इस ‘आज’, ‘कल’, ‘अब’, ‘जब’, ‘तब’ से सम्पूर्ण असहयोग कर यदि कोई सोचे क्या, खीज उठे कि इतना सब कुछ निगलकर – सहन कर इस हास्यास्पद बालि ने काल को क्यों बाँधा। इस ‘भूत’, ‘भविष्य’, ‘वर्तमान’ का कार्ड – हाउस क्यों खड़ा किया, हाँ, यदि सोचे क्या, खीज उठे कि कछुए के समान सब कुछ […]
बहार फिर आ गई। वसन्त की हल्की हवाएँ पतझर के फीके ओठों को चुपके से चूम गईं। जाड़े ने सिकुड़े-सिकुड़े पंख फड़फड़ाए और सर्दी दूर हो गई। आँगन में पीपल के पेड़ पर नए पात खिल-खिल आए। परिवार के हँसी-खुशी में तैरते दिन-रात मुस्कुरा उठे। भरा-भराया घर। सँभली-सँवरी-सी सुन्दर सलोनी बहुएँ। चंचलता से खिलखिलाती बेटियाँ। […]
घुमक्कड़ी के दिनों में मुझे खुद मालूम न होता कि कब किस घाट जा लगूँगा। कभी भूमध्य सागर के तट पर भूली बिसरी किसी सभ्यता के खण्डहर देख रहा होता, तो कभी यूरोप के किसी नगर की जनाकीर्ण सड़कों पर घूम रहा होता। दुनिया बड़ी विचित्र, पर साथ ही अबोध और अगम्य लगती, जान पड़ता […]
–लाल हिन्द, कामरेड!–एक दूसरे कामरेड ने मुक्का दिखाते हुए कहा। लाल हिन्द–कहकर उन्होंने भी अपना मुक्का हवा में चला दिया। मैं चौंका, और वैसे भी लोग कामरेड़ों का नाम सुन कर चौंकते हैं! वास्तव में किसी हद तक यह सत्य भी है कि कामरेड की ‘रेड’ से सरकार तक चौंक जाती है। इनकी ‘रेड’ भी […]
वो चेहरे। कौन-से चेहरे? कौन-सा चेहरा? जो जीवन-भर चेहरों की स्मृतियाँ संग्रह करता आया है, उसके लिए यह बहुत कठिन है कि किसी एक चेहरे को अलग निकालकर कह दे कि यह चेहरा मुझे नहीं भूलता : क्योंकि जिसने भी जो चेहरा वास्तव में देखा है, सचमुच देखा है, वह उसे भूल ही नहीं सकता-फिर […]
यह मानवी थी या दानवी, यह मैं इतने दिन सोचकर भी नहीं समझ पाया हूँ। कभी-कभी तो यह भी विश्वास नहीं होता कि उस दिन की घटना वास्तविक ही थी, स्वप्न नहीं। किन्तु फिर जब अपने सामने ही दीवार पर टंगी हुई वह टूटी तलवार देखता हूँ, तो हठात् उसकी सत्यता मान लेनी पड़ती है। […]
स्मृति-वह मर्म-स्पर्शी स्मृति, जो हृदय-पृष्ठ पर करुणोत्पादक भावों की उस पक्की और गहरी स्याही से अंकित की गई है, जिसका मिटना इस जन्म में कठिन ही नहीं, प्रत्युत असंभव है। आह! वह स्मृति कष्ट-दायिनी होने पर भी कितनी मधुर और प्रिय है! उस स्मृति से हृदय जला जाता है, तन-मन राख हुआ जाता है, फिर […]
काट (दस-बीस सिरकियों के खैमों का छोटा-सा गाँव) ‘पी सिकंदर’ के मुसलमान जाट बाकर को अपने माल की ओर लालचभरी निगाहों से तकते देख कर चौधरी नंदू वृक्ष की छाँह में बैठे-बैठे अपनी ऊँची घरघराती आवाज में ललकार उठा, ‘रे-रे अठे के करे है (अरे तू यहाँ क्या कर रहा है?)?’ – और उस की […]
यों तो जिस जेल की यह बात है उसका नाम मैं बता देता, पर मुश्किल यह है कि उसके साथ फिर दारोगा का नाम भी बताना पड़ेगा या आप खुद पता लगा लेंगे, और एक कहानी के नाम पर किसी को दुख देना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता, फिर चाहे कहानी सच्ची ही क्यों न […]