चंद्रकांता -देवकीनंदन खत्री-अध्याय -4-आखिरी भाग ( सिद्धनाथ की चाल )
बयान – 13
खोह वाले तिलिस्म के अंदर बाग में कुँवर वीरेंद्रसिंह और योगी जी मे बातचीत होने लगी जिसे वनकन्या और इनके ऐयार बखूबी सुन रहे थे।
कुमार – ‘पहले यह कहिए चंद्रकांता जीती है या मर गई?’
योगी – ‘राम-राम, चंद्रकांता को कोई मार सकता है? वह बहुत अच्छी तरह से इस दुनिया में मौजूद है।’
कुमार – ‘क्या उससे और मुझसे फिर मुलाकात होगी?’
योगी – ‘जरूर होगी।’
कुमार – ‘कब?’
योगी – (वनकन्या की तरफ इशारा करके) – ‘जब यह चाहेगी।’
इतना सुन कुमार वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त उसकी अजीब हालत थी। बदन में घड़ी-घड़ी कँपकँपी हो रही थी, घबराई-सी नजर पड़ती थी। उसकी ऐसी गति देख कर एक दफा योगी ने अपनी कड़ी और तिरछी निगाह उस पर डाली, जिसे देखते ही वह सँभल गई। कुँवर वीरेंद्रसिंह ने भी इसे अच्छी तरह से देखा और फिर कहा –
कुमार – ‘अगर आपकी कृपा होगी तो मैं चंद्रकांता से अवश्य मिल सकूँगा।’
योगी – ‘नहीं यह काम बिल्कुल (वनकन्या को दिखा कर) इसी के हाथ में है, मगर यह मेरे हुक्म में है, अस्तु आप घबराते क्यों हैं। और जो-जो बातें आपको पूछनी हो पूछ लीजिए, फिर चंद्रकांता से मिलने की तरकीब भी बता दी जाएगी।’
कुमार – ‘अच्छा यह बताइए कि यह वनकन्या कौन है?’
योगी – ‘यह एक राजा की लड़की है।’
कुमार – ‘मुझ पर इसने बहुत उपकार किए, इसका क्या सबब है?’
योगी – इसका यही सबब है कि कुमारी चंद्रकांता में और इसमें बहुत प्रेम है।’
कुमार – ‘अगर ऐसा है तो मुझसे शादी क्यों किया चाहती है?’
योगी – ‘तुम्हारे साथ शादी करने की इसको कोई जरूरत नहीं और न यह तुमको चाहती ही है। केवल चंद्रकांता की जिद्द से लाचार है, क्योंकि उसको यही मंजूर है।’
योगी की आखिरी बात सुन कर कुमार मन में बहुत खुश हुए और फिर योगी से बोले – ‘जब चंद्रकांता में और इनमे इतनी मुहब्बत है तो यह उसे मेरे सामने क्यों नहीं लातीं?’
योगी – ‘अभी उसका समय नहीं है।’
कुमार – ‘क्यो’
योगी – ‘जब राजा सुरेंद्रसिंह और जयसिंह को आप यहाँ लाएँगे, तब यह कुमारी चंद्रकांता को ला कर उनके हवाले कर देगी।’
कुमार – ‘तो मैं अभी यहाँ से जाता हूँ, जहाँ तक होगा उन दोनों को ले कर बहुत जल्द आऊँगा।’
योगी – ‘मगर पहले हमारी एक बात का जवाब दे लो।’
कुमार – ‘वह क्या?’
योगी – (वनकन्या की तरफ इशारा करके) ‘इस लड़की ने तुम्हारी बहुत मदद की है और तुमने तथा तुम्हारे ऐयारों ने इसे देखा भी है। इसका हाल और कौन-कौन जानता है और तुम्हारे ऐयारों के सिवाय इसे और किस-किस ने देखा है?’
कुमार – ‘मेरे और फतहसिंह के सिवाय इन्हें आज तक किसी ने नहीं देखा। आज ये ऐयार लोग इनको देख रहे हैं।’
वनकन्या – ‘एक दफा ये (तेजसिंह की तरफ बता कर) मुझसे मिल गए हैं, मगर शायद वह हाल इन्होंने आपसे न कहा हो, क्योंकि मैंने कसम दे दी थी।’
यह सुन कर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा। उन्होंने कहा – ‘जी हाँ, यह उस वक्त की बात है, जब आपने मुझसे कहा था कि आजकल तुम लोगों की ऐयारी में उल्ली लग गई है। तब मैंने कोशिश करके इनसे मुलाकात की और कहा कि अपना पूरा हाल मुझसे जब तक न कहेंगी मैं न मानूँगा और आपका पीछा न छोडूँगा। तब इन्होंने कहा – “एक दिन वह आएगा कि चंद्रकांता और मै, कुमार की कहलाएँगी मगर इस वक्त तुम मेरा पीछा मत करो नहीं तो तुम्हीं लोगों के काम का हर्ज होगा।” तब मैंने कहा – “अगर आप इस बात की कसम खाएँ कि चंद्रकांता, कुमार को मिलेंगी तो इस वक्त मैं यहाँ से चला जाऊँ।” इन्होंने कहा – “तुम भी इस बात की कसम खाओ कि आज का हाल तब तक किसी से न कहोगे जब तक मेरा और कुमार का सामना न हो जाए।” आखिर इस बात की हम दोनों ने कसम खाई। यही सबब है कि पूछने पर भी मैंने यह सब हाल किसी से नहीं कहा, आज इनका और आपका पूरी तौर से सामना हो गया इसलिए कहता हूँ।’
योगी – (कुमार से) ‘अच्छा तो इस लड़की को सिवाय तुम्हारे तथा ऐयारों के और किसी ने नहीं देखा, मगर इसका हाल तो तुम्हारे लश्कर वाले जानते होंगे कि आजकल कोई नई औरत आई है जो कुमार की मदद कर रही है?’
कुमार – ‘नहीं, यह हाल भी किसी को मालूम नहीं, क्योंकि सिवाय ऐयारों के मैं और किसी से इनका हाल कहता ही न था और ऐयार लोग, सिवाय अपनी मंडली के दूसरे को किसी बात का पता क्यों देने लगे। हाँ, इनके नकाबपोश सवारों को हमारे लश्कर वालों ने कई दफा देखा है और इनका खत ले कर भी जब-जब कोई हमारे पास गया तब हमारे लश्कर वालों ने देख कर शायद कुछ समझा हो।’
योगी – ‘इसका कोई हर्ज नहीं, अच्छा यह बताओ कि तुम्हारी जुबानी राजा सुरेंद्रसिंह और जयसिंह ने भी कुछ इसका हाल सुना है?’
कुमार – ‘उन्होंने तो नहीं सुना हाँ, तेजसिंह के पिता जीतसिंह जी से मैंने सब हाल जरूर कह दिया था, शायद उन्होंने मेरे पिता से कहा हो।’
योगी – ‘नहीं, जीतसिंह यह सब हाल तुम्हारे पिता से कभी न कहेंगे। मगर अब तुम इस बात का खूब ख्याल रखो कि वनकन्या ने जो-जो काम तुम्हारे साथ किए हैं, उनका हाल किसी को न मालूम हो।’
कुमार – ‘मैं कभी न कहूँगा, मगर आप यह तो बताएँ कि इनका हाल किसी से न कहने में क्या फायदा सोचा है? अगर मैं किसी से कहूँगा तो इसमें इनकी तारीफ ही होगी।’
योगी – ‘तुम लोगों के बीच में चाहे इसकी तारीफ हो मगर जब यह हाल इसके माँ-बाप सुनेंगे तो उन्हें कितना रंज होगा? क्योंकि एक बड़े घर की लड़की का पराए मर्द से मिलना और पत्र-व्यवहार करना तथा ब्याह का संदेश देना इत्यादि कितने ऐब की बात है।’
कुमार – ‘हाँ, यह तो ठीक है। अच्छा, इनके माँ-बाप कौन हैं और कहाँ रहते हैं।’
योगी – ‘इसका हाल भी तुमको तब मालूम होगा जब राजा सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह यहाँ आएँगे और कुमारी चंद्रकांता उनके हवाले कर दी जाएगी।’
कुमार – ‘तो आप मुझे हुक्म दीजिए कि मैं इसी वक्त उन लोगों को लाने के लिए यहाँ से चला जाऊँ।’
योगी – ‘यहाँ से जाने का भला यह कौन-सा वक्त है। क्या शहर का मामला है? रात-भर ठहर जाओ, सुबह को जाना, रात भी अब थोड़ी ही रह गई है, कुछ आराम कर लो।’
कुमार – ‘जैसी आपकी मर्जी।’
गर्मी बहुत थी इस वजह से उसी मैदान में कुमार ने सोना पसंद किया। इन सभी के सोने का इंतजाम योगी जी के हुक्म से उसी वक्त कर दिया गया। इसके बाद योगी जी अपने कमरे की तरफ रवाना हुए और वनकन्या भी एक तरफ को चली गई।
थोड़ी-सी रात बाकी थी, वह भी उन लोगों को बातचीत करते बीत गई। अभी सूरज नहीं निकला था कि योगी जी अकेले फिर कुमार के पास आ मौजूद हुए और बोले – ‘मैं रात को एक बात कहना भूल गया था सो इस वक्त समझा देता हूँ। जब राजा जयसिंह इस खोह में आने के लिए तैयार हो जाएँ बल्कि तुम्हारे पिता और जयसिंह दोनों मिल कर इस खोह के दरवाजे तक आ जाएँ, तब पहले तुम उन लोगों को बाहर ही छोड़ कर अपने ऐयारों के साथ यहाँ आ कर हमसे मिल जाना, इसके बाद उन लोगों को यहाँ लाना, और इस वक्त स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर तब यहाँ से जाओ।’
कुमार ने ऐसा ही किया, मगर योगी की आखिरी बात से इनको और भी ताज्जुब हुआ कि हमें पहले क्यों बुलाया।
कुछ खाने का सामान हो गया। कुमार और उनके ऐयारों को खिला-पिला कर योगी ने विदा कर दिया।
दोहरा कर लिखने की कोई जरूरत नहीं, खोह में घूमते-फिरते कुँवर वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयार जिस तरह इस बाग तक आए थे, उसी तरह इस बाग से दूसरे और दूसरे से तीसरे में होते सब लोग खोह के बाहर हुए और एक घने पेड़ के नीचे सबों को बैठा, देवीसिंह कुमार के लिए घोड़ा लाने नौगढ़ चले गए।
थोड़ा दिन बाकी था जब देवीसिंह घोड़ा ले कर कुमार के पास पहुँचे, जिस पर सवार हो कर कुँवर वीरेंद्रसिंह अपने ऐयारों के साथ नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।
नौगढ़ पहुँच कर अपने पिता से मुलाकात की और महल में जा कर अपनी माता से मिले। अपना कुल हाल किसी से नहीं कहा, हाँ, पन्नालाल वगैरह की जुबानी इतना हाल इनको मिला कि कोई जालिम खाँ इन लोगों का दुश्मन पैदा हुआ है जिसने विजयगढ़ में कई खून किए हैं और वहाँ की रियाया उसके नाम से काँप रही है, पंडित बद्रीनाथ उसको गिरफ्तार करने गए हैं, उनके जाने के बाद यह भी खबर मिली है कि एक आफत खाँ नामी दूसरा शख्स पैदा हुआ है जिसने इस बात का इश्तिहार दे दिया है कि फलाने रोज बद्रीनाथ का सिर ले कर महल में पहुँचूंगा, देखूँ मुझे कौन गिरफ्तार करता है।
इन सब खबरों को सुन कर कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी बहुत घबराए और सोचने लगे कि जिस तरह हो विजयगढ़ पहुँचना चाहिए क्योंकि अगर ऐसे वक्त में वहाँ पहुँच कर महाराज जयसिंह की मदद न करेंगे और उन शैतानों के हाथ से वहाँ की रियाया को न बचाएँगे तो कुमारी चंद्रकांता को हमेशा के लिए ताना मारने की जगह मिल जाएगी और हम उसके सामने मुँह दिखाने लायक भी न रहेंगे।
इसके बाद यह भी मालूम हुआ कि जीतसिंह पंद्रह दिनों की छुट्टी ले कर कहीं गए हैं। इस खबर ने तेजसिंह को परेशान कर दिया। वह इस सोच में पड़ गए कि उनके पिता कहाँ गए, क्योंकि उनकी बिरादरी में कहीं कुछ काम न था जहाँ जाते, तब इस बहाने से छुट्टी ले कर क्यों गए?
तेजसिंह ने अपने घर में जा कर अपनी माँ से पूछा – ‘हमारे पिता कहाँ गए हैं?’ जिसके जवाब में उस बेचारी ने कहा – ‘बेटा, क्या ऐयारों के घर की औरतें इस लायक होती हैं कि उनके मालिक अपना ठीक-ठीक हाल उनसे कहा करें।’
इतना ही सुन कर तेजसिंह चुप हो गए। दूसरे दिन राजा सुरेंद्रसिंह के पूछने पर तेजसिंह ने इतना कहा – ‘हम लोग कुमारी चंद्रकांता को खोजने के लिए खोह में गए थे, वहाँ एक योगी से मुलाकात हुई जिसने कहा कि अगर महाराज सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह को ले कर यहाँ आओ तो मैं चंद्रकांता को बुला कर उसके बाप के हवाले कर दूँ। इसी सबब से हम लोग आपको और महाराज जयसिंह को लेने आए हैं।’
राजा सुरेंद्रसिंह ने खुश हो कर कहा – ‘हम तो अभी चलने को तैयार हैं मगर महाराज जयसिंह तो ऐसी आफत में फँस गए हैं कि कुछ कह नहीं सकते। पंडित बद्रीनाथ यहाँ से गए हैं, देखें क्या होता है। तुमने तो वहाँ का हाल सुना ही होगा।’
तेजसिंह – ‘मैं सब हाल सुन चुका हूँ, हम लोगों को वहाँ पहुँच कर मदद करना मुनासिब है।’
सुरेंद्रसिंह – ‘मैं खुद यह कहने को था। कुमार की क्या राय है, वे जाएँगे या नहीं?’
तेजसिंह – ‘आप खुद जानते हैं कि कुमार काल से भी डरने वाले नहीं, वह जालिम खाँ क्या चीज है।’
राजा – ‘ठीक है, मगर किसी वीर पुरुष का मुकाबला करना हम लोगों का धर्म है और चोर तथा डाकुओं या ऐयारों का मुकाबला करना तुम लोगों का काम है, क्या जाने वह छिप कर कहीं कुमार ही पर घात कर बैठे।’
तेजसिंह – ‘वीरों और बहादुरों से लड़ना कुमार का काम है सही, मगर दुष्ट, चोर-डाकू या और किसी को भी क्या मजाल है कि हम लोगों के रहते कुमार का बाल भी बाँका कर जाए।’
राजा – ‘हम तो नाम के आगे जान कोई चीज नहीं समझते, मगर दुष्ट घातियों से बचे रहना भी धर्म है। सिवाय इसके कुमार के वहाँ गए बिना कोई हर्ज भी नहीं है, अस्तु तुम लोग जाओ और महाराज जयसिंह की मदद करो। जब जालिम खाँ गिरफ्तर हो जाए तो महाराज को सब हाल कह-सुना कर यहाँ लेते आना, फिर हम भी साथ होकर खोह में चलेंगे।’
राजा सुरेंद्रसिंह की मर्जी, कुमार को इस वक्त विजयगढ़ जाने देने की नहीं समझ कर और राजा से बहुत जिद करना भी बुरा ख्याल करके तेजसिंह चुप ही रहे, अकेले ही विजयगढ़ जाने के लिए महाराज से हुक्म लिया और उनके खास हाथ की लिखा हुआ खत का खलीता ले कर विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।
कुछ दूर जा कर दोपहर की धूप घने जंगल के पेड़ों की झुरमुट में काटी और ठंडे हो रवाना हुए। विजयगढ़ पहुँच कर महल में आधी रात को ठीक उस वक्त पहुँचे जब बहुत से जवांमर्दों की भीड़ बटुरी हुई थी और हर एक आदमी चौकन्ना हो कर हर तरफ देख रहा था। यकायक पूरब की छत से धमाधम छः आदमी कूद कर बीचोंबीच भीड़ में आ खड़े हुए, जिनके आगे-आगे बद्रीनाथ का सिर हाथ में लिए आफत खाँ था।
तेजसिंह को अभी तक किसी ने नहीं देखा था, इस वक्त इन्होंने ललकार कर कहा – ‘पकड़ो इन नालायकों को, अब देखते क्या हो?’ इतना कह कर आप भी कमंद फैला कर उन लोगों की तरफ फेंका, तब तक बहुत से आदमी टूट पड़े। उन लोगों के हाथ में जो गेद मौजूद थे, जमीन पर पटकने लगे, मगर कुछ नहीं, वहाँ तो मामला ही ठंडा था, गेद क्या थी धोखे था। कुछ करते-धारते न बन पड़ा और सब-के-सब गिरफ्तार हो गए।
अब तेजसिंह को सभी ने देखा, आफत खाँ ने भी इनकी तरफ देखा और कहा – ‘तेज, मेमचे बद्री।’ इतना सुनते ही तेजसिंह ने आफत खाँ का हाथ पकड़ कर इनको सभी से अलग कर लिया और हाथ-पैर खोल गले से लगा लिया। सब शोर-गुल मचाने लगे – ‘हाँ-हाँ, यह क्या करते हो, यह तो बड़ा भारी दुष्ट है, इसी ने तो बद्रीनाथ को मारा है। देखो, इसी के हाथ में बेचारे बद्रीनाथ का सिर है, तुम्हें क्या हो गया कि इसके साथ नेकी करते हो?’
पर तेजसिंह ने घुड़क कर कहा – ‘चुप रहो, कुछ खबर भी है कि यह कौन हैं? बद्रीनाथ को मारना क्या खेल हो गया है?’
तेजसिंह की इज्जत को सब जानते थे। किसी की मजाल न थी कि उनकी बात काटता। आफत खाँ को उनके हवाले करना ही पड़ा, मगर बाकी पाँचों आदमियों को खूब मजबूती से बाँधा।
आफत खाँ का हाथ भी तेजसिंह ने छोड़ दिया और साथ-साथ लिए हुए महाराज जयसिंह की तरफ चले। चारों तरफ धूम मची थी, जालिम खाँ और उसके साथियों के गिरफ्तार हो जाने पर भी लोग काँप रहे थे, महाराज भी दूर से सब तमाशा देख रहे थे। तेजसिंह को आफत खाँ के साथ अपनी तरफ आते देख घबरा गए। म्यान से तलवार खींच ली।
तेजसिंह ने पुकार कर कहा – ‘घबराइए नहीं, हम दोनों आपके दुश्मन नहीं हैं। ये जो हमारे साथ हैं और जिन्हें आप कुछ और समझे हुए हैं, वास्तव में पंडित बद्रीनाथ हैं।’ यह कह आफत खाँ की दाढ़ी हाथ से पकड़ कर झटक दी जिससे बद्रीनाथ कुछ पहचाने गए।
आप महाराज जयसिंह का जी ठिकाने हुआ, पूछा – ‘बद्रीनाथ उनके साथ क्यों थे?’
बद्रीनाथ – ‘महाराज, अगर मैं उनका साथी न बनता तो उन लोगों को यहाँ तक ला कर गिरफ्तार कौन कराता?’
महाराज – ‘तुम्हारे हाथ में यह सिर किसका लटक रहा है?’
बद्रीनाथ – ‘मोम का, बिल्कुल बनावटी।’
अब तो धूम मच गई कि जालिम खाँ को बद्रीनाथ ऐयार ने गिरफ्तार कराया। इनके चारों तरफ भीड़ लग गई, एक पर एक टूटा पड़ता था। बड़ी ही मुश्किल से बद्रीनाथ उस झुंड से अलग किए गए। जालिम खाँ वगैरह को भी मालूम हो गया कि आफत खाँ कृपानिधान बद्रीनाथ ही थे, जिन्होंने हम लोगों को बेढ़ब धोखा दे कर फँसाया, मगर इस वक्त क्या कर सकते थे? हाथ-पैर सभी के बँधे थे, कुछ जोर नहीं चल सकता था, लाचार हो कर बद्रीनाथ को गालियाँ देने लगे। सच है जब आदमी की जान पर आ बनती है तब जो जी में आता है बकता है।
बद्रीनाथ ने उनकी गालियों का कुछ भी ख्याल न किया बल्कि उन लोगों की तरफ देख कर हँस दिया। इनके साथ बहुत से आदमी बल्कि महाराज तक हँस पड़े।
महाराज के हुक्म से सब आदमी महल के बाहर कर दिए गए, सिर्फ थोड़े से मामूली उमदा लोग रह गए और महल के अंदर ही कोठरी में हाथ-पैर जकड़ जालिम खाँ और उसके साथी बंद कर दिए गए। पानी मँगवा कर बद्रीनाथ का हाथ-पैर धुलवाया गया, इसके बाद दीवानखाने में बैठ कर बद्रीनाथ से सब खुलासा हाल जालिम खाँ के गिरफ्तार करने का पूछने लगे जिसको सुनने के लिए तेजसिंह भी व्याकुल हो रहे थे।
बद्रीनाथ ने कहा – ‘महाराज, इस दुष्ट जालिम खाँ से मिलने की पहली तरकीब मैंने यह की कि अपना नाम आफत खाँ रख कर इश्तिहार दिया और अपने मिलने का ठिकाना ऐसी बोली में लिखा कि सिवाय उसके या ऐयारों के किसी को समझ में न आए। यह तो मैं जानता ही था कि यहाँ इस वक्त कोई ऐयार नहीं है जो मेरी इस लिखावट को समझेगा।’
महाराज – ‘हाँ ठीक है, तुमने अपने मिलने का ठिकाना ‘टेटी-चोटी’ लिखा था, इसका क्या अर्थ है?’
बद्रीनाथ – ‘ऐयारी बोली में ‘टेटी-चोटी’ भयानक नाले को कहते हैं।’
इसके बाद बद्रीनाथ ने जालिम खाँ से मिलने का और गेद का तमाशा दिखला के धोखे का गेद उन लोगों के हवाले कर, भुलावा दे, महल में ले आने का पूरा-पूरा हाल कहा, जिसको सुन कर महाराज बहुत ही खुश हुए और इनाम में बहुत-सी जागीर बद्रीनाथ को देना चाही मगर उन्होंने उसको लेने से बिल्कुल इंकार किया और कहा कि बिना मालिक की आज्ञा के मैं आपसे कुछ नहीं ले सकता, उनकी तरफ से मैं जिस काम पर मुकर्रर किया गया था, जहाँ तक हो सका उसे पूरा कर दिया।
इसी तरह के बहुत से उज्र बद्रीनाथ ने किए जिसको सुन महाराज और भी खुश हुए और इरादा कर लिया कि किसी और मौके पर बद्रीनाथ को बहुत कुछ देंगे जबकि वे लेने से इंकार न कर सकेंगे। बात ही बात में सवेरा हो गया, तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से विदा हो दीवान हरदयालसिंह के घर आए।
बयान – 14
सुबह को खुशी-खुशी महाराज ने दरबार किया। तेजसिंह और बद्रीनाथ भी बड़ी इज्जत से बैठाए गए। महाराज के हुक्म से जालिम खाँ और उसके चारों साथी दरबार में लाए गए जो हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े हुए थे। हुक्म पा तेजसिंह, जालिम खाँ से पूछने लगे –
तेजसिंह – ‘क्यों जी, तुम्हारा नाम ठीक-ठीक जालिम खाँ है या और कुछ?’
जालिम – ‘इसका जवाब मैं पीछे दूँगा, पहले यह बताइए कि आप लोगों के यहाँ ऐयारों को मार डालने का कायदा है या नहीं?’
तेजसिंह – ‘हमारे यहाँ क्या हिंदुस्तान भर में कोई धार्मिष्ठ हिंदू राजा ऐयार को कभी जान से न मारेगा। हाँ, वह ऐयार जो अपने कायदे के बाहर काम करेगा जरूर मारा जाएगा।’
जालिम – ‘तो क्या हम लोग मारे जाएँगे?’
तेजसिंह – ‘यह खुशी महाराज की, मगर क्या तुम लोग ऐयार हो जो ऐसी बातें पूछते हो?’
जालिम – ‘हाँ, हम लोग ऐयार हैं।’
तेजसिंह – ‘राम-राम, क्यों ऐयारी का नाम बदनाम करते हो। तुम तो पूरे डाकू हो, ऐयारी से तुम लोगों का क्या वास्ता?’
जालिम – ‘हम लोग कई पुश्त से ऐयार होते आ रहे हैं कुछ आज नए ऐयार नहीं बने।’
तेजसिंह – ‘तुम्हारे बाप-दादा शायद ऐयार हुए हों, मगर तुम लोग तो खासे दुष्ट डाकुओं में से हो।’
जालिम – ‘जब आपने हमारा नाम डाकू ही रखा है, तो बचने की क्या उम्मीद हो सकती है।’
तेजसिंह – ‘जो हो, खैर यह बताओ कि तुम हो कौन?’
जालिम – ‘जब मारे ही जाना है तो नाम बता कर बदनामी क्यों लें और अपना पूरा हाल भी किसलिए कहें। हाँ इसका वादा करो कि जान से न मारोगे तो कहें।’
तेजसिंह – ‘यह वादा कभी नहीं हो सकता और अपना ठीक-ठीक हाल भी तुमको झख मार कर कहना होगा।’
जालिम – ‘कभी नहीं कहेंगे।’
तेजसिंह – ‘फिर जूतों से तुम्हारे सिर की खबर खूब ली जाएगी।’
जालिम – ‘चाहे जो हो।’
बद्रीनाथ – ‘वाह रे जूतीखोर।’
जालिम – (बद्रीनाथ से) ‘उस्ताद, तुमने बड़ा धोखा दिया, मानता हूँ तुमको।’
बद्रीनाथ – ‘तुम्हारे मानने से होता ही क्या है, आज नहीं तो कल तुम लोगों के सिर धड़ से अलग दिखाई देंगे।’
जालिम – ‘अफसोस कुछ करने न पाए।’
तेजसिंह ने सोचा कि इस बकवास से कोई मतलब न निकलेगा, हजार सिर पटकेंगे पर जालिम खाँ अपना ठीक-ठीक हाल कभी न कहेगा, इससे बेहतर है कि कोई तरकीब की जाए, अस्तु कुछ सोच कर महाराज से अर्ज किया – ‘इन लोगों को कैदखाने में भेजा जाए फिर जैसा होगा देखा जाएगा, और इनमें से वह एक आदमी (हाथ से इशारा करके) इसी जगह रखा जाए।’ महाराज के हुक्म से ऐसा ही किया गया।
तेजसिंह के कहे मुताबिक उन डाकुओं में से एक को उसी जगह छोड़ बाकी सभी को कैदखाने की तरफ रवाना किया। जाती दफा जालिम खाँ ने तेजसिंह की तरफ देख के कहा – ‘उस्ताद, तुम बड़े चालाक हो। इसमें कोई शक नहीं कि चेहरे से आदमी के दिल का हाल खूब पहचानते हो, अच्छे डरपोक को चुन के रख लिया, अब तुम्हारा काम निकल जाएगा।’
तेजसिंह ने मुस्करा कर जवाब दिया – ‘पहले इसकी दुर्दशा कर ली जाए फिर तुम लोग भी एक-एक करके इसी जगह लाए जाओगे।’
जालिम खाँ और उसके तीन साथी तो कैदखाने की तरफ भेज दिए गए, एक उसी जगह रह गया। हकीकत में वह बहुत डरपोक था। अपने को उसी जगह रहते और साथियों को दूसरी जगह जाते देख घबरा उठा। उसके चेहरे से उस वक्त और भी बदहवासी बरसने लगी जब तेजसिंह ने एक चोबदार को हुक्म दिया – ‘अँगीठी में कोयला भर कर तथा दो-तीन लोहे की सींखें जल्दी से लाओ, जिनके पीछे लकड़ी की मूठ लगी हो।’
दरबार में जितने थे सब हैरान थे कि तेजसिंह ने लोहे की सलाख और अंगीठी क्यों मँगाई और उस डाकू की तो जो कुछ हालत थी लिखना मुश्किल है।
चार-पाँच लोहे के सींखचे और कोयले से भरी हुई अंगीठी लाई गई।
तेजसिंह ने एक आदमी से कहा – ‘आग सुलगाओ और इन लोहे की सींखों को उसमें गरम करो।’
अब उस डाकू से न रहा गया, उसने डरते हुए पूछा – ‘क्यों तेजसिंह, इन सींखों को तपा कर क्या करोगे?’
तेजसिंह – ‘इनको लाल करके दो तुम्हारी दोनों आँखों में, दो दोनों कानों में और एक सलाख मुँह खोल कर पेट के अंदर पहुँचाई जाएगी।’
डाकू – ‘आप लोग तो रहमदिल कहलाते हैं, फिर इस तरह तकलीफ दे कर किसी को मारना क्या आप लोगों की रहमदिली में बट्टा न लगाएगा?’
तेजसिंह – (हँस कर) ‘तुम लोगों को छोड़ना बड़े संगदिल का काम है, जब तक तुम जीते रहोगे हजारों की जानें लोगे, इससे बेहतर है कि तुम्हारी छुट्टी कर दी जाए। जितनी तकलीफ दे कर तुम लोगों की जान ली जाएगी, उतना ही डर तुम्हारे शैतान भाइयों को होगा।’
डाकू – ‘तो क्या अब किसी तरह हमारी जान नहीं बच सकती?’
तेजसिंह – ‘सिर्फ एक तरह से बच सकती है।’
डाकू – ‘कैसे?’
तेजसिंह – ‘अगर अपने साथियों का हाल ठीक-ठीक कह दो तो अभी छोड़ दिए जाओगे।’
डाकू – ‘मैं ठीक-ठीक हाल कह दूँगा।’
तेजसिंह – ‘हम लोग कैसे जानेंगे कि तुम सच्चे हो?’
डाकू – ‘साबित कर दूँगा कि मैं सच्चा हूँ।’
तेजसिंह – ‘अच्छा कहो।’
डाकू – ‘सुनो कहता हूँ।’
इस वक्त दरबार में भीड़ लगी हुई थी। तेजसिंह ने आग की अंगीठी क्यों मँगाई? ये लोहे की सलाइएँ किस काम आएँगी? यह डाकू अपना ठीक-ठीक हाल कहेगा या नहीं? यह कौन है? इत्यादि बातों को जानने के लिए सभी की तबीयत घबरा रही थी। सभी की निगाहें उस डाकू के ऊपर थीं। जब उसने कहा कि मैं ठीक-ठीक हाल कह दूँगा। तब और भी लोगों का ख्याल उसी की तरफ जम गया और बहुत से आदमी उस डाकू की तरफ कुछ आगे बढ़ आए।
उस डाकू ने अपने साथियों का हाल कहने के लिए मुस्तैद हो कर मुँह खोला ही था कि दरबारी भीड़ में से एक जवान आदमी म्यान से तलवार खींच कर उस डाकू की तरफ झपटा और इस जोर से एक हाथ तलवार का लगाया कि उस डाकू का सिर धाड़ से अलग हो कर दूर जा गिरा, तब उसी खून भरी तलवार को घुमाता और लोगों को जख्मी करता वह बाहर निकल गया।
उस घबराहट में किसी ने भी उसे पकड़ने का हौसला न किया, मगर बद्रीनाथ कब रुकने वाले थे, साथ ही वह भी उसके पीछे दौड़े।
बद्रीनाथ के जाने के बाद सैकड़ों आदमी उस तरफ दौड़े, लेकिन तेजसिंह ने उसका पीछा न किया। वे उठ कर सीधे उस कैदखाने की तरफ दौड़ गए जिसमें जालिम खाँ वगैरह कैद किए गए थे। उनको इस बात का शक हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि उन लोगों को किसी ने ऐयारी करके छुड़ा दिया हो। मगर नहीं, वे लोग उसी तरह कैद थे। तेजसिंह ने कुछ और पहरे का इंतजाम कर दिया और फिर तुरंत लौट कर दरबार में चले आए।
पहले दरबार में जितनी भीड़ लगी हुई थी अब उससे चौथाई रह गई। कुछ तो अपनी मर्जी से बद्रीनाथ के साथ दौड़ गए, कितनों ने महाराज का इशारा पा कर उसका पीछा किया था। तेजसिंह के वापस आने पर महाराज ने पूछा – ‘तुम कहाँ गए थे?’
तेजसिंह – ‘मुझे यह फिक्र पड़ गई थी कि कहीं जालिम खाँ वगैरह तो नहीं छूट गए, इसलिए कैदखाने की तरफ दौड़ा गया था, मगर वे लोग कैदखाने में ही पाए गए।’
महाराज – ‘देखें बद्रीनाथ कब तक लौटते हैं और क्या करके लौटते हैं?’
तेजसिंह – ‘बद्रीनाथ बहुत जल्द आएँगे क्योंकि दौड़ने में वे बहुत ही तेज हैं।’
आज महाराज जयसिंह मामूली वक्त से ज्यादा देर तक दरबार में बैठे रहे। तेजसिंह ने कहा भी – ‘आज दरबार में महाराज को बहुत देर हुई?’ जिसका जवाब महाराज ने यह दिया कि जब तक बद्रीनाथ लौट कर नहीं आते या उनका कुछ हाल मालूम न हो ले, हम इसी तरह बैठे रहेंगे।’
बयान – 15
दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज आने लगी। सभी का ख्याल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आ कर अर्ज किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिए आ रहे हैं।
उस खूनी को कमंद से बाँधे साथ लिए हुए पंडित बद्रीनाथ आ पहुँचे।
महाराज – ‘बद्रीनाथ, कुछ यह भी मालूम हुआ कि यह कौन है?’
बद्रीनाथ – ‘कुछ नहीं बताता कि कौन है और न बताएगा।’
महाराज – ‘फिर?’
बद्रीनाथ – ‘फिर क्या? मुझे तो मालूम होता है कि इसने अपनी सूरत बदल रखी है।’
पानी मँगवा कर उसका चेहरा धुलवाया गया, अब तो उसकी दूसरी ही सूरत निकल आई।
भीड़ लगी थी, सभी में खलबली पड़ गई, मालूम होता था कि इसे सब कोई पहचानते हैं। महाराज चौंक पड़े और तेजसिंह की तरफ देख कर बोले – ‘बस-बस मालूम हो गया, यह तो नाजिम का साला है, मैं ख्याल करता हूँ कि जालिम खाँ वगैरह जो कैद हैं वे भी नाजिम और अहमद के रिश्तेदार ही होंगे। उन लोगों को फिर यहाँ लाना चाहिए।’
महाराज के हुक्म से जालिम खाँ वगैरह भी दरबार में लाए गए।
बद्रीनाथ – (जालिम खाँ की तरफ देख कर) ‘अब तुम लोग पहचाने गए कि नाजिम और अहमद के रिश्तेदार हो, तुम्हारे साथी ने बता दिया।’
जालिम खाँ इसका कुछ जवाब देना ही चाहता था कि वह खूनी (जिसे बद्रीनाथ अभी गिरफ्तार करके लाए थे) बोल उठा – ‘जालिम खाँ, तुम बद्रीनाथ के फेर में मत पड़ना, यह झूठे हैं। तुम्हारे साथी को हमने कुछ कहने का मौका नहीं दिया, वह बड़ा ही डरपोक था, मैंने उसे दोजख में पहुँचा दिया। हम लोगों की जान चाहे जिस दुर्दशा से जाए मगर अपने मुँह से अपना कुछ हाल कभी न कहना चाहिए।’
जालिम – (जोर से) ‘ऐसा ही होगा।’
इन दोनों की बातचीत से महाराज को बड़ा क्रोध आया। आँखें लाल हो गईं, बदन काँपने लगा। तेजसिंह और बद्रीनाथ की तरफ देख कर बोले – ‘बस हमको इन लोगों का हाल मालूम करने की कोई जरूरत नहीं, चाहे जो हो, अभी, इसी वक्त, इसी जगह, मेरे सामने इन लोगों का सिर धाड़ से अलग कर दिया जाए।’
हुक्म की देर थी, तमाम शहर इन डाकुओं के खून का प्यासा हो रहा था, उछल-उछल कर लोगों ने अपने-अपने हाथों की सफाई दिखाई। सभी की लाशें उठा कर फेंक दी गईं। महाराज उठ खड़े हुए।
तेजसिंह ने हाथ जोड़ कर अर्ज किया – ‘महाराज, मुझे अभी तक कहने का मौका नहीं मिला कि यहाँ किस काम के लिए आया था और न अभी बात कहने का वक्त है।’
महाराज – ‘अगर कोई जरूरी बात हो तो मेरे साथ महल में चलो।’
तेजसिंह – ‘बात तो बहुत जरूरी है मगर इस समय कहने को जी नहीं चाहता, क्योंकि महाराज को अभी तक गुस्सा चढ़ा हुआ है और मेरी भी तबीयत खराब हो रही है, मगर इस वक्त इतना कह देना मुनासिब समझता हूँ कि जिस बात के सुनने से आपको बेहद खुशी होगी मैं वही बात कहूँगा।’
तेजसिंह की आखिरी बात ने महाराज का गुस्सा एकदम ठंडा कर दिया और उनके चेहरे पर खुशी झलकने लगी। तेजसिंह का हाथ पकड़ लिया और महल में ले चले, बद्रीनाथ भी तेजसिंह के इशारे से साथ हुए।
तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लिए हुए महाराज अपने खास कमरे में गए और कुछ देर बैठने के बाद तेजसिंह के आने का कारण पूछा।
सब हाल खुलासा कहने के बाद तेजसिंह ने कहा – ‘अब आप और महाराज सुरेंद्रसिंह खोह में चलें और सिद्धनाथ योगी की कृपा से कुमारी को साथ ले कर खुशी-खुशी लौट आएँ।’
तेजसिंह की बात से महाराज को कितनी खुशी हुई इसका हाल लिखना मुश्किल है। लपक कर तेजसिंह को गले लगा लिया और कहा – ‘तुम अभी बाहर जा कर हरदयालसिंह को हमारे सफर की तैयारी करने का हुक्म दो और तुम लोग भी स्नान-पूजा करके कुछ खाओ-पीओ। मैं जा कर कुमारी की माँ को यह खुशखबरी सुनाता हूँ।’
आज के दिन का तीन हिस्सा आश्चर्य, रंज, गुस्से और खुशी में गुजर गया, किसी के मुँह में एक दाना अन्न नहीं गया था।
तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से विदा हो दीवान हरदयालसिंह के मकान पर गए और महाराज ने महल में जा कर कुमारी चंद्रकांता की माँ को, कुमारी से मिलने की उम्मीद दिलाई।
अभी घंटे भर पहले वह महल और ही हालत में था और अब सभी के चेहरे पर हँसी दिखाई देने लगी। होते-होते यह बात हजारों घरों में फैल गई कि महाराज कुमारी चंद्रकांता को लाने के लिए जा रहे हैं।
यह भी निश्चय हो गया कि आज थोड़ी-सी रात रहते महाराज जयसिंह नौगढ़ की तरफ कूच करेंगे।
बयान – 16
पाठक, अब वह समय आ गया कि आप भी चंद्रकांता और कुँवर वीरेंद्रसिंह को खुश होते देख खुश हों। यह तो आप समझते ही होंगे कि महाराज जयसिंह विजयगढ़ से रवाना होकर नौगढ़ जाएँगे और वहाँ से राजा सुरेंद्रसिंह और कुमार को साथ ले कर कुमारी से मिलने की उम्मीद में तिलिस्मी खोह के अंदर जाएँगे। आपको यह भी याद होगा कि सिद्धनाथ योगी ने तहखाने (खोह) से बाहर होते वक्त कुमार को कह दिया था कि जब अपने पिता और महाराज जयसिंह को ले कर इस खोह में आना तो उन लोगों को खोह के बाहर छोड़ कर पहले तुम आ कर एक दफा हमसे मिल जाना। उन्हीं के कहे मुताबिक कुमार करेंगे। खैर, इन लोगों को तो आप अपने काम में छोड़ दीजिए और थोड़ी देर के लिए आँखें बंद करके हमारे साथ उस खोह में चलिए और किसी कोने में छिप कर वहाँ रहने वालों की बातचीत सुनिए। शायद आप लोगों के जी का भ्रम यहाँ निकल जाए और दूसरे तीसरे भाग के बिल्कुल भेदों की बातें भी सुनते ही सुनते खुल जाएँ, बल्कि कुछ खुशी भी हासिल हो।
कुँवर वीरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह वगैरह तो आज वहाँ तक पहुँचते नहीं मगर आप इसी वक्त हमारे साथ उस तहखाने (खोह) में बल्कि उस बाग में पहुँचिए, जिसमें कुमार ने चंदकांता की तस्वीर का दरबार देखा था और जिसमें सिद्धनाथ योगी और वनकन्या से मुलाकात हुई थी।
आप इसी बाग में पहुँच गए। देखिए अस्त होते हुए सूर्य भगवान अपनी सुंदर लाल किरणों से मनोहर बाग के कुछ ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के ऊपरी हिस्सों को चमका रहे हैं, कुछ-कुछ ठंडी हवा खुशबूदार फूलों की महक चारों तरफ फैला रही है। देखिए इस बाग के बीच वाले संगमरमर के चबूतरे पर तीन पलँग रखे हुए हैं, जिनके ऊपर खूबसूरत लौंडियाँ अच्छे-अच्छे बिछौने बिछा रही हैं, खास करके बीच वाले जड़ाऊ पलँग की सजावट पर सभी का ज्यादा ध्यान है। उधर देखिए वह घास का छोटा-सा रमना कैसे खुशनुमा बना हुआ है। उसमें की हरी-हरी दूब कैसे खूबसूरती से कटी हुई है, यकायक सब्ज मखमली फर्श में और इसमें कुछ भेद नहीं मालूम होता, और देखिए उसी सब्ज दूब के रमने के चारों तरफ रंग-बिरंगे फूलों से खूब गुथे हुए सीधे-सीधे गुलमेंहदी के पेड़ों की कतार पलटनों की तरह कैसी शोभा दे रही है।
उसके बगल की तरफ ख्याल कीजिए, चमेली का फूला हुआ तख्ता क्या रंग जमा रहा है और कैसे घने पेड़ हैं कि हवा को भी उसके अंदर जाने का रास्ता मिलना मुश्किल है, और इन दोनों तख्तों के बीच वाला छोटा-सा खूबसूरत बँगला क्या अच्छा लग रहा है तथा उसके चारों तरफ नीचे से ऊपर तक मालती की लता कैसी घनी चढ़ी हुई और फूल भी कितने ज्यादा फूले हुए हैं। अगर जी चाहे तो, किसी एक तरफ खड़े हो कर बिना इधर-उधर हटे हाथ भर का चँगेर भर लीजिए। पश्चिम तरफ निगाह दौड़ाइए, फूली हुई मेंहदी की टट्टी के नीचे जंगली रंग-बिरंगे पत्तों वाले हाथ डेढ़ हाथ ऊँचे दरख्तों (करोटन) की चौहरी कतार क्या भली मालूम होती है, और उसके बुँदकीदार, सुर्खी लिए हुए सफेद लकीरों वाले, सब्ज धारियों वाले, लंबे घूँघर वाले बालों की तरह ऐंठे हुए पत्तो क्या कैफियत दिखा रहे हैं और इधर-उधर हट के दोनों तरफ तिरकोनिया तख्तों की भी रंगत देखिए जो सिर्फ हाथ-भर ऊँचे रंगीन छिटकती हुई धारियों वाले पत्तो के जंगली पेड़ों (कौलियस) के गमलों से पहाड़ीनुमा सजाए हुए हैं और जिनके चारों तरफ रंग-बिरंगे देशी फूल खिले हुए हैं।
अब तो हमारी निगाह इधर-उधर और खूबसूरत क्यारियों, फूलों और छूटते हुए फव्वारों का मजा नहीं लेती, क्योंकि उन तीन औरतों के पास जा कर अटक गई है, जो मेंहदी के पत्ते तोड़ कर अपनी झोलियों में बटोर रही हैं। यहाँ निगाह भी अदब करती है, क्योंकि उन तीनों औरतों में से एक तो हमारी उपन्यास की ताज वनकन्या है और बाकी दोनों उसकी प्यारी सखियाँ हैं। वनकन्या की पोशाक तो सफेद है, मगर उसकी दोनों सखियों की सब्ज और सुर्ख।
वे तीनों मेंहदी की पत्तियाँ तोड़ चुकी, अब इस संगमरमर के चबूतरे की तरफ चली आ रही हैं। शायद इन्हीं तीनों पलंगों पर बैठने का इरादा हो।
हमारा सोचना ठीक हुआ। वनकन्या मेंहदी की पत्तियाँ जमीन पर उझल कर थकावट की मुद्रा में बिचले जड़ाऊ पलँग पर लेट गई और दोनों सखियाँ अगल-बगल वाले दोनों पलँगों पर बैठ गई। पाठक, हम और आप भी एक तरफ चुपचाप खड़े हो कर इन तीनों की बातचीत सुनें।
वनकन्या – ‘ओफ, थकावट मालूम होती है।’
सब्ज कपड़े वाली सखी – ‘घूम कर क्या कम आए है?’
सुर्ख कपड़े वाली सखी – (दूसरी सखी से) ‘क्या तू भी थक गई है?’
सब्ज सखी – ‘मैं क्यों थकने लगी? दस-दस कोस का रोज चक्कर लगाती रही, तब तो थकी ही नहीं।’
सुर्ख सखी – ‘ओफ, उन दिनों भी कितना दौड़ना पड़ा था। कभी इधर तो कभी उधर, कभी जाओ तो कभी आओ।’
सब्ज सखी – ‘आखिर कुमार के ऐयार हम लोगों का पता नहीं ही लगा सके।’
सुर्ख सखी – ‘खुद ज्योतिषी जी की अक्ल चकरा गई, जो बड़े रम्माल और नजूमी कहलाते थे, दूसरों की कौन कहे।’
वनकन्या – ‘ज्योतिषी जी के रमल को तो इन यंत्रों ने बेकार कर दिया, जो सिद्धनाथ बाबा ने हम लोगों के गले में डाल दिया है और अभी तक जिसे उतारने नहीं देते।’
सब्ज सखी – ‘मालूम नहीं इस ताबीज (यंत्र) में कौन-सी ऐसी चीज है जो रमल को चलने नहीं देती।’
वनकन्या – ‘मैंने यही बात एक दफा सिद्धनाथ बाबा जी से पूछी थी, जिसके जवाब में वे बहुत कुछ बक गए। मुझे सब तो याद नहीं कि क्या-क्या कह गए, हाँ, इतना याद है कि रमल जिस धातु से बनाई जाती है और रमल के साथी ग्रह, राशि, नक्षत्र, तारों वगैरह के असर पड़ने वाली जितनी धातुएँ हैं, उन सभी को एक साथ मिला कर यह यंत्र बनाया गया है इसलिए जिसके पास यह रहेगा, उसके बारे में कोई नजूमी या ज्योतिषी रमल के जरिए से कुछ नहीं देख सकेगा।’
सुर्ख सखी – ‘बेशक इसमें बहुत कुछ असर है। देखिए मैं सूरजमुखी बन कर गई थी, तब भी ज्योतिषी जी रमल से न बता सके कि यह ऐयार है।’
वनकन्या – ‘कुमार तो खूब ही छके होंगे?’
सुर्ख सखी – ‘कुछ न पूछिए, वे बहुत ही घबराए कि यह शैतान कहाँ से आई और क्या शर्त करा के अब क्या चाहती है?’
सब्ज सखी – ‘उसी के थोड़ी देर पहले मैं प्यादा बन कर खत का जवाब लेने गई थी और देवीसिंह को चेला बनाया था। यह कोई नहीं कह सका कि इसे मैं पहचानता हूँ।’
सुर्ख सखी – यह सब तो हुई मगर किस्मत भी कोई भारी चीज है। देखिए जब शिवदत्त के ऐयारों ने तिलिस्मी किताब चुराई थी और जंगल में ले जा कर जमीन के अंदर गाड़ रहे थे, उसी वक्त इत्तिफाक से हम लोगों ने पहुँच कर दूर से देख लिया कि कुछ गाड़ रहे हैं, उन लोगों के जाने के बाद खोद कर देखा तो तिलिस्मी किताब है।
वनकन्या – ‘ओफ, बड़ी मुश्किल से सिद्धनाथ ने हम लोगों को घूमने का हुक्म दिया था, इस पर भी कसम दे दी थी कि दूर-दूर से कुमार को देखना, पास मत जाना।’
सुर्ख सखी – ‘इसमें तुम्हारा ही फायदा था, बेचारे सिद्धनाथ कुछ अपने वास्ते थोड़े ही कहते थे।’
वनकन्या – ‘यह सब सच है, मगर क्या करें बिना देखे जी जो नहीं मानता।’
सब्ज सखी – ‘हम दोनों को तो यही हुक्म दे दिया था कि बराबर घूम-घूम कर कुमार की मदद किया करो। मालिन रूपी बद्रीनाथ से कैसा बचाया था।’
सुर्ख सखी – ‘क्या ऐयार लोग पता लगाने की कम कोशिश करते थे? मगर यहाँ तो ऐयारों के गुरुघंटाल सिद्धनाथ हरदम मदद पर थे, उनके किए हो क्या सकता था? देखो गंगा जी में नाव के पास आते वक्त तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषी जी कैसा छके, हम लोगों ने सभी कपड़े तक ले लिए।’
सब्ज सखी – हम लोग तो जान-बूझ कर उन लोगों को अपने साथ लाए ही थे।’
वनकन्या – ‘चाहे वे लोग कितने ही तेज हों, मगर हमारे सिद्धनाथ को नहीं पा सकते। हाँ, उन लोगों में तेजसिंह बड़ा चालाक है।’
सुर्ख सखी – ‘तेजसिंह बहुत चालाक हैं तो क्या हुआ, मगर हमारे सिद्धनाथ तेजसिंह के भी बाप हैं।’
वनकन्या – (हँस कर) ‘इसका हाल तो तुम ही जानो।’
सुर्ख सखी – ‘आप तो दिल्लगी करती हैं।’
सब्ज सखी – ‘हकीकत में सिद्धनाथ ने कुमार और उनके ऐयारों को बड़ा भारी धोखा दिया। उन लोगों को इस बात का ख्याल तक न आया कि इस खोह वाले तिलिस्म को सिद्धनाथ बाबा हम लोगों के हाथ फतह करा रहे हैं।’
सुर्ख सखी – ‘जब हम लोग अंदर से इस खोह का दरवाजा बंद कर तिलिस्म तोड़ रहे थे तब तेजसिंह, बद्रीनाथ की गठरी ले कर इसमें आए थे, मगर दरवाजा बंद पाकर लौट गए।’
वनकन्या – ‘बड़ा ही घबराए होंगे कि अंदर से इसका दरवाजा किसने बंद कर दिया?’
सुर्ख सखी – ‘जरूर घबराए होंगे। इसी में क्या और कई बातों में हम लोगों ने कुमार और उनके ऐयारों को धोखा दिया था। देखिए मैं उधर सूरजमुखी बन कर कह आई कि शिवदत्त को छुड़ा दूँगी और इधर इस बात की कसम खिला कर कि कुमार से दुश्मनी न करेगा, शिवदत्त को छोड़ दिया। उन लोगों ने भी जरूर सोचा होगा कि सूरजमुखी कोई भारी शैतान है।’
वनकन्या – ‘मगर फिर भी हरामजादे शिवदत्त ने धोखा दिया और कुमार से दुश्मनी करने पर कमर बाँधी, उसके कसम का कोई एतबार नहीं।’
सुर्ख सखी – ‘इसी से फिर हम लोगों ने गिरफ्तार भी तो कर लिया और तिलिस्मी किताब पा कर फिर कुमार को दे दी। हाँ, क्रूरसिंह ने एक दफा हम लोगों को पहचान लिया था। मैंने सोचा कि अब अगर यह जीता बचा तो सब भंडा फूट जाएगा, बस लड़ ही तो गई। आखिर मेरे हाथ से उसकी मौत लिखी थी, मारा गया।’
सब्ज सखी – ‘उस मुए को धुन सवार थी कि हम ही तिलिस्म फतह करके खजाना ले लें।’
वनकन्या – ‘मुझको तो इसी बात की खुशी है यह खोह वाला तिलिस्म मेरे हाथ से फतह हुआ।’
सुर्ख सखी – ‘इसमें काम ही कितना था, इस पर सिद्धनाथ बाबा की मदद।’
वनकन्या – ‘खैर, एक बात तो है।’
बयान – 17
अपनी जगह पर दीवान हरदयालसिंह को छोड़, तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ ले कर महाराज जयसिंह विजयगढ़ से नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। साथ में सिर्फ पाँच सौ आदमियों का झमेला था। एक दिन रास्ते में लगा, दूसरे दिन नौगढ़ के करीब पहुँच कर डेरा डाला।
राजा सुरेंद्रसिंह को महाराज जयसिंह के पहुँचने की खबर मिली। उसी वक्त अपने मुसाहबों और सरदारों को साथ ले इस्तकबाल के लिए गए और अपने साथ शहर में आए।
महाराज जयसिंह के लिए पहले से ही मकान सजा रखा था, उसी में उनका डेरा डलवाया और जाफत के लिए कहा, मगर महाराज जससिंह ने जाफत से इंकार किया और कहा – ‘कई वजहों से मैं आपकी जाफत मंजूर नहीं कर सकता, आप मेहरबानी करके इसके लिए जिद न करें बल्कि इसका सबब भी न पूछें कि जाफत से क्यों इनकार करता हूँ।’
राजा सुरेंद्रसिंह इसका सबब समझ गए और जी में बहुत खुश हुए।
रात के वक्त कुँवर वीरेंद्रसिंह और बाकी के ऐयार लोग भी महाराज जयसिंह से मिले। कुमार को बड़ी खुशी के साथ महाराज ने गले लगाया और अपने पास बैठा कर तिलिस्म का हाल पूछते रहे। कुमार ने बड़ी खूबसूरती के साथ तिलिस्म का हाल बयान किया।
रात को ही यह राय पक्की हो गई कि सवेरे सूरज निकलने के पहले तिलिस्मी खोह में सिद्धनाथ बाबा से मिलने के लिए रवाना होंगे। उसी मुताबिक दूसरे दिन तारों की रोशनी रहते ही महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह, कुँवर वीरेंद्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल वगैरह हजार आदमी की भीड़ ले कर तिलिस्मी तहखाने की तरफ रवाना हुए। तहखाना बहुत दूर न था, सूरज निकलते तक उस खोह (तहखाने) के पास पहुँचे।
कुँवर वीरेंद्रसिंह ने महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह से हाथ जोड़ कर अर्ज किया – ‘जिस वक्त सिद्धनाथ योगी ने मुझे आप लोगों को लाने के लिए भेजा था उस वक्त यह भी कह दिया था कि जब वे लोग इस खोह के पास पहुँच जाएँ, तब अगर हुक्म दें तो तुम उन लोगों को छोड़ कर पहले अकेले आ कर हमसे मिल जाना।, अब आप कहें तो योगी जी के कहे मुताबिक पहले मैं उनसे जा कर मिल आऊँ।’
महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह ने कहा – ‘योगी जी की बात जरूर माननी चाहिए, तुम जाओ उनसे मिल कर आओ, तब तक हमारा डेरा भी इसी जंगल में पड़ता है।’
कुँवर वीरेंद्रसिंह अकेले सिर्फ तेजसिंह को साथ ले कर खोह में गए। जिस तरह हम पहले लिख आए हैं उसी तरह खोह का दरवाजा खोल कई कोठरियों, मकानों और बागों में घूमते हुए दोनों आदमी उस बाग में पहुँचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे या जिसमें कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर का दरबार कुमार ने देखा था।
बाग के अंदर पैर रखते ही सिद्धनाथ योगी से मुलाकात हुई जो दरवाजे के पास पहले ही से खड़े कुछ सोच रहे थे। कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह को आते देख उनकी तरफ बढ़े और पुकार के बोले – ‘आप लोग आ गए?’
पहले दोनों ने दूर से प्रणाम किया और पास पहुँच कर उनकी बात का जवाब दिया –
कुमार – ‘आपके हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह और अपने पिता को खोह के बाहर छोड़ कर आपसे मिलने आया हूँ।’
सिद्धनाथ – ‘बहुत अच्छा किया जो उन लोगों को ले आए, आज कुमारी चंद्रकांता से आप लोग जरूर मिलोगे।’
तेजसिंह – ‘आपकी कृपा है तो ऐसा ही होगा।’
सिद्धनाथ – ‘कहो और तो सब कुशल है? विजयगढ़ और नौगढ़ में किसी तरह का उत्पात तो नहीं हुआ था।’
तेजसिंह – (ताज्जुब से उनकी तरफ देख कर) ‘हाँ, उत्पात तो हुआ था, कोई जालिम खाँ, नामी दोनों राजाओं का दुश्मन पैदा हुआ था।’
सिद्धनाथ – ‘हाँ, यह तो मालूम है, बेशक पंडित बद्रीनाथ अपने फन में बड़ा उस्ताद है, अच्छी चालाकी से उसे गिरफ्तार किया। खूब हुआ जो वे लोग मारे गए, अब उनके संगी-साथियों का दोनों राजों से दुश्मनी करने का हौसला न पड़ेगा। आओ टहलते-टहलते हम लोग बात करें।’
कुमार – ‘बहुत अच्छा।’
तेजसिंह – ‘जब आपको यह सब मालूम है तो यह भी जरूर मालूम होगा कि जालिम खाँ कौन था?’
सिद्धनाथ – ‘यह तो नहीं मालूम कि वह कौन था मगर अंदाज से मालूम होता है कि शायद नाजिम और अहमद के रिश्तेदारों में से कोई होगा।’
कुमार – ‘ठीक है, जो आप सोचते हैं वही होगा।’
सिद्धनाथ – ‘महाराज शिवदत्त तो जंगल में चले गए?’
कुमार – ‘जी हाँ, वे तो हमारे पिता से कह गए हैं कि अब तपस्या करेंगे।’
सिद्धनाथ – ‘जो हो मगर दुश्मन का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए।’
कुमार – ‘क्या वह फिर दुश्मनी पर कमर बाँधेगे ?’
सिद्धनाथ – ‘कौन ठिकाना?’
कुमार – ‘अब हुक्म हो तो बाहर जा कर अपने पिता और महाराज जयसिंह को ले आऊँ।’
सिद्धनाथ – ‘हाँ, पहले यह तो सुन लो कि हमने तुमको उन लोगों से पहले क्यों बुलाया।
कुमार – ‘कहिए।’
सिद्धनाथ – ‘कायदे की बात यह है कि जिस चीज को जी बहुत चाहता है अगर वह खो गई हो और बहुत मेहनत करने या बहुत हैरान होने पर यकायक ताज्जुब के साथ मिल जाए, तो उसका चाहने वाला उस पर इस तरह टूटता है जैसे अपने शिकार पर भूखा बाज। यह हम जानते हैं कि चंद्रकांता और तुममें बहुत ज्यादा मुहब्बत है, अगर यकायक दोनों राजाओं के सामने तुम उसे देखोगे या वह तुम्हें देखेगी तो ताज्जुब नहीं कि उन लोगों के सामने तुमसे या कुमारी चंद्रकांता से किसी तरह की बेअदबी हो जाए या जोश में आ कर तुम उसके पास ही जा खड़े हो तो भी मुनासिब न होगा। इसलिए मेरी राय है कि उन लोगों के पहले ही तुम कुमारी से मुलाकात कर लो। आओ हमारे साथ चले आओ।
अहा, इस वक्त तो कुमार के दिल की हुई। मुद्दत के बाद सिद्धनाथ बाबा की कृपा से आज उस कुमारी चंद्रकांता से मुलाकात होगी जिसके वास्ते दिन-रात परेशान थे, राजपाट जिसकी एक मुलाकात पर न्यौछावर कर दिया था, जान तक से हाथ धो बैठे थे। आज यकायक उससे मुलाकात होगी – सो भी ऐसे वक्त पर जब किसी तरह का खुटका नहीं, किसी तरह का रंज या अफसोस नहीं, कोई दुश्मन बाकी नहीं। ऐसे वक्त में कुमार की खुशी का क्या कहना। कलेजा उछलने लगा। मारे खुशी के सिद्धनाथ योगी की बात का जवाब तक न दे सके और उनके पीछे-पीछे रवाना हो गए।
थोड़ी दूर कमरे की तरफ गए होंगे कि एक लौंडी फूल तोड़ती हुई नजर पड़ी जिसे बुला कर सिद्धनाथ ने कहा – ‘तू अभी चंद्रकांता के पास जा और कह कि कुँवर वीरेंद्रसिंह तुमसे मुलाकात करने आ रहे हैं, तुम अपनी सखियों के साथ अपने कमरे में जा कर बैठो।’
यह सुनते ही वह लौंडी दौड़ती हुई एक तरफ चली गई और सिद्धनाथ कुमार तथा तेजसिंह को साथ ले बाग में इधर-उधर घूमने लगे। कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह दोनों अपनी-अपनी फिक्र में लग गए। तेजसिंह को चपला से मिलने की बड़ी खुशी थी। दोनों यह सोचने लगे कि किस हालत में मुलाकात होगी, उससे क्या बातचीत करेंगे, क्या पूछेंगे, वह हमारी शिकायत करेगी तो क्या जवाब देंगे? इसी सोच में दोनों ऐसे लीन हो गए कि फिर सिद्धनाथ योगी से बात न की, चुपचाप बहुत देर तक योगी जी के पीछे-पीछे घूमते रह गए।
घूम-फिरकर इन दोनों को साथ लिए हुए सिद्धनाथ योगी उस कमरे के पास पहुँचे जिसमें कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर का दरबार देखा था। वहाँ पर सिद्धनाथ ने कुमार की तरफ देख कर कहा – ‘जाओ इस कमरे में कुमारी चंद्रकांता और उसकी सखियों से मुलाकात करो, मैं तब तक दूसरा काम करता हूँ।’
कुँवर वीरेंद्रसिंह उस कमरे में अंदर गए। दूर से कुमारी चंद्रकांता को चपला और चंपा के साथ खड़े दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देखा।
देखते ही कुँवर वीरेंद्रसिंह, कुमारी की तरफ झपटे और चंद्रकांता कुमार की तरफ। अभी एक-दूसरे से कुछ दूर ही थे कि दोनों जमीन पर गिर कर बेहोश हो गए।
तेजसिंह और चपला की भी आपस में टकटकी बँध गई। बेचारी चंपा, कुँवर वीरेंद्रसिंह और कुमारी चंद्रकांता की यह दशा देख दौड़ी हुई दूसरे कमरे में गई और हाथ में बेदमुश्क के अर्क से भरी हुई सुराही और दूसरे हाथ में सूखी चिकनी मिट्टी का ढेला ले कर दौड़ी हुई आई।
दोनों के मुँह पर अर्क का छींटा दिया और थोड़ा-सा अर्क उस मिट्टी के ढेले पर डाल कर हलका लखलखा बना कर दोनों को सुँघाया।
कुछ देर बाद तेजसिंह और चपला की भी टकटकी टूटी और ये भी कुमार और चंद्रकांता की हालत देख उनको होश में लाने की फिक्र करने लगे।
कुँवर वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता दोनों होश में आए, दोनों एक-दूसरे की तरफ देखने लगे, मुँह से बात किसी के नहीं निकलती थी। क्या पूछें, कौन-सी शिकायत करें, किस जगह से बात उठाएँ, दोनों के दिल में यही सोच था। पेट से बात निकलती थी मगर गले में आ कर रुक जाती थी, बातों की भरावट से गला फूलता था, दोनों की आँखें डबडबा आईं थीं बल्कि आँसू की बूँदे बाहर गिरने लगीं।
घंटों बीत गए, देखा-देखी में ऐसे लीन हुए कि दोनों को तन-बदन की सुधा न रही। कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं, सामने कौन है, इसका ख्याल तक किसी को नहीं।
कुँवर वीरेंद्रसिंह और कुमारी चंद्रकांता के दिल का हाल अगर कुछ मालूम है तो तेजसिंह और चपला को, दूसरा कौन जाने, कौन उनकी मुहब्बत का अंदाजा कर सके, सो वे दोनों भी अपने आपे में नहीं थे। हाँ, बेचारी चंपा इन लोगो का हद दर्जे तक पहुँचा हुआ प्रेम देख कर घबरा उठी, जी में सोचने लगी कि कहीं ऐसा न हो कि इसी देखा-देखी में इन लोगों का दिमाग बिगड़ जाए। कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए कि जिससे इनकी यह दशा बदले और आपस में बातचीत करने लगे। आखिर कुमारी का हाथ पकड़ चंपा बोली – ‘कुमारी, तुम तो कहती थीं कि कुमार जिस रोज मिलेंगे उनसे पूछूँगी कि वनकन्या किसका नाम रखा था? वह कौन औरत है? उससे क्या वादा किया है? अब किसके साथ शादी करने का इरादा है? क्या वे सब बातें भूल गईं, अब इनसे न कहोगी?’
किसी तरह किसी की लौ तभी तक लगी रहती है जब तक कोई दूसरा आदमी किसी तरह की चोट उसके दिमाग पर न दे और उसके ध्यान को छेड़ कर न बिगाड़े, इसीलिए योगियों को एकांत में बैठना कहा है। कुँवर वीरेंद्रसिंह और कुमारी चंद्रकांता की मुहब्बत बाजारू न थी, वे दोनों एक रूप हो रहे थे, दिल ही दिल में अपनी जुदाई का सदमा एक ने दूसरे से कहा और दोनों समझ गए मगर किसी पास वाले को मालूम न हुआ, क्योंकि जुबान दोनों की बंद थी। हाँ, चंपा की बात ने दोनों को चौंका दिया, दोनों की चार आँखें जो मिल-जुल कर एक हो रही थीं हिल-डुल कर नीचे की तरफ हो गईं और सिर नीचा किए हुए दोनों कुछ-कुछ बोलने लगे। क्या जाने वे दोनों क्या बोलते थे और क्या समझते, उनकी वे ही जानें। बे-सिर-पैर की, टूटी-फूटी पागलों की-सी बातें कौन सुने, किसके समझ में आएँ। न तो कुमारी चंद्रकांता को कुमार से शिकायत करते बनी और न कुमार उनकी तकलीफ पूछ सके।
वे दोनों पहर आमने-सामने बैठे रहते तो शायद कहीं जुबान खुलती, मगर यहाँ दो घंटे बाद सिद्धनाथ योगी ने दोनों को फिर अलग कर दिया। लौंडी ने बाहर से आ कर कहा – ‘कुमार, आपको सिद्धनाथ बाबा जी ने बहुत जल्द बुलाया है, चलिए देर मत कीजिए।’
कुमार की यह मजाल न थी कि सिद्धनाथ योगी की बात टालते, घबरा कर उसी वक्त चलने को तैयार हो गए। दोनों के दिल-की-दिल ही में रह गई।
कुमारी चंद्रकांता को उसी तरह छोड़ कुमार उठ खड़े हुए, कुमारी को कुछ कहा ही चाहते थे, तब तक दूसरी लौंडी ने पहुँच कर जल्दी मचा दी। आखिर कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह उस कमरे के बाहर आए। दूर से सिद्धनाथ बाबा दिखाई पड़े, जिन्होंने कुमार को अपने पास बुला कर कहा – ‘कुमार, हमने तुमको यह नहीं कहा था कि दिन भर चंद्रकांता के पास बैठे रहो। दोपहर होने वाली है, जिन लोगों को खोह के बाहर छोड़ आए हो वे बेचारे तुम्हारी राह देखते होंगे।’
कुमार – ‘(सूरज की तरफ देख कर) जी हाँ दिन तो… ।’
बाबा – ‘दिन तो क्या?’
कुमार – (सकपकाए-से हो कर) ‘देर तो जरूर कुछ हो गई, अब हुक्म हो तो जा कर अपने पिता और महाराज जयसिंह को जल्दी से ले आऊँ?’
बाबा – ‘हाँ जाओ, उन लोगों को यहाँ ले आओ। मगर मेरी तरफ से दोनों राजाओं को कह देना कि इस खोह के अंदर उन्हीं लोगों को अपने साथ लाएँ जो कुमारी चंद्रकांता को देख सकें या जिसके सामने वह हो सके।’
कुमार – ‘बहुत अच्छा।’
बाबा – ‘जाओ अब देर न करो।’
कुमार – ‘प्रणाम करता हूँ।’
बाबा – ‘इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि आज ही तुम फिर लौटोगे।’
तेजसिंह – ‘दंडवत।’
बाबा – ‘तुमको तो जन्म भर दंडवत करने का मौका मिलेगा, मगर इस वक्त इस बात का ख्याल रखना कि तुम लोगों की जबानी कुमारी से मिलने का हाल खोह के बाहर वाले न सुनें और आते वक्त अगर दिन थोड़ा रहे तो आज मत आना।’
तेजसिंह – ‘जी नहीं हम लोग क्यों कहने लगे।’
बाबा – ‘अच्छा जाओ।’
दोनों आदमी सिद्धनाथ बाबा से विदा हो, उसी मालूमी राह से घूमते-फिरते खोह के बाहर आए।
बयान – 18
दिन दोपहर से कुछ ज्यादा जा चुका था। उस वक्त तक कुमार ने स्नान-पूजा कुछ नहीं की थी।
लश्कर में जा कर कुमार राजा सुरेंद्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का संदेशा दिया। दोनों ने पूछा कि बाबा जी ने तुमको सबसे पहले क्यों बुलाया था? इसके जवाब में जो कुछ मुनासिब समझा, कह कर दोनों अपने-अपने डेरे में आए और स्नान-पूजा करके भोजन किया।
राजा सुरेंद्रसिंह तथा महाराज जयसिंह एकांत में बैठ कर इस बात की सलाह करने लगे कि हम लोग अपने साथ किस-किस को खोह के अंदर ले चलें।
सुरेंद्र – ‘योगी जी ने कहला भेजा है कि उन्हीं लोगों को अपने साथ खोह में लाओ जिनके सामने कुमारी आ सके।’
जयसिंह – ‘हम-आप, कुमार और तेजसिंह तो जरूर ही चलेंगे। बाकी जिस-जिसको आप चाहें ले चलें?’
सुरेंद्र – ‘बहुत आदमियों को साथ ले चलने की कोई जरूरत नहीं, हाँ ऐयारों को जरूर ले चलना चाहिए क्योंकि इन लोगों से किसी किस्म का पर्दा रह नहीं सकता, बल्कि ऐयारों से पर्दा रखना ही मुनासिब नहीं।’
जयसिंह – ‘आपका कहना ठीक है, इन ऐयारों के सिवाय और कोई इस लायक नहीं कि जिसे अपने साथ खोह में ले चले।’
बातचीत और राय पक्की करते हुए दिन थोड़ा रह गया, सुरेंद्रसिंह ने तेजसिंह को उसी जगह बुला कर पूछा – ‘यहाँ से चल कर बाबा जी के पास पहुँचने तक राह में कितनी देर लगती है?’
तेजसिंह ने जवाब दिया – ‘अगर इधर-उधर ख्याल न करके सीधे ही चलें तो पाँच-छः घड़ी में उस बाग तक पहुँचेंगे जिसमें बाबा जी रहते हैं, मगर मेरी राय इस वक्त वहाँ चलने की नहीं है क्योंकि दिन बहुत थोड़ा रह गया है और इस खोह में बड़े बेढब रास्ते से चलना होगा। अगर अँधेरा हो गया तो एक कदम आगे चल नहीं सकेंगे।’
कुमारी को देखने के लिए महाराज जयसिंह बहुत घबरा रहे थे मगर इस वक्त तेजसिंह की राय उनको कबूल करनी पड़ी और दूसरे दिन सुबह को खोह में चलने की ठहरी।
बयान – 19
बहुत सवेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आए। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जा कर तो इन लोगों की और ही कैफियत हो गई, ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखते और तारीफ करते थे।
घुमाते-फिराते कई ताज्जुब की चीजों को दिखाते और कुछ हाल समझाते, सभी को साथ लिए हुए तेजसिंह उस बाग के दरवाजे पर पहुँचे, जिसमें सिद्धनाथ रहते थे। इन लोगों के पहुँचने के पहले ही से सिद्धनाथ इस्तकबाल (अगुवानी) के लिए द्वार पर मौजूद थे।
तेजसिंह ने महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह को उँगली के इशारे से बता कर कहा – ‘देखिए सिद्धनाथ बाबा दरवाजे पर खड़े हैं।’
दोनों राजा चाहते थे कि जल्दी से पास पहुँच कर बाबा जी को दंडवत करें मगर इसके पहले ही बाबा जी ने पुकार कर कहा – ‘खबरदार, मुझे कोई दंडवत न करना नहीं तो पछताओगे और मुलाकात भी न होगी।’
इरादा करते रह गए, किसी की मजाल न हुई कि दंडवत करता। महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह हैरान थे कि बाबा जी ने दंडवत करने से क्यों रोका। पास पहुँच कर हाथ मिलाना चाहा, मगर बाबा जी ने इसे भी मंजूर न करके कहा – ‘महाराज, मैं इस लायक नहीं, आपका दर्जा मुझसे बहुत बड़ा है।’
सुरेंद्र – ‘साधुओं से बढ़ कर किसी का दर्जा नहीं हो सकता।’
बाबा जी – आपका कहना बहुत ठीक है, मगर आपको मालूम नहीं कि मैं किस तरह का साधु हूँ।’
सुरेंद्र – ‘साधु चाहे किसी तरह का हो पूजने ही योग्य है।’
बाबा जी – ‘किसी तरह का हो, मगर साधु हो तब तो।’
सुरेंद्र – ‘तो आप कौन हैं?’
बाबा जी – ‘कोई भी नहीं।’
जयसिंह – ‘आपकी बातें ऐसी हैं कि कुछ समझ ही में नहीं आतीं और हर बात ताज्जुब, आश्चर्य, सोच और घबराहट बढ़ाती है।’
बाबा जी – (हँस कर) ‘अच्छा आइए इस बाग में चलिए।’
सभी को अपने साथ लिए सिद्धनाथ बाग के अंदर गए।
पाठक, घड़ी-घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल-बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूँ। सिवाय इसके इस खोह के बाग कौन बड़े लंबे-चौड़े हैं जिनके लिए कई पन्ने कागज के बरबाद किए जाएँ, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि इस खोह में जितने बाग हैं चाहे छोटे भी हो मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी-चढ़ी है।
महाराज जयसिंह, राजा सुरेंद्रसिंह, कुमार वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयारों को साथ लिए घूमते हुए बाबा जी उसी दीवानखाने में पहुँचे, जिसमें कुमारी का दरबार कुमार ने देखा था, बल्कि ऐसा क्यों नहीं कहते कि अभी कल ही जिस कमरे में कुमार खास कुमारी चंद्रकांता से मिले थे। जिस तरह की सजावट आज इस दीवानखाने की है, इसके पहले कुमार ने नहीं देखी थी। बीच में एक कीमती गद्दी बिछी हुई थी, बाबा जी ने उसी पर राजा सुरेंद्रसिंह, महाराज जयसिंह और कुँवर वीरेंद्रसिंह को बिठा कर उनके दोनों तरफ दर्जे-ब-दर्जे ऐयारों को बैठाया और आप भी उन्हीं लोगों के सामने एक मृगछाला पर बैठ गए जो पहले ही बिछा हुआ था, इसके बाद बातचीत होने लगी।
बाबा जी – (महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह की तरफ देख कर) ‘आप लोग कुशल से तो हैं।’
दोनों राजा – ‘आपकी कृपा से बहुत आनंद है, और आज तो आपसे मिल कर बहुत प्रसन्नता हुई।’
बाबा जी – ‘आप लोगों को यहाँ तक आने में तकलीफ हुई, उसे माफ कीजिएगा।’
जयसिंह – ‘यहाँ आने के ख्याल ही से हम लोगों की तकलीफ जाती रही। आपकी कृपा न होती और यहाँ तक आने की नौबत न पहुँचती तो, न मालूम कब तक कुमारी चंद्रकांता के वियोग का दु:ख हम लोगों को सहना पड़ता।’
बाबा जी – (मुस्कराकर) ‘अब कुमारी की तलाश में आप लोग तकलीफ न उठाएँगे।’
जयसिंह – ‘आशा है कि आज आपकी कृपा से कुमारी को जरूर देखेंगे।’
बाबा जी – ‘शायद किसी वजह से अगर आज कुमारी को देख न सकें तो कल जरूर आप लोग उससे मिलेंगे। इस वक्त आप लोग स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर कुछ भोजन कर लें, तब हमारे आपके बीच बातचीत होगी।’
बाबा जी ने एक लौंडी को बुला कर कहा – ‘हमारे मेहमान लोगों के नहाने का सामान उस बाग में दुरुस्त करो जिसमें बावड़ी है।’
बाबा जी सभी को लिए उस बाग में गए जिसमें बावड़ी थी। उसी में सभी ने स्नान किया और उत्तर तरफ वाले दालान में भोजन करने के बाद उस कमरे में बैठे जिसमें कुँवर वीरेंद्रसिंह की आँख खुली थी। आज भी वह कमरा वैसा ही सजा हुआ है जैसा पहले दिन कुमार ने देखा था, हाँ इतना फर्क है कि आज कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर उसमें नहीं है।
जब सब लोग निश्चित होकर बैठ गए तब राजा सुरेंद्रसिंह ने सिद्धनाथ योगी से पूछा – ‘यह खूबसूरत पहाड़ी जिसमें छोटे-छोटे कई बाग हैं, हमारे ही इलाके में है मगर आज तक कभी इसे देखने की नौबत नहीं पहुँची। क्या इस बाग से ऊपर-ही-ऊपर कोई और रास्ता भी बाहर जाने का है?’
बाबा जी – ‘इसकी राह गुप्त होने के सबब से यहाँ कोई आ नहीं सकता था, हाँ जिसे इस छोटे से तिलिस्म की कुछ खबर है, वह शायद आ सके। एक रास्ता तो इसका वही है जिससे आप आए हैं, दूसरी राह बाहर आने-जाने की इस बाग में से है, लेकिन वह उससे भी ज्यादा छिपी हुई है।’
सुरेंद्र – ‘आप कब से इस पहाड़ी में रह रहे हैं।’
बाबा जी – ‘मैं बहुत थोड़े दिनों से इस खोह में आया हूँ। सो भी अपनी खुशी से नहीं आया, मालिक के काम से आया हूँ।’
सुरेंद्र – (ताज्जुब से) ‘आप किसके नौकर हैं?’
बाबा जी – ‘यह भी आपको बहुत जल्दी मालूम हो जाएगा।’
जयसिंह – (सुरेंद्रसिंह की तरफ इशारा करके) ‘महाराज की जुबानी मालूम होता है कि यह दिलचस्प पहाड़ी चाहे इनके राज्य में हो मगर इन्हें इसकी खबर नहीं और यह जगह भी ऐसी नहीं मालूम होती जिसका कोई मालिक न हो, आप यहाँ के रहने वाले नहीं हैं तो इस दिलचस्प पहाड़ी और सुंदर-सुंदर मकानों और बागीचों का मालिक कौन है?’
महाराज जयसिंह की बात का जवाब अभी सिद्धनाथ बाबा ने नहीं दिया था कि सामने से वनकन्या आती दिखाई पड़ी। दोनों बगल उसके दो सखियाँ और पीछे-पीछे दस-पंद्रह लौंडियों की भीड़ थीं।
बाबा जी – (वनकन्या की तरफ इशारा करके) ‘इस जगह की मालिक यही हैं।’
सिद्धनाथ बाबा की बात सुन कर दोनों महाराज और ऐयार लोग, ताज्जुब से वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह भी हैरान हो वनकन्या की तरफ देख रहे थे। सिद्धनाथ की जुबानी यह सुन कर कि इस जगह की मालिक यही है, कुमार और तेजसिंह को पिछली बातें याद आ गईं। कुँवर वीरेंद्रसिंह सिर नीचा कर सोचने लगे कि बेशक कुमारी चंद्रकांता, इसी वनकन्या की कैद में है। वह बेचारी तिलिस्म की राह से आ कर जब इस खोह में फँसी तब इन्होंने कैद कर लिया, तभी तो इस जोर की खत लिखा था कि बिना हमारी मदद के तुम कुमारी चंद्रकांता को नहीं देख सकते, और उस दिन सिद्धनाथ बाबा ने भी यही कहा था कि जब यह चाहेगी तब चंद्रकांता से तुमसे मुलाकात होगी। बेशक कुमारी को इसी ने कैद किया है, हम इसे अपना दोस्त कभी नहीं कह सकते, बल्कि यह हमारी दुश्मन है क्योंकि इसने बेफायदे कुमारी चंद्रकांता को कैद करके तकलीफ में डाला और हम लोगों को भी परेशान किया।
नीचे मुँह किए इसी किस्म की बातें सोचते-सोचते कुमार को गुस्सा चढ़ आया और उन्होंने सिर उठा कर वनकन्या की तरफ देखा।
कुमार के दिल में चंद्रकांता की मुहब्बत चाहे कितनी ही ज्यादा हो मगर वनकन्या की मुहब्बत भी कम न थी। हाँ इतना फर्क जरूर था कि जिस वक्त कुमारी चंद्रकांता की याद में मग्न होते थे उस वक्त वनकन्या का ख्याल भी जी में नहीं आता था, मगर सूरत देखने से मुहब्बत की मजबूत फाँसें गले में पड़ जाती थीं। इस वक्त भी उनकी यही दशा हुई। यह सोच कर कि कुमारी को इसने कैद किया है एकदम गुस्सा चढ़ आया मगर कब तक? जब तक कि जमीन की तरफ देख कर सोचते रहे, जहाँ सिर उठा कर वनकन्या की तरफ देखा, गुस्सा बिल्कुल जाता रहा, ख्याल ही दूर हो गए, पहले कुछ सोचा था अब कुछ और ही सोचने लगे – ‘नहीं-नहीं, यह बेचारी हमारी दुश्मन नहीं है। राम-राम, न मालूम क्यों ऐसा ख्याल मेरे दिल में आ गया। इससे बढ़ कर तो कोई दोस्त दिखाई ही नहीं देता। अगर यह हमारी मदद न करती तो तिलिस्म का टूटना मुश्किल हो जाता, कुमारी के मिलने की उम्मीद जाती रहती, बल्कि मैं खुद दुश्मनों के हाथ पड़ जाता।’
कुमार क्या, सभी के ही दिल में एकदम यह बात पैदा हुई कि इस बाग और पहाड़ी की मालिक अगर यह है तो इसी ने कुमारी को भी कैद कर रखा होगा।
आखिर महाराज जयसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देख कर पूछा – ‘बेचारी चंद्रकांता इस खोह में फँस कर इन्हीं की कैद में पड़ गई होगी?’
बाबा जी – ‘नहीं, जिस वक्त कुमारी चंद्रकांता इस खोह में फँसी थी उस वक्त यहाँ का मालिक कोई न था, उसके बाद यह पहाड़ी बाग और मकान इनको मिला है।’
सिद्धनाथ बाबा की इस दूसरी बात ने और भ्रम में डाल दिया, यहाँ तक कि कुमार का जी घबराने लगा। अगर महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह यहाँ न होते तो जरूर कुमार चिल्ला उठते, मगर नहीं – शर्म ने मुँह बंद कर दिया और गंभीरता ने दोनों मोढ़ों पर हाथ धर कर नीचे की तरफ दबाया।
महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखा और गिड़गिड़ा कर बोले – ‘आप कृपा कर के पेचीदी बातों को छोड़ दीजिए और साफ कहिए कि यह लड़की जो सामने खड़ी है कौन है, यह पहाड़ी इसे किसने दी और चंद्रकांता कहाँ है?’
महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह की बात सुन कर बाबा जी मुस्कुराने लगे और वनकन्या की तरफ देख इशारे से उसे अपने पास बुलाया। वनकन्या अपनी अगल-बगल वाली दोनों सखियों को जिनमें से एक की पोशाक सुर्ख और दूसरी की सब्ज थी, साथ लिए हुए सिद्धनाथ के पास आई। बाबा जी ने उसके चेहरे पर से एक झिल्ली जैसी कोई चीज जो तमाम चेहरे के साथ चिपकी हुई थी खींच ली और हाथ पकड़ कर महाराज जयसिंह के पैर पर डाल दिया और कहा – ‘लीजिए यही आपकी चंद्रकांता है।’
चेहरे पर की झिल्ली उतर जाने से सबों ने कुमारी चंद्रकांता को पहचान लिया, महाराज जयसिंह पैर से उसका सिर उठा कर देर तक अपनी छाती से लगाए रहे और खुशी से गद्गद् हो गए।
सिद्धनाथ योगी ने उसकी दोनों सखियों के मुँह पर से भी झिल्ली उतार दी। लाल पोशाक वाली चपला और सब्ज पोशाक वाली चंपा साफ पहचानी गईं। मारे खुशी के सबों का चेहरा चमक उठा, आज की-सी खुशी कभी किसी ने नहीं पाई थी। महाराज जयसिंह के इशारे से कुमारी चंद्रकांता ने राजा सुरेंद्रसिंह के पैर पर सिर रखा, उन्होंने उसका सिर उठा कर चूमा।
घंटों तक मारे खुशी के सभी की अजब हालत रही।
कुँवर वीरेंद्रसिंह की दशा तो लिखनी ही मुश्किल है। अगर सिद्धनाथ योगी इनको पहले ही कुमारी से न मिलाए रहते तो इस समय इनको शर्म और हया कभी न दबा सकती, जरूर कोई बेअदबी हो जाती।
महाराज जयसिंह की तरफ देख कर सिद्धनाथ बाबा बोले – ‘आप कुमारी को हुक्म दीजिए कि अपनी सखियों के साथ घूमे-फिरे या दूसरे कमरे में चली जाए और आप लोग इस पहाड़ी और कुमारी का विचित्र हाल मुझसे सुनें।’
जयसिंह – ‘बहुत दिनों के बाद इसकी सूरत देखी है, अब कैसे अपने से अलग करूँ, कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई आफत आए और इसको देखना मुश्किल हो जाए।’
बाबा जी – (हँस कर) ‘नहीं, नहीं, अब यह आपसे अलग नहीं हो सकती।’
जयसिंह – ‘खैर, जो हो, इसे मुझसे अलग मत कीजिए और कृपा करके इसका हाल शुरू से कहिए।’
बाबा जी – ‘अच्छा, जैसी आपकी मर्जी।’
बयान – 20
महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चंद्रकांता का हाल कहना शुरू किया।
बाबा जी – ‘मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा-सा तिलिस्म है और चुनारगढ़ के इलाके में भी कोई तिलिस्म है। जिसके हाथ से वह तिलिस्म टूटेगा उसकी शादी जिसके साथ होगी उसी के दहेज के सामान पर यह तिलिस्म बँधा है और शादी होने के पहले ही वह इसकी मालिक होगी।’
सुरेंद्र – ‘पहले यह बताइए कि तिलिस्म किसे कहते हैं और वह कैसे बनाया जाता है?’
बाबा जी – ‘तिलिस्म वही शख्स तैयार कराता है जिसके पास बहुत माल-खजाना हो और वारिस न हो। तब वह अच्छे-अच्छे ज्योतिषी और नजूमियों से दरियाफ्त करता है कि उसके या उसके भाइयों के खानदान में कभी कोई प्रतापी या लायक पैदा होगा या नहीं? आखिर ज्योतिषी या नजूमी इस बात का पता देते हैं कि इतने दिनों के बाद आपके खानदान में एक लड़का प्रतापी होगा, बल्कि उसकी एक जन्म-पत्री लिख कर तैयार कर देते हैं। उसी के नाम से खजाना और अच्छी-अच्छी कीमती चीजों को रख कर उस पर तिलिस्म बाँधते हैं।
आजकल तो तिलिस्म बाँधने का यह कायदा है कि थोड़ा-बहुत खजाना रख कर उसकी हिफाजत के लिए दो-एक बलि दे देते हैं, वह प्रेत या साँप हो कर उसकी हिफाजत करता है और कहे हुए आदमी के सिवाय दूसरे को एक पैसा लेने नहीं देता, मगर पहले यह कायदा नहीं था। पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्म बाँधने की जरूरत पड़ती थी तो बड़े-बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किए जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्म बाँधने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अंदर खजाना रख कर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनाई जाती थी। उसमें ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग अपनी ताकत के मुताबिक उसके छिपाने की बंदिश करते थे मगर साथ ही इसके उस आदमी के नक्षत्र और ग्रहों का भी ख्याल रखते थे जिसके लिए वह खजाना रखा जाता था। कुँवर वीरेंद्रसिंह ने एक छोटा-सा तिलिस्म तोड़ा है, उनकी जुबानी आप वहाँ का हाल सुनिए और हर एक बात को खूब गौर से सोचिए तो आप ही मालूम हो जाएगा कि ज्योतिषी, नजूमी, कारीगर और दर्शन-शास्त्र के जानने वाले क्या काम कर सकते थे।
जयसिंह – ‘खैर, इसका हाल कुछ-कुछ मालूम हो गया, बाकी कुमार की जुबानी तिलिस्म का हाल सुनने और गौर करने से मालूम हो जाएगा। अब आप इस पहाड़ी और मेरी लड़की का हाल कहिए और यह भी कहिए कि महाराज शिवदत्त इस खोह से क्यों कर निकल भागे और फिर क्यों कर कैद हो गए?’
बाबा जी – ‘सुनिए मैं बिल्कुल हाल आपसे कहता हूँ। जब कुमारी चंद्रकांता चुनारगढ़ के तिलिस्म में फँस कर इस खोह में आईं तो दो दिनों तक तो इस बेचारी ने तकलीफ से काटे। तीसरे रोज खबर लगने पर मैं यहाँ पहुँचा और कुमारी को उस जगह से छुड़ाया जहाँ वह फँसी हुई थी और जिसको मैं आप लोगों को दिखाऊँगा।’
सुरेंद्र – ‘सुनते हैं तिलिस्म तोड़ने में ताकत की भी जरूरत पड़ती है?’
बाबा जी – ‘यह ठीक है, मगर इस तिलिस्म में कुमारी को कुछ भी तकलीफ न हुई और न ताकत की जरूरत पड़ी, क्योंकि इसका लगाव उस तिलिस्म से था, जिसे कुमार ने तोड़ा है। वह तिलिस्म या उसके कुछ हिस्से अगर न टूटते तो यह तिलिस्म भी न खुलता।’
कुमार – (सिद्धनाथ की तरफ देख कर) ‘आपने यह तो कहा ही नहीं कि कुमारी के पास किस राह से पहुँचे? हम लोग जब इस खोह में आए थे और कुमारी को बेबस देखा था, तब बहुत सोचने पर भी कोई तरकीब ऐसी न मिली थी जिससे कुमारी के पास पहुँच कर इन्हें उस बला से छुड़ाते।’
बाबा जी – ‘सिर्फ सोचने से तिलिस्म का हाल नहीं मालूम हो सकता है। मैं भी सुन चुका था कि इस खोह में कुमारी चंद्रकांता फँसी पड़ी है और आप छुड़ाने की फिक्र कर रहे हैं मगर कुछ बन नहीं पड़ता। मैं यहाँ पहुँच कर कुमारी को छुड़ा सकता था लेकिन यह मुझे मंजूर न था, मैं चाहता था कि यहाँ का माल-असबाब कुमारी के हाथ लगे।’
कुमार – ‘आप योगी हैं, योगबल से इस जगह पहुँच सकते हैं, मगर मैं क्या कर सकता था।’
बाबा जी – ‘आप लोग इस बात को बिल्कुल मत सोचिए कि मैं योगी हूँ, जो काम आदमी के या ऐयारों के किए नहीं हो सकता उसे मैं भी नहीं कर सकता। मैं जिस राह से कुमारी के पास पहुँचा और जो-जो किया सो कहता हूँ, सुनिए।’
बयान – 21
सिद्धनाथ योगी ने कहा – ‘पहले इस खोह का दरवाजा खोल मैं इसके अंदर पहुँचा और पहाड़ी के ऊपर एक दर्रे में बेचारी चंद्रकांता को बेबस पड़े हुए देखा। अपने गुरु से मैं सुन चुका था कि इस खोह में कई छोटे-छोटे बाग हैं जिनका रास्ता उस चश्मे में से है जो खोह में बह रहा है, खोह के अंदर आने पर आप लोगों ने उसे जरूर देखा होगा, क्योंकि खो में उस चश्मे की खूबसूरती भी देखने के काबिल है।’
सिद्धनाथ की इतनी बात सुन कर सभी ने ‘हूँ-हाँ’ कह के सिर हिलाया। इसके बाद सिद्धनाथ योगी कहने लगे – ‘मैं लंगोटी बाँध कर चश्मे में उतर गया और इधर से उधर और उधर से इधर घूमने लगा। यकायक पूरब तरफ जल के अंदर एक छोटा-सा दरवाजा मालूम हुआ, गोता लगा कर उसके अंदर घुसा। आठ-दस हाथ तक बराबर जल मिला इसके बाद धीरे-धीरे जल कम होने लगा, यहाँ तक कि कमर तक जल हुआ। तब मालूम पड़ा कि यह कोई सुरंग है जिसमें चढ़ाई के तौर पर ऊँचे की तरफ चला जा रहा हूँ।
आधा घंटा चलने के बाद मैंने अपने को इस बाग में (जिसमें आप बैठे हैं) पश्चिम और उत्तर के कोण में पाया और घूमता-फिरता इस कमरे में पहुँचा, (हाथ से इशारा करके) यह देखिए दीवार में जो अलमारी है, असल में वह अलमारी नहीं दरवाजा है, लात मारने से खुल जाता है। मैंने लात मार कर यह दरवाजा खोला और इसके अंदर घुसा। भीतर बिल्कुल अंधकार था, लगभग दो सौ कदम जाने के बाद दीवार मिली। इसी तरह यहाँ भी लात मार कर दरवाजा खोला और ठीक उसी जगह पहुँचा जहाँ कुमारी चंद्रकांता और चपला बेबस पड़ी रो रही थीं। मेरे बगल से ही एक दूसरा रास्ता उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को गया था, जिसके एक टुकड़े को कुमार ने तोड़ा है।
मुझे देखते ही ये दोनों घबरा गईं। मैंने कहा – “तुम लोग डरो मत, मैं तुम दोनों को छुड़ाने आया हूँ।” यह कह कर जिस राह से मैं गया था, उसी राह से कुमारी चंद्रकांता और चपला को साथ ले इस बाग में लौट आया। इतना हाल, इतनी कैफियत, इतना रास्ता तो मैं जानता था, इससे ज्यादा इस खोह का हाल मुझे कुछ भी मालूम न था। कुमारी और चपला को खोह के बाहर कर देना या घर पहुँचा देना मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर मुझको यह मंजूर था कि यह छोटा-सा तिलिस्म कुमारी के हाथ से टूटे और यहाँ का माल-असबाब इनके हाथ लगे।
मैं क्या सभी कोई इस बात को जानते होंगे और सबों को यकीन होगा कि कुमारी चंद्रकांता को इस कैद से छुड़ाने के लिए ही कुमार चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को तोड़ रहे थे, माल-खजाने की इनको लालच न थी। अगर मैं कुमारी को यहाँ से निकाल कर आपके पास पहुँचा देता तो कुमार उस तिलिस्म को तोड़ना बंद कर देते और वहाँ का खजाना भी यों ही रह जाता। मैं आप लोगों की बढ़ती चाहने वाला हूँ। मुझे यह कब मंजूर हो सकता था कि इतना माल-असबाब बरबाद जाए और कुमार या कुमारी चंद्रकांता को न मिले।
मैंने अपने जी का हाल कुमारी और चपला से कहा और यह भी कहा कि अगर मेरी बात न मानोगी तो तुम्हें इसी बाग में छोड़ कर मैं चला जाऊँगा। आखिर लाचार हो कर कुमारी ने मेरी बात मंजूर की और कसम खाई कि मेरे कहने के खिलाफ कोई काम न करेगी।
मुझे यह तो मालूम ही न था कि यहाँ का माल-असबाब क्यों कर हाथ लगेगा, और इस खजाने की ताली कहाँ है, मगर यह यकीन हो गया कि कुमारी जरूर इस तिलिस्म की मालिक होगी। इसी फिक्र में दो रोज तक परेशान रहा। इन बागीचों की हालत बिल्कुल खराब थी, मगर दो-चार फलों के पेड़ ऐसे थे कि हम तीनों ने तकलीफ न पाई।
तीसरे दिन पूर्णिमा थी। मैं उस बावड़ी के किनारे बैठा कुछ सोच रहा था, कुमारी और चपला इधर-उधर टहल रही थीं, इतने में चपला दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली – ‘जल्दी चलिए, इस बाग में एक ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी है।’
मैं सुनते ही खड़ा हुआ और चपला के साथ वहाँ गया जहाँ कुमारी चंद्रकांता पूरब की दीवार तले खड़ी गौर से कुछ देख रही थी। मुझे देखते ही कुमारी ने कहा – ‘बाबा जी, देखिए इस दीवार की जड़ में एक सूराख है जिसमें से सफेद रंग की बड़ी-बड़ी चींटियाँ निकल रही हैं। यह क्या मामला है?’
मैंने अपने उस्ताद से सुना था कि सफेद चींटियाँ जहाँ नजर पड़ें समझना कि वहाँ जरूर कोई खजाना या खजाने की ताली है। यह ख्याल करके मैंने अपनी कमर से खंजर निकाल कुमारी के हाथ में दे दिया और कहा कि तुम इस जमीन को खोदो। अस्तु मेरे कहे मुताबिक कुमारी ने उस जमीन को खोदा। हाथ ही भर के बाद कांच की छोटी-सी हाँडी निकली जिसका मुँह बंद था। कुमारी के ही हाथ से वह हाँडी मैंने तूड़वाई। उसके भीतर किसी किस्म का तेल भरा हुआ था जो हाँडी टूटते ही बह गया और ताली का एक गुच्छा उसके अंदर से मिला जिसे पा कर मैं बहुत खुश हुआ।
दूसरे दिन कुमारी चंद्रकांता के हाथ में ताली का गुच्छा दे कर मैंने कहा – ‘चारों तरफ घूम-घूम कर देखो, जहाँ ताला नजर पड़े, इन तालियों में से किसी ताली को लगा कर खोलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।’
मुख्तसर ही में बयान करके इस बात को खत्म करता हूँ। उस गुच्छे में तीस तालियाँ थीं, कई दिनों में खोज कर हम लोगों ने तीसों ताले खोले। तीन दरवाजे तो ऐसे मिले, जिनसे हम लोग ऊपर-ऊपर इस तिलिस्म के बाहर हो जाएँ। चार बाग और तेईस कोठरियाँ असबाब और खजाने की निकलीं जिसमें हर एक किस्म का अमीरी का सामान और बेहद खजाना मौजूद था।
जब ऊपर-ही-ऊपर तिलिस्म से बाहर हो जाने का रास्ता मिला, तब मैं अपने घर गया और कई लौंडियाँ और जरूरी चीजें कुमारी के वास्ते ले कर फिर यहाँ आया। कई दिनों में यहाँ के सब ताले खोले गए, तब तक यहाँ रहते-रहते कुमारी की तबीयत घबरा गई, मुझसे कई दफा उन्होंने कहा – ‘मैं इस तिलिस्म के बाहर घूमान-फिराना चाहती हूँ।’
बहुत जिद करने पर मैंने इस बात को मंजूर किया। अपनी कारीगरी से इन लोगों की सूरत बदली और दो-तीन घोड़े भी ला दिए जिन पर सवार हो कर ये लोग कभी-कभी तिलिस्म के बाहर घूमने जाया करती। इस बात की ताकीद कर दी थी कि अपने को छिपाए रहें, जिससे कोई पहचानने न पाए। इन्होंने भी मेरी बात पूरे तौर पर मानी और जहाँ तक हो सका अपने को छिपाया। इस बीच में धीरे –धीरे में इन बागों की भी दुरुस्ती की गई।
कुँवर वीरेंद्रसिंह ने उस तिलिस्म का खजाना हासिल किया और यहाँ का माल-असबाब जो कुछ छिपा था, कुमारी को मिल गया। (जयसिंह की तरफ देख कर) आज तक यह कुमारी चंद्रकांता मेरी लड़की या मालिक थी, अब आपकी जमा आपके हवाले करता हूँ।
महाराज शिवदत्त की रानी पर रहम खा कर कुमारी ने दोनों को छोड़ दिया था और इस बात की कसम खिला दी थी कि कुमार से किसी तरह की दुश्मनी न करेंगे। मगर उस दुष्ट ने न माना, पुराने साथियों से मुलाकात होने पर बदमाशी पर कमर बाँधी और कुमार के पीछे लश्कर की तबाही करने लगा। आखिर लाचार हो कर मैंने उसे गिरफ्तार किया और इस खोह में उसी ठिकाने फिर ला रखा जहाँ कुमार ने उसे कैद करके डाल दिया था। अब और जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं सब हाल कह आप लोगों की शंका मिटाऊँ।’
सुरेंद्र – ‘पूछने को तो बहुत-सी बातें थीं मगर इस वक्त इतनी खुशी हुई है कि वे तमाम बातें भूल गया हूँ, क्या पूछूँ? खैर, फिर किसी वक्त पूछ लूँगा। कुमारी की मदद आपने क्यों की?’
जयसिंह – ‘हाँ यही सवाल मेरा भी है, क्योंकि आपका हाल जब तक नहीं मालूम होता तबीयत की घबराहट नहीं मिटती, इस पर आप कई दफा कह चुके हैं कि मैं योगी महात्मा नहीं हूँ, यह सुन कर हम लोग और भी घबरा रहे हैं कि अगर आप वह नहीं हैं जो सूरत से जाहिर है तो फिर कौन हैं।’
बाबा जी – ‘खैर, यह भी मालूम हो जाएगा।’
जयसिंह – (कुमारी चंद्रकांता की तरफ देख कर) ‘बेटी, क्या तुम भी नहीं जानतीं कि यह योगी कौन हैं?’
चंद्रकांता – (हाथ जोड़ कर) ‘मैं तो सब-कुछ जानती हूँ मगर कहूँ क्यों कर, इन्होंने तो मुझसे सख्त कसम खिला दी है, इसी से मैं कुछ भी नहीं कह सकती।’
बाबा जी – ‘आप जल्दी क्यों करते हैं। अभी थोड़ी देर में मेरा हाल भी आपको मालूम हो जाएगा, पहले चल कर उन चीजों को तो देखिए जो कुमारी चंद्रकांता को इस तिलिस्म से मिली हैं।’
जयसिंह – ‘जैसी आपकी मर्जी।’
बाबा जी उसी वक्त उठ खड़े हुए और सभी को साथ ले, दूसरे बाग की तरफ चले।
बयान – 22
बाबा जी यहाँ से उठ कर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुँचे और वहाँ घूम-फिर कर तमाम बाग, इमारत, खजाना और सब असबाबों को दिखाने लगे जो इस तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था।
महाराज जयसिंह उन सब चीजों को देखते ही एकदम बोल उठे – ‘वाह-वाह, धन्य थे वे लोग जिन्होने इतनी दौलत इकट्ठी की थी। मैं अपना बिल्कुल राज्य बेच कर भी अगर इस तरह के दहेज का सामान इकट्ठा करना चाहता तो इसका चौथाई भी न कर सकता।’
सबसे ज्यादा खजाना और जवाहिरखाना उस बाग और दीवानखाने के तहखाने में नजर पड़ा जहाँ कुँवर वीरेंद्रसिंह ने कुमारी चंद्रकांता की तस्वीर का दरबार देखा था।
तीसरे और चौथे भाग के शुरू में पहाड़ी बाग, कोठरियों और रास्ते का कुछ हाल हम लिख चुके हैं। दो-तीन दिनों में सिद्ध बाबा ने इन लोगों को उन जगहों की पूरी सैर कराई। जब इन सब कामों से छुट्टी मिली और सब कोई दीवानखाने में बैठे उस वक्त महाराज जयसिंह ने सिद्ध बाबा से कहा – ‘आपने जो कुछ मदद कुमारी चंद्रकांता की करके उसकी जान बचाई, उसका एहसान तमाम उम्र हम लोगों के सिर रहेगा। आज जिस तरह हो आप अपना हाल कह कर हम लोगों के आश्चर्य को दूर कीजिए, अब सब्र नहीं किया जाता।’
महाराज जयसिंह की बात सुन सिद्ध बाबा मुस्कराकर बोले – ‘मैं भी अपना हाल आप लोगों पर जाहिर करता हूँ जरा सब्र कीजिए।’ इतना कह कर जोर से जफील (सीटी) बजाई। उसी वक्त तीन-चार लौंडियाँ दौड़ती हुई आ कर उनके पास खड़ी हो गईं। सिद्धनाथ बाबा ने हुक्म दिया – ‘हमारे नहाने के लिए जल और पहनने के लिए असली कपड़ों का संदूक (उँगली का इशारा करके) इस कोठरी में ला कर जल्द रखो। आज मैं इस मृगछाले और लंबी दाढ़ी को इस्तीफा दूँगा।’
थोड़ी ही देर में सिद्ध बाबा के हुक्म की तामील हो गई। तब तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। इसके बाद सिद्ध बाबा उठ कर उस कोठरी में चले गए जिसमें उनके नहाने का जल और पहनने के कपड़े रखे हुए थे।
थोड़ी ही देर बाद नहा-धो और कपड़े पहन कर सिद्ध बाबा उस कोठरी के बाहर निकले। अब तो इनको सिद्ध बाबा कहना मुनासिब नहीं, आज तक बाबा जी कह चुके बहुत कहा, अब तो तेजसिंह के बाप जीतसिंह कहना ठीक है।
अब पूछने या हाल-चाल मालूम करने की फुरसत कहाँ। महाराज सुरेंद्रसिंह तो जीतसिंह को पहचानते ही उठे और यह कहा – ‘तुम मेरे भाई से भी हजार दर्जे बढ़ के हो।’ गले लगा लिया और कहा – “जब महाराज शिवदत्त और कुमार से लड़ाई हुई तब तुमने सिर्फ पाँच सौ सवार ले कर कुमार की मदद की थी। आज तो तुमने कुमार से भी बढ़ कर नाम पैदा किया और पुश्तहापुश्त के लिए नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों राज्यों के ऊपर अपने अहसान का बोझ रखा।” देर तक गले लगाए रहे, इसके बाद महाराज जयसिंह ने भी उन्हें बराबरी का दर्जा दे कर गले लगाया। तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने भी बड़ी खुशी से पूजा की।
अब मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकांता की जान बचाने वाले, नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों की इज्जत रखने वाले, दोनों राज्यों की तरक्की करने वाले, आज तक अच्छे-अच्छे ऐयारों को धोखे में डालने वाले, कुँवर वीरेंद्रसिंह को धोखे में डाल कर विचित्र तमाशा दिखाने वाले, पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को रोक कर जान बचाने और चुनारगढ़ राज्य में फतह का डंका बजाने वाले, सिद्धनाथ योगी बने हुए यही महात्मा जीतसिंह थे।
इस वक्त की खुशी का क्या अंदाजा है। अपने-अपने में सब ऐसे मग्न हो रहे हैं कि त्रिभुवन की संपत्ति की तरफ हाथ उठाने को जी नहीं चाहता। कुँवर वीरेंद्रसिंह को कुमारी चंद्रकांता से मिलने की खुशी जैसी भी थी आप खुद ही सोच-समझ सकते हैं, इसके सिवाय इस बात की खुशी बेहद हुई कि सिद्धनाथ का अहसान किसी के सिर न हुआ, या अगर हुआ तो जीतसिंह का, सिद्धनाथ बाबा तो कुछ थे ही नहीं।
इस वक्त महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह का आपस में दिली प्रेम कितना बढ़-चढ़ रहा है वे ही जानते होंगे। कुमारी चंद्रकांता को घर ले जाने के बाद शादी के लिए खत भेजने की ताब किसे? जयसिंह ने उसी वक्त कुमारी चंद्रकांता के हाथ पकड़ के राजा सुरेंद्रसिंह के पैर पर डाल दिया और डबडबाई आँखों को पोंछ कर कहा – ‘आप आज्ञा कीजिए कि इस लड़की को मैं अपने घर ले जाऊँ और जात-बिरादरी तथा पंडित लोगों के सामने कुँवर वीरेंद्रसिंह की लौंडी बनाऊँ।’
राजा सुरेंद्रसिंह ने कुमारी को अपने पैर से उठाया और बड़ी मुहब्बत के साथ महाराज जयसिंह को गले लगा कर कहा – ‘जहाँ तक जल्दी हो सके आप कुमारी को ले कर विजयगढ़ जाएँ क्योंकि इसकी माँ बेचारी मारे गम के सूख कर काँटा हो रही होगी।’
इसके बाद महाराज सुरेंद्रसिंह ने पूछा – ‘अब क्या करना चाहिए?’
जीतसिंह – ‘अब सभी को यहाँ से चलना चाहिए, मगर मेरी समझ में यहाँ से माल-असबाब और खजाने को ले चलने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अव्वल तो यह माल-असबाब सिवाय कुमारी चंद्रकांता के किसी के मतलब का नहीं, इसलिए कि दहेज का माल है, इसकी तालियाँ भी पहले से ही इनके कब्जे में रही हैं, यहाँ से उठा कर ले जाने और फिर इनके साथ भेज कर लोगों को दिखाने की कोई जरूरत नहीं, दूसरे यहाँ की आबोहवा कुमारी को बहुत पसंद है, जहाँ तक मैं समझता हूँ, कुमारी चंद्रकांता फिर यहाँ आ कर कुछ दिन जरूर रहेंगी, इसलिए हम लोगों को यहाँ से खाली हाथ सिर्फ कुमारी चंद्रकांता को ले कर बाहर होना चाहिए।’
बहादुर और पूरे ऐयार जीतसिंह की राय को सभी ने पसंद किया और वहाँ से बाहर होकर नौगढ़ और विजयगढ़ जाने के लिए तैयार हुए।
जीतसिंह ने कुल लौंडियों को जिन्हें कुमारी की खिदमत के लिए वहाँ लाए थे, बुला के कहा – ‘तुम लोग अपने-अपने चेहरे को साफ करके असली सूरत में उस पालकी को ले कर जल्द यहाँ आओ, जो कुमारी के लिए मैंने पहले से मँगा रखी है।’
जीतसिंह का हुक्म पा कर वे लौंडियाँ जो गिनती में बीस होंगी दूसरे बाग में चली गईं और थोड़ी ही देर बाद अपनी असली सूरत में एक निहायत उम्दा सोने की जड़ाऊ पालकी अपने कंधो पर लिए हाजिर हुईं। कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह ने अब इन लौंडियों को पहचाना।
तेजसिंह ने ताज्जुब में आ कर कहा – ‘वाह-वाह, अपने घर की लौंडियों को आज तक मैंने न पहचाना। मेरी माँ ने भी यह भेद मुझसे न कहा।’
बयान – 23
जिस राह से कुँवर वीरेंद्रसिंह वगैरह आया-जाया करते थे और महाराज जयसिंह वगैरह आए थे, वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी, घोड़ा या पालकी पर सवार हो कर आए और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाजे तक जाने में कुछ चक्कर पड़ता था, इसलिए जीतसिंह ने कुमारी के वास्ते पालकी मँगाई मगर दोनों महाराज और कुँवर वीरेंद्रसिंह किस पर सवार होंगे, अब वे सोचने लगे।
वहाँ खोह में दो घोड़े भी थे जो कुमारी की सवारी के वास्ते लाए गए थे। जीतसिंह ने उन्हें महाराज जयसिंह और राजा सुरेंद्रसिंह की सवारी के लिए तजवीज करके कुमार के वास्ते एक हवादार मँगवाया, लेकिन कुमार ने उस पर सवार होने से इनकार करके पैदल चलना कबूल किया।
उसी बाग के दक्खिन तरफ एक बड़ा फाटक था, जिसके दोनों बगल लोहे की दो खूबसूरत पुतलियाँ थीं। बाईं तरफ वाली पुतली के पास जीतसिंह पहुँचे और उसकी दाहिनी आँख में उँगली डाली, साथ ही उसका पेट दो पल्ले की तरह खुल गया और बीच में चाँदी का एक मुट्ठा नजर पड़ा जिसे जीतसिंह ने घुमाना शुरू किया।
जैसे-जैसे मुट्ठा घुमाते थे वैसे-वैसे वह फाटक जमीन में घुसता जाता था। यहाँ तक कि तमाम फाटक जमीन के अंदर चला गया और बाहर खुशनुमा सब्ज से भरा हुआ मैदान नजर पड़ा।
फाटक खुलने के बाद जीतसिंह फिर इन लोगों के पास आ कर बोले – ‘इसी राह से हम लोग बाहर चलेंगे।’
दिन आधी घड़ी से ज्यादा न बीता होगा, जब महाराज जयसिंह और सुरेंद्रसिंह घोड़े पर सवार हो कुमारी चंद्रकांता की पालकी आगे कर फाटक के बाहर हुए। दोनों महाराजों के बीच में दोनों हाथों से दोनों घोड़ों की रकाब पकड़े हुए जीतसिंह बातें करते और इनके पीछे कुँवर वीरेंद्रसिंह अपने ऐयारों को चारों तरफ लिए कन्हैया बने खोह के फाटक की तरफ रवाना हुए।
पहर भर चलने के बाद ये लोग उस लश्कर में पहुँचे जो खोह के दरवाजे पर उतरा हुआ था। रात-भर उसी जगह रह कर सुबह को कूच किया। यहाँ से खूबसूरत और कीमती कपड़े पहन कर कहारों ने कुमारी की पालकी उठाई और महाराज जयसिंह के साथ विजयगढ़ रवाना हुए मगर वे लौंडियाँ भी जो आज तक कुमारी के साथ थीं और यहाँ तक कि उनकी पालकी उठा कर लाई थीं, मुहब्बत की वजह और महाराज सुरेंद्रसिंह के हुक्म से कुमारी के साथ गई।
राजा सुरेंद्रसिंह कुमार को साथ लिए हुए नौगढ़ पहुँचे। कुँवर वीरेंद्रसिंह पहले महल में जा कर अपनी माँ से मिले और कुलदेवी की पूजा करके बाहर आए।
अब तो बड़ी खुशी से दिन गुजरने लगे, आठवें ही रोज महाराज जयसिंह का भेजा हुआ तिलक पहुँचा और बड़ी धुमधाम से वीरेंद्रसिंह को चढ़ाया गया।
पाठक, अब तो कुँवर वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता का वृत्तांत समाप्त ही हुआ समझिए। बाकी रह गई सिर्फ कुमार की शादी। इस वक्त तक सब किस्से को मुख्तसर लिख कर सिर्फ बारात के लिए कई वर्क कागज के रँगना मुझे मंजूर नहीं। मैं यह नहीं लिखना चाहता कि नौगढ़ से विजयगढ़ तक रास्ते की सफाई की गई, केवड़े के जल से छिड़काव किया गया, दोनों तरफ बिल्लौरी हाँडियाँ रोशन की गईं, इत्यादि। आप खुद ख्याल कर सकते हैं कि ऐसे आशिक-माशूक की बारात किस धुमधाम की होगी, इस पर दोनों ही राजा और दोनों ही की एक-एक औलाद। तिलिस्म फतह करने और माल-खजाना पाने की खुशी ने और दिमाग बढ़ा रखा था। मैं सिर्फ इतना ही लिखना पसंद करता हूँ कि अच्छी सायत में कुँवर वीरेंद्रसिंह की बारात बड़े धूमधाम से विजयगढ़ की तरफ रवाना हुई।
विजयगढ़ में जनवासे की तैयारी सबसे बढ़ी-चढ़ी थी। बारात पहुँचने के पहले ही समा बँधा हुआ था, अच्छी-अच्छी खूबसूरत और गाने के इल्म को पूरे तौर पर जानने वाली रंडियों से महफिल भरी हुई थी, मगर जिस वक्त बारात पहुँची, अजब झमेला मचा।
बारात के आगे-आगे महाराज शिवदत्त बड़ी तैयारी से घोड़े पर सवार सरपेंच बाँधे कमर से दोहरी तलवार लगाए, हाथ में झंडा लिए, जनवासे के दरवाजे पर पहुँचे, इसके बाद धीरे-धीरे कुल जुलूस पहुँचा। दूल्हा बने हुए कुमार घोड़े से उतर कर जनवासे के अंदर गए।
कुमार वीरेंद्रसिंह का घोड़े से उतर कर जनवासे के अंदर जाना ही था कि बाहर हो-हल्ला मच गया। सब कोई देखने लगे कि दो महाराज शिवदत्त आपस में लड़ रहे हैं। दोनों की तलवारें तेजी के साथ चल रही हैं और दोनों ही के मुँह से यही आवाज निकल रही है – ‘हमारी मदद को कोई न आए, सब दूर से तमाशा देखें।’ एक महाराज शिवदत्त तो वही थे जो अभी-अभी सरपेंच बाँधे हाथ में झंडा लिए घोड़े पर सवार आए थे और दूसरे महाराज शिवदत्त मामूली पोशाक पहने हुए थे मगर बहादुरी के साथ लड़ रहे थे।
थोड़ी ही देर में हमारे शिवदत्त को (जो झंडा उठाए घोड़े पर सवार आए थे) इतना मौका मिला कि कमर में से कमंद निकाल, अपने मुकाबले वाले दुश्मन महाराज शिवदत्त को बाँध लिया और घसीटते हुए जनवासे के अंदर चले। पीछे-पीछे बहुत से आदमियों की भीड़ भी इन दोनों को ताज्जुब भरी निगाहों से देखती हुई अंदर पहुँची।
हमारे महाराज शिवदत्त ने दूसरे साधारण पोशाक पहने हुए महाराज शिवदत्त को एक खंबे के साथ खूब कस कर बाँध दिया और एक मशालची के हाथ से, जो उसी जगह मशाल दिखा रहा था मशाल ले कर उनके हाथ में थमाई, आप कुँवर वीरेंद्रसिंह के पास जा बैठे। उसी जगह सोने का जड़ाऊ बर्तन गुलाबजल से भरा हुआ रखा था, उससे रूमाल तर करके हमारे महाराज ने अपना मुँह पोंछ डाला। पोशाक वही, सरपेंच वही, मगर सूरत तेजसिंह बहादुर की।
अब तो मारे हँसी के पेट में बल पड़ने लगा। पाठक, आप तो इस दिल्लगी को खूब समझ गए होंगे, लेकिन अगर कुछ भ्रम हो गया तो मैं लिखे देता हूँ।
हमारे तेजसिंह अपने कौल के मुताबिक महाराज शिवदत्त की सूरत बना सरपेंच (फतह का सरपेंच जो देवीसिंह लाए थे) बाँध झंडा ले कुमार की बारात के आगे-आगे चले थे, उधर असली महाराज शिवदत्त जो महाराज सुरेंद्रसिंह से जान बचा, तपस्या का बहाना कर जंगल में चले गए थे कुँवर वीरेंद्रसिंह की बारात की कैफियत देखने आए। फकीरी करने का तो बहाना ही था असल में तो तबीयत से बदमाशी और खुटाई गई नहीं थी।
महाराज शिवदत्त बारात की कैफियत देखने आए मगर आगे-आगे झंडा हाथ में लिए अपनी सूरत देख समझ गए कि किसी ऐयार की बदमाशी है। क्षत्रीपन का खून जोश में आ गया, गुस्से को सँभाल न सके, तलवार निकाल कर लड़ ही गए। आखिर नतीजा यह हुआ कि उनको महफिल में मशालची बनना पड़ा और कुँवर वीरेंद्रसिंह की शादी खुशी-खुशी कुमारी चंद्रकांता के साथ हो गई।