बयान -1
शाम का वक्त है, कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर आपस में बातें कर रहे हैं।
वीरेंद्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेंद्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेंद्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुँवर वीरेंद्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बाँधे, बगल में बटुआ लटकाए, हाथ में एक कमंद लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने एक घोड़ा कसा-कसाया दुरुस्त पेड़ से बँधा हुआ है। कुँवर वीरेंद्रसिंह कह रहे हैं – ‘भाई तेजसिंह, देखो मुहब्बत भी क्या बुरी बला है जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई दफा तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चंद्रकांता की चिट्ठी मेरे पास लाए और मेरी चिट्ठी उन तक पहुँचाई, जिससे साफ मालूम होता है कि जितनी मुहब्बत मैं चंद्रकांता से रखता हूँ उतनी ही चंद्रकांता मुझसे रखती है, हालाँकि हमारे राज्य और उसके राज्य के बीच सिर्फ पाँच कोस का फासला है इस पर भी हम लोगों के किए कुछ भी नहीं बन पड़ता। देखो इस खत में भी चंद्रकांता ने यही लिखा है कि जिस तरह बने, जल्द मिल जाओ। तेजसिंह ने जवाब दिया – ‘मैं हर तरह से आपको वहाँ ले जा सकता हूँ, मगर एक तो आजकल चंद्रकांता के पिता महाराज जयसिंह ने महल के चारों तरफ सख्त पहरा बैठा रखा है, दूसरे उनके मंत्री का लड़का क्रूरसिंह उस पर आशिक हो रहा है, ऊपर से उसने अपने दोनों ऐयारों को जिनका नाम नाजिम अली और अहमद खाँ है इस बात की ताकीद करा दी है कि बराबर वे लोग महल की निगहबानी किया करें क्योंकि आपकी मुहब्बत का हाल क्रूरसिंह और उसके ऐयारों को बखूबी मालूम हो गया है।
चाहे चंद्रकांता क्रूरसिंह से बहुत ही नफरत करती है और राजा भी अपनी लड़की अपने मंत्री के लड़के को नहीं दे सकता फिर भी उसे उम्मीद बँधी हुई है और आपकी लगावट बहुत बुरी मालूम होती है। अपने बाप के जरिए उसने महाराज जयसिंह के कानों तक आपकी लगावट का हाल पहुँचा दिया है और इसी सबब से पहरे की सख्त ताकीद हो गई है। आप को ले चलना अभी मुझे पसंद नहीं जब तक की मैं वहाँ जा कर फसादियों को गिरफ्तार न कर लूँ। इस वक्त मैं फिर विजयगढ़ जा कर चंद्रकांता और चपला से मुलाकात करता हूँ क्योंकि चपला ऐयारा और चंद्रकांता की प्यारी सखी है और चंद्रकांता को जान से ज्यादा मानती है। सिवाय इस चपला के मेरा साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं है। जब मैं अपने दुश्मनों की चालाकी और कार्रवाई देख कर लौटूं तब आपके चलने के बारे में राय दूँ। कहीं ऐसा न हो कि बिना समझे-बूझे काम करके हम लोग वहाँ ही गिरफ्तार हो जाएँ।’ वीरेंद्र – ‘जो मुनासिब समझो करो, मुझको तो सिर्फ अपनी ताकत पर भरोसा है लेकिन तुमको अपनी ताकत और ऐयारी दोनों का।’ तेजसिंह – ‘मुझे यह भी पता लगा है कि हाल में ही क्रूरसिंह के दोनों ऐयार नाजिम और अहमद यहाँ आ कर पुनः हमारे महाराजा के दर्शन कर गए हैं। न मालूम किस चालाकी से आए थे। अफसोस, उस वक्त मैं यहाँ न था।’ वीरेंद्र – ‘मुश्किल तो यह है कि तुम क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों को फँसाना चाहते हो और वे लोग तुम्हारी गिरफ्तारी की फिक्र में हैं, परमेश्वर कुशल करे। खैर, अब तुम जाओ और जिस तरह बने, चंद्रकांता से मेरी मुलाकात का बंदोबस्त करो।तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेंद्रसिंह को वहीं छोड़ पैदल विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। वीरेंद्रसिंह भी घोड़े को दरख्त से खोल कर उस पर सवार हुए और अपने किले की तरफ चले गए।
विजयगढ़ में क्रूरसिंह अपनी बैठक के अंदर नाजिम और अहमद दोनों ऐयारों के साथ बातें कर रहा है।
क्रूरसिंह – ‘देखो नाजिम, महाराज का तो यह ख्याल है कि मैं राजा होकर मंत्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और चंद्रकांता वीरेंद्रसिंह को चाहती है। अब कहो कि मेरा काम कैसे निकले? अगर सोचा जाए कि चंद्रकांता को ले कर भाग जाऊँ, तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रह कर आराम करूँ? फिर ले जाने के बाद मेरे बाप की महाराज क्या दुर्दशा करेंगे? इससे तो यही मुनासिब होगा कि पहले वीरेंद्रसिंह और उसके ऐयार तेजसिंह को किसी तरह गिरफ्तार कर किसी ऐसी जगह ले जा कर खपा डाला जाए कि हजार वर्ष तक पता न लगे, और इसके बाद मौका पा कर महाराज को मारने की फिक्र की जाए, फिर तो मैं झट गद्दी का मालिक बन जाऊँगा और तब अलबत्ता अपनी जिंदगी में चंद्रकांता से ऐश कर सकूँगा। मगर यह तो कहो कि महाराज के मरने के बाद मैं गद्दी का मालिक कैसे बनूँगा? लोग कैसे मुझे राजा बनाएँगे।’
नाजिम – हमारे राजा के यहाँ बनिस्बत काफिरों के मुसलमान ज्यादा हैं, उन सभी को आपकी मदद के लिए मैं राजी कर सकता हूँ और उन लोगों से कसम खिला सकता हूँ कि महाराज के बाद आपको राजा मानें, मगर शर्त यह है कि काम हो जाने पर आप भी हमारे मजहब मुसलमानी को कबूल करें?
क्रूरसिंह – ‘अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारी शर्त दिलोजान से कबूल करता हूँ?’
अहमद – ‘तो बस ठीक है, आप इस बात का इकरारनामा लिख कर मेरे हवाले करें। मैं सब मुसलमान भाइयों को दिखला कर उन्हें अपने साथ मिला लूँगा।’
क्रूरसिंह ने काम हो जाने पर मुसलमानी मजहब अख्तियार करने का इकरारनामा लिख कर फौरन नाजिम और अहमद के हवाले किया, जिस पर अहमद ने क्रूरसिंह से कहा – ‘अब सब मुसलमानों का एक (दिल) कर लेना हम लोगों के जिम्मे है, इसके लिए आप कुछ न सोचिए। हाँ, हम दोनों आदमियों के लिए भी एक इकरारनामा इस बात का हो जाना चाहिए कि आपके राजा हो जाने पर हमीं दोनों वजीर मुकर्रर किए जाएँगे, और तब हम लोगों की चालाकी का तमाशा देखिए कि बात-की-बात में जमाना कैसे उलट-पुलट कर देते हैं।’
क्रूरसिंह ने झटपट इस बात का भी इकरारनामा लिख दिया जिससे वे दोनों बहुत ही खुश हुए। इसके बाद नाजिम ने कहा – ‘इस वक्त हम लोग चंद्रकांता के हालचाल की खबर लेने जाते हैं क्योंकि शाम का वक्त बहुत अच्छा है, चंद्रकांता जरूर बाग में गई होगी और अपनी सखी चपला से अपनी विरह-कहानी कह रही होगी, इसलिए हम को पता लगाना कोई मुश्किल न होगा कि आज कल वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता के बीच में क्या हो रहा है।’
यह कह कर दोनों ऐयार क्रूरसिंह से विदा हुए।
कुछ-कुछ दिन बाकी है, चंद्रकांता, चपला और चंपा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिल कर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही है। फूलों की क्यारियों की रविशों में अच्छी तरह छिड़काव किया हुआ है और फूलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हैं। कहीं गुलाब, कहीं जूही, कहीं बेला, कहीं मोतिए की क्यारियाँ अपना-अपना मजा दे रही हैं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुंदर-सुंदर बुर्जियाँ अपनी बहार दिखला रही हैं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चंद्रकांता की प्यारी सखी है, अपने चंचल हाव-भाव के साथ चंद्रकांता को संग लिए चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फूलों को तोड़-तोड़ कर चंद्रकांता के हाथ में दे रही है, मगर चंद्रकांता को वीरेंद्रसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी मालूम होती हैं? उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियाँ जबर्दस्ती बाग में खींच लाई हैं।
चंद्रकांता की सखी चंपा तो गुच्छा बनाने के लिए फूलों को तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई लेकिन चंद्रकांता और चपला धीरे-धीरे टहलती हुई बीच के फव्वारे के पास जा निकलीं और उसकी चक्करदार टूटियों से निकलते हुए जल का तमाशा देखने लगीं।
चपला – ‘न मालूम चंपा किधर चली गई?’
चंद्रकांता – ‘कहीं इधर-उधर घूमती होगी।’
चपला – ‘दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है।’
चंद्रकांता – देखो वह आ रही है।
चपला – ‘इस वक्त तो उसकी चाल में फर्क मालूम होता है।’
इतने में चंपा ने आ कर फूलों का एक गुच्छा चंद्रकांता के हाथ में दिया और कहा – ‘देखिए, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लाई हूँ। अगर इस वक्त कुँवर वीरेंद्रसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझको कुछ इनाम भी देते।’
वीरेंद्रसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चंद्रकांता का अजब हाल हो गया। भूली हुई बात फिर याद आ गई, कमल मुख मुरझा गया, ऊँची-ऊँची साँसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे-धीरे कहने लगी – ‘न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन-से ऐसे पाप किए हैं जिनके बदले यह दु:ख भोगना पड़ रहा है? देखो, पिता को क्या धुन समाई है। कहते हैं कि चंद्रकांता को कुँआरी ही रखूँगा। हाय! वीरेंद्र के पिती ने शादी करने के लिए कैसी-कैसी खुशामदें की, मगर दुष्ट क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उसको ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कंबख्त क्रूर अपनी ही लसी लगाना चाहता है।’
एकाएक चपला ने चंद्रकांता का हाथ पकड़ कर जोर से दबाया मानो चुप रहने के लिए इशारा किया।
चपला के इशारे को समझ कर चंद्रकांता चुप हो गई और चपला का हाथ पकड़ कर फिर बाग में टहलने लगी, मगर अपना रूमाल उसी जगह जान-बूझ कर गिराती गई। थोड़ी दूर आगे बढ़ कर उसने चंपा से कहा – ‘सखी देख तो, फव्वारे के पास कहीं मेरा रूमाल गिर पड़ा है।’
चंपा रूमाल लेने फव्वारे की तरफ चली गई तब चंद्रकांता ने चपला से पूछा – ‘सखी, तूने बोलते समय मुझे एकाएक क्यों रोका?’
चपला ने कहा – ‘मेरी प्यारी सखी, मुझको चंपा पर शुबहा हो गया है। उसकी बातों और चितवनों से मालूम होता है कि वह असली चंपा नहीं है।’
इतने में चंपा ने रूमाल ला कर चपला के हाथ में दिया। चपला ने चंपा से पूछा – “सखी, कल रात को मैंने तुझको जो कहा था सो तूने किया?” चंपा बोली – ‘नहीं, मैं तो भूल गई।’ तब चपला ने कहा – “भला वह बात तो याद है या वो भी भूल गई?” चंपा बोली, “बात तो याद है।” तब फिर चपला ने कहा, “भला दोहरा के मुझसे कह तो सही तब मैं जानू की तुझे याद है।”
इस बात का जवाब न दे कर चंपा ने दूसरी बात छेड़ दी जिससे शक की जगह यकीन हो गया कि यह चंपा नहीं है। आखिर चपला यह कह कर कि मैं तुझसे एक बात कहूँगी, चंपा को एक किनारे ले गई और कुछ मामूली बातें करके बोली – ‘देख तो चंपा, मेरे कान से कुछ बदबू तो नहीं आती? क्योंकि कल से कान में दर्द है।’ नकली चंपा चपला के फेर में पड़ गई और फौरन कान सूँघने लगी। चपला ने चालाकी से बेहोशी की बुकनी कान में रख कर नकली चंपा को सूँघा दी जिसके सूँघते ही चंपा बेहोश हो कर गिर पड़ी।
चपला ने चंद्रकांता को पुकार कर कहा – ‘आओ सखी, अपनी चंपा का हाल देखो।’ चंद्रकांता ने पास आ कर चंपा को बेहोश पड़ी हुई देख चपला से कहा – ‘सखी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा ख्याल धोखा ही निकले और पीछे चंपा से शरमाना पड़े।’
नहीं, ऐसा न होगा।’ कह कर चपला चंपा को पीठ पर लाद फव्वारे के पास ले गई और चंद्रकांता से बोली – ‘तुम फव्वारे से चुल्लू भर-भर पानी इसके मुँह पर डालो, मैं धोती हूँ।’ चंद्रकांता ने ऐसा ही किया और चपला खूब रगड़-रगड़ कर उसका मुँह धोने लगी। थोड़ी देर में चंपा की सूरत बदल गई और साफ नाजिम की सूरत निकल आई। देखते ही चंद्रकांता का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह बोली – ‘सखी, इसने तो बड़ी बेअदबी की।’
‘देखो तो, अब मैं क्या करती हूँ।’ कह कर चपला नाजिम को फिर पीठ पर लाद बाग के एक कोने में ले गई, जहाँ बुर्ज के नीचे एक छोटा-सा तहखाना था। उसके अंदर बेहोश नाजिम को ले जा कर लिटा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलाई। एक रस्सी से नाजिम के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कस कर बाँधे और डिबिया से लखलखा निकाल कर उसको सुँघाया, जिससे नाजिम ने एक छींक मारी और होश में आ कर अपने को कैद और बेबस देखा। चपला कोड़ा ले कर खड़ी हो गई और मारना शुरू किया।
‘माफ करो मुझसे बड़ा कसूर हुआ, अब मैं ऐसा कभी न करूँगा बल्कि इस काम का नाम भी न लूँगा।’ इत्यादि कह कर नाजिम चिल्लाने और रोने लगा, मगर चपला कब सुनने वाली थी? वह कोड़ा जमाए ही गई और बोली – ‘सब्र कर, अभी तो तेरी पीठ की खुजली भी न मिटी होगी। तू यहाँ क्यों आया था? क्या तुझे बाग की हवा अच्छी मालूम हुई थी? क्या बाग की सैर को जी चाहा था? क्या तू नहीं जानता था कि चपला भी यहाँ होगी? हरामजादे के बच्चे, बेईमान, अपने बाप के कहने से तूने यह काम किया? देख मैं उसकी भी तबीयत खुश कर देती हूँ।’ यह कह कर फिर मारना शुरू किया, और पूछा – ‘सच बता, तू कैसे यहाँ आया और चंपा कहाँ गई?’
मार के खौफ से नाजिम को असल हाल कहना ही पड़ा। वह बोला – ‘चंपा को मैंने ही बेहोश किया था, बेहोशी की दवा छिड़क कर फूलों का गुच्छा उसके रास्ते में रख दिया जिसको सूँघ कर वह बेहोश हो गई, तब मैंने उसे मालती लता के कुँज में डाल दिया और उसकी सूरत बना उसके कपड़े पहन तुम्हारी तरफ चला आया। लो, मैंने सब हाल कह दिया, अब तो छोड़ दो।’
चपला ने कहा – ‘ठहर, छोड़ती हूँ।’ मगर फिर भी दस-पाँच कोड़े और जमा ही दिए, यहाँ तक की नाजिम बिलबिला उठा, तब चपला ने चंद्रकांता से कहा – ‘सखी, तुम इसकी निगहबानी करो, मैं चंपा को ढूँढ़ कर लाती हूँ। कहीं वह पाजी झूठ न कहता हो।’
चंपा को खोजती हुई चपला मालती लता के पास पहुँची और बत्ती जला कर ढ़ूँढ़ने लगी। देखा की सचमुच चंपा एक झाड़ी में बेहोश पड़ी है और बदन पर उसके एक लत्ता भी नहीं है। चपला उसे लखलखा सुँघा कर होश में लाई और पूछा – ‘क्यों मिजाज कैसा है, खा गई न धोखा।’
चंपा ने कहा – ‘मुझको क्या मालूम था कि इस समय यहाँ ऐयारी होगी? इस जगह फूलों का एक गुच्छा पड़ा था जिसको उठा कर सूँघते ही मैं बेहोश हो गई, फिर न मालूम क्या हुआ। हाय, हाय। न जाने किसने मुझे बेहोश किया, मेरे कपड़े भी उतार लिए, बड़ी लागत के कपड़े थे।’
वहाँ पर नाजिम के कपड़े पड़े हुए थे जिनमें से दो एक ले कर चपला ने चंपा का बदन ढ़का और तब यह कह कर की ‘मेरे साथ आ, मैं उसे दिखलाऊँ जिसने तेरी यह हालत की चंपा को साथ ले उस जगह आई जहाँ चंद्रकांता और नाजिम थे। नाजिम की तरफ इशारा करके चपला ने कहा, देख, इसी ने तेरे साथ यह भलाई की थी।’ चंपा को नाजिम की सूरत देखते ही बड़ा क्रोध आया और वह चपला से बोली – ‘बहन अगर इजाजत हो तो मैं भी दो चार कोड़े लगा कर अपना गुस्सा निकाल लूँ?’
चपला ने कहा – ‘हाँ-हाँ, जितना जी चाहे इस मुए को जूतियाँ लगाओ।’ बस फिर क्या था, चंपा ने मनमाने कोड़े नाजिम को लगाए, यहाँ तक कि नाजिम घबरा उठा और जी में कहने लगा – ‘खुदा, क्रूरसिंह को गारत करे जिसकी बदौलत मेरी यह हालत हुई।’
आखिरकार नाजिम को उसी कैदखाने में कैद कर तीनों महल की तरफ रवाना हुई। यह छोटा-सा बाग जिसमें ऊपर लिखी बातें हुईं, महल के संग सटा हुआ उसके पिछवाड़े की तरफ पड़ता था और खास कर चंद्रकांता के टहलने और हवा खाने के लिए ही बनवाया गया था। इसके चारों तरफ मुसलमानों का पहरा होने के सबब से ही अहमद और नाजिम को अपना काम करने का मौका मिल गया था।
तेजसिंह वीरेंद्रसिंह से रुखसत होकर विजयगढ़ पहुँचेगा और चंद्रकांता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी है, अगर अँधेरी रात होती तो कमंद लगा कर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती।
आखिर तेजसिंह एकांत में गए और वहाँ अपनी सूरत एक चोबदार की-सी बना महल की ड्योढ़ी पर पहुँचेगा। देखा कि बहुत से चोबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चोबदार से बोले – ‘यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज हमको अपनी अर्दली में नौकर रखा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मजा देखते-टहलते इस तरफ आ निकले, तुम लोगों को तंबाकू पीते देख जी में आया कि चलो दो फूँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को तंबाकू की महक जैसी मालूम होती है आप लोग भी जानते ही होंगे।’
‘हाँ-हाँ, आइए, बैठिए, तंबाकू पीजिए।’ कह कर चोबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रखा।
तेजसिंह ने कहा – ‘मैं हिंदू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से जरूर पी लूँगा।’ यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे।
उन्होंने दो फूँक तंबाकू के नहीं पिए थे कि खाँसना शुरू किया, इतना खाँसा कि थोड़ा-सा पानी भी मुँह से निकाल दिया और तब कहा – ‘मियाँ तुम लोग अजब कड़वा तंबाकू पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी तंबाकू पीता हूँ। महाराज के हुक्काबर्दार से दोस्ती हो गई है, वह बराबर महाराज के पीने वाले तंबाकू में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गई है कि सिवाय उस तंबाकू के और कोई तंबाकू अच्छा नहीं लगता।’
इतना कह चोबदार बने हुए तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम तंबाकू निकाल कर दिया और कहा – ‘तुम लोग भी पी कर देख लो कि कैसा तंबाकू है।
भला चोबदारों ने महाराज के पीने का तंबाकू कभी काहे को पिया होगा। झट हाथ फैला दिया और कहा – ‘लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी तंबाकू पी लें। तुम बड़े किस्मतवार हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चैन करते होगे।’ यह नकली चोबदार (तेजसिंह) के हाथ से तंबाकू ले लिया और खूब दोहरा जमा कर तेजसिंह के सामने लाए। तेजसिंह ने कहा – ‘तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।’
अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं।
थोड़ी ही देर में सब चोबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झुकते-झुकते सब औंधे हो कर गिर पड़े और बेहोश हो गए।
अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अंदर घुस गए और नजर बचा कर बाग में पहुँचेगा। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमंद डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चूँ तक न कर सकी और जमीन पर गिर पड़ी। तुरंत उसे बेहोशी की बुकनी सूँघाई और जब बेहोश हो गई तो उसे वहाँ से उठा कर किनारे ले गए। बटुए में से सामान निकाल मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ रवाना हुए और वहाँ पहुँचेगा जहाँ चंद्रकांता, चपला और चंपा दस-पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंडी की सूरत बनाए हुए तेजसिंह भी एक किनारे जा कर बैठ गए।
तेजसिंह को देख चपला बोली – ‘क्यों केतकी, जिस काम के लिए मैंने तुझको भेजा था क्या वह काम तू कर आई जो चुपचाप आ कर बैठ गई है?
चपला की बात सुन तेजसिंह को मालूम हो गया कि जिस लौंडी को मैंने बेहोश किया है और जिसकी सूरत बना कर आया हूँ उसका नाम केतकी है।
नकली केतकी – ‘हाँ काम तो करने गई थी मगर रास्ते में एक नया तमाशा देख तुमसे कुछ कहने के लिए लौट आई हूँ।’
चपला – ‘ऐसा। अच्छा तूने क्या देखा कह?’
नकली केतकी – ‘सभी को हटा दो तो तुम्हारे और राजकुमारी के सामने बात कह सुनाऊँ।’
सब लौंडियाँ हटा दी गईं और केवल चंद्रकांता, चपला और चंपा रह गई। अब केतकी ने हँस कर कहा – ‘कुछ इनाम तो दो खुशखबरी सुनाऊँ।’
चंद्रकांता ने समझा कि शायद वह कुछ वीरेंद्रसिंह की खबर लाई है, मगर फिर यह भी सोचा कि मैंने तो आजतक कभी वीरेंद्रसिंह का नाम भी इसके सामने नहीं लिया तब यह क्या मामला है? कौन-सी खुशखबरी है जिसके सुनाने के लिए यह पहले ही से इनाम माँगती है? आखिर चंद्रकांता ने केतकी से कहा – ‘हाँ, हाँ, इनाम दूँगी, तू कह तो सही, क्या खुशखबरी लाई है?’
केतकी ने कहा – ‘पहले दे दो तो कहूँ, नहीं तो जाती हूँ।’ यह कह उठ कर खड़ी हो गई।
केतकी के ये नखरे देख चपला से न रहा गया और वह बोल उठी – ‘क्यों री केतकी, आज तुझको क्या हो गया है कि ऐसी बढ़-बढ़ कर बातें कर रही है। लगाऊँ दो लात उठ के।’
केतकी ने जवाब दिया – ‘क्या मैं तुझसे कमजोर हूँ जो तू लात लगावेगी और मैं छोड़ दूँगी।’
अब चपला से न रहा गया और केतकी का झोंटा पकड़ने के लिए दौड़ी, यहाँ तक कि दोनों आपस में गूँथ गईं। इत्तिफाक से चपला का हाथ नकली केतकी की छाती पर पड़ा जहाँ की सफाई देख वह घबरा उठी और झट से अलग हो गई।
नकली केतकी – (हँस कर) क्यों, भाग क्यों गई? आओ लड़ो।
चपला अपनी कमर से कटार निकाल सामने हुई और बोली – ‘ओ ऐयार, सच बता तू कौन है, नहीं तो अभी जान ले डालती हूँ।’
इसका जवाब नकली केतकी ने चपला को कुछ न दिया और वीरेंद्रसिंह की चिट्ठी निकाल कर सामने रख दी। चपला की नजर भी इस चिट्ठी पर पड़ी और गौर से देखने लगी। वीरेंद्रसिंह के हाथ की लिखावट देख समझ गई कि यह तेजसिंह हैं, क्योंकि सिवाय तेजसिंह के और किसी के हाथ वीरेंद्रसिंह कभी चिट्ठी नहीं भेजेंगे। यह सोच-समझ चपला शरमा गई और गरदन नीची कर चुप हो रही, मगर जी में तेजसिंह की सफाई और चालाकी की तारीफ करने लगी, बल्कि सच तो यह है कि तेजसिंह की मुहब्बत ने उसके दिल में जगह बना ली।
चंद्रकांता ने बड़ी मुहब्बत से वीरेंद्रसिंह का खत पढ़ा और तब तेजसिंह से बातचीत करने लगी –
चंद्रकांता – ‘क्यों तेजसिंह, उनका मिजाज तो अच्छा है?’
तेजसिंह – ‘मिजाज क्या खाक अच्छा होगा? खाना-पीना सब छूट गया, रोते-रोते आँखें सूज आईं, दिन-रात तुम्हारा ध्यान है, बिना तुम्हारे मिले उनको कब आराम है। हजार समझाता हूँ मगर कौन सुनता है। अभी उसी दिन तुम्हारी चिट्ठी ले कर मैं गया था, आज उनकी हालत देख फिर यहाँ आना पड़ा। कहते थे कि मैं खुद चलूँगा, किसी तरह समझा-बुझा कर यहाँ आने से रोका और कहा कि आज मुझको जाने दो, मैं जा कर वहाँ बंदोबस्त कर आऊँ तब तुमको ले चलूँगा जिससे किसी तरह का नुकसान न हो।’
चंद्रकांता – ‘अफसोस। तुम उनको अपने साथ न लाए, कम-से-कम मैं उनका दर्शन तो कर लेती? देखो यहाँ क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों ने इतना ऊधम मचा रखा है कि कुछ कहा नहीं जाता। पिताजी को मैं कितना रोकती और समझाती हूँ कि क्रूरसिंह के दोनों ऐयार मेरे दुश्मन हैं मगर महाराज कुछ नहीं सुनते, क्योंकि क्रूरसिंह ने उनको अपने वश में कर रखा है। मेरी और कुमार की मुलाकात का हाल बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ा कर महाराज को न मालूम किस तरह समझा दिया है कि महाराज उसे सच्चों का बादशाह समझ गए हैं, वह हरदम महाराज के कान भरा करता है। अब वे मेरी कुछ भी नहीं सुनते, हाँ आज बहुत कुछ कहने का मौका मिला है क्योंकि आज मेरी प्यारी सखी चपला ने नाजिम को इस पिछवाड़े वाले बाग में गिरफ्तार कर लिया है, कल महाराज के सामने उसको ले जा कर तब कहूँगी कि आप अपने क्रूरसिंह की सच्चाई को देखिए, अगर मेरे पहरे पर मुकर्रर किया ही था तो बाग के अंदर जाने की इजाजात किसने दी थी?’
यह कह कर चंद्रकांता ने नाजिम के गिरफ्तार होने और बाग के तहखाने में कैद करने का सारा हाल तेजसिंह से कह सुनाया।
तेजसिंह चपला की चालाकी सुन कर हैरान हो गए और मन-ही-मन उसको प्यार करने लगे, पर कुछ सोचने के बाद बोले – ‘चपला ने चालाकी तो खूब की मगर धोखा खा गई।’
यह सुन चपला हैरान हो गई हाय राम। मैंने क्या धोखा खाया। पर कुछ समझ में नहीं आया। आखिर न रहा गया, तेजसिंह से पूछा – ‘जल्दी बताओ, मैंने क्या धोखा खाया?’
तेजसिंह ने कहा – ‘क्या तुम इस बात को नहीं जानती थीं कि नाजिम बाग में पहुँचा तो अहमद भी जरूर आया होगा? फिर बाग ही में नाजिम को क्यों छोड़ दिया? तुमको मुनासिब था कि जब उसको गिरफ्तार किया ही था तो महल में ला कर कैद करती या उसी वक्त महाराज के पास भिजवा देती, अब जरूर अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया होगा।’
इतनी बात सुनते ही चपला के होश उड़ गए और बहुत शर्मिंदा हो कर बोली – ‘सच है, बड़ी भारी गलती हुई, इसका किसी ने ख्याल न किया।’
तेजसिंह – ‘और कोई क्यों ख्याल करता। तुम तो चालाक बनती हो, ऐयारा कहलाती हो, इसका ख्याल तुमको होना चाहिए कि दूसरों को…? खैर, जाके देखो, वह है या नहीं?
चपला दौड़ी हुई बाग की तरफ गई। तहखाने के पास जाते ही देखा कि दरवाजा खुला पड़ा है। बस फिर क्या था? यकीन हो गया कि नाजिम को अहमद छुड़ा ले गया। तहखाने के अंदर जा कर देखा तो खाली पड़ा हुआ था। अपनी बेवकूफी पर अफसोस करती हुई लौट आई और बोली – ‘क्या कहूँ, सचमुच अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया।’
अब तेजसिंह ने छेड़ना शुरू किया – ‘बड़ी ऐयार बनती थी, कहती थी हम चालाक हैं, होशियार हैं, ये हैं, वो हैं। बस एक अदने ऐयार ने नाकों में दम कर डाला।’
चपला झुँझला उठी और चिढ़ कर बोली – ‘चपला नाम नहीं जो अबकी बार दोनों को गिरफ्तार कर इसी कमरे में ला कर बेहिसाब जूतियाँ न लगाऊँ।’
तेजसिंह ने कहा – ‘बस तुम्हारी कारीगिरी देखी गई, अब देखो, मैं कैसे एक-एक को गिरफ्तार कर अपने शहर में ले जा कर कैद करता हूँ।’
इसके बाद तेजसिंह ने अपने आने का पूरा हाल चंद्रकांता और चपला से कह सुनाया और यह भी बतला दिया कि फलाँ जगह पर मैं केतकी को बेहोश कर के डाल आया हूँ, तुम जा कर उसे उठा लाना। उसके कपड़े मैं न दूँगा क्योंकि इसी सूरत से बाहर चला जाता हूँ। देखो, सिवाय तुम तीनों को यह हाल और किसी को न मालूम हो, नहीं तो सब काम बिगड़ जाएगा।
चंद्रकांता ने तेजसिंह से ताकीद की – ‘दूसरे-तीसरे दिन तुम जरूर यहाँ आया करो, तुम्हारे आने से हिम्मत बनी रहती है।’
‘बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा।’ कह कर तेजसिंह चलने को तैयार हुए।
चंद्रकांता उन्हें जाते देख रो कर बोली – ‘क्यों तेजसिंह, क्या मेरी किस्मत में कुमार की मुलाकात नहीं बदी है?’ इतना कहते ही गला भर आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। तेजसिंह ने बहुत समझाया और कहा कि देखो, यह सब बखेड़ा इसी वास्ते किया जा रहा है जिससे तुम्हारी उनसे हमेशा के लिए मुलाकात हो, अगर तुम ही घबरा जाओगी तो कैसे काम चलेगा? बहुत अच्छी तरह समझा-बुझा कर चंद्रकांता को चुप कराया, तब वहाँ से रवाना हो केतकी की सूरत में दरवाजे पर आए। देखा तो दो-चार प्यादे होश में आए हैं बाकी चित्त पड़े हैं, कोई औंधा पड़ा है, कोई उठा तो है मगर फिर झुका ही जाता है। नकली केतकी ने डपट कर दरबानों से कहा – ‘तुम लोग पहरा देते हो या जमीन सूँघते हो?’ इतनी अफीम क्यों खाते हो कि आँखें नहीं खुलतीं, और सोते हो तो मुर्दों से बाजी लगा कर। देखो, मैं बड़ी रानी से कह कर तुम्हारी क्या दशा कराती हूँ।’
जो चोबदार होश में आ चुके थे, केतकी की बात सुन कर सन्न हो गए और लगे खुशामद करने – ‘देखो केतकी, माफ करो, आज एक नालायक सरकारी चोबदार ने आ कर धोखा दे कर ऐसा जहरीला तंबाकू पिला दिया कि हम लोगों की यह हालत हो गई। उस पाजी ने तो जान से मारना चाहा था, अल्लाह ने बचा दिया नहीं तो मारने में क्या कसर छोड़ी थी। देखो, रोज तो ऐसा नहीं होता था, आज धोखा खा गए। हम हाथ जोड़ते हैं, अब कभी ऐसा देखो तो जो चाहे सजा देना।’
नकली केतकी ने कहा – ‘अच्छा, आज तो छोड़ देती हूँ मगर खबरदार। जो फिर कभी ऐसा हुआ।’ यह कहते हुए तेजसिंह बाहर निकल गए।
डर के मारे किसी ने यह भी न पूछा कि केतकी तू कहाँ जा रही ।
अहमद ने, जो बाग के पेड़ पर बैठा हुआ था जब देखा कि चपला ने नाजिम को गिरफ्तार कर लिया और महल में चली गई तो सोचने लगा कि चंद्रकांता, चपला और चंपा बस यही तीनों महल में गई हैं, नाजिम इन सभी के साथ नहीं गया तो जरूर वह इस बगीचे में ही कहीं कैद होगा, यह सोच वह पेड़ से उतर इधर-उधर ढूँढ़ने लगा। जब उस तहखाने के पास पहुँचा जिसमें नाजिम कैद था तो भीतर से चिल्लाने की आवाज आई जिसे सुन उसने पहचान लिया कि नाजिम की आवाज है। तहखाने के किवाड़ खोल अंदर गया, नाजिम को बँधा पा झट से उसकी रस्सी खोली और तहखाने के बाहर आ कर बोला – ‘चलो जल्दी, इस बगीचे के बाहर हो जाएँ तब सब हाल सुनें कि क्या हुआ।’
नाजिम और अहमद बगीचे के बाहर आए और चलते-चलते आपस में बाच-चीत करने लगे। नाजिम ने चपला के हाथ फँस जाने और कोड़ा खाने का पूरा हाल कहा।
अहमद – ‘भाई नाजिम, जब तक पहले चपला को हम लोग न पकड़ लेंगे तब तक कोई काम न होगा, क्योंकि चपला बड़ी चालाक है और धीरे-धीरे चंपा को भी तेज कर रही है। अगर वह गिरफ्तार न की जाएगी तो थोड़े ही दिनों में एक की दो हो जाएगी चंपा भी इस काम में तेज होकर चपला का साथ देने लायक हो जाएगी।’
नाजिम – ‘ठीक है, खैर, आज तो कोई काम नहीं हो सकता, मुश्किल से जान बची है। हाँ, कल पहले यही काम करना है, यानी जिस तरह से हो चपला को पकड़ना और ऐसी जगह छिपाना है कि जहाँ पता न लगे और अपने ऊपर किसी को शक भी न हो।’
ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें करते चले जा रहे थे, थोड़ी देर में जब महल के अगले दरवाजे के पास पहुँचे तो देखा कि केतकी जो कुमारी चंद्रकांता की लौंडी है, सामने से चली आ रही है।
तेजसिंह ने भी, जो केतकी के वेश में चले आ रहे थे, नाजिम और अहमद को देखते ही पहचान लिया और सोचने लगे कि भले मौके पर ये दोनों मिल गए हैं और अपनी भी सूरत अच्छी है, इस समय इन दोनों से कुछ खेल करना चाहिए और बन पड़े तो दोनों नहीं, एक को तो जरूर ही पकड़ना चाहिए।
तेजसिंह जान-बूझ कर इन दोनों के पास से होकर निकले। नाजिम और अहमद भी यह सोच कर उसके पीछे हो लिए कि देखें कहाँ जाती है? नकली केतकी (तेजसिंह) ने मुड़ कर देखा और कहा – ‘तुम लोग मेरे पीछे-पीछे क्यों चले आ रहे हो? जिस काम पर मुकर्रर हो उस काम को करो।’
अहमद ने कहा – ‘किस काम पर मुकर्रर हैं और क्या करें?, तुम क्या जानती हो?’
केतकी ने कहा – ‘मैं सब जानती हूँ। तुम वही काम करो जिसमें चपला के हाथ की जूतियाँ नसीब हों। जिस जगह तुम्हारी मददगार एक लौंडी तक नहीं है वहाँ तुम्हारे किए क्या होगा?’
नाजिम और अहमद केतकी की बात सुन कर दंग रह गए और सोचने लगे कि यह तो बड़ी चालाक मालूम होती है। अगर हम लोगों के मेल में आ जाए तो बड़ा काम निकले, इसकी बातों से मालूम भी होता है कि कुछ लालच देने पर हम लोगों का साथ देगी।
नाजिम ने कहा – ‘सुनो केतकी, हम लोगों का तो काम ही चालाकी करने का है। हम लोग अगर पकड़े जाने और मरने-मारने से डरें तो कभी काम न चले, इसी की बदौलत खाते हैं, बात-की-बात में हजारों रुपए इनाम मिलते हैं, खुदा की मेहरबानी से तुम्हारे जैसे मददगार भी मिल जाते हैं जैसे आज तुम मिल गईं। अब तुमको भी मुनासिब है कि हमारी मदद करो, जो कुछ हमको मिलेगा उससे हम तुमको भी हिस्सा देंगे।’
केतकी ने कहा – ‘सुनो जी, मैं उम्मीद के ऊपर जान देने वाली नहीं हूँ, वे कोई दूसरे होंगे। मैं तो पहले दाम लेती हूँ। अब इस वक्त अगर कुछ मुझको दो तो मैं अभी तेजसिंह को तुम्हारे हाथ गिरफ्तार करा दूँ, नहीं तो जाओ, जो कुछ करते हो, करो।’
तेजसिंह की गिरफ्तारी का हाल सुनते ही दोनों की तबीयत खुश हो गई। नाजिम ने कहा – ‘अगर तेजसिंह को पकड़वा दो तो जो कहो हम तुमको दें।’
केतकी – ‘एक हजार रुपए से कम मैं हरगिज न लूँगी। अगर मंजूर हो तो लाओ रुपए मेरे सामने रखो।’
नाजिम – ‘अब इस वक्त आधी रात को मैं कहाँ से रुपए लाऊँ, हाँ कल जरूर दे दूँगा।’
केतकी – ‘ऐसी बातें मुझसे न करो, मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं उधार सौदा नहीं करती, लो मैं जाती हूँ।’
नाजिम – (आगे से रोक कर) ‘सुनो तो, तुम खफा क्यों होती हो? अगर तुमको हम लोगों का ऐतबार न हो तो तुम इसी जगह ठहरो, हम लोग जा कर रुपए ले आते हैं।’
केतकी – ‘अच्छा, एक आदमी यहाँ मेरे पास रहे और एक आदमी जा कर रुपए ले आओ।’
नाजिम – ‘अच्छा, अहमद यहाँ तुम्हारे पास ठहरता है, मैं जा कर रुपए ले आता हूँ।’
यह कह कर नाजिम ने अहमद को तो उसी जगह छोड़ा और आप खुशी-खुशी क्रूरसिंह की तरफ रुपए लेने को चला।
नाजिम के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक केतकी और अहमद इधर-उधर की बातें करते रहे। बात करते-करते केतकी ने दो-चार इलायची बटुए से निकाल कर अहमद को दीं और आप भी खाईं। अहमद को तेजसिंह के पकड़े जाने की उम्मीद में इतनी खुशी थी कि कुछ सोच न सका और इलायची खा गया, मगर थोड़ी ही देर में उसका सिर घूमने लगा। तब समझ गया कि यह कोई ऐयार (चालाक) है जिसने धोखा दिया। चट कमर से खंजर खींच बिना कुछ कहे केतकी को मारा, मगर केतकी पहले से होशियार थी, दाँव बचा कर उसने अहमद की कलाई पकड़ ली जिससे अहमद कुछ न कर सका बल्कि जरा ही देर में बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ा। तेजसिंह ने उसकी मुश्कें बाँध कर चादर में गठरी कसी और पीठ पर लाद नौगढ़ का रास्ता लिया। खुशी के मारे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते चले गए, यह भी ख्याल था कि कहीं ऐसा न हो कि नाजिम आ जाए और पीछा करे।
इधर नाजिम रुपए लेने के लिए गया तो सीधे क्रूरसिंह के मकान पर पहुँचा। उस समय क्रूरसिंह गहरी नींद में सो रहा था। जाते ही नाजिम ने उसको जगाया।
क्रूरसिंह ने पूछा – ‘क्या है जो इस वक्त आधी रात के समय आ कर मुझको उठा रहे हो?’
नाजिम ने क्रूरसिंह से अपनी पूरी कैफियत, यानी चंद्रकांता के बाग में जाना और गिरफ्तार होकर कोड़े खाना, अमहद का छुड़ा लाना, फिर वहाँ से रवाना होना, रास्ते में केतकी से मिलना और हजार रुपए पर तेजसिंह को पकड़वा देने की बातचीत तय करना वगैरह सब खुलासा हाल कह सुनाया।
क्रूरसिंह ने नाजिम के पकड़े जाने का हाल सुन कर कुछ अफसोस तो किया मगर पीछे तेजसिंह के गिरफ्तार होने की उम्मीद सुन कर उछल पड़ा, और बोला – ‘लो, अभी हजार रुपए देता हूँ, बल्कि खुद तुम्हारे साथ चलता हूँ’ यह कह कर उसने हजार रुपए संदूक में से निकाले और नाजिम के साथ हो लिया।
जब नाजिम क्रूरसिंह को साथ ले कर वहाँ पहुँचा जहाँ अहमद और केतकी को छोड़ा था तो दोनों में से कोई न मिला।
नाजिम तो सन्न हो गया और उसके मुँह से झट यह बात निकल पड़ी कि धोखा हुआ।’
क्रूरसिंह – ‘कहो नाजिम, क्या हुआ।’
नाजिम – ‘क्या कहूँ, वह जरूर केतकी नहीं कोई ऐयार था, जिसने पूरा धोखा दिया और अहमद को तो ले ही गया।’
क्रूरसिंह – ‘खूब, तुम तो बाग में ही चपला के हाथ से पिट चुके थे। अहमद बाकी था सो वह भी इस वक्त कहीं जूते खाता होगा, चलो छुट्टी हुई।’
नाजिम ने शक मिटाने के लिए थोड़ी देर तक इधर-उधर खोज भी की, पर कुछ पता न लगा, आखिर रोते-पीटते दोनों ने घर का रास्ता लिया।
तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर वीरेंद्रसिंह अपने महल में आए मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चंद्रकांता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चंद्रकांता की तस्वीर अपने सामने रख कर बातें किया करना, या पलँग पर लेट मुँह ढाँप खूब रोना, बस यही उनका कम था। अगर कोई पूछता तो बातें बना देते। वीरेंद्रसिंह के बाप सुरेंद्रसिंह को वीरेंद्रसिंह का सब हाल मालूम था मगर क्या करते, कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि विजयगढ़ का राजा उनसे बहुत जबर्दस्त था और हमेशा उन पर हुकूमत रखता था।
वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह को विजयगढ़ जाती बार कह दिया था कि तुम आज ही लौट आना। रात बारह बजे तक वीरेंद्रसिंह ने तेजसिंह की राह देखी, जब वह न आए तो उनकी घबराहट और भी ज्यादा हो गई। आखिर अपने को सँभाला और मसहरी पर लेट दरवाजे की तरफ देखने लगे। सवेरा होने ही वाला था कि तेजसिंह पीठ पर एक गट्ठा लादे आ पहुँचे। पहरे वाले इस हालत में इनको देख हैरान थे, मगर खौफ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजसिंह ने वीरेंद्रसिंह के केमरे में पहुँच कर देखा कि अभी तक वे जाग रहे हैं।
वीरेंद्रसिंह तेजसिंह को देखते ही वह उठ खड़े हुए और बोले – ‘कहो भाई, क्या खबर लाए?’
तेजसिंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चंद्रकांता की चिट्ठी हाथ पर रख दी, अहमद को गठरी खोल कर दिखा दिया और कहा – ‘यह चिट्ठी है, और यह सौगात है।’
वीरेंद्रसिंह बहुत खश हुए। चिट्ठी को कई मर्तबा पढ़ा और आँखों से लगाया, फिर तेजसिंह से कहा – ‘सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रखो जहाँ किसी को मालूम न हो, अगर जयसिंह को खबर लगेगी तो फसाद बढ़ जाएगा।
तेजसिंह – ‘इस बात को मैं पहले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता हूँ।’
यह कह कर तेजसिंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेज कर देवीसिंह नामी ऐयार को बुलाया जो तेजसिंह का शागिर्द, दिली दोस्त और रिश्ते में साला लगता था, तथा ऐयारी के फन में भी तेजसिंह से किसी तरह कम न था। जब देवीसिंह आ गए तब तेजसिंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लादी और देवीसिंह से कहा – ‘आओ, हमारे साथ चलो, तुमसे एक काम है।’
देवीसिंह ने कहा – ‘गुरु जी वह गठरी मुझको दो, मैं चलूँ, मेरे रहते यह काम आपको अच्छा नहीं लगता।’
आखिर देवीसिंह ने वह गठरी पीठ पर लाद ली और तेजसिंह के पीछे चल पड़े।
वे दोनों शहर के बाहर ही जंगल और पहाड़ियों में पेचीदे रास्तों में जाते-जाते दो कोस के करीब पहुँच कर एक अँधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी मिली। वहाँ जा कर तेजसिंह ठहर गए और देवीसिंह से बोले – ‘गठरी रख दो।’
देवीसिंह – (गठरी रख कर) गुरु जी, यह तो अजीब जगह है, अगर कोई आए भी तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाए।
तेजसिंह – सुनो देवीसिंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता, तुमको अपना दिली दोस्त समझ कर ले आया हूँ, तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा।
देवीसिंह – ‘मैं आपका ताबेदार हूँ, तुम गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम्हीं ने मुझको सिखाई है, अगर मेरी जान की जरूरत पड़े तो मैं देने को तैयार हूँ।’
तेजसिंह – ‘सुनो और जो बातें मैं तुमसे कहता हूँ उनका अच्छी तरह ख्याल रखो। यह सामने जो पत्थर का दरवाजा देखते हो इसको खोलना सिवाय मेरे कोई भी नहीं जानता, या फिर मेरे उस्ताद जिन्होंने मुझको ऐयारी सिखाई, वे जानते थे। वे तो अब नहीं हैं, मर गए, इस समय सिवाय मेरे कोई नहीं जानता, और मैं तुमको इसका खोलना बतलाए देता हूँ। इसका खोलना बतलाए देता हूँ। जिस-जिस को मैं पकड़ कर लाया करूँगा इसी जगह ला कर कैद किया करूँगा जिससे किसी को मालूम न हो और कोई छुड़ा के भी न ले जा सके। इसके अंदर कैद करने से कैदियों के हाथ-पैर बाँधने की जरूरत नहीं रहेगी, सिर्फ हिफाजत के लिए एक खुलासी बेड़ी उनके पैरों में डाल देनी पड़ेगी जिससे वह धीरे-धीरे चल-फिर सकें। कैदियों के खाने-पीने की भी फिक्र तुमको नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसके अंदर एक छोटी-सी कुदरती नहर है जिसमें बराबर पानी रहता है, यहाँ मेवों के दरख्त भी बहुत हैं। इस ऐयार को इसी में कैद करते हैं, बाद इसके महाराज से यह बहाना करके कि आजकल मैं बीमार रहता हूँ, अगर एक महीने की छुट्टी मिले तो आबोहवा बदल आऊँ, महीने भर की छुट्टी ले लो। मैं कोशिश करके तुम्हें छुट्टी दिला दूँगा। तब तुम भेष बदल कर विजयगढ़ जाओ और बराबर वहीं रह कर इधर-उधर की खबर लिया करो, जो कुछ हाल हो मुझसे कहा करो और जब मौका देखो तो बदमाशों को गिरफ्तार करके इसी जगह ला उनको कैद भी कर दिया करो।’
और भी बहुत-सी बातें देवीसिंह को समझाने के बाद तेजसिंह दरवाजा खोलने चले। दरवाजे के ऊपर एक बड़ा-सा चेहरा शेर का बना हुआ था जिसके मुँह में हाथ बखूबी जा सकता था। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा – ‘इस चेहरे के मुँह में हाथ डाल कर इसकी जुबान बाहर खींचो।’ देवीसिंह ने वैसा ही किया और हाथ-भर के करीब जुबान खींच ली। उसके खिंचते ही एक आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। अहमद की गठरी लिए हुए दोनों अंदर गए। देवीसिंह ने देखा कि वह खूब खुलासा जगह, बल्कि कोस भर का साफ मैदान है। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ जिन पर किसी तरह आदमी चढ़ नहीं सकता, बीच में एक छोटा-सा झरना पानी का बह रहा है और बहुत से जंगली मेवों के दरख्तों से अजब सुहावनी जगह मालूम होती है। चारों तरफ की पहाड़ियाँ, नीचे से ऊपर तक छोटे-छोटे करजनी, घुमची, बेर, मकोइए, चिरौंजी वगैरह के घने दरख्तों और लताओं से भरी हुई हैं। बड़े-बड़े पत्थर के ढोंके मस्त हाथी की तरह दिखाई देते हैं। ऊपर से पानी गिर रहा है जिसकी आवाज बहुत भली मालूम होती है। हवा चलने से पेड़ों की सरसराहट और पानी की आवाज तथा बीच में मोरों का शोर और भी दिल को खींच लेता है। नीचे जो चश्मा पानी का पश्चिम से पूरब की तरफ घूमता हुआ बह रहा है उसके दोनों तरफ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं और पके जामुन उस चश्मे के पानी में गिर रहे हैं। पानी भी चश्मे का इतना साफ है कि जमीन दिखाई देती है, कहीं हाथ भर, कहीं कमर बराबर, कहीं उससे भी ज्यादा होगा। पहाड़ों में कुदरती खोह बने हैं जिनके देखने से मालूम होता है कि मानों ईश्वर ने यहाँ सैलानियों के रहने के लिए कोठरियाँ बना दी हैं। चारों तरफ की पहाड़ियाँ ढलवाँ और बनिस्बत नीचे के, ऊपर से ज्यादा खुलासा थीं और उन पर बादलों के टुकड़े छोटे-छोटे शामियानों का मजा दे रहे थे। यह जगह ऐसी सुहावनी थी कि वर्षों रहने पर भी किसी की तबीयत न घबराए बल्कि खुशी मालूम हो।
सुबह हो गई। सूरज निकल आया। तेजसिंह ने अहमद की गठरी खोली। उसका ऐयारी का बटुआ और खंजर जो कमर में बँधा था, ले लिया और एक बेड़ी उसके पैर में डालने के बाद होशियार किया। जब अहमद होश में आया और उसने अपने को इस दिलचस्प मैदान में देखा तो यकीन हो गया कि वह मर गया है और फरिश्ते उसको यहाँ ले आए हैं। लगा कलमा पढ़ने।
तेजसिंह के उसके कलमा पढ़ने पर हँसी आई, बोले – ‘मियाँ साहब, आप हमारे कैदी हैं, इधर देखिए।’
अहमद ने तेजसिंह की तरफ देखा, पहचानते ही जान सूख गई, समझ गया कि तब न मरे तो अब मरे। बीवी केतकी की सूरत आँखों के सामने फिर गई, खौफ ने उसका गला ऐसा दबाया कि एक हर्फ भी मुँह से न निकल सका।
अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़ दोनों ऐयार बाहर निकल आए। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा – ‘इस शेर की जुबान जो तुमने बाहर खींच ली है उसी के मुँह में डाल दो।’ देवीसिंह ने वैसा ही किया। जुबान उसके मुँह में डालते ही जोर से दरवाजा बंद हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीदी राह से घर की तरफ रवाना हुए।
पहर भर दिन चढ़ा होगा, जब ये दोनों लौट कर वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे।
वीरेंद्रसिंह ने पूछा – ‘अहमद को कहाँ कैद करने ले गए थे जो इतनी देर लगी?’ तेजसिंह ने जवाब दिया – ‘एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूँ, आज आपको भी वह जगह दिखाऊँगा, पर मेरी राय है कि देवीसिंह थोड़े दिन भेष बदल कर विजयगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझको बड़ी मदद मिलेगी।’ इसके बाद वह सब बातें भी वीरेंद्रसिंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीसिंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी वह भी कहा जिसे वीरेंद्रसिंह ने बहुत पसंद किया।
स्नान-पूजा और मामूली कामों से फुरसत-पा दोनों आदमी देवीसिंह को साथ लिए राजदरबार में गए। देवीसिंह ने छुट्टी के लिए अर्ज किया। राजा देवीसिंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंजूर न था, कहने लगे – ‘हम तुम्हारी दवा यहाँ ही कराएँगे।’
आखिर वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह की सिफारिश से छुट्टी मिली। दरबार बर्खास्त होने पर वीरेंद्रसिंह राजा के साथ महल में चले गए और तेजसिंह अपने पिता जीतसिंह के साथ घर आए, देवीसिंह को भी साथ लाए और सफर की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाती दफा उन्हें और भी बातें समझा दीं।
दूसरे दिन तेजसिंह अपने साथ वीरेंद्रसिंह को उस घाटी में ले गए जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देख कर बहुत ही खुश हुए और बोले – ‘भाई इस जगह को देख कर तो मेरे दिल में बहुत-सी बातें पैदा होती हैं।’
तेजसिंह ने कहा – ‘पहले-पहल इस जगह को देख कर मैं तो आपसे भी ज्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जीने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझा कर मेरी दिलजमई कर दी थी जो किसी दूसरे वक्त आपसे कहूँगा।’
वीरेंद्रसिंह इस बात को सुन कर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहाँ का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुन कर वीरेंद्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने वीरेंद्रसिंह से कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जाएगा।
वे दोनों वहाँ से रवाना होकर अपने महल आए। कुमार ने कहा – ‘भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयसिंह से लड़ जाऊँ।’
तेजसिंह ने कहा – ‘आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चंद्रकांता की जान का खौफ है। आप इतना घबराते क्यों है? देखिए, तो क्या होता है? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कैफियत हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूँगा।’ वीरेंद्रसिंह ने कहा – ‘नहीं, अब की बार मैं जरूर चलूँगा, इस तरह एकदम डरपोक हो कर बैठे रहना मर्दों का काम नहीं।’
तेजसिंह ने कहा – ‘अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना जरूरी है जो यह कि महाराज से पाँच-चार रोज के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए, वहाँ से कुल ढाई कोस चंद्रकांता का महल रह जाएगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।’
इस बात को वीरेंद्रसिंह ने भी पसंद किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी।
कुछ दिन बाद वीरेंद्रसिंह ने अपने पिता सुरेंद्रसिंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े-से अपने दिली आदमियों को, जो खास उन्हीं के खिदमती थे और उनको जान से ज्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और विजयगढ़ के सिवाने पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात-भर वहाँ मुकाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजसिंह विजयगढ़ जा कर हाल-चाल ले आएँ।
अहमद के पकड़े जाने से नाजिम बहुत उदास हो गया और क्रूरसिंह को तो अपनी ही फिक्र पड़ गई कि कहीं तेजसिंह मुझको भी न पकड़ ले जाए। इस खौफ से वह हरदम चौकन्ना रहता था, मगर महाराज जयसिंह के दरबार में रोज आता और वीरेंद्रसिंह के प्रति उनको भड़काया करता।
एक दिन नाजिम ने क्रूरसिंह को यह सलाह दी कि जिस तरह हो सके अपने बाप कुपथसिंह को मार डालो, उसके मरने के बाद जयसिंह जरूर तुमको मंत्री (वजीर) बनाएँगे, उस वक्त तुम्हारी हुकूमत हो जाने से सब काम बहुत जल्द होगा।
आखिर क्रूरसिंह ने जहर दिलवा कर अपने बाप को मरवा डाला। महाराज ने कुपथसिंह के मरने पर अफसोस किया और कई दिन तक दरबार में न आए। शहर में भी कुपथसिंह के मरने का गम छा गया।
क्रूरसिंह ने जाहिर में अपने बाप के मरने का भारी मातम (गम) किया और बारह रोज के वास्ते अलग बिस्तर जमाया। दिन भर तो अपने बाप को रोता पर रात को नाजिम के साथ बैठ कर चंद्रकांता से मिलने तथा तेजसिंह और वीरेंद्रसिंह को गिरफ्तार करने की फिक्र करता। इन्हीं दिनों वीरेंद्रसिंह ने भी शिकार के बहाने विजयगढ़ की सरहद पर खेमा डाल दिया था, जिसकी खबर नाजिम ने क्रूरसिंह को पहुँचाई और कहा – ‘वीरेंद्रसिंह जरूर चंद्रकांता की फिक्र में आया है, अफसोस। इस समय अहमद न हुआ नहीं तो बड़ा काम निकलता। खैर, देखा जाएगा।’ वह कह क्रूरसिंह से विदा हो बालादवी (टोह लेने के लिए गश्त करना) के वास्ते चला गया।
तेजसिंह वीरेंद्रसिंह से रुखसत हो विजयगढ़ पहुँचे और मंत्री के मरने तथा शहर भर में गम छाने का हाल ले कर वीरेंद्रसिंह के पास लौट आए। यह भी खबर लाए कि दो दिन बाद सूतक निकल जाने पर महाराज जयसिंह क्रूर को अपना दीवान बनाएँगे।
वीरेंद्रसिंह – ‘देखो, क्रूर ने अपने बाप को मार डाला। अगर राजा को भी मार डाले तो ऐसे आदमी का क्या ठिकाना।’
तेजसिंह – ‘सच है, वह नालायक जहाँ तक भी होगा राजा पर भी बहुत जल्द हाथ फेरेगा, अस्तु अब मैं दो दिन चंद्रकांता के महल में न जा कर दरबार ही का हाल-चाल लूँगा। हाँ, इस बीच में अगर मौका मिल जाए तो देखा जाएगा।’
वीरेंद्रसिंह – ‘सो सब कुछ नहीं, चाहे जो हो, आज मैं चंद्रकांता से जरूर मुलाकात करूँगा।’
तेजसिंह – ‘आप जल्दी न करें, जल्दी ही सब कामों को बिगाड़ती है।’
वीरेंद्र – ‘जो भी हो, मैं तो जरूर जाऊँगा।’
तेजसिंह ने बहुत समझाया मगर चंद्रकांता की जुदाई में उनको भला-बुरा क्या सूझता था, एक न मानी और चलने के लिए तैयार हो ही गए। आखिर तेजसिंह ने कहा – ‘खैर, नहीं मानते तो चलिए, जब आपकी ऐसी मर्जी है तो हम क्या करें। जो कुछ होगा देखा जाएगा।’
शाम के वक्त ये दोनों टहलने के लिए खेमे के बाहर निकले और अपने प्यादों से कह गए कि अगर हम लोगों के आने में देर हो तो घबराना मत। टहलते हुए दोनों विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।
कुछ रात गई होगी, जब चंद्रकांता के उसी नजरबाग के पास पहुँचे जिसका हाल पहले लिख चुके हैं।
रात अँधेरी थी इसलिए इन दोनों को बाग में जाने के लिए कोई आश्चर्य न करना पड़ा, पहरे वालों को बचा कर कमंद फेंका और उसके जरिए बाग के अंदर एक घने पेड़ के नीचे खड़े हो इधर-उधर निगाह दौड़ा कर देखने लगे।
बाग के बीचो-बीच संगमरमर के एक साफ चिकने चबूतरे पर मोमी शमादान जल रहा था चंद्रकांता, चपला और चंपा बैठी बातें कर रही थीं। चपला बातें भी करती जाती थी और इधर-उधर तेजी के साथ निगाह भी दौड़ा रही थी।
चंद्रकांता को देखते ही वीरेंद्रसिंह का अजब हाल हो गया, बदन में कँपकँपी होने लगी, यहाँ तक कि बेहोश हो कर गिर पड़े। मगर वीरेंद्रसिंह की यह हालत देख तेजसिंह पर कोई प्रभाव न हुआ, झट अपने ऐयारी बटुए से लखलखा निकाल सुँघा दिया और होश में ला कर कहा – ‘देखिए, दूसरे के मकान में आपको इस तरह बेसुध न होना चाहिए। अब आप अपने को सँभालिए और इसी जगह ठहरिए, मैं जा कर बात कर आऊँ तब आपको ले चलूँ।’ यह कह कर उन्हें उसी पेड़ के नीचे छोड़, उस जगह गए जहाँ चंद्रकांता, चपला और चंपा बैठी थीं।
तेजसिंह को देखते ही चंद्रकांता बोली – ‘क्यों जी इतने दिन कहाँ रहे? क्या इसी का नाम मुरव्वत है? अबकी आए तो अकेले ही आए। वाह, ऐसा ही था तो हाथ में चूड़ी पहन लेते, शर्मिंदा होकर की डींग क्यों मारते हैं। जब उनकी मुहब्बत का यही हाल है तो मैं जी कर क्या करूँगी?’ कह कर चंद्रकांता रोने लगी, यहाँ तक कि हिचकी बँध गई। तेजसिंह उसकी हालत देख बहुत घबराए और बोले – ‘बस, इसी को नादानी कहते हैं। अच्छी तरह हाल भी न पूछा और लगीं रोने, ऐसा ही है तो उनको लिए आता हूँ।’
यह कह कर तेजसिंह वहाँ गए जहाँ वीरेंद्रसिंह को छोड़ा था और उनको अपने साथ ले चंद्रकांता के पास लौटे। चंद्रकांता वीरेंद्रसिंह के मिलने से बड़ी खुश हुई, दोनों मिल कर खूब रोए, यहाँ तक कि बेहोश हो गए मगर थोड़ी देर बाद होश में आ गए और आपस में शिकायत मिली मुहब्बत की बात करने लगे।
अब जमाने का उलट-फेर देखिए। घूमता-फिरता टोह लगाता नाजिम भी उसी जगह आ पहुँचा और दूर से इन सभी की खुशी भरी मजलिस देख कर जल मरा। तुरंत ही लौट कर क्रूरसिंह के पास पहुँचा। क्रूरसिंह ने नाजिम को घबराया हुआ देखा और पूछा – ‘क्यों, क्या बात है जो तुम इतना घबराए हुए हो?’
नाजिम – है क्या, जो मैं सोचता था वही हुआ। यही वक्त चालाकी का है, अगर अब भी कुछ न बन पड़ा तो बस तुम्हारी किस्मत फूट गई, ऐसा ही समझना पड़ेगा।
क्रूरसिंह – ‘तुम्हारी बातें तो कुछ समझ में नहीं आतीं, खुलासा कहो, क्या बात है?’
नाजिम – ‘खुलासा बस यही है कि वीरेंद्रसिंह चंद्रकांता के पास पहुँच गया और इस समय बाग में हँसी के कहकहे उड़ रहे हैं।
यह सुनते ही क्रूरसिंह की आँखों के आगे अँधेरा छा गया, दुनिया उदास मालूम होने लगी, कहाँ तो बाप के जाहिरी गम में वह सर मुड़ाए बरसाती मेढक बना बैठा था, तेरह रोज कहीं बाहर जाना हो ही नहीं सकता था, मगर इस खबर ने उसको अपने आपे में न रहने दिया, फौरन उठ खड़ा हुआ और उसी तरह नंग-धड़ंग औंधी हाँडी-सा सिर लिए महाराज जयसिंह के पास पहुँचा। जयसिंह क्रूरसिंह को इस तरह आया देख हैरान हो बोले – ‘क्रूरसिंह, सूतक और बाप का गम छोड़ कर तुम्हारा इस तरह आना मुझको हैरानी में डाल रहा है।’
क्रूरसिंह ने कहा – ‘महाराज, हमारे बाप तो आप हैं, उन्होंने तो पैदा किया, परवरिश आप की बदौलत होती है। जब आपकी इज्जत में बट्टा लगा तो मेरी जिंदगी किस काम की है और मैं किस लायक गिना जाऊँगा?’
जयसिंह – (गुस्से में आ कर) ‘क्रूरसिंह। ऐसा कौन है जो हमारी इज्जत बिगाड़े?’
क्रूरसिंह – ‘एक अदना आदमी।‘
जयसिंह – (दाँत पीस कर) ‘जल्दी बताओ, वह कौन है, जिसके सिर पर मौत सवार हुई है?’
क्रूरसिंह – ‘वीरेंद्रसिंह।’
जयसिंह – ‘उसकी क्या मजाल जो मेरा मुकाबला करे, इज्जत बिगाड़ना तो दूर की बात है। तुम्हारी बात कुछ समझ में नहीं आती, साफ-साफ जल्द बताओ, क्या बात है? वीरेंद्रसिंह कहाँ हैं?’
क्रूरसिंह- ‘आपके चोर महल के बाग में।’
यह सुनते ही महाराज का बदन मारे गुस्से के काँपने लगा। तड़प कर हुक्म दिया – ‘अभी जा कर बाग को घेर लो, मै कोट की राह वहाँ जाता हूँ।’
वीरेंद्रसिंह चंद्रकांता से मीठी-मीठी बातें कर रहे हैं, चपला से तेजसिंह उलझ रहे हैं, चंपा बेचारी इन लोगों का मुँह ताक रही है। अचानक एक काला कलूटा आदमी सिर से पैर तक आबनूस का कुंदा, लाल-लाल आँखें, लंगोटा कसे, उछलता-कूदता इस सबके बीच में आ खड़ा हुआ। पहले तो ऊपर से नीचे के नीचे दाँत खोल तेजसिंह की तरफ दिखाया, तब बोला – ‘खबरी भई राजा को तुमरी सुनो गुरु जी मेरे।’ इसके बाद उछलता-कूदता चला गया। जाती दफा चंपा की टाँग पकड़ थोड़ी दूर घसीटता ले गया, आखिर छोड़ दिया। यह देख सब हैरान हो गए और डरे कि यह पिशाच कहाँ से आ गया, चंपा बेचारी तो चिल्ला उठी मगर तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेंद्रसिंह का हाथ पकड़ के बोले – ‘चलो, जल्दी उठो, अब बैठने का मौका नहीं।’
चंद्रकांता की तरफ देख कर बोले – ‘हम लोगों के जल्दी चले जाने का रंज तुम मत करना और जब तक महाराज यहाँ न आएँ इसी तरह सब-की-सब बैठी रहना।’
चंद्रकांता – ‘इतनी जल्दी करने का सबब क्या है और यह कौन था जिसकी बात सुन कर भागना पड़ा?’
तेजसिंह – (जल्दी से) ‘अब बात करने का मौका नहीं रहा।’
यह कह कर वीरेंद्रसिंह को जबरदस्ती उठाया और साथ ले कमंद के जरिए बाग के बाहर हो गए।
चंद्रकांता को वीरेंद्रसिंह का इस तरह चला जाना बहुत बुरा मालूम हुआ। आँखों में आँसू पर चपला से बोली – ‘यह क्या तमाशा हो गया, कुछ समझ में नहीं आता। उस पिशाच को देख कर मैं कैसी डरी, मेरे कलेजे पर हाथ रख कर देखो, अभी तक धड़धड़ा रहा है। तुमने क्या ख्याल किया?’
चपला ने कहा – ‘कुछ ठीक समझ में नहीं आता। हाँ, इतना जरूर है कि इस समय वीरेंद्रसिंह के यहाँ आने की खबर महाराज को हो गई है, वे जरूर आते होंगे।’
चंपा बोली – ‘न मालूम मुए को मुझसे क्या दुश्मनी थी?’
चंपा की बात पर चपला को हँसी आ गई मगर हैरान थी कि यह क्या खेल हो गया? थोड़ी देर तक इसी तरह की ताज्जुब भरी बातें होती रहीं, इतने में ही बाग के चारों तरफ शोरगुल की आवाजें आने लगीं।
चपला ने कहा – ‘रंग बुरे नजर आने लगे, मालूम होता है बाग को सिपाहियों ने घेर लिया।’ बात पूरी भी न होने पाई थी कि सामने महाराज आते हुए दिखाई पड़े।
देखते-ही-देखते सब-की-सब उठ खड़ी हुईं। चंद्रकांता ने बढ़ कर पिता के आगे सिर झुकाया और कहा – ‘इस समय आपके एकाएक आने…।’ इतना कह कर चुप हो रही।
जयसिंह ने कहा – ‘कुछ नहीं, तुम्हें देखने को जी चाहा इसीलिए चले आए। अब तुम भी महल में जाओ, यहाँ क्यों बैठी हो? ओस पड़ती है, तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी।’ यह कह कर महल की तरफ रवाना हुए।
चंद्रकांता, चपला और चंपा भी महाराज के पीछे-पीछे महल में गईं। जयसिंह अपने कमरे में आए और मन में बहुत शर्मिंदा हो कर कहने लगे – ‘देखो, हमारी भोली-भाली लड़की को क्रूरसिंह झूठ-मूठ बदनाम करता है। न मालूम इस नालायक के जी में क्या समाई है, बेधड़क उस बेचारी को ऐब लगा दिया, अगर लड़की सुनेगी तो क्या कहेगी? ऐसे शैतान का तो मुँह न देखना चाहिए, बल्कि सजा देनी चाहिए, जिससे फिर ऐसा कमीनापन न करे।’ यह सोच हरीसिंह नाम के एक चोबदार को हुक्म दिया कि बहुत जल्द क्रूरसिंह को हाजिर करे।
हरीसिंह क्रूरसिंह को खोजता हुआ और पता लगाता हूआ बाग के पास पहुँचा जहाँ वह बहुत से आदमियों के साथ खुशी-खुशी बाग को घेरे हुए था।
हरीसिंह ने कहा – ‘चलिए, महाराज ने बुलाया है।’
क्रूरसिंह घबरा उठा कि महाराज ने क्यों बुलाया? क्या चोर नहीं मिला? महाराज तो मेरे सामने महल में चले गए थे।
हरीसिंह से पूछा – ‘महाराज क्या कह रहे हैं?’
उसने कहा – ‘अभी महल से आए हैं, गुस्से से भरे बैठे हैं, आपको जल्दी बुलाया है।’ यह सुनते ही क्रूरसिंह की नानी मर गई। डरता-काँपता हरीसिंह महाराज के पास पहुँचा।
महाराज ने क्रूरसिंह को देखते ही कहा – ‘क्यों बे क्रूर। बेचारी चंद्रकांता को इस तरह झूठ-मूठ बदनाम करना और हमारी इज्जत में बट्टा लगाना, यही तेरा काम है? यह इतने आदमी जो बाग को घेरे हुए हैं अपने जी में क्या कहते होंगे? नालायक, गधा, पाजी, तूने कैसे कहा कि महल में वीरेंद्र है।’
मारे गुस्से के महाराज जयसिंह के होंठ काँप रहे थे, आँखें लाल हो रही थीं। यह कैफियत देख क्रूरसिंह की तो जान सूख गई, घबरा कर बोला – ‘मुझको तो यह खबर नाजिम ने पहुँचाई थी जो आजकल महल के पहरे पर मुकर्रर है।’
यह सुनते ही महाराज ने हुक्म दिया – ‘बुलाओ नाजिम को।’
थोड़ी देर में नाजिम भी हाजिर किया गया। गुस्से से भरे हुए महाराज के मुँह से साफ आवाज नहीं निकलती थी। टूटे-फूटे शब्दों में नाजिम से पूछा – ‘क्यों बे, तूने कैसी खबर पहुँचाई?’
उस वक्त डर के मारे उसकी क्या हालत थी, वही जानता होगा, जीने से नाउम्मीद हो चुका था, डरता हुआ बोला – ‘मैंने तो अपनी आँखों से देखा था हुजूर, शायद किसी तरह भाग गया होगा।’
जयसिंह से गुस्सा बर्दाश्त न हो सका, हुक्म दिया – ‘पचास कोड़े क्रूरसिंह को और दो सौ कोड़े नाजिम को लगाए जाएँ। बस इतने ही पर छोड़ देता हूँ, आगे फिर कभी ऐसा होगा तो सिर उतार लिया जाएगा। क्रूर तू वजीर होने लायक नहीं है।’
अब क्या था, लगे दो तर्फी कोड़े पड़ने। उन लोगों के चिल्लाने से महल गूँज उठा मगर महाराज का गुस्सा न गया। जब दोनों पर कोड़े पड़ चुके तो उनको महल के बाहर निकलवा दिया और महाराज आराम करने चले गए, मगर मारे गुस्से के रात-भर उन्हें नींद न आई।
क्रूरसिंह और नाजिम दोनों घर आए और एक जगह बैठ कर लगे झगड़ने। क्रूर नाजिम से कहने लगा – ‘तेरी बदौलत आज मेरी इज्जत मिट्टी में मिल गई। कल दीवान होंगे, यह उम्मीद भी न रही, मार खाई उसकी तकलीफ मैं ही जानता हूँ, यह तेरी ही बदौलत हुआ।’
नाजिम कहता था – ‘मैं तुम्हारी बदौलत मारा गया, नहीं तो मुझको क्या काम था? जहन्नुम में जाती चंद्रकांता और वीरेंद्र, मुझे क्या पड़ी थी जो जूते खाता।’
ये दोनों आपस में यूँ ही पहरों झगड़ते रहे।
अंत में क्रूरसिंह ने कहा – ‘हम तुम दोनों पर लानत है अगर इतनी सजा पाने पर भी वीरेंद्र को गिरफ्तार न किया।’
नाजिम ने कहा – ‘इसमें तो कोई शक नहीं कि वीरेंद्र अब रोज महल में आया करेगा क्योंकि इसी वास्ते वह अपना डेरा सरहद पार ले आया है, मगर अब कोई काम करने का हौसला नहीं पड़ता, कहीं फिर मैं देखूँ और खबर करने पर वह दुबारा निकल जाए तो अबकी जरूर ही जान से मारा जाऊँगा।’
क्रूरसिंह ने कहा – ‘तब तो कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिससे जान भी बचे और वीरेंद्रसिंह को अपनी आँखों से महाराज जयसिंह महल में देख भी लें।’
बहुत देर सोचने के बाद नाजिम ने कहा – ‘चुनारगढ़ महाराज शिवदत्तसिंह के दरबार में एक पंडित जगन्नाथ नामी ज्योतिषी हैं जो रमल भी बहुत अच्छा जानते हैं। उनके रमल फेंकने में इतनी तेजी है कि जब चाहो पूछ लो कि फलाँ आदमी इस समय कहाँ है, क्या कर रहा है या कैसे पकड़ा जाएगा? वह फौरन बतला देते हैं। उनको अगर मिलाया जाए और वे यहाँ आ कर और कुछ दिन रह कर तुम्हारी मदद करें तो सब काम ठीक हो जाए। चुनारगढ़ यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है, कुल तेईस कोस है, चलो हम तुम चलें और जिस तरह बन पड़े, उन्हें ले आएँ।’
आखिर क्रूरसिंह ने बहुत-से हीरे-जवाहरात अपनी कमर में बाँध, दो तेज घोड़े मँगवा नाजिम के साथ सवार हो उसी समय चुनारगढ़ की तरफ रवाना हो गया और घर में सबसे कह गया कि अगर महाराज के यहाँ से कोई आए तो कह देना कि क्रूरसिंह बहुत बीमार हैं।
वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह बाग के बाहर से अपने खेमे की तरफ रवाना हुए। जब खेमे में पहुँचे तो आधी रात बीत चुकी थी, मगर तेजसिंह को कब चैन पड़ता था, वीरेंद्रसिंह को पहुँचा कर फिर लौटे और अहमद की सूरत बना क्रूरसिंह के मकान पर पहुँचे। क्रूरसिंह चुनारगढ़ की तरफ रवाना हो चुका था, जिन आदमियों को घर में हिफाजत के लिए छोड़ गया था और कह गया था कि अगर महाराज पूछें तो कह देना बीमार है, उन लोगों ने एकाएक अहमद को देखा तो ताज्जुब से पूछा – ‘कहो अहमद, तुम कहाँ थे अब तक?’
नकली अहमद ने कहा – ‘मैं जहन्नुम की सैर करने गया था, अब लौट कर आया हूँ। यह बताओ कि क्रूरसिंह कहाँ है?’ सभी ने उसको पूरा-पूरा हाल सुनाया और कहा – ‘अब चुनारगढ़ गए हैं, तुम भी वहीं जाते तो अच्छा होता।’
अहमद ने कहा – ‘हाँ मैं भी जाता हूँ, अब घर न जाऊँगा। सीधे चुनारगढ़ ही पहुँचता हूँ।’ यह कह वहाँ से रवाना हो अपने खेमे में आए और वीरेंद्रसिंह से सब हाल कहा। बाकी रात आराम किया, सवेरा होते ही नहा-धो, कुछ भोजन कर, सूरत बदल, विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। नंगे सिर, हाथ-पैर, मुँह पर धूल डाले, रोते-पीटते महाराज जयसिंह के दरबार में पहुँचेगा। इनकी हालत देख कर सब हैरान हो गए।
महाराज ने मुंशी से कहा – ‘पूछो, कौन है और क्या कहता है?’
तेजसिंह ने कहा – ‘हुजूर मैं क्रूरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम रामलाल है। महाराज से बागी होकर क्रूरसिंह चुनारगढ़ के राजा के पास चला गया है। मैंने मना किया कि महाराज का नमक खा कर ऐसा न करना चाहिए, जिस पर मुझको खूब मारा और जो कुछ मेरे पास था सब छीन लिया। हाय रे, मैं बिल्कुल लुट गया, एक कौड़ी भी नहीं रही, अब क्या खाऊँगा, घर कैसे पहुँचूँगा, लड़के-बच्चे तीन बरस की कमाई खोजेंगे, कहेंगे कि रजवाड़े की क्या कमाई लाए हो? उनको क्या दूँगा। दुहाई महाराज की, दुहाई-दुहाई।।’
बड़ी मुश्किल से सभी ने उसे चुप कराया। महाराज को बड़ा गुस्सा आया, हुक्म दिया – ‘क्रूरसिंह कहाँ है?’
चोबदार खबर लाया – ‘बहुत बीमार हैं, उठ नहीं सकते।’
रामलाल (तेजसिंह) बोला – ‘दुहाई महाराज की। यह भी उन्हीं की तरफ मिल गया, झूठ बोलता है। मुसलमान सब उसके दोस्त हैं। दुहाई महाराज की। खूब तहकीकात की जाए।’
महाराज ने मुंशी से कहा – ‘तुम जा कर पता लगाओ कि क्या मामला है?’ थोड़ी देर बाद मुंशी वापस आए और बोले – ‘महाराज क्रूरसिंह घर पर नहीं है, और घरवाले कुछ बताते नहीं कि कहाँ गए हैं।’
महाराज ने कहा – ‘जरूर चुनारगढ़ गया होगा। अच्छा, उसके यहाँ के किसी प्यादे को बुलाओ।’
हुक्म पाते ही चोबदार गया और बदकिस्मत प्यादे को पकड़ लाया।
महाराज ने पूछा – ‘क्रूरसिंह कहाँ गया है?’
प्यादे ने ठीक पता नहीं दिया। राम लाल ने फिर कहा – ‘दुहाई महाराज की, बिना मार खाए न बताएगा।’
महाराज ने मारने का हुक्म दिया। पिटने के पहले ही उस बदनसीब ने बतला दिया कि चुनारगढ़ गए हैं।
महाराज जयसिंह को क्रूर का हाल सुन कर जितना गुस्सा आया बयान के बाहर है। हुक्म दिया –
(1) क्रूरसिंह के घर के सब औरत-मर्द घंटे भर के अंदर जान बचा कर हमारी सरहद के बाहर हो जाएँ।
(2) उसका मकान लूट लिया जाए।
(3) उसकी दौलत में से जितना रुपया अकेला रामलाल उठा ले जा सके ले जाए, बाकी सरकारी खजाने में दाखिल किया जाए।
(4) रामलाल अगर नौकरी कबूल करे तो दी जाए।
हुक्म पाते ही सबसे पहले रामलाल क्रूरसिंह के घर पहुँचा। महाराज के मुंशी को जो हुक्म तामील करने गया था, रामलाल ने कहा – ‘पहले मुझको रुपए दे दो कि उठा ले जाऊँ और महाराज को आशीर्वाद करूँ। बस, जल्दी दो, मुझ गरीब को मत सताओ।’
मुंशी ने कहा – ‘अजब आदमी है, इसको अपनी ही पड़ी है। ठहर जा, जल्दी क्यों करता है।’
नकली रामलाल ने चिल्लाकर कहना शुरू किया – ‘दुहाई महाराज की, मेरे रुपए मुंशी नहीं देता।’ कहता हुआ महाराज की तरफ चला।
मुंशी ने कहा – ‘लो,लो जाते कहाँ हो, भाई पहले इसको दे दो।’
रामलाल ने कहा – ‘हत्त तेरे की, मैं चिल्लाता नहीं तो सभी रुपए डकार जाता।’
इस पर सब हँस पड़े। मुंशी ने दो हजार रुपए आगे रखवा दिया और कहा – ‘ले, ले जा।’
रामलाल ने कहा – ‘वाह, कुछ याद है। महाराज ने क्या हुक्म दिया है? इतना तो मेरी जेब में आ जाएगा, मैं उठा के क्या ले जाऊँगा?’
मुंशी झुँझला उठा, नकली रामलाल को खजाने के संदूक के पास ले जा कर खड़ा कर दिया और कहा – ‘उठा, देखें कितना उठाता है?’ देखते-देखते उसने दस हजार रुपए उठा लिए। सिर पर, बटुए में, कमर में, जेब में, यहाँ तक कि मुँह में भी कुछ रुपए भर लिए और रास्ता लिया।
सब हँसने और कहने लगे – ‘आदमी नहीं, इसे राक्षस समझना चाहिए।’
महाराज के हुक्म की तामील की गई, घर लूट लिया गया, औरत-मर्द सभी ने रोते-पीटते चुनारगढ़ का रास्ता पकड़ा।
तेजसिंह रुपया लिए हुए वीरेंद्रसिंह के पास पहुँचे और बोले – ‘आज तो मुनाफा कमा लाए, मगर यार माल शैतान का है, इसमें कुछ आप भी मिला दीजिए जिससे पाक हो जाए।
वीरेंद्रसिंह ने कहा – ‘यह तो बताओ कि लाए कहाँ से?’
उन्होंने सब हाल कहा।
वीरेंद्रसिंह ने कहा – ‘जो कुछ मेरे पास यहाँ है मैंने सब दिया।’
तेजसिंह ने कहा – ‘मगर शर्त यह है कि उससे कम न हो, क्योंकि आपका रुतबा उससे कहीं ज्यादा है।’
वीरेंद्रसिंह ने कहा – ‘तो इस वक्त कहाँ से लाएँ?’
तेजसिंह ने जवाब दिया – ‘तमस्सुक लिख दो।’
कुमार हँस पड़े और उँगली से हीरे की अँगूठी उतार कर दे दी।
तेजसिंह ने खुश हो कर ले ली और कहा – ‘परमेश्वर आपकी मुराद पूरी करे। अब हम लोगों को भी यहाँ से अपने घर चले चलना चाहिए क्योंकि अब मैं चुनारगढ़ जाऊँगा, देखूँ शैतान का बच्चा वहाँ क्या बंदोबस्त कर रहा है।’
बयान-10
क्रूरसिंह की तबाही का हाल शहर-भर में फैल गया। महारानी रत्नगर्भा (चंद्रकांता की माँ) और चंद्रकांता इन सभी ने भी सुना। कुमारी और चपला को बड़ी खुशी हुई। जब महाराज महल में गए तो हँसी-हँसी में महारानी ने क्रूरसिंह का हाल पूछा। महाराज ने कहा – ‘वह बड़ा बदमाश तथा झूठा था, मुफ्त में लड़की को बदनाम करता था।’ महारानी ने बात छेड़ कर कहा – ‘आपने क्या सोच कर वीरेंद्र का आना-जाना बंद कर दिया। देखिए यह वही वीरेंद्र है जो लड़कपन से, जब चंद्रकांता पैदा भी नहीं हुई थी, यहीं आता और कई-कई दिनों तक रहा करता था। जब यह पैदा हुई तो दोनों बराबर खेला करते और इसी से इन दोनों की आपस की मुहब्बत भी बढ़ गई। उस वक्त यह भी नहीं मालूम होता था कि आप और राजा सुरेंद्रसिंह कोई दो हैं या नौगढ़ या विजयगढ़ दो रजवाड़े हैं। सुरेंद्रसिंह भी बराबर आप ही के कहे मुताबिक चला करते थे। कई बार आप कह भी चुके थे कि चंद्रकांता की शादी वीरेंद्र के साथ कर देनी चाहिए। ऐसे मेल-मुहब्बत और आपस के बनाव को उस दुष्ट क्रूर ने बिगाड़ दिया और दोनों के चित्त में मैल पैदा कर दिया।’ महाराज ने कहा – ‘मैं हैरान हूँ कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया था। मेरी समझ पर पत्थर पड़ गए। कौन-सी बात ऐसी हुई जिसके सबब से मेरे दिल से वीरेंद्रसिंह की मुहब्बत जाती रही। हाय, इस क्रूरसिंह ने तो गजब ही किया। इसके निकल जाने पर अब मुझे मालूम होता है।’ महारानी ने कहा – ‘देखें, अब वह चुनारगढ़ में जा कर क्या करता है?’ जरूर महाराज शिवदत्त को भड़काएगा और कोई नया बखेड़ा पैदा करेगा। महाराज ने कहा – ‘खैर, देखा जाएगा, परमेश्वर मालिक है, उस नालायक ने तो अपनी भरसक बुराई में कुछ भी कमी नहीं की।’ यह कह कर महाराज महल के बाहर चले गए। अब उनको यह फिक्र हुई कि किसी को दीवान बनाना चाहिए नहीं तो काम न चलेगा। कई दिन तक सोच-विचार कर हरदयालसिंह नामी नायब दीवान को मंत्री की पदवी और खिलअत दी। यह शख्स बड़ा ईमानदार, नेकबख्त, रहमदिल और साफ तबीयत का था, कभी किसी का दिल उसने नहीं दुखाया।