ब्रजभाषा : साहित्यिक भाषा के रूप में विकास
साहित्यिक ब्रजभाषा दसवीं- ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास ही शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित हुई। डा. भंडारकर के इस कथन से भी इस बात की पुष्टि होती है कि जिस क्षेत्र में6वीं- 7वीं शताब्दी में अपभ्रंश का जन्म हुआ, उसी क्षेत्र में आज ब्रजभाषा बोली जाती है। ब्रजभाषा के विकास को तीन चरणों में बाटा जा सकता है-
प्रथम चरण- प्रारंभ से लेकर1525 ई. तक ;
प्रथम चरण की ब्रजभषा में अपभ्रंशत्व कुछ अधिक ही है। उस समय की ब्रजभाषा अपभ्रंश से निकलने के लिए संघर्ष कर रही थी। हेमचंद्र के व्याकरण में उद्धृत दोहों तथा देशीनाममाला में संग्रहित शब्दों से ब्रजभाषा के शब्दों का विस्मयकारी साम्य है,
उग्गाहिअ – उगाहना
फग्गु – फाग
चोट्टी – चोटी
अच्छ – आछै
चुक्कइ – चुक्यो
विसूरइ – विसूरनो
ब्रजभाषा का पूर्वरूप प्राकृत पैंगलम, षडावश्यक बालावबोध (तरूणप्रभ सूरि) , रणमल्ल छंद (श्रीधर व्यास) आदि में तो सुराक्षित है ही, वह हेमचंद्र के व्याकरण के उद्वरणों में भी मिल जाता है;
सासानल जल झलक्कियड
महु रवण्डिउ माणु
‘झलक्कियड’ से ब्रजभाषा का ‘झलक्यों’ और‘खण्डिउ’ से ‘खण्ड्यो’ रूप् का विकास बहुत सहज है। इनके अलावे उक्ति – व्यक्ति प्रकरण और कीर्तिलता तक में ब्रजभाषा का बीजरूप देखने को मिल जाता है. जैसे- हौं करओं (उ. व्य. प्र.)
उर उप्पर थरहरयो
वीर कप्पंतर चुक्यो (पृथ्वीराज रासो)
सिद्धों- नाथों की वाणियों में भी ब्रजभाषा के अभिलक्षण मिलते हैं। गोरखनाथ की पंक्ति ‘गोरखनाथ गारूडी पवन बेगि ल्यावै’ और मत्स्येन्द्रनाथ की पंक्ति‘पखेरू ऊडिसी आय लियो बिसराम’ में क्रमशः ऐकारान्तता और ओकारान्तता देखने को मिल जाती है।
चौदहवीं शताब्दी में ब्रजभाषा के रूप स्थिर होते हुए दिखते हैं। सुधीर अग्रवाल कविकृत ‘प्रद्युम्न चरित‘ में ब्रजभाषा के अभिलक्षण साफ- साफ परिलक्षित होते हैं, जैसे –
दीन्हीं दृष्टि मैं रच्यौं पुराण
हीन बुद्धि हौं कियौ बखाण
विष्णु दास ने कई पुस्तकें लिखी हैं- स्वर्गारोहण महाभारत, रूक्मिणी मंगल, सनेह लीला आदि। विष्णु दास की ब्रजभाषा में लोच और मार्दव है।
रूक्मिणी चरण सिरावै
पीके पूजी मनकी आस
इसके अलावे माणिक की ’बैताल पच्चीसी’, नारायण दास की ‘छिताई वार्ता’ मेघनाथ की‘गीता भाषा’, चतरूमल की‘पंचेंद्रिय वेली’ प्रथम चरण की ही रचनाएँ हैं। इस चरण की ब्रजभाषा की कुछ खास विशेषताएँ है:
प्रथम चरण की ब्रजभाषा की विशेषताएँ
1. यहां ब्रजभाषा में अकारण अनुनासिकता की प्रवृति मिलती है; जैसे- कहँ, महँ, अंधार
2. ण की जगह पर कहीं न तथा कही न की जगह पर ण मिलता है। जैसे:
कवण, गनपति, पानि (पाणि)
3. अपभ्रंश की ‘हि’ कारकीय विभक्ति ब्रजभाषा में ‘हिं’ हो गई है।
4. अपभ्रंश से ही ब्रजभाषा के परसर्ग निकल रहे थे, इसलिए उप्परि, परि, पै, केरउ,को, के, की, मझे, माँझ,माँह जैसे परसर्ग ब्रजभाषा में विकसित हुए। इनके अलावे कूँ, कहुँ, तै, तो जैसे परसर्ग भी चल रहे थे।
5. अपभ्रंश के ही सर्वनामों से ब्रजभाषा के सर्वनाम निकल रहे थे:
हउँ – हौं
मइँ – मैं
आई -वो
तव -तू
6. ब्रजभाषा के क्रिया रूप भी अपभ्रंश से ही निकले; जैसे-
दिण्णी – दीन्हीं
चुक्कई – चुक्यो
गावइ -गावै
द्वितीय चरण- 1525 से 1800 तक
दूसरे चरण की ब्रजभाषा सूरदास से शुरू होती है। सूररदास जी ने ब्रजभाषा में ढाला। उन्होने इसे विनय के पद वात्सल्य के पद, श्रृंगार और इतिवृत्रात्मक शैली के पद में इस्तेमाल कर बहुमुखी अभिव्यंजना क्षमता से लैस किया। सूरदास जी की ब्रजभाषा में कवि का सांस्कृतिक विवेक सन्निहित है। वे जब बालक्रीड़ा, छेडछाड़ आदि का वर्णन करते हैं तो तद्भव शब्दों का खुलकर प्रयोग करते हैं जैसे:
यशोदा हरि पालने झुलावै
मेरे लाल को आउ निदरिया
काहे ना आनि सुलावै
सूरदास जब शोभा वर्णन या सौंदर्य वर्णन करते हैं तो तत्सम शब्दों पर उनकी निर्भरता बढ़ जाती है। पारंपरिक आलंकारिक विधान के लिए भी शायद यह आवश्यक होता है। जैसे:
सोभा कहत कहै नहि आवै
सजल मेघ घनश्याम सुभग वपु
तड़ित वसन वनमाल
सूरदास के अलावा अष्टछाप के अन्य कवियों ने भी ब्रजभाषा को साहित्यिक भाषा के रूप् में स्थिरता प्रदान की। नंददास के भँवर गीत की भाषा तार्किकता से लैस है। उसकी रूचि खंडन – मंडन में है। कुंभन दास, परभानंद दास, कृष्ण दास आदि कवियों ने भी ब्रजभाषा को चतुरता और बाग विदग्धता से लैस किया। क्रपाराम हित तरोगिणीं की भाषा ब्रजभाषा ही है। रसखान और रहीम ने भी ब्रजभाषा को सरल सूबोध बनाया। रीतिकाल के किवयो ने इस ब्रजभाषा को काव्यशास्त्रीय कववेचन की क्षमता से लैस किया। केशवदास, मतिराम, भिखारीदास की भाषा इस लिहाज से उल्लेखनीय है। बिहारी, दंव, मतिराम, पद्माकर, घनानंद आदि ने ब्रजभाषा को एक माधुर्यपूर्ण भाषा में ढाला। रीतिकाल में ही ब्रजभाषा खरादी जाकर अत्यंत उच्चारण सहज अभिव्यक्ति में ढली। बिहारी की ब्रजभाषा में परिनिष्ठित ब्रजभाषा के सभी लक्षण मौजूद हैं। जैसे-
देखत बनै ने देखिबो अनदेरखै अकुलाहिं
इन दुखिया अंखिपान को सुख सिरज्यौई नाहिं
घनानंद की ब्रजभाषा भी लालित्य पूर्ण है। इन रचनाकारों ने संयुक्ताक्षरों की जान बूझ कर उपेक्षा की है, इसकलए इस काल की ब्रजभाषा में उच्चारण संबंधी कठिनाई नहीं मिलती। जैसे:
अति सुधौ सनेह के मारग है
जहाँ नेक सयानप बाँक नहीं
आधुनिक काल या तीसरे चरण की ब्रजभाषा -1800 ई. से अब तक।
आधुनिक काल की ब्रजभाषा भारतेंदु युग की काव्य भाषा है। भारतेंदू, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ठ, प्रेमधन इसे साहित्यिक भाषा के रूप में बनाए रखने की पुरजोर कोशिश करते है, लेकिन द्विवेदी युग तक जाते यह ब्रजभाषा साहित्यिक भाषा का अपना आसन खो देती है। वैसे द्विवेदी युग में जगन्नाथ दास रत्नाकर और सत्यनारायण कवि रत्न ब्रजभाषा में कविता करते रहे।
दूसरे और तीसरे चरण की ब्रजभाषा के मुख्य अभिलक्षण
* ब्रजभाषा में 12 स्वर मिलते हैं:
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए(ह्रस्व), ए, ओ, ओ(ह्रस्व), ऐ, औ
* ऐ, औ का उच्चारण अऐ, अओ की तरह होता है।
* ऋ ध्वनि भी मिल जाती है, लेकिन उसका उच्चारण ‘रि’ की तरह होता है।
* ´ञ’का उच्चारण ‘यँ’ की तरह और ‘ण’ का उच्चारण ‘डँ’ की तरह होता है।
* मध्य या अंत में ह का लोप हो जाता है:
साहूकार – साउकार
बहू – बऊ
बादशाह – बास्सा
बारह – बारा
* न का ल हो जाता है, ल का न
नम्बरदार- लम्बरदार
बाल्ती – बान्टी
फाल्सा – फान्सा
* ब्रजभाषा में ओकारान्तता या औकारान्तता की प्रवृति है। संज्ञा सर्वनाम, क्रिया सभी जगह यह प्रवृति मिलती है;
घोड़ौ(घोड़ा), साँवरो, छोरो, गोरो, जाऊँगो, मेरो
* ब्रजभाषा में व्यंजनगुच्छ या संयुक्ताक्षर में द्वित्व की प्रवृति मिलती है-
द्वादशी -दास्सी
अर्ज्यो -अज्जी
खर्च – खच्चु
* ल और ड़ का र हो जाता है;
रावल – रावर
बीड़ा – बीरा
* ऐकारान्तता और औकारान्तता ब्रजभाषा का भेदक लक्षण है। तो, जो, पे, ने ब्रजभाषा में तौ, जौ, पै, नै हो जाते हैं।
* कर्ता का चिह्न, ने, नै रूप में मिलता है।
* तिर्यक एकवचन और मूल बहुवचन आकारान्त पुल्लिंग संज्ञा में ए अथवा ऐ प्रत्यय का व्यवहार होता है। अकारान्त पुल्लिंग बहुवचन में ए या ऐं , ऐ या एँ प्रत्यय का व्यवहार है।
* ब्रजभाषा के विशेषण खड़ी बोली की तरह ही बनाए जाते हैं। सिर्फ पुल्लिंग शब्दों के विशेषण रूपों में ओकारान्तता आ जाती है; कारो आदमी, नीकी बात
* बहुवचन ब्रजभाषा में मानक हिन्दी की तरह ही बनते हैं, लेकिन उनका उच्चारण भिन्न सुनाई पड़ता है लटै, किलौलें
* तिर्यक रूपों में न जोड़कर भी बहुवचन बनाए जाते है। इसके अलावा स्त्रीलिंग शब्दों में इयान प्रत्यय लगाकर बहुवचन बनाने की प्रवृति उल्लेखनीय है:
* सर्वनामों में सबसे उल्लेखनीय सर्वनाम रूप है- मैं के लिए प्रयुक्त हौं
* संबंधवाची सर्वनाम रूप मेरौ, तेरौ हमारो जैसे बनते हैं
* ब्रजभाषा में प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया आ लगा कर चला और द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया बा लगा कर बनाई जाती है।
* वर्तमान कालिक कृदन्त रूप त/तु प्रत्ययान्त होते है; जैसे- भारत/ भारतु
* भूतकालिक कृदन्त रूप – यों प्रत्यय के योग से बनते हैं; जैसे – माइयौ
संज्ञार्थक क्रिया रूप न, नौ, इबो प्रत्यय की सहायता से बनाए जाते हैं; जैसे- देखन, देखनौ, देखिबों
* वर्तमान काल की सहायक क्रियाओं में हूँ के लिए हौं, हो के लिए हों खास उल्लेखनीय हैं ; जैसे-
तुम जात हों
हौं जात हौं (मैं जाता हूँ)
वर्तमान काल की अन्य सहायक क्रियाएँ खड़ी बोली की तरह ही हैं-
हौं-हैं, है- हौ, है- हैं
* भूतकालकी सहायक क्रियाएँ हैं-
हुतौ, हुती, हुते
* भविष्यत् काल मे-ह-अथवा -ग-प्रत्यय‘लगा कर रूप् बनाए जाते हैं: हूवेंहे – हूवैहै, जाऊँगो