चंद्रकांता -देवकीनंदन खत्री-अध्याय -2-भाग-2 (फंसना चंद्रकांता और चपला का तिलिस्म में)
बयान – 11
कुमार का मिजाज बदल गया। वे बातें जो उनमें पहले थीं अब बिल्कुल न रहीं। माँ-बाप की फिक्र, विजयगढ़ का ख्याल, लड़ाई की धुन, तेजसिंह की दोस्ती, चंद्रकांता और चपला के मरते ही सब जाती रहीं। किले से ये तीनों बाहर आए, आगे शिवदत्त की गठरी लिए देवीसिंह और उनके पीछे कुमार को बीच में लिए तेजसिंह चले जाते थे। कुँवर वीरेंद्रसिंह को इसका कुछ भी ख्याल न था कि वे कहाँ जा रहे हैं। दिन चढ़ते-चढ़ते ये लोग बहुत दूर एक घने जंगल में जा पहुँचे, जहाँ तेजसिंह के कहने से देवीसिंह ने महाराज शिवदत्त की गठरी जमीन पर रख दी और अपनी चादर से एक पत्थर खूब झाड़ कर कुमार को बैठने के लिए कहा, मगर वे खड़े ही रहे, सिवाय जमीन देखने के कुछ भी न बोले।
कुमार की ऐसी दशा देख कर तेजसिंह बहुत घबराए। जी में सोचने लगे कि अब इनकी जिंदगी कैसे रहेगी? अजब हालत हो रही है, चेहरे पर मुर्दनी छा रही है, तनोबदन की सुधा नहीं, बल्कि पलकें नीचे को बिल्कुल नहीं गिरतीं, आँखों की पुतलियाँ जमीन देख रही हैं, जरा भी इधर-उधर नहीं हटतीं। यह क्या हो गया? क्या चंद्रकांता के साथ ही इनका भी दम निकल गया? यह खड़े क्यों हैं? तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ बैठने के लिए जोर दिया, मगर घुटना बिल्कुल न मुड़ा, धम से जमीन पर गिर पड़े, सिर फूट गया, खून निकलने लगा मगर पलकें उसी तरह खुली-की-खुली, पुतलियाँ ठहरी हुईं, साँस रुक-रुक कर निकलने लगी।
अब तेजसिंह कुमार की जिंदगी से बिल्कुल नाउम्मीद हो गए, रोकने से तबीयत न रुकी, जोर से पुकार कर रोने लगे। इस हालत को देख देवीसिंह की भी छाती फटी, रोने में तेजसिंह भी शरीक हुए।
तेजसिंह पुकार-पुकार कर कहने लगे कि – ‘हाय कुमार, क्या सचमुच अब तुमने दुनिया छोड़ ही दी? हाय, न मालूम वह कौन-सी बुरी सायत थी कि कुमारी चंद्रकांता की मुहब्बत तुम्हारे दिल में पैदा हुई जिसका नतीजा ऐसा बुरा हुआ। अब मालूम हुआ कि तुम्हारी जिंदगी इतनी ही थी।’
तेजसिंह इस तरह की बातें कह कर रो रहे थे कि इतने में एक तरफ से आवाज आई – ‘नहीं, कुमार की उम्र कम नहीं है बहुत बड़ी है, इनको मारने वाला कोई पैदा नहीं हुआ। कुमारी चंद्रकांता की मुहब्बत बुरी सायत में नहीं हुई बल्कि बहुत अच्छी सायत में हुई, इसका नतीजा बहुत अच्छा होगा। कुमारी से शादी तो होगी ही साथ ही इसके चुनारगढ़ की गद्दी भी कुँवर वीरेंद्रसिंह को मिलेगी। बल्कि और भी कई राज्य इनके हाथ से फतह होंगे। बड़े तेजस्वी और इनसे भी ज्यादा नाम पैदा करने वाले दो वीर पुत्र चंद्रकांता के गर्भ से पैदा होंगे। क्या हुआ है जो रो रहे हो?’
तेजसिंह और देवीसिंह का रोना एकदम बंद हो गया, इधर-उधर देखने लगे। तेजसिंह सोचने लगे कि हैं, यह कौन है, ऐसी मुर्दे को जिलाने वाली आवाज किसके मुँह से निकली? क्या कहा? कुमार को मारने वाला कौन है। कुमार के दो पुत्र होंगे। हैं, यह कैसी बात है? कुमार का तो यहाँ दम निकला जाता है। ढूँढ़ना चाहिए यह कौन है? तेजसिंह और देवीसिंह इधर-उधर देखने लगे पर कहीं कुछ पता न चला।
फिर आवाज आई – ‘इधर देखो।’ आवाज की सीध पर एक तरफ सिर उठा कर तेजसिंह ने देखा कि पेड़ पर से जगन्नाथ ज्योतिषी नीचे उतर रहे हैं।
जगन्नाथ ज्योतिषी उतर कर तेजसिंह के सामने आए और बोले – ‘आप हैरान मत होइए, ये सब बातें जो ठीक होने वाली हैं, मैंने ही कही हैं। इसके सोचने की भी जरूरत नहीं कि मैं महाराज शिवदत्त का तरफदार होकर आपके हित में बातें क्यों कहने लगा? इसका सबब भी थोड़ी देर में मालूम हो जाएगा और आप मुझको अपना सच्चा दोस्त समझने लगेगे, पहले कुमार की फिक्र कर लें तब आपसे बातचीत हो।’
इसके बाद जगन्नाथ ज्योतिषी ने तेजसिंह और देवीसिंह के देखते-देखते एक बूटी जिसकी तिकोनी पत्ती थी और आसमानी रंग का फूल लगा हुआ था, डंठल का रंग बिल्कुल सफेद और खुरदुरा था, उसी समय पास ही से ढूँढ़ कर तोड़ी और हाथ में खूब मल के दो बूँद उसके रस की कुमार की दोनों आँखों और कानों में टपका दीं, बाकी जो सीठी बची उसको तालू पर रख कर अपनी चादर से एक टुकड़ा फाड़ कर बाँधा दिया और बैठ कर कुमार के आराम होने की राह देखने लगे।
आधी घड़ी भी नहीं बीतने पाई थी कि कुमार की आँखों का रंग बदल गया, पलकों ने गिर कर कौड़ियों को ढाँक लिया, धीरे-धीरे हाथ-पैर भी हिलने लगे, दो-तीन छींकें भी आईं, जिसके साथ ही कुमार होश में आ कर उठ बैठे।
सामने ज्योतिषी जी के साथ तेजसिंह और देवीसिंह को बैठे देख कर पूछा – ‘क्यों, मुझको क्या हो गया था?’ तेजसिंह ने सब हाल कहा। कुमार ने जगन्नाथ ज्योतिषी को दंडवत किया और कहा – ‘महाराज, आपने मेरे ऊपर क्यों कृपा की, इसका हाल जल्द कहिए, मुझको कई तरह के शक हो रहे हैं।’
ज्योतिषी जी ने कहा – ‘कुमार, यह ईश्वर की माया है कि आपके साथ रहने को मेरा जी चाहता है। महाराज शिवदत्त इस लायक नहीं है कि मैं उसके साथ रह कर अपनी जान दूँ। उसको आदमी की पहचान नहीं, वह गुणियों का आदर नहीं करता, उसके साथ रहना अपने गुण की मिट्ठी खराब करना है। गुणी के गुण को देख कर कभी तारीफ नहीं करता, वह बड़ा भारी मतलबी है। अगर उसका काम किसी से कुछ बिगड़ जाए तो उसकी आँखें उसकी तरफ से तुरंत बदल जाती हैं, चाहे वह कैसा ही गुणी क्यों न हो। सिवाय इसके वह अधर्मी भी बड़ा भारी है, कोई भला आदमी ऐसे के साथ रहना पसंद नहीं करेगा, इसी से मेरा जी फट गया। मैं अगर रहूँगा तो आपके साथ रहूँगा। आप-सा कदरदान मुझको कोई दिखाई नहीं देता, मैं कई दिनों से इस फिक्र में था मगर कोई ऐसा मौका नहीं मिलता था कि अपनी सचाई दिखा कर आपका साथी हो जाता, क्योंकि मैं चाहे कितनी ही बातें बनाऊँ मगर ऐयारों की तरफ से ऐयारों का जी साफ होना मुश्किल है। आज मुझको ऐसा मौका मिला, क्योंकि आज का दिन आप पर बड़े संकट का था, जो कि महाराज शिवदत्त के धोखे और चालाकी ने आपको दिखाया।’ इतना कह ज्योतिषी जी चुप हो गए।
ज्योतिषी जी की आखिरी बात ने सभी को चौंका दिया। तीनों आदमी खिसक कर उनके पास आ बैठे।
तेजसिंह ने कहा – ‘हाँ ज्योतिषी जी जल्दी खुलासा कहिए, शिवदत्त ने क्या धोखा दिया?’
ज्योतिषी जी ने कहा – ‘महाराज शिवदत्त का यह कायदा है कि जब कोई भारी काम किया जाता है तो पहले मुझ से जरूर पूछता है, लेकिन चाहे राय दूँ या मना करूँ, करता है अपने ही मन की और धोखा भी खाता है। कई दफा पंडित बद्रीनाथ भी इन बातों से रंज हो गए कि जब अपने ही मन की करनी है जो ज्योतिषी जी से पूछने की जरूरत ही क्या है। आज रात को जो चालाकी उसने आपसे की उसके लिए भी मैंने मना किया था मगर कुछ न माना, आखिर नतीजा यह निकला कि घसीटासिंह और भगवानदत्त ऐयारों की जान गई, इसका खुलासा हाल मैं तब कहूँगा जब आप इस बात का वादा कर लें कि मुझको अपना ऐयार या साथी बनावेंगे।’
ज्योतिषी जी की बात सुन कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा। तेजसिंह ने कहा – ‘ज्योतिषी जी, मैं बड़ी खुशी से आपको साथ रखूँगा परंतु आपको इसके पहले अपने साफ दिल होने की कसम खानी पड़ेगी।’
ज्योतिषी जी ने तेजसिंह के मन से शक मिटाने के लिए जनेऊ हाथ में ले कर कसम खाई, तेजसिंह ने उठ के उन्हें गले लगा लिया और बड़ी खुशी से अपने ऐयारों की पंगत में मिला लिया। कुमार ने अपने गले से कीमती माला निकाल ज्योतिषी जी को पहना दी।
ज्योतिषी जी ने कहा – ‘अब मुझसे सुनिए कि कुमार महल में क्यों कैद किए गए थे और जो रात को खून-खराबा हुआ उसका असल भेद क्या है?
जब आप लोग लश्कर से कुमारी की खोज में निकले थे तो रास्ते में बद्रीनाथ ऐयार ने आपको देख लिया था। आप लोगों के पहले वे वहाँ पहुँचे और चंद्रकांता को दूसरी जगह छिपाने की नीयत से उस खोह में उसको लेने गए मगर उनके पहुँचने से पहले ही कुमारी वहाँ से गायब हो गई थी और वे खाली हाथ वापस आए, तब नाजिम को साथ ले आप लोगो की खोज में निकले और आपको इस जंगल में पा कर ऐयारी की। नाजिम ने ढेला फेंका था, देवीसिंह उसको पकड़ने गए, तब तक बद्रीनाथ जो पहले ही तेजसिंह बन कर आए थे, न मालूम किस चालाकी से आपको बेहोश कर किले में ले गए और जिसमें आपकी तबीयत से चंद्रकांता की मुहब्बत जाती रहे और आप उसकी खोज न करें तथा उसके लिए महाराज शिवदत्त से लड़ाई न ठानें इसलिए भगवानदत्त और घसीटासिंह जो हम सभी में कम उम्र थे चंद्रकांता और चपला बनाए गए जिनको आपने खत्म किया, बाकी हाल तो आप जानते ही हैं।’
ज्योतिषी जी की बात सुन कुमार मारे खुशी के उछल पड़े। कहने लगे – ‘हाय, क्या गजब किया था। कितना भारी धोखा दिया। अब मालूम हुआ कि बेचारी चंद्रकांता जीती-जागती है मगर कहाँ है इसका पता नहीं, खैर, यह भी मालूम हो जाएगा।’
अब क्या करना चाहिए इस बात को सभी ने मिल कर सोचा और यह पक्का किया कि
- महाराज शिवदत्त को तो उसी खोह में जिसमें ऐयार लोग पहले कैद किए गए थे, डाल देना चाहिए और दोहरा ताला लगा देना चाहिए क्योंकि पहले ताले का हाल जो शेर के मुँह में से जुबान खींचने से खुलता है, बद्रीनाथ को मालूम हो गया है, मगर दूसरे ताले का हाल सिवाय तेजसिंह के अभी कोई नहीं जानता।
- कुमार को विजयगढ़ चले जाना चाहिए क्योंकि जब तक महाराज शिवदत्त कैद हैं लड़ाई न होगी, मगर हिफाजत के लिए कुछ फौज सरहद पर जरूर होनी चाहिए।
- देवीसिंह कुमार के साथ रहें।
- तेजसिंह और ज्योतिषी जी कुमारी की खोज में जाएँ।
कुछ और बातचीत करके सब उठ खड़े हुए और वहाँ से चल पड़े।
बयान – 12
दोपहर के वक्त एक नाले के किनारे सुंदर साफ चट्टान पर दो कमसिन औरतें बैठी हैं। दोनों की मैली-फटी साड़ी, दोनों के मुँह पर मिट्टी, खुले बाल, पैरों पर खूब धूल पड़ी हुई और चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छाई हुई है।
चारों तरफ भयानक जंगल, खूनी जानवरों की भयानक आवाजें आ रही हैं। जब कभी जोर से हवा चलती है तो पेड़ों की सरसराहट से जंगल और भी डरावना मालूम पड़ता है। इन दोनों औरतों के सामने नाले के उस पार एक तेंदुआ पानी पीने के लिए उतरा, उन्होने उस तेंदुए को देखा मगर वह खूनी जानवर इन दोनों को न देख सका, क्योंकि जहाँ वे दोनों बैठी थीं सामने ही एक मोटा जामुन का पेड़ था।
इन दोनों में से एक जो ज्यादा नाजुक थी उस तेंदुए को देख डरी और धीरे से दूसरे से बोली – ‘प्यारी सखी, देखो कहीं वह इस पार न उतर आए।’
उसने कहा – ‘नहीं सखी वह इस पार न आएगा, अगर आने का इरादा भी करेगा तो मैं पहले ही इन तीरों से उसको मार गिराऊँगी जो उस नाले के सिपाहियों को मार कर लेती आई हूँ। इस वक्त हमारे पास दो सौ तीर हैं और हम दोनों तीर चलाने वाली हैं, लो तुम भी एक तीर चढ़ा लो।’ यह सुन उसने भी एक तीर कमान पर चढ़ाया मगर उसकी कोई जरूरत न पड़ी। वह तेंदुआ पानी पी कर तुरंत ऊपर चढ़ गया और देखते-देखते गायब हो गया, तब इन दोनों में बातें होने लगी –
कुमारी – ‘क्यों चपला, कुछ मालूम पड़ता है कि हम लोग किस जगह आ पहुँचे और यह कौन-सा जंगल है तथा विजयगढ़ की राह किधर है?’
चपला – ‘कुमारी, कुछ समझ में नहीं आता, बल्कि अभी तक मुझको भागने की धुन में यह भी नहीं मालूम कि किस तरफ चली आई। विजयगढ़ किधर है, चुनारगढ़ कहाँ छोड़ा, और नौगढ़ का रास्ता कहाँ है? सिवाय तुम्हारे साथ महल में रहने या विजयगढ़ की हद में घूमने के कभी इन जंगलों में तो आना ही नहीं हुआ। हाँ चुनारगढ़ से सीधे विजयगढ़ का रास्ता जानती हूँ, मगर उधर मैं इस सबब से नहीं गई कि आजकल हमारे दुश्मनों का लश्कर रास्ते में पड़ा है, कहीं ऐसा न हो कोई देख ले, इसलिए मैं जंगल ही जंगल दूसरी तरफ भागी। खैर, देखो ईश्वर मालिक है, कुछ न कुछ रास्ते का पता लग ही जाएगा। मेरे बटुए में मेवा हैं, लो इसको खा लो और पानी पी लो फिर देखा जाएगा।’
कुमारी – ‘इसको किसी और वक्त के वास्ते रहने दो। क्या जाने हम लोगों को कितने दिन दु:ख भोगना पड़े। यह जंगल खूब घना है, चलो बेर-मकोय तोड़ कर खाएँ। अच्छा तो न मालूम पड़ेगा मगर समय काटना है।’
चपला – ‘अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी।’
चपला और चंद्रकांता दोनों वहाँ से उठीं। नाले के ऊपर इधर-उधर घूमने लगीं। दिन दोपहर से ज्यादा ढल चुका था। पेड़ों की छाँह में घूमती जंगली बेरों को तोड़ती खाती वे दोनों एक टूटे-फूटे उजाड़ मकान के पास पहुँचीं जिसको देखने से मालूम होता था कि यह मकान जरूर किसी बड़े राजा का बनाया हुआ होगा मगर अब टूट-फूट गया है।
चपला ने कुमारी चंद्रकांता से कहा – ‘बहिन तुम मकान के टूटे दरवाजे पर बैठो, मैं फल तोड़ लाऊँ तो इसी जगह बैठ कर दोनों खाएँ और इसके बाद तब इस मकान के अंदर घुस कर देखें कि क्या है। जब तक विजयगढ़ का रास्ता न मिले यही खँडहर हम लोगों के रहने के लिए अच्छा होगा, इसी में गुजारा करेंगे। कोई मुसाफिर या चरवाहा इधर से आ निकलेगा तो विजयगढ़ का रास्ता पूछ लेंगे और तब यहाँ से जाएँगे।’
कुमारी ने कहा – ‘अच्छी बात है, मैं इसी जगह बैठती हूँ, तुम कुछ फल तोड़ो लेकिन दूर मत जाना।’
चपला ने कहा – ‘नहीं मैं दूर न जाऊँगी, इसी जगह तुम्हारी आँखों के सामने रहूँगी।’ यह कह कर चपला फल तोड़ने चली गई।
बयान – 13
चपला खाने के लिए कुछ फल तोड़ने चली गई। इधर चंद्रकांता अकेली बैठी-बैठी घबरा उठी। जी में सोचने लगी कि जब तक चपला फल तोड़ती है तब तक इस टूटे-फूटे मकान की सैर करें, क्योंकि यह मकान चाहे टूट कर खँडहर हो रहा है मगर मालूम होता है किसी समय में अपना सानी न रखता होगा।
कुमारी चंद्रकांता वहाँ से उठ कर खँडहर के अंदर गई। फाटक इस टूटे-फूटे मकान का दुरुस्त और मजबूत था। यद्पी उसमें किवाड़ न लगे थे, मगर देखने वाला यही कहेगा कि पहले इसमें लकड़ी या लोहे का फाटक जरूर लगा रहा होगा।
कुमारी ने अंदर जा कर देखा कि बड़ा भारी चौखूटा मकान है। बीच की इमारत तो टूटी-फूटी है मगर हाता चारों तरफ का दुरुस्त मालूम पड़ता है। और आगे बढ़ी, एक दालान में पहुँची, जिसकी छत गिरी हुई थी, पर खंबे खड़े थे। इधर-उधर ईंट-पत्थर के ढेर थे, जिन पर धीरे-धीरे पैर रखती और आगे बढ़ी। बीच में एक मैदान देखई पड़ा जिसको बड़े गौर से कुमारी देखने लगी। साफ मालूम होता था कि पहले यह बाग था क्योंकि अभी तक संगमरमर की क्यारियाँ बनी हुई थीं। छोटी-छोटी नहरें जिनसे छिड़काव का काम निकलता होगा अभी तक तैयार थीं। बहुत से फव्वारे बेमरम्मत दिखाई पड़ते थे मगर उन सभी पर मिट्टी की चादर पड़ी हुई थी। बीचोंबीच उस खँडहर के एक बड़ा भारी पत्थर का बगुला बना हुआ दिखाई दिया जिसको अच्छी तरह से देखने के लिए कुमारी उसके पास गई और उसकी सफाई और कारीगरी को देख उसके बनाने वाले की तारीफ करने लगी। वह बगुला सफेद संगमरमर का बना हुआ था और काले पत्थर के कमर बराबर ऊँचे तथा मोटे खंबे पर बैठाया हुआ था। उसके पैर दिखाई नहीं दे रहे थे, यही मालूम होता था कि पेट सटा कर इस पत्थर पर बैठा है। कम-से-कम पंद्रह हाथ के घेरे में उसका पेट होगा। लंबी चोंच, बाल और पर उसके ऐसी कारीगरी के साथ बनाए हुए थे कि बार-बार उसके बनाने वाले कारीगर की तारीफ मुँह से निकलती थी। जी में आया कि और पास जा कर बगुले को देखे। पास गई, मगर वहाँ पहुँचते ही उसने मुँह खोल दिया। चंद्रकांता यह देख घबरा गई कि यह क्या मामला है, कुछ डर भी मालूम हुआ, सामना छोड़ बगल में हो गई। अब उस बगुले ने पर भी फैला दिए।
कुमारी को चपला ने बहुत ढीठ कर दिया था। कभी-कभी जब जिक्र आ जाता तो चपला यही कहती थी कि दुनिया में भूत-प्रेत कोई चीज नहीं, जादू-मंत्र सब खेल कहानी है, जो कुछ है ऐयारी है। इस बात का कुमारी को भी पूरा यकीन हो चुका था। यही सबब था कि चंद्रकांता इस बगुले के मुँह खोलने और पर फैलाने से नहीं डरी, अगर किसी दूसरी ऐसी नाजुक औरत को कहीं ऐसा मौका पड़ता तो शायद उसकी जान निकल जाती। जब बगुले को पर फैलाते देखा तो कुमारी उसके पीछे हो गई, बगुले के पीछे की तरफ एक पत्थर जमीन में लगा था, जिस पर कुमारी ने पैर रखा ही था कि बगुला एक दफा हिला और जल्दी से घूम अपनी चोंच से कुमारी को उठा कर निगल गया, तब घूम कर अपने ठिकाने हो गया। पर समेट लिए और मुँह बंद कर लिया।
बयान – 14
थोड़ी देर में चपला फलों से झोली भरे हुए पहुँची, देखा तो चंद्रकांता वहाँ नहीं है। इधर-उधर निगाह दौड़ाई, कहीं नहीं। इस टूटे मकान (खँडहर) में तो नहीं गई है। यह सोच कर मकान के अंदर चली। कुमारी तो बेधड़क उस खँडहर में चली गई थी मगर चपला रुकती हुई चारों तरफ निगाह दौड़ाती और एक-एक चीज तजवीज करती हुई चली। फाटक के अंदर घुसते ही दोनों बगल दो दालान दिखाई पड़े। ईंट-पत्थर के ढेर लगे हुए, कहीं से छत टूटी हुई मगर दीवारों पर चित्रकारी और पत्थरों की मूर्तियाँ अभी तक नई मालूम पड़ती थीं।
चपला ने ताज्जुब की निगाह से उन मूर्तियों को देखा, कोई भी उसमें पूरे बदन की नजर न आई, किसी का सिर नहीं, किसी की टाँग नहीं, किसी का हाथ कटा, किसी का आधा धड़ ही नहीं। सूरत भी इन मूर्तियों की अजब डरावनी थी। और आगे बढ़ी, बड़े-बड़े मिट्टी-पत्थर के ढेर जिनमें जंगली पेड़ लगे हुए थे, लाँघती हुई मैदान में पहुँची, दूर से वह बगुला दिखाई पड़ा जिसके पेट में कुमारी पड़ चुकी थी।
सब जगहों को देखना छोड़ चपला उस बगुले के पास धड़धड़ाती हुई पहुँची। उसने मुँह खोल दिया। चपला को बड़ा ताज्जुब हुआ, पीछे हटी। बगुले ने मुँह बंद कर दिया। सोचने लगी अब क्या करना चाहिए। यह तो कोई बड़ी भारी ऐयारी मालूम होती है। क्या भेद है इसका पता लगाना चाहिए। मगर पहले कुमारी को खोजना उचित है क्योंकि यह खँडहर कोई पुराना तिलिस्म मालूम होता है, कहीं ऐसा न हो कि इसी में कुमारी फँस गई हो। यह सोच उस जगह से हटी और दूसरी तरफ खोजने लगी।
चारों तरफ हाता घिरा हुआ था, कई दालान और कोठरियाँ टुटी-फूटी और कई साबुत भी थीं, एक तरफ से देखना शुरू किया। पहले एक दालान में पहुँची जिसकी छत बीच से टूटी हुई थी, लंबाई दालान की लगभग सौ गज की होगी, बीच में मिट्टी-चूने का ढेर, इधर-उधर बहुत-सी हड्डी पड़ी हुईं और चारों तरफ जाले-मकड़े लगे हुए थे। मिट्टी के ढेर में से छोटे-छोटे बहुत से पीपल वगैरह के पेड़ निकल आए थे। दालान के एक तरफ छोटी-सी कोठरी नजर आई जिसके अंदर पहुँचने पर देखा एक कुआँ है, झाँकने से अँधेरा मालूम पड़ा।
इस कुएँ के अंदर क्या है। यह कोठरी बनिस्बत और जगहों के साफ क्यों मालूम पड़ती है? कुआँ भी साफ दीख पड़ता है, क्योंकि जैसे अक्सर पुराने कुओं में पेड़ वगैरह लग जाते हैं, इसमें नहीं हैं, कुछ-कुछ आवाज भी इसमें से आती है जो बिल्कुल समझ नहीं पड़ती।
इसका पता लगाने के लिए चपला ने अपने ऐयारी के बटुए में से काफूर निकाला और उसके टुकड़े जला कर कुएँ में डाले। अंदर तक पहुँच कर उन जलते हुए काफूर के टुकड़ों ने खूब रोशनी की। अब साफ मालूम पड़ने लगा कि नीचे से कुआँ बहुत चौड़ा और साफ है मगर पानी नहीं है बल्कि पानी की जगह एक साफ सफेद बिछावन मालूम पड़ता है, जिसके ऊपर एक बूढ़ा आदमी बैठा है। उसकी लंबी दाढ़ी लटकती हुई दिखाई पड़ती है, मगर गरदन नीची होने के सबब चेहरा मालूम नहीं पड़ता। सामने एक चौकी रखी हुई है जिस पर रंग-बिरंगे फूल पड़े हैं। चपला यह तमाशा देख डर गई। फिर जी को सँभाला और कुएँ पर बैठ गौर करने लगी मगर कुछ अक्ल ने गवाही न दी। वह काफूर के टुकड़े भी बुझ गए जो कुएँ के अंदर जल रहे थे और फिर अँधेरा हो गया।
उस कोठरी में से एक दूसरे दालान में जाने का रास्ता था। उस राह से चपला दूसरे दालान में पहुँची, जहाँ इससे भी ज्यादा जी दहलाने और डराने वाला तमाशा देखा। कूड़ा-कर्कट, हड्डी और गंदगी में यह दालान पहले दालान से कहीं बढ़ा-चढ़ा था, बल्कि एक साबुत पंजर (ढाँचा) हड्डी का भी पड़ा हुआ था जो शायद गधे या टट्टू का हो। उसी के बगल से लाँघती हुई चपला बीचों बीच दालान में पहुँची।
एक चबूतरा संगमरमर का पुरसा भर ऊँचा देखा जिस पर चढ़ने के लिए खूबसूरत नौ सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। ऊपर उसके एक आदमी चौकी पर लेटा हुआ हाथ में किताब लिए कुछ पढ़ता हुआ मालूम पड़ा, मगर ऊँचा होने के सबब साफ दिखाई न दिया। इस चबूतरे पर चढ़े या न चढ़े? चढ़ने से कोई आफत तो न आएगी। भला सीढ़ी पर एक पैर रख कर देखूँ तो सही? यह सोच कर चपला ने सीढ़ी पर एक पैर रखा। पैर रखते ही बड़े जोर से आवाज हुई और संदूक के पल्ले की तरह खुल कर सीढ़ी के ऊपर वाले पत्थर ने चपला के पैर को जोर से फेंक दिया जिसकी धमक और झटके से वह जमीन पर गिर पड़ी। सँभल कर उठ खड़ी हुई, देखा तो वह सीढ़ी का पत्थर जो संदूक के पल्ले की तरह खुल गया था, ज्यों-का-त्यों बंद हो गया है।
चपला अलग खड़ी हो कर सोचने लगी कि यह टूटा-फूटा मकान तो अजब तमाशे का है। जरूर यह किसी भारी ऐयार का बनाया हुआ होगा। इस मकान में घुस कर सैर करना कठिन है, जरा चूके और जान गई। पर मुझको क्या डर क्योंकि जान से भी प्यारी मेरी चंद्रकांता इसी मकान में कहीं फँसी हुई है जिसका पता लगाना बहुत जरूरी है। चाहे जान चली जाए मगर बिना कुमारी को लिए इस मकान से बाहर कभी न जाऊँगी? देखूँ इस सीढ़ी और चबूतरे में क्या-क्या ऐयारियाँ की गई हैं? कुछ देर तक सोचने के बाद चपला ने एक दस सेर का पत्थर सीढ़ी पर रखा। जिस तरह पैर को उस सीढ़ी ने फेंका था उसी तरह इस पत्थर को भी भारी आवाज के साथ फेंक दिया।
चपला ने हर एक सीढ़ी पर पत्थर रख कर देखा, सभी में यही करामात पाई। इस चबूतरे के ऊपर क्या है इसको जरूर देखना चाहिए यह सोच अब वह दूसरी तरकीब करने लगी। बहुत से ईंट-पत्थर उस चबूतरे के पास जमा किए और उसके ऊपर चढ़ कर देखा कि संगमरमर की चौकी पर एक आदमी दोनों हाथों में किताब लिए पड़ा है, उम्र लगभग तीस वर्ष की होगी। खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह भी पत्थर का है। चपला ने एक छोटी-सी कंकड़ी उसके मुँह पर डाली, या तो पत्थर का पुतला मगर काम आदमी का किया। चपला ने जो कंकड़ी उसके मुँह पर डाली थी, उसको एक हाथ से हटा दिया और फिर उसी तरह वह हाथ अपने ठिकाने ले गया। चपला ने तब एक कंकड़ उसके पैर पर रखा, उसने पैर हिला कर कंकड़ गिरा दिया। चपला थी तो बड़ी चालाक और निडर मगर इस पत्थर के आदमी का तमाशा देख बहुत डरी और जल्दी वहाँ से हट गई। अब दूसरी तरफ देखने लगी। बगल के एक और दालान में पहुँची, देखा कि बीचोंबीच दालान के एक तहखाना मालूम पड़ता है, नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और ऊपर की तरफ दो पल्ले किवाड़ के हैं, जो इस समय खुले हैं।
चपला खड़ी हो कर सोचने लगी कि इसके अंदर जाना चाहिए या नहीं। कहीं ऐसा न हो कि इसमें उतरने के बाद यह दरवाजा बंद हो जाए तो मैं इसी में रह जाऊँ, इससे मुनासिब है कि इसको भी आजमा लूँ। पहले एक ढोंका इसके अंदर डालूँ, लेकिन अगर आदमी के जाने से यह दरवाजा बंद हो सकता है तो जरूर ढोंके के गिरते ही बंद हो जाएगा तब इसके अंदर जा कर देखना मुश्किल होगा, अस्तु ऐसी कोई तरकीब की जाए जिससे उसके जाने से किवाड़ बंद न होने पाए, बल्कि हो सके तो पल्लों को तोड़ ही देना चाहिए।
इन सब बातों को सोच कर चपला दरवाजे के पास गई। पहले उसके तोड़ने की फिक्र की मगर न हो सका, क्योंकि वे पल्ले लोहे के थे। कब्जा उनमें नहीं था, सिर्फ पल्ले के बीचोंबीच में चूल बनी हुई थी जो कि जमीन के अंदर घुसी हुई मालूम पड़ती थी। यह चूल जमीन के अंदर कहाँ जा कर अड़ी थी, इसका पता न लग सका।
चपला ने अपने कमर से कमंद खोली और चौहरा करके एक सिरा उसका उस किवाड़ के पल्ले में खूब मजबूती के साथ बाँधा, दूसरा सिरा उस कमंद का उसी दालान के एक खंबे में जो किवाड़ के पास ही था बाँधा, इसके बाद एक ढोंका पत्थर का दूर से उस तहखाने में डाला। पत्थर पड़ते ही इस तरह की आवाज आने लगी जैसे किसी हाथी में से जोर से हवा निकलने की आवाज आती है, साथ ही इसके जल्दी से एक पल्ला भी बंद हो गया, दूसरा पल्ला भी बंद होने के लिए खिंचा मगर वह कमंद से कसा हुआ था, उसको तोड़ न सका, खिंचा-का-खिंचा ही रह गया। चपला ने सोचा – ‘कोई हर्ज नहीं, मालूम हो गया कि यह कमंद इस पल्ले को बंद न होने देगी, अब बेखटके इसके अंदर उतरो, देखो तो क्या है।’ यह सोच चपला उस तहखाने में उतरी।
बयान – 15
चंपा बेफिक्र नहीं है, वह भी कुमारी की खोज में घर से निकली हुई है। जब बहुत दिन हो गए और राजकुमारी चंद्रकांता की कुछ खबर न मिली तो महारानी से हुक्म ले कर चंपा घर से निकली। जंगल-जंगल, पहाड़-पहाड़ मारी फिरी मगर कहीं पता न लगा। कई दिन की थकी-माँदी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठ कर सोचने लगी कि अब कहाँ चलना चाहिए और किस जगह ढूँढ़ना चाहिए, क्योंकि महारानी से मैं इतना वादा करके निकली हूँ कि कुँवर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह से बिना मिले और बिना उनसे कुछ खबर लिए कुमारी का पता लगाऊँगी, मगर अभी तक कोई उम्मीद पूरी न हुई और बिना काम पूरा किए मैं विजयगढ़ भी न जाऊँगी चाहे जो हो, देखूँ कब तक पता नहीं लगता।
जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठी हुई चंपा इन सब बातों को सोच रही थी कि सामने से चार आदमी सिपाहियाना पोशाक पहने, ढाल-तलवार लगाए एक-एक तेगा हाथ में लिए आते दिखाई दिए।
चंपा को देख कर उन लोगों ने आपस में कुछ बातें की जिसे दूर होने के सबब चंपा बिल्कुल सुन न सकी मगर उन लोगों के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगी। वे लोग कभी चंपा की तरफ देखते, कभी आपस में बातें करके हँसते, कभी ऊँचे हो-हो कर अपने पीछे की तरफ देखते, जिससे यह मालूम होता था कि ये लोग किसी की राह देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद वे चारों चंपा के चारों तरफ हो गए और पेड़ों के नीचे छाया देख कर बैठ गए।
चंपा का जी खटका और सोचने लगी कि ये लोग कौन हैं, चारों तरफ से मुझको घेर कर क्यों बैठ गए और इनका क्या इरादा है? अब यहाँ बैठना न चाहिए। यह सोच कर उठ खड़ी हुई और एक तरफ का रास्ता लिया, मगर उन चारों ने न जाने दिया।
दौड़ कर घेर लिया और कहा – ‘तुम कहाँ जाती हो? ठहरो, हमारे मालिक दम-भर में आ जाते हैं, उनके आने तक बैठो, वे आ लें तब हम लोग उनके सामने ले चल के सिफारिश करेंगे और नौकर रखा देंगे, खुशी से तुम रहा करोगी। इस तरह से कहाँ तक जंगल-जंगल मारी फिरोगी।’
चंपा – ‘मुझे नौकरी की जरूरत नहीं जो मैं तुम्हारे मालिक के आने की राह देखूँ, मैं नहीं ठहर सकती।’
एक सिपाही – ‘नहीं-नहीं, तुम जल्दी न करो, ठहरो, हमारे मालिक को देखोगी तो खुश हो जाओगी, ऐसा खूबसूरत जवान तुमने कभी न देखा होगा, बल्कि हम कोशिश करके तुम्हारी शादी उनसे करा देंगे।’
चंपा – ‘होश में आ कर बातें करो नहीं तो दुरुस्त कर दूँगी। खाली औरत न समझना, तुम्हारे ऐसे दस को मैं कुछ नहीं समझती।’
चंपा की ऐसी बात सुन कर उन लोगों को बड़ा अचंभा हुआ, एक का मुँह दूसरा देखने लगा। चंपा फिर आगे बढ़ी। एक ने हाथ पकड़ लिया। बस फिर क्या था, चंपा ने झट कमर से खंजर निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ दो को जख्मी करके भागी। बाकी के दो आदमियों ने उसका पीछा किया मगर कब पा सकते थे।
चंपा भागी तो मगर उसकी किस्मत ने भागने न दिया। एक पत्थर से ठोकर खा बड़े जोर से गिरी, चोट भी ऐसी लगी कि उठ न सकी, तब तक ये दोनों भी वहाँ पहुँच गए। अभी इन लोगों ने कुछ कहा भी नहीं था कि सामने से एक काफिला सौदागरों का आ पहुँचा, जिसमें लगभग दो सौ आदमियों के करीब होंगे। उनके आगे-आगे एक बूढ़ा आदमी था, जिसकी लंबी सफेद दाढ़ी, काला रंग, भूरी आँखें, उम्र लगभग अस्सी वर्ष की होगी। उम्दे कपड़े पहने, ढाल-तलवार लगाए, बर्छी हाथ में लिए, एक बेशकीमती मुश्की घोड़े पर सवार था। साथ में उसके एक लड़का जिसकी उमर बीस वर्ष से ज्यादा न होगी, रेख तक न निकली थी, बड़े ठाठ के साथ एक नेपाली टांगन पर सवार था, जिसकी खूबसूरती और पोशाक देखने से मालूम होता था कि कोई राजकुमार है। पीछे-पीछे उनके बहुत से आदमी घोड़े पर सवार और कुछ पैदल भी थे, सबसे पीछे कई ऊँटों पर असबाब और उनका डेरा लदा हुआ था। साथ में कई डोलियाँ थीं जिनके चारों तरफ बहुत से प्यादे तोड़ेदार बंदूकें लिए चले आते थे।
दोनों आदमियों ने जिन्होंने चंपा का पीछा किया था पुकार कर कहा – ‘इस औरत ने हमारे दो आदमियों को जख्मी किया है।’ जब तक कुछ और कहे तब तक कई आदमियों ने चंपा को घेर लिया और खंजर छीन हथकड़ी-बेड़ी डाल दी।
उस बूढ़े सवार ने जिसके बारे में कह सकते हैं कि शायद सभी का सरदार होगा, दो-एक आदमियों की तरफ देख कर कहा – ‘हम लोगों का डेरा इसी जंगल में पड़े। यहाँ आदमियों की आमदरफ्त कम मालूम होती है, क्योंकि कोई निशान पगडंडी का जमीन पर दिखाई नहीं देता।’
डेरा पड़ गया, एक बड़ी रावटी में कई औरतें कैद की गईं जो डोलियों पर थीं। चंपा बेचारी भी उन्हीं में रखी गई। सूरज अस्त हो गया, एक चिराग उस रावटी में जलाया गया जिसमें कई औरतों के साथ चंपा भी थी। दो लौडियाँ आईं जिन्होंने औरतों से पूछा कि तुम लोग रसोई बनाओगी या बना-बनाया खाओगी?
सभी ने कहा – ‘हम बना-बनाया खाएँगे।’
मगर दो औरतों ने कहा – ‘हम कुछ न खाएँगे।’
जिसके जवाब में वे दोनों लौंडियाँ यह कह कर चली गईं कि देखें कब तक भूखी रहती हो। इन दोनों औरतों में से एक तो बेचारी आफत की मारी चंपा ही थी और दूसरी एक बहुत ही नाजुक और खूबसूरत औरत थी जिसकी आँखों से आँसू जारी थे और जो थोड़ी-थोड़ी देर पर लंबी-लंबी साँस ले रही थी। चंपा भी उसके पास बैठी हुई थी।
पहर रात चली गई, सभी के वास्ते खाने को आया मगर उन दोनों के वास्ते नहीं जिन्होंने पहले इंकार किया था। आधी रात बीतने पर सन्नाटा हुआ, पैरों की आवाज डेरे के चारों तरफ मालूम होने लगी जिससे चंपा ने समझा कि इस डेरे के चारों तरफ पहरा घूम रहा है। धीरे-धीरे चंपा ने अपने बगल वाली खूबसूरत नाजुक औरत से बातें करना शुरू किया।
चंपा – ‘आप कौन हैं और इन लोगों के हाथ क्यों कर फँस गईं?’
औरत – ‘मेरा नाम कलावती है, मैं महाराज शिवदत्त की रानी हूँ, महाराज लड़ाई पर गए थे, उनके वियोग में जमीन पर सो रही थी, मुझको कुछ मालूम नहीं, जब आँख खुली अपने को इन लोगों के फंदे में पाया। बस और क्या कहूँ। तुम कौन हो?
चंपा – हैं, आप चुनारगढ़ की महारानी हैं। हा, आपकी यह दशा। वाह विधाता तू धन्य है। मैं क्या बताऊँ, जब आप महाराज शिवदत्त की रानी हैं तो कुमारी चंद्रकांता को भी जरूर जानती होंगी, मैं उन्हीं की सखी हूँ, उन्हीं की खोज में मारी-मारी फिरती थी कि इन लोगों ने पकड़ लिया।
ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रही थीं कि बाहर से एक आवाज आई – ‘कौन है? भागा, भागा, निकल गया।’
महारानी डरीं, मगर चंपा को कुछ खौफ न मालूम हुआ। बात ही बात में रात बीत गई, दोनों में से किसी को नींद न आई। कुछ-कुछ दिन भी निकल आया, वही दोनों लौंडियाँ जो भोजन कराने आई थीं इस समय फिर आईं। तलवार दोनों के हाथ में थी। इन दोनों ने सभी से कहा – ‘चलो पारी-पारी से मैदान हो आओ।’
कुछ औरतें मैदान गईं, मगर ये दोनों अर्थात महारानी और चंपा उसी तरह बैठी रहीं, किसी ने जिद्द भी न की। पहर दिन चढ़ आया होगा कि इस काफिले का बूढ़ा सरदार एक बूढ़ी औरत को लिए इस डेरे में आया जिसमें सब औरतें कैद थीं।
बुढ़िया – ‘इतनी ही हैं या और भी?’
सरदार – ‘बस इस वक्त तो इतनी ही हैं, अब तुम्हारी मेहरबानी होगी तो और हो जाएँगी।’
बुढ़िया – ‘देखिए तो सही, मैं कितनी औरतें फँसा लाती हूँ। हाँ, अब बताइए किस मेल की औरत लाने पर कितना इनाम मिलेगा।’
सरदार – ‘देखो ये सब एक मेल में हैं, इस किस्म की अगर लाओगी तो दस रुपए मिलेंगे। (चंपा की तरफ इशारा करके) अगर इस मेल की लाओगी तो पूरे पचास रुपए। (महारानी की तरफ बता कर) अगर ऐसी खूबसूरत हो तो पूरे सौ रुपए मिलेंगे, समझ गईं।’
बुढ़िया – ‘हाँ अब मैं बिल्कुल समझ गई, इन सभी को आपने कैसे पाया।’
सरदार – ‘यह जो सबसे खूबसूरत है इसको तो एक खोह में पाया था, बेहोश पड़ी थी और यह कल इसी जगह पकड़ी गई है, इसने दो आदमी मेरे मार डाले हैं, बड़ी बदमाश है।’
बुढ़िया – ‘इसकी चितवन ही से बदमाशी झलकती है, ऐसी-ऐसी अगर तीन-चार आ जाएँ तो आपका काफिला ही बैकुंठ चला जाए।’
सरदार – ‘इसमें क्या शक है। और वे सब जो हैं, कई तरह से पकड़ी गई हैं। एक तो वह बंगाल की रहने वाली है, इसके पड़ोस ही में मेरे लड़के ने डेरा डाला था, अपने पर आशिक करके निकाल लाया। ये चारों रुपए की लालच में फँसी हैं, और बाकी सभी को मैंने उनकी माँ, नानी या वारिसों से खरीद लिया है। बस चलो अब अपने डेरे में बातचीत करेंगे। मैं बूढ़ा आदमी बहुत देर तक खड़ा नहीं रह सकता।’
बुढ़िया – ‘चलिए।’
दोनों उस डेरे से रवाना हुए। इन दोनों के जाने के बाद सब औरतों ने खूब गालियाँ दीं – ‘मुए को देखो, अभी और औरतों को फँसाने की फिक्र में लगा है? न मालूम यह बुढ़िया इसको कहाँ से मिल गई, बड़ी शैतान मालूम पड़ती है। कहती है, देखो मैं कितनी औरतें फँसा लाती हूँ। हे परमेश्वर। इन लोगों पर तेरी भी कृपा बनी रहती है? न मालूम यह डाइन कितने घर चौपट करेगी।’
चंपा ने उस बुढ़िया को खूब गौर करके देखा और आधे घंटे तक कुछ सोचती रही, मगर महारानी को सिवाय रोने के और कोई धुन न थी। ‘हाय, महाराज की लड़ाई में क्या दशा हुई होगी, वे कैसे होंगे, मेरी याद करके कितने दु:खी होते होंगे।’ धीरे-धीरे यही कह के रो रही थीं। चंपा उनको समझाने लगी – ‘महारानी, सब्र करो, घबराओ मत, मुझे पूरी उम्मीद हो गई, ईश्वर चाहेगा तो अब हम लोग बहुत जल्दी छूट जाएँगे। क्या करूँ, मैं हथकड़ी-बेड़ी में पड़ी हूँ, किसी तरह यह खुल जातीं तो इन लोगों को मजा चखाती, लाचार हूँ कि यह मजबूत बेड़ी सिवाय कटने के दूसरी तरह खुल नहीं सकती और इसका कटना यहाँ मुश्किल है।’
इसी तरह रोते-कलपते आज का दिन भी बीता। शाम हो गई। बूढ़ा सरदार फिर डेरे में आ पहुँचा जिसमें औरतें कैद थीं। साथ में सवेरे वाली बुढ़िया, आफत की पुड़िया एक जवान खूबसूरत औरत को लिए हुए थी।
बुढ़िया – ‘मिला लीजिए, अव्वल नंबर की है या नहीं?
सरदार – ‘अव्वल नंबर की तो नहीं, हाँ दूसरे नंबर की जरूर है, पचास रुपए की आज तुम्हारी बोहनी हुई, इसमें शक नहीं।’
बुढ़िया –‘खैर, पचास ही सही, यहाँ कौन गिरह की जमा लगती है, कल फिर लाऊँगी, चलिए।’
इस समय इन दोनों की बातचीत बहुत धीरे-धीरे हुई, किसी ने सुना नहीं मगर होठों के हिलने से चंपा कुछ-कुछ समझ गई। वह नई औरत जो आज आई बड़ी खुश दिखाई देती थी। हाथ-पैर खुले थे। तुरंत ही इसके वास्ते खाने को आया। इसने भी खूब लंबे-चौड़े हाथ लगाए, बेखटके उड़ा गई। दूसरी औरतों को सुस्त और रोते देख हँसती और चुटकियाँ लेती थी। चंपा ने जी में सोचा – यह तो बड़ी भारी बला है, इसको अपने कैद होने और फँसने की कोई फिक्र ही नहीं। मुझे तो कुछ खुटका मालूम होता है।
बयान – 16
कल की तरह आज की रात भी बीत गई। लोंडियों के साथ सुबह को सब औरतें पारी-पारी मैदान भेजी गईं। महारानी और चंपा आज भी नहीं गईं।
चंपा ने महारानी से पूछा – ‘आप जब से इन लोगों के हाथ फँसी हैं, कुछ भोजन किया या नहीं।’
उन्होंने जवाब दिया – ‘महाराज से मिलने की उम्मीद में जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे कुछ खा लेती हूँ, क्या करूँ, कुछ बस नहीं चलता।’
थोड़ी देर बाद दो आदमी इस डेरे में आए। महारानी और चंपा से बोले – ‘तुम दोनों बाहर चलो, आज हमारे सरदार का हुक्म है कि सब औरतें मैदान में पेड़ों के नीचे बैठाई जाएँ जिससे मैदान की हवा लगे और तंदुरुस्त में फर्क न पड़ने पाए।’
यह कह दोनों को बाहर ले गए। वे औरतें जो मैदान में गई थीं बाहर ही एक बहुत घने महुए के तले बैठी हुई थीं। ये दोनों भी उसी तरह जा कर बैठ गई। चंपा चारों तरफ निगाह दौड़ा कर देखने लगी।
दो पहर दिन चढ़ आया होगा। वही बुढ़िया जो कल एक औरत ले आई थी आज फिर एक जवान औरत कल से भी ज्यादा खूबसूरत लिए हुए पहुँची। उसे देखते ही बूढ़े मियाँ ने बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया और उस औरत को उस जगह भेज दिया जहाँ सब औरतें बैठी हुई थीं। चंपा ने आज इस औरत को भी बारीक निगाह से देखा।
आखिर उससे न रहा गया, ऊपर की तरफ मुँह करके बोली – ‘मी सगमता।’(हम पहचान गए) वह औरत जो आई थी चंपा का मुँह देखने लगी।
थोड़ी देर के बाद वह भी अपने पैर के अँगूठे की तरफ देख और हाथों से उसे मलती हुई बोली – ‘चपकलाछटमे बापरोफस।’ (चुप रहोगी तो तुम्हारी जान जाएगी) फिर दोनों में से कोई न बोली।
शाम हो गई। सब औरतें उस रावटी में पहुँच गईं। रात को खाने का सामान पहुँचा। महारानी और चंपा के सिवाय सभी ने खाया। उन दोनों औरतों ने तो खूब ही हाथ फेरे जो नई फँस कर आई थीं।
रात बहुत चली गई, सन्नाटा हो गया, रावटी के चारों तरफ पहरा फिरने लगा। रावटी में एक चिराग जल रहा है। सब औरतें सो गई, सिर्फ चार जाग रही हैं। महारानी, चंपा और वे दोनों जो नई आई हैं।
चंपा ने उन दोनों की तरफ देख कर कहा – ‘कड़ाक भी टेटी, नो से पारो फेसतो।’(मेरी बेड़ी तोड़ दो, नहीं तो गुल मचा कर गिरफ्तार करा दूँगी)
एक ने जवाब दिया – ‘तीमसे को?’(तुम्हारी क्या दशा होगी?)
फिर चंपा ने कहा – ‘रानी की सेगी।’(रानी का साथ दूँगी)
उन दोनों औरतों ने अपनी कमर से कोई तेज औजार निकाला और धीरे से चंपा की हथकड़ी और बेड़ी काट दी। अब चंपा लापरवाह हो गई, उसके होठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी।
दो पहर रात बीत गई। यकायक उस रावटी को चारों तरफ से बहुत से आदमियों ने घेर लिया। शोर-गुल की आवाज आने लगी – ‘मारो-पकड़ो’ की आवाज सुनाई देने लगी। बंदूक की आवाज कान में पड़ी। अब सब औरतों को यकीन हो गया कि डाका पड़ा और लड़ाई हो रही है। खलबली मच गई। रावटी में जितनी औरतें थीं इधर-उधर दौड़ने लगीं। महारानी घबरा कर ‘चंपा-चंपा’ पुकारने लगीं, मगर कहीं पता नहीं, चंपा दिखाई न पड़ी।
वे दोनों औरतें जो नई आई थीं आ कर कहने लगीं – ‘मालूम होता है चंपा निकल गई मगर आप मत घबराइए, यह सब आप ही के नौकर हैं जिन्होंने डाका मारा है। मैं भी आप ही का ताबेदार हूँ, औरत न समझिए।’ मैं जाती हूँ। आपके वास्ते कहीं डोली तैयार होगी, ले कर आता हूँ।’ यह कह दोनों ने रास्ता लिया।
जिस रावटी में औरतें थीं उसके तीन तरफ आदमियों की आवाज कम हो गई। सिर्फ चौथी तरफ जिधर और बहुत से डेरे थे लड़ाई की आहट मालूम हो रही थी। दो आदमी जिनका मुँह कपड़े या नकाब से ढ़का हुआ था। डोली लिए हुए पहुँचे और महारानी को उस पर बैठा कर बाहर निकल गए। रात बीत गई, आसमान पर सफेदी दिखाई देने लगी। चंपा और महारानी तो चली गई थीं मगर और सब औरतें उसी रावटी में बैठी हुई थीं। डर के मारे चेहरा जर्द हो रहा था, एक का मुँह एक देख रही थीं। इतने में पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल एक डोली जिस पर किमख्वाब का पर्दा पड़ा हुआ था, लिए हुए उस रावटी के दरवाजे पर पहुँचे, डोली बाहर रख दी, आप अंदर गए और सब औरतों को अच्छी तरह देखने लगे, फिर पूछा – ‘तुम लोगों में से दो औरतें दिखाई नहीं देती, वे कहाँ गई?’
सब औरतें डरी हुई थीं, किसी के मुँह से आवाज न निकली।
पन्नालाल ने फिर कहा – ‘तुम लोग डरो मत, हम लोग डाकू नहीं हैं। तुम्हीं लोगों को छुड़ाने के लिए इतनी धूमधाम हुई है। बताओ वे दोनों औरतें कहाँ हैं?’ अब उन औरतों का जी कुछ ठिकाने हुआ।
एक ने कहा – ‘दो नहीं बल्कि चार औरतें गायब हैं जिनमें दो औरतें तो वे हैं जो कल और परसों फँस के आई थीं, वे दोनों तो एक औरत को यह कह के चली गईं कि आप डरिए मत, हम लोग आपके ताबेदार हैं, डोली ले कर आते हैं तो आपको ले चलते हैं। इसके बाद डोली आई जिस पर चढ़ के वह चली गई, और चौथी तो सब के पहले ही निकल गई थी।’
पन्नालाल के तो होश उड़ गए, रामनारायण और चुन्नीलाल के मुँह की तरफ देखने लगे। रामनारायण ने कहा – ‘ठीक है, हम दोनों महारानी को ढाँढ़स दे कर तुम्हारी खोज में डोली लेने चले गए, जफील बजा कर तुमसे मुलाकात की और डोली ले कर चले आ रहे हैं, मगर दूसरा कौन डोली ले कर आया जो महारानी को ले कर चला गया। इन लोगों का यह कहना भी ठीक है कि चंपा पहले ही से गायब है। जब हम लोग औरत बने हुए इस रावटी में थे और लड़ाई हो रही थी महारानी ने डर के चंपा-चंपा पुकारा, तभी उसका पता न था। मगर यह मामला क्या है कुछ समझ में नहीं आता। चलो बाहर चल कर इन बुर्दाफरोशों की डोलियों को गिनें उतनी ही हैं या कम? इन औरतों को भी बाहर निकालो।’
सब औरतें उस डेरे के बाहर की गईं। उन्होंने देखा कि चारों तरफ खून ही खून दिखाई देता है, कहीं-कहीं लाश भी नजर आती है। काफिले का बूढ़ा सरदार और उसका खूबसूरत लड़का जंजीरों से जकड़े एक पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं। दस आदमी नंगी तलवारें लिए उनकी निगहबानी कर रहे हैं और सैकड़ों आदमी हाथ-पैर बँधे दूसरे पेड़ों के नीचे बैठाए हुए हैं। रावटियाँ और डेरे सब उजड़े पड़े हैं।
पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल उस जगह गए, जहाँ बहुत-सी डोलियाँ थीं। रामनारायण ने पन्नालाल से कहा – ‘देखो यह सोलह डोलियाँ हैं, पहले हमने सत्रह गिनी थीं, इससे मालूम होता है कि इन्हीं में की वह डोली थी जिसमें महारानी गई हैं। मगर उनको ले कौन गया? चुन्नीलाल जाओ तुम दीवान साहब को यहाँ बुला लाओ, उस तरफ बैठे हैं जहाँ फौज खड़ी है।’
दीवान साहब को लिए हुए चुन्नीलाल आए। पन्नालाल ने उनसे कहा – ‘देखिए हम लोगों की चार दिन की मेहनत बिल्कुल खराब गई। विजयगढ़ से तीन मंजिल पर इन लोगों का डेरा था। इस बूढ़े सरदार को हम लोगों ने औरतों की लालच दे कर रोका कि कहीं आगे न चला जाए और आपको खबर दी। आप भी पूरे सामान से आए, इतना खून-खराबा हुआ, मगर महारानी और चंपा हाथ न आईं। भला चंपा तो बदमाशी करके निकल गई, उसने कहा कि हमारी बेड़ी काट दो नहीं तो हम सब भेद खोल देंगे कि मर्द हो, धोखा देने आए हो, पकड़े जाओगे, लाचार हो कर उसकी बेड़ी काट दी और वह मौका पा कर निकल गई। मगर महारानी को कौन ले गया?’
दीवान साहब की अक्ल हैरान थी कि क्या हो गया। बोले – ‘इन बदमाशों को बल्कि इनके बूढ़े मियाँ सरदार को मार-पीट कर पूछो, कहीं इन्हीं लोगों की बदमाशी तो नहीं है।’
पन्नालाल ने कहा – ‘जब सरदार ही आपकी कैद में है तो मुझे यकीन नहीं आता कि उसके सबब से महारानी गायब हो गई हैं। आप इन बुर्दाफरोशों को और फौज को ले कर जाइए और राज्य का काम देखिए। हम लोग फिर महारानी की टोह लेने जाते हैं, इसका तो बीड़ा ही उठाया है।’
दीवान साहब बुर्दाफरोशों कैदियों को मय उनके माल-असबाब के साथ ले चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल महारानी की खोज में चले, रास्ते में आपस में यों बातें करने लगे –
पन्नालाल, देखो आजकल चुनारगढ़ राज्य की क्या दुर्दशा हो रही है, महाराज उधर फँसे, महारानी का पता नहीं, पता लगा मगर फिर भी कोई उस्ताद हम लोगों को उल्लू बना कर उन्हें ले ही गया।
रामनारायण – ‘भाई बड़ी मेहनत की थी मगर कुछ न हुआ। किस मुश्किल से इन लोगों का पता पाया, कैसी-कैसी तरकीबों से दो दिन तक इसी जंगल में रोक रखा कहीं जाने न दिया, दौड़ा-दौड़ चुनारगढ़ से सेना सहित दीवान साहब को लाए, लड़े-भिड़े, अपनी तरफ के कई आदमी भी मरे, मगर मिला क्या, वही हार और शर्मिंदगी।’
चुन्नीलाल – ‘हम तो बड़े खुश थे कि चंपा भी हाथ आएगी मगर वह तो और आफत निकली, कैसा हम लोगों को पहचाना और बेबस करके धमाका के अपनी बेड़ी कटवा ही ली। बड़ी चालाक है, कहीं उसी का तो यह फसाद नहीं है।
पन्नालाल –‘नहीं जी, अकेली चंपा डोली में बैठा के महारानी को नहीं ले जा सकती।’
रामनारायण – ‘हम तीनों को महारानी की खोज में भेजने के बाद अहमद और नाजिम को साथ ले कर पंडित बद्रीनाथ महाराज को कैद से छुड़ाने गए हैं, देखें वह क्या जस लगा कर आते हैं।’
पन्नालाल – ‘भला हम लोगों का मुँह भी तो हो कि चुनारगढ़ जा कर उनका हाल सुनें और क्या जस लगा कर आते हैं इसको देखें, अगर महारानी न मिलीं तो कौन मुँह ले के चुनारगढ़ जाएँगे?’
रामनारायण – ‘बस मालूम हो गया कि आज जो शख्स महारानी को इस फुर्ती से चुरा ले गया, वह हम लोगों का ठीक उस्ताद है। अब तो इसी जंगल में खेती करो, लड़के-बाले ले कर आ बसो, महारानी का मिलना मुश्किल है।’
पन्नालाल – ‘वाह रे तेरा हौसला। क्या पिनिक के औतार हुए हैं।’
थोड़ी दूर जा कर ये लोग आपस में कुछ बातें कर मिलने का ठिकाना ठहरा, अलग हो गए।
बयान – 17
एक बहुत बड़े नाले में जिसके चारों तरफ बहुत ही घना जंगल था, पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ तेजसिंह बैठे हैं। बगल में साधारण-सी डोली रखी हुई है, पर्दा उठा हुआ है, एक औरत उसमें बैठी तेजसिंह से बातें कर रही है। यह औरत चुनारगढ़ के महाराज शिवदत्त की रानी कलावती कुँवर है। पीछे की तरफ एक हाथ डोली पर रखे चंपा भी खड़ी है।
महारानी – ‘मैं चुनारगढ़ जाने में राजी नहीं हूँ, मुझको राज्य नहीं चाहिए, महाराज के पास रहना मेरे लिए स्वर्ग है। अगर वे कैद हैं तो मेरे पैर में भी बेड़ी डाल दो मगर उन्हीं के चरणों में रखो।’
तेजसिंह – ‘नहीं, मैं यह नहीं कहता कि जरूर आप भी उसी कैदखाने में जाइए, जिसमें महाराज हैं। आपकी खुशी हो तो चुनारगढ़ जाइए, हम लोग बड़ी हिफाजत से पहुँचा देंगे। कोई जरूरत आपको यहाँ लाने की नहीं थी, ज्योतिषी जी ने कई दफा आपके पतिव्रत धर्म की तारीफ की थी और कहा था कि महाराज की जुदाई में महारानी को बड़ा ही दुख होता होगा, यह जान हम लोग आपको ले आए थे नहीं तो खाली चंपा को ही छुड़ाने गए थे। अब आप कहिए तो चुनारगढ़ पहुँचा दें नहीं तो महाराज के पास ले जाएँ, क्योंकि सिवाय मेरे और किसी के जरिए आप महाराज के पास नहीं पहुँच सकतीं, और फिर महाराज क्या जाने कब तक कैद रहें।
महारानी – ‘तुम लोगों ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की, सचमुच मुझे महाराज से इतनी जल्दी मिलाने वाला और कोई नहीं जितनी जल्दी तुम मिला सकते हो। अभी मुझको उनके पास पहुँचाओ, देर मत करो, मैं तुम लोगों का बड़ा जस मानूँगी।’
तेजसिंह – ‘तो इस तरह डोली में आप नहीं जा सकतीं, मैं बेहोश करके आपको ले जा सकता हूँ।’
महारानी – ‘मुझको यह भी मंजूर है, किसी तरह वहाँ पहुँचाओ।’
तेजसिंह – ‘अच्छा तब लीजिए इस शीशी को सूँघिए।’
महारानी को अपने पति के साथ बड़ी ही मुहब्बत थी, अगर तेजसिंह उनको कहते कि तुम अपना सिर दे दो तब महाराज से मुलाकात होगी तो वह उसको भी कबूल कर लेतीं।
महारानी बेखटके शीशी सूँघ कर बेहोश हो गईं।
ज्योतिषी जी ने कहा – ‘अब इनको ले जाइए उसी तहखाने में छोड़ आइए। जब तक आप न आएँगे मैं इसी जगह में रहूँगा। चंपा को भी चाहिए कि विजयगढ़ जाए, हम लोग तो कुमारी चंद्रकांता की खोज में घूम ही रहे हैं, ये क्यों दुख उठाती है।’
तेजसिंह ने कहा – ‘चंपा, ज्योतिषी जी ठीक कहते हैं, तुम जाओ, कहीं ऐसा न हो कि फिर किसी आफत में फँस जाओ।’
चंपा ने कहा – ‘जब तक कुमारी का पता न लगेगा मैं विजयगढ़ कभी न जाऊँगी। अगर मैं इन बुर्दाफरोशों के हाथ फँसी तो अपनी ही चालाकी से छूट भी गई, आप लोगों को मेरे लिए कोई तकलीफ न करनी पड़ी।’
तेजसिंह ने कहा – ‘तुम्हारा कहना ठीक है, हम यह नहीं कहते कि हम लोगों ने तुमको छुड़ाया। हम लोग तो कुमारी चंद्रकांता को ढूँढ़ते हुए यहाँ तक पहुँच गए और उन्हीं की उम्मीद में बुर्दाफराशों के डेरे देख डाले। उनको तो न पाया मगर महारानी और तुम फँसी हुई दिखाई दीं, छुड़ाने की फिक्र हुई। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को महारानी को छुड़ाने के लिए कोशिश करते देख, हम लोग यह समझ कर अलग हो गए कि मेहनत वे लोग करें, मौके में मौका हम लोगों को भी काम करने का मिल ही जाएगा। सो ऐसा ही हुआ भी, तुम अपनी ही चालाकी से छूट कर बाहर निकल गईं, हमने महारानी को गायब किया। खैर, इन सब बातों को जाने दो, तुम यह बताओ कि घर न जाओगी तो क्या करोगी? कहाँ ढूँढोगी? कहीं ऐसा न हो कि हम लोग तो कुमारी को खोज कर विजयगढ़ ले जाएँ और तुम महीनों तक मारी-मारी फिरो।’
चंपा ने कहा – ‘मैं एकदम से ऐसी बेवकूफ नहीं, आप बेफिक्र रहें।’
तेजसिंह को लाचार हो कर चंपा को उसकी मर्जी पर छोड़ना पड़ा और ज्योतिषी जी को भी उसी जंगल में छोड़ महारानी की गठरी बाँध कर कैदखाने वाले खोह की तरफ रवाना हुए जिसमें महाराज बंद थे। चंपा भी एक तरफ को रवाना हो गई।
बयान – 18
तेजसिंह के जाने के बाद ज्योतिषी जी अकेले पड़ गए, सोचने लगे कि रमल के जरिए पता लगाना चाहिए कि चंद्रकांता और चपला कहाँ हैं। बस्ता खोल पटिया निकाल रमल फेंक गिनने लगे। घड़ी भर तक खूब गौर किया। यकायक ज्योतिषी जी के चेहरे पर खुशी झलकने लगी और होंठों पर हँसी आ गई, झटपट रमल और पटिया बाँध उसी तहखाने की तरफ दौड़े जहाँ तेजसिंह, महारानी को लिए जा रहे थे। ऐयार तो थे ही, दौड़ने में कसर न की, जहाँ तक बन पड़ा तेजी से दौड़े।
तेजसिंह कदम-कदम झपटे हुए चले जा रहे थे। लगभग पाँच कोस गए होंगे कि पीछे से आवाज आई – ‘ठहरो-ठहरो।’ फिर के देखा तो ज्योतिषी जगन्नाथ जी बड़ी तेजी से चले आ रहे हैं, ठहर गए, जी में खुटका हुआ कि यह क्यों दौड़े आ रहे हैं।
जब पास पहुँचे इनके चेहरे पर कुछ हँसी देख तेजसिंह का जी ठिकाने हुआ। पूछा – ‘क्यों क्या है जो आप दौड़े आए हैं?’
ज्योतिषी जी – ‘है क्या, बस हम भी आपके साथ उसी तहखाने में चलेंगे।’
तेजसिंह – ‘सो क्यों?’
ज्योतिषी जी – ‘इसका हाल भी वहीं मालूम होगा, यहाँ न कहेंगे।’
तेजसिंह – ‘तो वहाँ दरवाजे पर पट्टी भी बाँधनी पड़ेगी, क्योंकि पहले वाले ताले का हाल जब से कुमार को धोखा दे कर बद्रीनाथ ने मालूम कर लिया तब से एक और ताला हमने उसमें लगाया है जो पहले ही से बना हुआ था मगर आलस से उसको काम में नहीं लाते थे क्योंकि खोलने और बंद करने में जरा देर लगती है। हम यह निश्चय कर चुके हैं कि इस ताले का भेद किसी को न बताएँगे।’
ज्योतिषी जी – ‘मैं तो अपनी आँखों पर पट्टी न बँधाऊँगा और उस तहखाने में भी जरूर जाऊँगा। तुम झख मारोगे और ले चलोगे।’
तेजसिंह – ‘वाह क्या खूब। भला कुछ हाल तो मालूम हो।’
ज्योतिषी जी – ‘हाल क्या, बस पौ बारह है। कुमारी चंद्रकांता को वहीं दिखा दूँगा।’
तेजसिंह – ‘हाँ? सच कहो।।’
ज्योतिषी जी – ‘अगर झूठ निकले तो उसी तहखाने में मुझको हलाल करके मार डालना।’
तेजसिंह – ‘खूब कही, तुम्हें मार डालूँगा तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, बह्महत्या तो मेरे सिर चढ़ेगी।’
ज्योतिषी जी – ‘इसका भी ढंग मैं बता देता हूँ जिसमें तुम्हारे ऊपर ब्रह्महत्या न चढ़े।’
तेजसिंह – ‘वह क्या?’
ज्योतिषी जी – ‘कुछ मुश्किल नहीं है, पहले मुसलमान कर डालना तब हलाल करना।’
ज्योतिषी जी की बात पर तेजसिंह हँस पड़े और बोले – ‘अच्छा भाई चलो, क्या करें, आपका हुक्म मानना भी जरूरी है।’
दूसरे दिन शाम को ये लोग उस तहखाने के पास पहुँचे। ज्योतिषी जी के सामने ही तेजसिंह ताला खोलने लगे। पहले उस शेर के मुँह में हाथ डाल के उसकी जुबान बाहर निकाली, इसके बाद दूसरा ताला खोलने लगे।
दरवाजे के दोनों तरफ दो पत्थर संगमरमर के दीवार के साथ जड़े थे। दाहिनी तरफ के संगमरमर वाले पत्थर पर तेजसिंह ने जोर से लात मारी, साथ ही एक आवाज हुई और वह पत्थर दीवार के अंदर घुस कर जमीन के साथ सट गया। छोटे से हाथ भर के चबूतरे पर एक साँप चक्कर मारे बैठा देखा जिसकी गरदन पकड़ कर कई दफा पेच की तरह घुमाया, दरवाजा खुल गया। महारानी की गठरी लिए तेजसिंह और ज्योतिषी जी अंदर गए, भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। भीतर दरवाजे के बाएँ तरफ की दीवार में एक सूराख हाथ जाने लायक था, उसमें हाथ डाल के तेजसिंह ने कुछ किया, जिसका हाल ज्योतिषी जी को मालूम न हो सका।
ज्योतिषी जी ने पूछा – ‘इसमें क्या है?’
तेजसिंह ने जवाब दिया – ‘इसके भीतर एक किल्ली है जिसके घुमाने से वह पत्थर बंद हो जाता है जिस पर बाहर मैंने लात मारी और जिसके अंदर साँप दिखाई पड़ा था। इस सूराख से सिर्फ उस पत्थर के बंद करने का काम चलता है खुल नहीं सकता, खोलते समय इधर भी वही तरकीब करनी पड़ेगी जो दरवाजे के बाहर की गई थी।’
दरवाजा बंद कर ये लोग आगे बढ़े। मैदान में जा कर महारानी की गठरी खोल उन्हें होश में लाए और कहा – ‘हमारे साथ-साथ चली आइए, आपको महाराज के पास पहुँचा दें।’ महरानी इन लोगों के साथ-साथ आगे बढ़ीं।
तेजसिंह ने ज्योतिषी जी से पूछा – ‘बताइए चंद्रकांता कहाँ हैं?’
ज्योतिषी जी ने कहा – ‘मैं पहले कभी इसके अंदर आया नहीं जो सब जगहें मेरी देखी हों, आप आगे चलिए, महाराज शिवदत्त को ढूँढ़िए, चंद्रकांता भी दिखाई दे जाएगी।’
घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त को ढूँढ़ते ये लोग उस नाले के पास पहुँचे जिसका हाल पहले भाग में लिख चुके हैं। यकायक सभी की निगाह महाराज शिवदत्त पर पड़ी जो नाले के उस पार एक पत्थर के ढोंके पर खड़े ऊपर की तरफ मुँह किए कुछ देख रहे थे।
महारानी तो महाराज को देख दीवानी-सी हो गईं, किसी से कुछ न पूछा कि इस नाले में कितना पानी है या उस पार कैसे जाना होगा, झट कूद पड़ीं। पानी थोड़ा ही था, पार हो गईं और दौड़ कर रोती महाराज शिवदत्त के पैरों पर गिर पड़ीं। महाराज ने उठा कर गले से लगा लिया, तब तक तेजसिंह और ज्योतिषी जी भी नाले के पार हो महाराज शिवदत्त के पास पहुँचे।
ज्योतिषी जी को देखते ही महाराज ने पूछा – ‘क्योंजी, तुम यहाँ कैसे आए? क्या तुम भी तेजसिंह के हाथ फँस गए।’
ज्योतिषी जी ने कहा – ‘नहीं तेजसिंह के हाथ क्यों, हाँ उन्होंने कृपा करके मुझे अपनी मंडली में मिला लिया है, अब हम वीरेंद्रसिंह की तरफ हैं आपसे कुछ वास्ता नहीं।’
ज्योतिषी जी की बात सुन कर महाराज को बड़ा गुस्सा आया, लाल-लाल आँखें कर उनकी तरफ देखने लगे।
ज्योतिषी जी ने कहा – ‘अब आप बेफायदा गुस्सा करते हैं, इससे क्या होगा? जहाँ जी में आया तहाँ रहे। जो अपनी इज्जत करे उसी के साथ रहना ठीक है। आप खुद सोच लीजिए और याद कीजिए कि मुझको आपने कैसी-कैसी कड़ी बातें कही थीं। उस वक्त यह भी न सोचा कि ब्राह्मण है। अब क्यों मेरी तरफ लाल-लाल आँखें करके देखते हैं।’
ज्योतिषी जी की बातें सुन कर शिवदत्त ने सिर नीचा कर लिया और कुछ जवाब न दिया। इतने में एक बारीक आवाज आई – ‘तेजसिंह।’
तेजसिंह ने सिर उठा कर उधर देखा जिधर से आवाज आई थी, चंद्रकांता पर नजर पड़ी जिसे देखते ही इनकी आँखों से आँसू निकल पड़े। हाय, क्या सूरत हो रही है, सिर के बाल खुले हैं, गुलाब-सा मुँह कुम्हला गया, बदन पर मैल चढ़ा हुआ है, कपड़े फटे हुए हैं, पहाड़ के ऊपर एक छोटी-सी गुफा के बाहर खड़ी ‘तेजसिंह-तेजसिंह’, पुकार रही है।
तेजसिंह उस तरफ दौड़े और चाहा कि पहाड़ पर चढ़ कर कुमारी के पास पहुँच जाएँ मगर न हो सका, कहीं रास्ता न मिला। बहुत परेशान हुए लेकिन कोई काम न चला, लाचार हो कर ऊपर चढ़ने के लिए कमंद फेंकी मगर वह चौथाई दूर भी न गई, ज्योतिषी जी से कमंद ले कर अपने कमंद में जोड़ कर फिर फेंकी, आधी दूर भी न पहुँची। हर तरह की तरकीबें की मगर कोई मतलब न निकला, लाचार हो कर आवाज दी और पूछा – ‘कुमारी, आप यहाँ कैसे आईं?’
तेजसिंह की आवाज कुमारी के कान तक बखूबी पहुँची मगर कुमारी की आवाज जो बहुत ही बारीक थी तेजसिंह के कानों तक पूरी-पूरी न आई। कुमारी ने कुछ जवाब दिया, साफ-साफ तो समझ में न आया, हाँ इतना समझ पड़ा – ‘किस्मत…आई…तरह…निकालो…।’
हाय-हाय कुमारी से अच्छी तरह बात भी नहीं कर सकते। यह सोच तेजसिंह बहुत घबराए, मगर इससे क्या हो सकता था, कुमारी ने कुछ और कहा जो बिल्कुल समझ में न आया, हाँ यह मालूम हो रहा था कि कोई बोल रहा है। तेजसिंह ने फिर आवाज दी और कहा – ‘आप घबराइए नहीं, कोई तरकीब निकालता हूँ जिससे आप नीचे उतर आएँ।’ इसके जवाब में कुमारी मुँह से कुछ न बोली, उसी जगह एक जंगली पेड़ था जिसके पत्ते जरा बड़े और मोटे थे, एक पत्ता तोड़ लिया और एक छोटे नुकीले पत्थर की नोक से उस पत्ते पर कुछ लिखा, अपनी धोती में से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ उसमें वह पत्ता और एक छोटा-सा पत्थर बाँधा इस अंदाज से फेंका कि नाले के किनारे कुछ जल में गिरा। तेजसिंह ने उसे ढूँढ़ कर निकाला, गिरह खोली, पत्तो पर गोर से निगाह डाली, लिखा था – ‘तुम जा कर पहले कुमार को यहाँ ले आओ।’
तेजसिंह ने ज्योतिषी जी को वह पत्ता दिखलाया और कहा – ‘आप यहाँ ठहरिए मैं जा कर कुमार को बुला लाता हूँ। तब तक आप भी कोई तरकीब सोचिए जिससे कुमारी नीचे उतर सकें।’
ज्योतिषी जी ने कहा – ‘अच्छी बात है, तुम जाओ, मैं कोई तरकीब सोचता हूँ।’
इस कैफियत को महारानी ने भी बखूबी देखा मगर यह जान न सकी कि कुमारी ने पत्तों पर क्या लिख कर फेंका और तेजसिंह कहाँ चले गए तो भी महारानी को चंद्रकांता की बेबसी पर रुलाई आ गई और उसी तरफ टकटकी लगा कर देखती रहीं। तेजसिंह वहाँ से चल कर फाटक खोल खोह के बाहर हुए और फिर दोहरा ताला लगा विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।
बयान – 19
जब से कुमारी चंद्रकांता विजयगढ़ से गायब हुईं और महाराज शिवदत्त से लड़ाई लगी तब से महाराज जयसिंह और महल की औरतें तो उदास थीं ही, उनके सिवाय कुल विजयगढ़ की रियाया भी उदास थी, शहर में गम छाया हुआ था।
जब तेजसिंह और ज्योतिषी जी को कुमारी की खोज में भेज, वीरेंद्रसिंह लौट कर मय देवीसिंह के विजयगढ़ आए, तब सभी को यह आशा हुई कि राजकुमारी चंद्रकांता भी आती होंगी, लेकिन जब कुमार की जुबानी महाराज जयसिंह ने पूरा-पूरा हाल सुना तो तबीयत और परेशान हुई। महाराज शिवदत्त के गिरफ्तार होने का हाल सुन कर तो खुशी हुई मगर जब नाले में से कुमारी का फिर गायब हो जाना सुना तो पूरी नाउम्मीदी हो गई। दीवान हरदयालसिंह वगैरह ने बहुत समझाया और कहा कि कुमारी अगर पाताल में भी गई होंगी तो तेजसिंह खोज निकालेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं, फिर भी महाराज के जी को भरोसा न हुआ। महल में महारानी की हालत तो और भी बुरी थी, खाना-पीना, बोलना बिल्कुल छूट गया था, सिवाय रोने और कुमारी की याद करने के दूसरा कोई काम न था।
कई दिन तक कुमार विजयगढ़ में रहे, बीच में एक दफा नौगढ़ जा कर अपने माता-पिता से भी मिल आए मगर तबीयत उनकी बिल्कुल नहीं लगती थी, जिधर जाते थे, उदासी ही दिखाई देती थी।
एक दिन रात को कुमार अपने कमरे में सोए हुए थे, दरवाजा बंद था, रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी। चंद्रकांता की जुदाई में पड़े-पड़े क़ुछ सोच रहे थे, नींद बिल्कुल नहीं आ रही थी, दरवाजे के बाहर किसी के बोलने की आहट मालूम पड़ी बल्कि किसी के मुँह से ‘कुमारी’ ऐसा सुनने में आया। झट पलँग पर से उठ दरवाजे के पास आए और किवाड़ के साथ कान लगा सुनने लगे, इतनी बातें सुनने में आईं –
‘मैं सच कहता हूँ, तुम मानो चाहे न मानो। हाँ पहले मुझे जरूर यकीन था कि कुमारी पर कुँवर वीरेंद्रसिंह का प्रेम सच्चा है, मगर अब मालूम हो गया कि यह सिवाय विजयगढ़ का राज्य चाहने के, कुमारी से मुहब्बत नहीं रखते, अगर सच्ची मुहब्बत होती तो जरूर खोज…।’
इतनी बात सुनी थी कि दरबानों को कुछ चोर की आहट मालूम पड़ी, बातें करना छोड़ पुकार उठे – ‘कौन है।’ मगर कुछ मालूम न हुआ। बड़ी देर तक कुमार दरवाजे के पास बैठे रहे, परंतु फिर कुछ सुनने में न आया, हाँ इतना मालूम हुआ कि दरबानों में बातचीत हो रही थी।
कुमार और भी घबरा उठे, सोचने लगे कि जब दरबानों और सिपाहियों को यह विश्वास है कि कुमार चंद्रकांता के प्रेमी नहीं हैं तो जरूर महाराज का भी यही ख्याल होगा, बल्कि महल में महारानी भी यही सोचती होगी। अब विजयगढ़ में मेरा रहना ठीक नहीं, नौगढ़ जाने को भी जी नहीं चाहता क्योंकि वहाँ जाने से और भी लोगों के जी में बैठ जाएगा कि कुमार की मुहब्बत नकली और झूठी थी। तब कहाँ जाएँ, क्या करें? इन्हीं सब बातों को सोचते, सवेरा हो गया।
आज कुमार ने स्नान-पूजा और भोजन से जल्दी ही छुट्टी कर ली। पहर दिन चढ़ा होगा, अपनी सवारी का घोड़ा मँगवाया और सवार हो किले के बाहर निकले। कई आदमी साथ हुए मगर कुमार के मना करने से रुक गए, लेकिन देवीसिंह ने साथ न छोड़ा। इन्होंने हजार मना किया पर एक न माना, साथ चले ही गए। कुमार ने इस नीयत से घोड़ा तेज किया, जिससे देवीसिंह पीछे छूट जाए और इनका भी साथ न रहे, मगर देवीसिंह ऐयारी में कुछ कम न थे, दौड़ने की आदत भी ज्यादा थी, अस्तु घोड़े का संग न छोड़ा। इसके सिवाय पहाड़ी जंगल की ऊबड़-खाबड़ जमीन होने के सबब कुमार का घोड़ा भी उतना तेज नहीं जा सकता था, जितना कि वे चाहते थे।
देवीसिंह बहुत थक गए, कुमार को भी उन पर दया आ गई। जी में सोचने लगे कि यह मुझसे बड़ी मुहब्बत रखता है। जब तक इसमें जान है मेरा संग न छोड़ेगा, ऐसे आदमी को जान-बूझ कर दुख देना मुनासिब नहीं। कोई गैर तो नहीं कि साथ रखने में किसी तरह की कबाहट हो, आखिर कुमार ने घोड़ा रोका और देवीसिंह की तरफ देख कर हँसे।
हाँफते-हाँफते देवीसिंह ने कहा – ‘भला कुछ यह भी तो मालूम हो कि आप का इरादा क्या है, कहीं सनक तो नहीं गए?’ कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और बोले – ‘अच्छा इस घोड़े को चरने के लिए छोड़ो फिर हमसे सुनो कि हमारा क्या इरादा है।’ देवीसिंह ने जीनपोश कुमार के लिए बिछा कर घोड़े को चरने के वास्ते छोड़ दिया और उनके पास बैठ कर पूछा – ‘अब बताइए, आप क्या सोच कर विजयगढ़ से बाहर निकले।’ इसके जवाब में कुमार ने रात का बिल्कुल किस्सा कह सुनाया और कहा कि कुमारी का पता न लगेगा तो मैं विजयगढ़ या नौगढ़ न जाऊँगा।’
देवीसिंह ने कहा – ‘यह सोचना बिल्कुल भूल है। हम लोगों से ज्यादा आप क्या पता लगाएँगे? तेजसिंह और ज्योतिषी जी खोजने गए ही हैं, मुझे भी हुक्म हो तो जाऊँ। आपके किए कुछ न होगा। अगर आपको बिना कुमारी का पता लगाए विजयगढ़ जाना पसंद नहीं तो नौगढ़ चलिए, वहाँ रहिए, जब पता लग जाएगा विजयगढ़ चले जाइएगा। अब आप अपने घर के पास भी आ पहुँचे हैं।’
कुमार ने सोच कर कहा – ‘यहाँ से मेरा घर बनिस्बत विजयगढ़ के दूर होगा कि नजदीक? मैं तो बहुत आगे बढ़ आया हूँ।’
देवीसिंह ने कहा – ‘नहीं, आप भूलते हैं, न मालूम किस धुन में आप घोड़ा फेंके चले आए, पूरब-पश्चिम का ध्यान तो रहा ही नहीं, मगर मैं खूब जानता हूँ कि यहाँ से नौगढ़ केवल दो कोस है और वह देखिए वह बड़ा-सा पीपल का पेड़ जो दिखाई देता है, वह उस खोह के पास ही है, जहाँ महाराज शिवदत्त कैद हैं। (तेजसिंह को आते देख कर) हैं, यह तेजसिंह कहाँ से चले आ रहे हैं? देखिए कुछ न कुछ पता जरूर लगा होगा।’
तेजसिंह दूर से दिखाई पड़े मगर कुमार से न रहा गया, खुद उनकी तरफ चले।
तेजसिंह ने भी इन दोनों को देखा और कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़ कर उनके पास पहुँचे। बेसब्री के साथ पहले कुमार ने यही पूछा – ‘क्यों, कुछ पता चला?’
तेजसिंह – ‘हाँ।’
कुमार – ‘कहाँ?’
तेजसिंह – ‘चलिए दिखाए देता हूँ।’
इतना सुनते ही कुमार तेजसिंह से लिपट गए और बड़ी खुशी के साथ बोले – ‘चलो देखें।’
तेजसिंह – ‘घोड़े पर सवार हो लीजिए, आप घबराते क्यों हैं, मैं तो आप ही को बुलाने जा रहा था, मगर आप यहाँ आ कर क्यों बैठे हैं।’
कुमार – ‘इसका हाल देवीसिंह से पूछ लेना, पहले वहाँ तो चलो।’
देवीसिंह ने घोड़ा तैयार किया, कुमार सवार हो गए। आगे-आगे तेजसिंह और देवीसिंह, पीछे-पीछे कुमार रवाना हुए और थोड़ी ही देर में खोह के पास जा पहुँचे। तेजसिंह ने कहा – ‘लीजिए अब आपके सामने ही ताला खोलता हूँ क्या करूँ, मगर होशियार रहिएगा, कहीं ऐयार लोग आपको धोखा दे कर इसका भी पता न लगा लें।’ ताला खोला गया और तीनों आदमी अंदर गए। जल्दी-जल्दी चल कर उस चश्मे के पास पहुँचे जहाँ ज्योतिषी जी बैठे हुए थे, उँगली के इशारे से बता कर तेजसिंह ने कहा – ‘देखिए वह ऊपर चंद्रकांता खड़ी हैं।’
कुमारी चंद्रकांता ऊँची पहाड़ी पर थीं, दूर से कुमार को आते देख मिलने के लिए बहुत घबरा गई। यही कैफियत कुमार की भी थी, रास्ते का ख्याल तो किया नहीं, ऊपर चढ़ने को तैयार हो गए, मगर क्या हो सकता था।
तेजसिंह ने कहा – ‘आप घबराते क्यों हैं, ऊपर जाने के लिए रास्ता होता तो आपको यहाँ लाने की जरूरत ही क्या थी, कुमारी ही को न ले जाते?’
दोनों की टकटकी बँध गई, कुमार वीरेंद्रसिंह कुमारी को देखने लगे और वह इनको। दोनों ही की आँखों से आँसू की नदी बह चली। कुछ करते नहीं बनता, हाय क्या टेढ़ा मामला है? जिसके वास्ते घर-बार छोड़ा, जिसके मिलने की उम्मीद में पहले ही जान से हाथ धो बैठे, जिसके लिए हजारों सिर कटे, जो महीनों से गायब रह कर आज दिखाई पड़ी, उससे मिलना तो दूर रहा अच्छी तरह बातचीत भी नहीं कर सकते। ऐसे समय में उन दोनों की क्या दशा थी वे ही जानते होंगे।
तेजसिंह ने ज्योतिषी जी की तरफ देख कर पूछा – ‘क्यों आपने कोई तरकीब सोची?’
ज्योतिषी जी ने जवाब दिया – ‘अभी तक कोई तरकीब नहीं सूझी, मगर मैं इतना जरूर कहूँगा कि बिना कोई भारी कारवाई किए कुमारी का ऊपर से उतरना मुश्किल है। जिस तरह से वे आई हैं, उसी तरह से बाहर होंगी, दूसरी तरकीब कभी पूरी नहीं हो सकती। मैंने रमल से भी राय ली थी, वह भी यही कहता है, सो अब जिस तरह हो सके कुमारी से यह पूछें और मालूम करें कि वह किस राह से यहाँ तक आईं, तब हम लोग ऊपर चल कर कोई काम करें, यह मामला तिलिस्म का है खेल नहीं है।’
तेजसिंह ने इस बात को पसंद किया, कुमारी से पुकार कर कहा – ‘आप घबराएँ नहीं, जिस तरह से पहले आपने पत्तों पर लिख कर फेंका था, उसी तरह अब फिर मुख्तसर में यह लिख कर फेंकिए कि आप किस राह से वहाँ पहुँची हैं।’
बयान – 20
चपला तहखाने में उतरी। नीचे एक लंबी-चौड़ी कोठरी नजर आई, जिसमें चौखट के सिवाय किवाड़ के पल्ले नहीं थे। पहले चपला ने उसे खूब गौर करके देखा, फिर अंदर गई। दरवाजे के भीतर पैर रखते ही ऊपर वाले चौखटे के बीचोंबीच से लोहे का एक तख्ता बड़े जोर के साथ गिर पड़ा। चपला ने चौंक कर पीछे देखा, दरवाजा बंद पाया। सोचने लगी – ‘यह कोठरी है कि मूसेदानी? दरवाजा इसका बिल्कुल चूहेदानी की तौर पर है। अब क्या करें? और कोई रास्ता कहीं जाने का मालूम नहीं पड़ता, बिल्कुल अँधेरा हो गया, हाथ को हाथ दिखाई नहीं पड़ता।’ चपला अधेरे में चारों तरफ घूमने और टटोलने लगी।
घूमते-घूमते चपला का पैर एक गड्ढे में जा पड़ा, साथ ही इसके कुछ आवाज हुई और दरवाजा खुल गया, कोठरी में चाँदना भी पहुँच गया। यह वह दरवाजा नहीं था जो पहले बंद हुआ था, बल्कि एक दूसरा ही दरवाजा था। चपला ने पास जा कर देखा, इसमें भी कहीं किवाड़ के पल्ले नहीं दिखाई पड़े। आखिर उस दरवाजे की राह से कोठरी के बाहर हो एक बाग में पहुँची। देखा कि छोटे-छोटे फूलों के पेड़ों में रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं, एक तरफ से छोटी नहर के जरिए से पानी अंदर पहुँच कर बाग में छिड़काव का काम कर रहा है मगर क्यारियाँ इसमें की कोई भी दुरुस्त नहीं हैं। सामने एक बारहदरी नजर आई, धीरे-धीरे घूमती वहाँ पहुँची।
यह बारहदरी बिल्कुल स्याह पत्थर से बनी हुई थी। छत, जमीन, खंबे सब स्याह पत्थर के थे। बीच में संगमरमर के सिंहासन पर हाथ भर का एक सुर्ख चौखूटा पत्थर रखा हुआ था। चपला ने उसे देखा, उस पर यह खुदा हुआ था – ‘यह तिलिस्म है, इसमें फँसने वाला कभी निकल नहीं सकता, हाँ अगर कोई इसको तोड़े तो सब कैदियों को छुड़ा ले और दौलत भी उसके हाथ लगे। तिलिस्म तोड़ने वाले के बदन में खूब ताकत भी होनी चाहिए नहीं तो मेहनत बेफायदा है।’
चपला को इसे पढ़ने के साथ ही यकीन हो गया कि अब जान गई, जिस राह से मैं आई हूँ उस राह से बाहर जाना कभी नहीं हो सकता। कोठरी का दरवाजा बंद हो गया, बाहर वाले दरवाजे को कमंद से बाँधना व्यर्थ हुआ, मगर शायद वह दरवाजा खुला हो जिससे इस बाग में आई हूँ। यह सोच कर चपला फिर उसी दरवाजे की तरफ गई मगर उसका कोई निशान तक नहीं मिला, यह भी नहीं मालूम हुआ कि किस जगह दरवाजा था। फिर लौट कर उसी बारहदरी में पहुँची और सिंहासन के पास गई, जी में आया कि इस पत्थर को उठा लूँ, अगर किसी तरह बाहर निकलने का मौका मिले तो इसको भी साथ लेती जाऊँगी, लोगों को दिखाऊँगी। पत्थर उठाने के लिए झुकी मगर उस पर हाथ रखा ही था, कि बदन में सनसनाहट पैदा हुई और सिर घूमने लगा, यहाँ तक कि बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ी।
जब तक दिन बाकी था चपला बेहोश पड़ी रही, शाम होते-होते होश में आई। उठ कर नहर के किनारे गई, हाथ-मुँह धोए, जी ठिकाने हुआ। उस बाग में अंगूर बहुत लगे हुए थे मगर उदासी और घबराहट के सबब चपला ने एक दाना भी न खाया, फिर उसी बारहदरी में पहुँची। रात हो गई, और धीरे-धीरे वह बारहदरी चमकने लगी। जैसे-जैसे रात बीतती जाती थी बारहदरी की चमक भी बढ़ती थी। छत, दीवार, जमीन और खंबे सब चमक रहे थे, कोई जगह उस बारहदरी में ऐसी न थी जो दिखाई न देती हो, बल्कि उसकी चमक से सामने वाला थोड़ा हिस्सा बाग का भी चमक रहा था।
यह चमक काहे की है इसको जानने के लिए चपला ने जमीन, दीवार और खंबों पर हाथ फेरा मगर कुछ समझ में न आया। ताज्जुब, डर और नाउम्मीदी ने चपला को सोने न दिया, तमाम रात जागते ही बीती। कभी दीवार टटोलती, कभी उस सिंहासन के पास जा उस पत्थर को गौर से देखती जिसके छूने से बेहोश हो गई थी।
सवेरा हुआ, चपला फिर बाग में घूमने लगी। उस दीवार के पास पहुँची जिसके नीचे से बाग में नहर आई थी। सोचने लगी – ‘दीवार बहुत चौड़ी नहीं है, नहर का मुँह भी खुला है, इस राह से बाहर हो सकती हूँ, आदमी के जाने लायक रास्ता बखूबी है।’ बहुत सोचने-विचारने के बाद चपला ने वही किया, कपड़े सहित नहर में उतर गई, दीवार से उस तरफ हो जाने के लिए गोता मारा, काम पूरा हो गया अर्थात उस दीवार के बाहर हो गई। पानी से सिर निकाल कर देखा तो नहर को बाग के भीतर की बनिस्बत चौड़ी पाया। पानी के बाहर निकली और देखा कि दूर सब तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ दिखाई देते हैं जिनके बीचोबीच से यह नहर आई है और दीवार के नीचे से होकर बाग के अंदर गई है। चपला ने अपने कपड़े धूप में सुखाए, ऐयारी का बटुआ भीगा न था क्योंकि उसका कपड़ा रोगनी था। जब सब तरह से लैस हो चुकी, वहाँ से सीधे रवाना हुई। दोनों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़, बीच में नाला, किनारे पारिजात के पेड़ लगे हुए, पहाड़ के ऊपर किसी तरफ चढ़ने की जगह नहीं, अगर चढ़े भी तो थोड़ी दूर ऊपर जाने के बाद फिर उतरना पड़े। चपला नाले के किनारे रवाना हुई। दो पहर दिन चढ़े तक लगभग तीन कोस चली गई। आगे जाने के लिए रास्ता न मिला, क्योंकि सामने से भी एक पहाड़ ने रास्ता रोक रखा था जिसके ऊपर से गिरने वाला पानी का झरना नीचे नाले में आ कर बहता था। पहाड़ी के नीचे एक दालान था जो अंदाज में दस गज लंबा और गज भर चौड़ा होगा। गौर के साथ देखने से मालूम होता था कि पहाड़ काट के बनाया गया है। इसके बीचोबीच पत्थर का एक अजदहा (अजगर) था, जिसका मुँह खुला हुआ था और आदमी उसके पेट में बखूबी जा सकता था। सामने एक लंबा-चौड़ा संगमरमर का साफ चिकना पत्थर भी जमीन पर जमाया हुआ था।
अजदहे को देखने के लिए चपला उसके पास गई। संगमरमर के पत्थर पर पैर रखा ही था कि धीरे-धीरे अजदहे ने दम खींचना शुरू किया, और कुछ ही देर बाद यहाँ तक खींचा कि चपला का पैर न जम सका, वह खिंच कर उसके पेट में चली गई साथ ही बेहोश भी हो गई। जब चपला होश में आई उसने अपने को एक कोठरी में पाया जो बहुत तंग सिर्फ दस-बारह आदमियों के बैठने लायक होगी। कोठरी के बगल में ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। चपला थोड़ी देर तक अचंभे में भरी हुई बैठी रही, तरह-तरह के ख्याल उसके जी में पैदा होने लगे, अक्ल चकरा गई कि यह क्या मामला है। आखिर चपला ने अपने को सँभाला और सीढ़ी के रास्ते छत पर चढ़ गई, जाते ही सीढ़ी का दरवाजा बंद हो गया, नीचे उतरने की जगह न थी, इधर-उधर देखने लगी। चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़, सामने एक छोटा-सी खोह नजर पड़ी जो बहुत अँधेरी न थी क्योंकि आगे की तरफ से उसमें रोशनी पहुँच रही थी।
चपला लाचार हो कर उस खोह में घुसी। थोड़ी ही दूर जा कर एक छोटा-सा दालान मिला, यहाँ पहुँच कर देखा कि कुमारी चंद्रकांता बहुत से बड़े-बड़े पत्ते आगे रखे हुए बैठी है और पत्तों पर पत्थर की नोक से कुछ लिख रही है। नीचे झाँक कर देखा तो बहुत ही ढालवीं पहाड़ी, उतरने की जगह नहीं, उसके नीचे कुँवर वीरेंद्रसिंह और ज्योतिषी जी खड़े ऊपर की तरफ देख रहे हैं।
कुमारी चंद्रकांता के कान में चपला के पैर की आहट पहुँची, फिर के देखा, पहचानते ही उठ खड़ी हुई और बोली – ‘वाह सखी, खूब पहुँची। देख सब कोई नीचे खड़े हैं, कोई ऐसी तरकीब नजर नहीं आती कि मैं उन तक पहुँचूँ। उन लोगों की आवाज मेरे कान तक पहुँचती है मगर मेरी कोई नहीं सुनता। तेजसिंह ने पूछा है कि तुम किस राह से यहाँ आई हो, उसी का जवाब इस पत्तों पर लिख रही हूँ, इसे नीचे फेंकूँगी।’
चपला ने पहले खूब ध्यान करके चारों तरफ देखा, नीचे उतरने की कोई तरकीब नजर न आई, तब बोली – ‘कोई जरूरत नहीं है पत्तों पर लिखने की। मैं पुकार के कहे देती हूँ, मेरी आवाज वे लोग बखूबी सुनेंगे, पहले यह बताओ तुमको बगुला निगल गया था या किसी दूसरी राह से आई हो?’
कुमारी ने कहा – ‘हाँ मुझको वही बगुला निगल गया था जिसको तुमने उस खँडहर में देखा होगा, शायद तुमको भी वही निगल गया हो।’
चपला ने कहा – ‘नहीं मैं दूसरी राह से आई हूँ, पहले उस खँडहर का पता इन लोगों को दे लूँ तब बातें करूँ, जिससे ये लोग भी कोई बंदोबस्त हम लोगों के छुड़ाने का करें। जहाँ तक मैं सोचती हूँ मालूम होता है कि हम लोग कई दिनों तक यहाँ फँसे रहेंगे, खैर, जो होगा देखा जाएगा।’
चंद्रकांता -देवकीनंदन खत्री-अध्याय -2-भाग-3 यहाँ पढ़ें
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