख जाते हैं जबकि कोरोया फूल के इन सब चीजों की जरूरत नहीं होती है। तुम समझ रहे हो न मेरी बात को ? बाह्य चकाचौंध के चक्कर में न पड़ना। कोरोया फूल की खुशबू तेरे जेहन में बनी रहे और मेरी याद दिलाती रहे। पत्र लिखना। मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी।‘‘

उसे सांत्वना देते हुए उसने कहा-

‘‘दिल छोटा न करो, चिन्ता न करना, मैं तुम्हें सदा प्यार से याद करता रहूंगा, दिल में कोई अन्यथा भाव न पालना।‘‘

इतने में गाड़ी आ गई। वह उससे अंतिम बार मिला और बैग लेकर बस में सवार हुआ। बस के दरवाजे पर खड़ा अपनी दोस्त को देख हाथ हिला रहा था। गाड़ी आगे बढ़ी। धूल का गुबार उड़ा और उसका धुंधला सा चेहरा और हाथ दिखाते बस जंगल के घुमावदार घाटी रास्ते से होते हुए ओझल हो गई।

       धूल गुबार के मध्य अपने दोस्त की जो धुंधली सी अंतिम झलक देखी थी वह उसके लिए उसकी अंतिम झलक थी। गांव की छोरी अनमनी सी उदास मन लिए अपने घर लौटी। वह अपने प्रियतम के लिए खैर मनाती थी। उसे अब किसी काम में मन नहीं लगता था। उसे एक अज्ञात भय सताने लगा था कि उसके प्यार पर किसी ने डाका डाल दिया और अपने पिया को छीन लिया तो!! इस सोच से ही वह सिहर उठती थी। उसकी नौकरी के बाद किसी शहरी छोरी ने उसे मोह लिया तो!! वह रह रहकर कांप उठती थी। वह कोरोया फूल जिसे प्रियतम ने उसकी वेणी में लगा दिया था उसे उसने अपने प्रभु की तस्वीर के पास रख दिया था और उसकी महक और प्रियतम को याद करती हुई उसकी सलामती के लिए दुआ करती थी।

       शहर पहुंचते ही प्रियतम ने उसे पत्र लिखा जिसमें प्रेम के उद्गारों को प्रदर्शित करते हुए पूरे दिल को उड़ेल  दिया था। डाकिए ने उसे खत पहुंचाया। लिखावट देखकर ही वह उछल पड़ी। उसने उस खत को बार-बार पढ़ा और उसे एक विशेष स्थान पर रख दिया। जब भी समय मिलता वह उसे पढ़ती और मन ही मन प्रसन्न होती। वह संतुष्ट थी कि पिया उसे भूला नहीं था। दिन बीतते गए-पत्राचार होता रहा-प्रेम का पौधा लहलहाता गया। वह दिवास्वप्न देखती और कल्पना में खो जाती

       जुलाई माह पहुंचते साक्षात्कार संपन्न हुआ। हम सबका साक्षात्कार लगभग एक ही अवधि में हुआ। चयन सूची में हम सबका नाम आ गया और दिसम्बर माह में नियुक्ति पत्र भी मिल गया। संदर्भित साथी ने उसी शहर में ज्वाइनिंग दी-बाकी ने राज्य के अन्य शहरों में और हम चार-पांच ने संभागीय मुख्यालय में ज्वाइनिंग दी। जीवन का एक नया अनुभव एक नया अध्याय था। हमारी ज्वाइनिंग के बाद सवर्ण सीनियर तो मुंह बनाने लगे। कुछ अपने समुदाय के भी थे, पर उनमें अधिक दम नहीं था। इसके ठीक उलट बड़े शहर में नियुक्त साथी किस्मतवाला था। उनके सीनियरों ने उसे भरपूर सहयोग दिया और उसे विभागीय बारीकियों से परिचित कराने में कोई विलंब नहीं किया। वह उनका चहेता बन गया। उसका व्यक्तित्व ही मोहक था। छ-आठ महीने के अंदर ही उन्होंने उसके लिए मोटर सायकिल दिलवा दिया और उसे स्वतंत्र प्रभार भी दिला दिया। सीनियरों के सहयोग से उसके कार्य क्षेत्र में उसका रुतबा और दबदबा हो गया। उसका जलवा सबके सामने दिखाई देने लगा। उसके पहरावे और बात-व्यवहार में परिवर्तन साफ झलकने लगा। दोस्त उसके चारों ओर मंडराने लगे। आए दिन छोटी-मोटी पार्टी होती रहती जिसका खर्च अधिकांशतः वही उठाता। बड़े जलवे थे उसके। चर्च में भी वह अलग ही नजर आता। कुछ परिवार वाले बड़े अधिकारी उसमें रूचि लेने लगे और उसे घर पर आने को भी कहने लगे। वे मन ही मन उसे दामाद बनाने के चक्कर में थे, क्योंकि वह लम्बी रेस का घोड़ा दिखाई दे रहा था। आला अफसर अपनी पुत्रियों के लिए उसे एक उपयुक्त उम्मीदवार के रूप में देख रहे थे।

       शहरी चकाचौंध और विभागीय जलवे ने उसे किंचित दिग्भ्रमित कर दिया। वह गांव जंगल नदी तट के स्वच्छ स्वस्थ वातावरण को भूलने लगा। लवेंडर, वाइल्ड स्टोन और नाना प्रकार के कृत्रिम इत्र फुलेल की खुशबू में वह कोरोया फूल की महक को भूलता गया। कृत्रिम खुशबू की मादकता में वह बहकता जा रहा था। अब गांव की छोरी को वह भूल ही गया था। अब न उसे खत ही लिखता और न उसे याद ही करता था। उस छोरी के खत आते, परंतु उसे रद्दी में डाल देता और उसका जवाब भी नहीं देता था। उसका फोटो भी गायब हो चुका था। शहरी तितलियों के बीच और गुलाबी कलियों की संगति के बीच कोरोया फूल की क्या बिसात थी।

       उस जमाने में पत्राचार ही संपर्क का एक मात्र साधन था। पिया के खत के आने में विलंब होने अथवा पत्र प्राप्त न होने से गांव की छोरी व्याकुल रहने लगी। पुराने पत्रों को पढ़-पढ़कर आत्मसंतोष करती थी। जब भी डाकिया मिलता उससे पत्र के बारे में जरूर पूछती। उसके न कहने पर वह बार-बार कहती कि वह ध्यान से देखे कहीं पत्रों के बंडल में न दब गया हो। बेचारा डाकिया करे भी तो क्या करे उसे प्रेम से समझाता कि पत्र आने पर वह सर्वप्रथम उसी की चिट्ठी उसे बांटेगा। अपनी सखियों से दिल का दुखड़ा सुनाती पर वे भी क्या कहतीं। किसी ने सलाह दी कि ऐसे घुलने के बजाए वह एक बार स्वयं शहर जाकर देख ले कि वास्तविक स्थिति क्या है। अब विधिवत शादी की उम्र भी हो गई थी।

       अपनी बेटी की दशा देख उसका बाप भी परेशान था। उधर लड़के का बाप अपने बेटे की खामोशी से हलकान हो गया था। दोनों परिवार अजीब सी उलझन में थे। आखिर लड़की ने स्वयं शहर जाकर वास्तविकता को देख आने का मन बना लिया और एक दिन वह शहर के लिए निकल पड़ी सौभाग्य से कुछ परिचित उसे मिल गए और उनके यहां रुककर पिया से मिलने की जिद करने लगी। उसके शहर आने की भनक लड़के को मिली। उसने यह बात फैला दी कि वह सप्ताह भर के दौरे पर बाहर है। सप्ताह भर शहर में रुकना लड़की के लिए संभव नहीं था, अतः वह खाली हाथ और खाली मन उसकी याद को संजोए हुए लौट गई।

       उसके मां-बाप ने, सखियों ने उसे समझाया कि जो हुआ उसे भुला दे और यह पागलपन छोड़कर अपने लिए नया रास्ता देखे। उन्होंने उसे समझाया कि उसे शहरी हवा लग गई है और वह उसके हाथ से निकल चुका है अतः उसे भूलने में ही कल्याण है। उसे कुछ-कुछ समझ में आ रहा था। उसे भूल जाने में काफी तकलीफ हो रही थी, आखिर ये दिल का मामला जो था; जीवन में एक रिक्तता आ गई थी और एक कड़वाहट सी भर गई थी। इतना होने पर भी मन के एक कोने में उसकी वापसी की नन्ही सी आशा पल रही थी। वह मन ही मन बुदबुदाती-‘‘यदि तुमने मुझे धोखा दिया है तो तुम भी धोखा खाओगे; कोरोया फूल का तिरस्कार महंगा पड़ेगा।‘‘ लड़की समझदार थी अतः वह अपने जीवन को नया मोड़ देने में लग गई।

       उधर यह साहब अपनी नई रंगीन दुनिया में मस्त था। देखते ही देखते साल दो साल का समय निकल गया। उसके कुछ सीनियर सहयोगी ट्रांसफर में हमारे शहर में आ गए थे। वरिष्ठ अफसरों से मिलने हेतु वे हमारे दफ्तर भी आए। उन्होंने हमसे बातें भी कीं। बातों ही बातों में उन्होंने हमसे पूछा-

‘‘क्यों स्कूटर या मोटर सायकिल ले लिया कि नहीं?‘‘

हमारे जवाब देने के पहले ही हमारे एक कायस्थ सीनियर बोल पड़े-

‘‘अरे, साहब! इनसे सायकिल ही मेन्टेन हो जाए तो गनीमत है।‘‘

यह सुनकर ट्रांसफर में आए सीनियर ने कहा-

‘‘यार! क्या कर रहे हो तुम लोग? हमारे साथ का जूनियर जो तुम्हारे ही तरफ (जशपुर) का है मोटर सायकिल में उड़ रहा है। उसने अपने एरिया में अच्छा रुतबा बनाया हुआ है।‘‘

ऐसे ही नोक-झोंक चलती रही-पुराने लोगों की बातचीत के टापिक में हम ही लोग टारगेट थे। हम यों ही सुने जा रहे थे।

       थोड़े दिनों के बाद यही लड़का हमारे मुख्यालय अपने सीनियरों से मिलने आया। उसे देखते ही लगा कि सीनियर ने उसके बारे में जो बताया था उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं थी। उसका हर अंदाज अलग था। हम लोग स्वयं उसके सामने अपने को हीन समझ रहे थे। वह कुछ मोटा और अधिक गोरा लग रहा था। चेहरे से आत्मविश्वास टपक रहा था। उसे देख हमारे सीनियर भी उसकी तारीफ कर रहे थे और कह रहे थे-

‘‘एक दिन बड़ा दबंग अफसर बनेगा। नौकरी ऐसी ही की जाती है।‘‘

ऐसा कहते उसने एक तिरस्कारपूर्ण दृष्टि हम पर डाली। अगले दिन वह अपने शहर लौट गया पर कई दिनों तक वह तारीफ का पात्र और चर्चा का विषय बना रहा। सीनियर हमें सायकिल पर देख व्यंग्य से कहते-

‘‘कर लिए नौकरी।‘‘

       तमाम उठा-पटक के बाद एक बड़े अधिकारी ने आखिर उसे लपेट लिया और अपना दामाद बनने हेतु-मना लिया। गोरी चिट्टी मक्खन जैसी मेम को पाकर वह गदगद हो गया तथा कमाऊ और दबंग दामाद पाकर लड़की के माता-पिता भी फूले नहीं समा रहे थे।

शहरी ताम-झाम के साथ शादी सम्पन्न हो गई और समय प्यार-मुहब्बत से भीगे स्निग्ध झकोरों के साथ पंख लगा कर उड़ता चला गया। सब कुछ गुलाबी था। उसका घर संसार एक चहक एवं महक से भरपूर था। उसका विभागीय जलवा और ऊपर से ससुर का रुतबा सब कुछ अनुकूल चल रहा था। उसे जैसे अलादीन का चिराग हाथ लग गया था। हर वांछित चीज की आपूर्ति कहते साथ हो जाती थी। घर आंगन बच्चों की किलकारी और समृद्धि से गुलजार थे।

       समय बलवान और परिवर्तनशील होता है। ससुर सेवा-निवृत्त हो गया और स्वयं इसका भी तबादला कम मलाईदार जगह में हो गया। थोड़ी कड़की होने लगी। मांग यथावत बनी थी। आवक पर डाट लग गया। पहले की तरह मांग की पूर्ति नहीं हो पा रही थी। पगार से घर संचालन एवं मांग की पूर्ति संभव नहीं होता। खर्चे बढ़ गए थे। पत्नी के नखरे भी बढ़ गए थे। शुरू में तो जैसे-तैसे थोड़ी देर से ही सही मांग पूर्ति हो जाती थी। पर अब वह भी संभव नहीं था। नौकरी में कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना और नहीं तो वह भी मना वाली स्थिति बनती रहती है। अब जहां प्रेम से सने प्रेम-पूर्ण बातों का आदान प्रदान होता था वहां अब कड़वाहट से भीगे व्यंग्य वाणों की बौछार होने लगी। जहां रंगीनी थी, वहां वीरानी छाने लगी। घर का माहौल बदलने लगा। जो घर उसे खींच लेता था, वह अब उसे काटने दौड़ता था। ससुराल पक्ष भी अब उससे उम्मीद करने लगा था। पत्नी की मांग पूरी नहीं हो पा रही थी तो ससुराल वालों की मांग कहां से और कैसे पूरी करे। धीरे-धीरे वह कर्जदार हो गया। चिन्ताओं ने उसे ऐसा घेरा कि उसका कुंदन सा शरीर अब मलीन हो गया। यार दोस्त जो कभी उसको घेरे रहते थे अब उससे कन्नी काटने लगे। वह अब घर के बाहर ही शांति ढूंढ़ने लगा। उसे गांव की छोरी की बात याद आ रही थी, पर अब तो समय निकल चुका था। अब बहुत देर हो चुकी थी। अंग्रेजी शराब खरीदने के लिए अब दम नहीं रह गया था, अतः गम भुलाने के लिए कच्ची-पक्की जो मिली पी लेता था और क्षण भर के लिए सुकून का अनुभव करता था। अब उसके साथी ठेला रिक्शा वाले हो गए जिनके साथ शाम बीतती थी। वह कभी दफ्तर जाता कभी हफ्तों गायब रहता जिससे उसकी शासकीय सेवा भी प्रभावित होने लगी। ले-देकर काम चल रहा था पर पहले का जलवा समाप्त हो चुका था। न उसके पहनने-ओढ़ने का ठिकाना न खाने-पीने का। उसका दमकता शरीर अब कुम्हला गया था। उसे पहचान पाना भी कठिन था। उसके साथी ऑटो चालक उससे अधिक स्मार्ट लगते थे। समय अपनी रफ्तार से चल रहा था। देखते ही देखते शासकीय सेवा का दो तिहाई समय व्यतीत हो चुका था और कुछ सीनियर साथी सेवा निवृति के कगार पर थे; कुछ सेवा निवृत्त हो चुके थे। तब मेरा ट्रांसफर राजधानी में हो गया था।

       उसके वे पुराने प्रशंसक सीनियर साथी अब सेवा निवृत्त होकर उसी शहर में बस गए थे। एक दिन प्रातः भ्रमण के दौरान उनसे भेंट हुई। कुछ देर इधर- उधर की बातें हुईं। मेरे बारे में उन्होंने काफी पूछा। वे स्वयं अपने चेले के बारे वे बोलने लगे-

‘‘अरे यार! हमारा चेला तो बर्बाद हो गया। कहां तो उसे लंबी रेस का घोड़ा मानते थे, वह तो औंधे मुंह गिर पड़ा। अन्य समाज की लड़की से शादी कर उसने बहुत बड़ी गलती कर दी। अपने ही समाज के लड़की से शादी की होती तो शायद ऐसी नौबत नहीं आती। अब तो पचास-पचास रुपए मांगता फिरता है आपके पास भी आया होगा?‘‘

मैंने  कहा-‘‘हां एक बार आया था।‘‘

वे बोले-‘‘अब तो भगवान ही मालिक है-तुम लोग ने बहुत ताने सहे पर धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए और आज अपनी स्थिति पुख्ता कर लिए हो, चलो अच्छा है‘‘-और वे आगे बढ़ गए।

       सारा इतिहास आँखों के सामने तैर गया। सौ रुपए का नोट जेब में डालते हुए फुर्ती के साथ कमरे से बाहर जाते उसे मैं देख रहा था। उस पैसे से इस शाम कंठ तर करने के लिए शराब की व्यवस्था हो गई थी। मैं सोचने लगा-‘‘गांव की छोरी जीवन की हर परिस्थिति से, अमीरी-गरीबी, प्रचुरता-अभाव के दौर से गुजर चुकी होती है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी संतुलन बनाए रखती और अपने पति को ढाढ़स देती। गांव की लड़की ने ठीक ही तो कहा था कि कोरोया फूल रेतीली, पथरीली जमीन में भी बढ़ता खिलता और सुगंध बिखेरता है; भीषण गर्मी में भी वह हरे पत्तों से लदकर फूलों की खुशबू फैलाता है; उसे खाद-पानी दवा की जरूरत नहीं होती। उसने इसे अपना निश्छल प्रेम दिया था जिसे ठुकरा देने पर उसकी आह निकल गई थी। आह दिल की गहराई से निकली थी जिसने उसके भूतपूर्व पिया को झुलसा कर तबाह कर दिया। कोरोया फूल को लात मारकर गुलाब की कली के पीछे भागा और तबाह हो गया। अब वह उसकी खुशबू भी भूल गया और उलटे गुलाब के कांटों ने उसे कहीं का नहीं रखा था। कोरोया फूल (गांव की लड़की) यदि आंगन में लगाया होता तो आज घर-आंगन गर्मी में (अभाव में) भी महकता रहता। इन्हीं बातों में मैं खोया रहा। चपरासी ने बताया कि दफ्तर बंद करने का समय हो गया है। मैं फाइलें समेटने लगा, अपनी कोरोया फूल, अपने परिवार के पास जाने के लिए। उस दिन की नौकरी हो गई थी। वहां का कार्यकाल समाप्त हो गया था परंतु न उनसे दुबारा मिल सका और न उनके बारे में और जान सका। अब कोरोया फूल मेरा भी पसंदीदा फूल था, था तो पहले भी लेकिन अब इस फूल की इज्जत मेरी नज़रों में बढ़ चुकी थी ।

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राशीद शेख

बहुत ही अच्छी कहानी

विक्की

सहमत

विक्की

दिल छूने वाली कहानी आज दो बार मन भर गया मेरा दो प्रेम कहानी
पढ़ा और दोनों अधूरा

राजीव कुमार

कोरोया फूल की कहानी आज के युवाओं को FOOL बनने से बचाने का कार्य करेगी। कहानी में सजीवता है और सुंदर लेखनी है। प्रारम्भ से अंत तक सब बड़िहा है।

रोचक कहानी। कई बार चीजों का महत्व उनके खो जाने के बाद समझ आता है।

Veekesh Agrawal

कोरोया फूल, बहुत सुंदर आलेख है। मन को द्रवित कर गया। शायद मेरे कोरोया फूल की याद में। धन्यबाद

Athanase Kispotta

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