इस जम्बक की डिबिया से मैंने एक आदमी का खून जो कर डाला है, इसलिए मैं इससे डरता हूँ। मैं जानता हूँ कि यही जम्बक की डिबिया मेरी मौत का कारण होगी-प्रोफेसर साहब ने कहा और कुर्सी पर टिक गए। उसके बाद हम सभी लोगों ने उनसे पूछा-जम्बक की डिबिया से मनुष्य की हत्या आखिर […]
(1) ‘‘कल होली है.’’ ‘‘होगी.’’ ‘‘क्या तुम न मनाओगी?’’ ‘‘नहीं.’’ ‘‘नहीं?’’ ‘‘न.’’ ‘‘क्यों?’’ ‘‘क्या बताऊं क्यों?’’ ‘‘आख़िर कुछ सुनूं भी तो.’’ ‘‘सुनकर क्या करोगे?’’ ‘‘जो करते बनेगा.’’ ‘‘तुमसे कुछ भी न बनेगा.’’ ‘‘तो भी.’’ ‘‘तो भी क्या कहूं? क्या तुम नहीं जानते होली या कोई भी त्यौहार वही मनाता है जो सुखी है. जिसके जीवन […]
शाम को गोधूलि की बेला, कुली के सिर पर सामान रखवाये जब बाबू राधाकृष्ण अपने घर आये, तब उनके भारी-भारी पैरों की चाल, और चेहरे के भाव से ही कुंती ने जान लिया कि काम वहाँ भी नहीं बना। कुली के सिर पर से बिस्तर उतरवाकर बाबू राधाकृष्ण ने उसे कुछ पैसे दिए। कुली सलाम […]
शहर में प्लेग था। लोग धड़ाधड़ मर रहे थे। बीमारी भी ऐसी थी–बीमार पड़ते ही लाश निकलते देर न लगती। सब लोग शहर छोड़-छोड़कर बाहर जंगलों में या झोपड़े बनाकर रहने के लिए भागने लगे। न चाहते हुए भी मुझे शहर छोड़ना पड़ा। मुझे यहाँ से भागना अच्छा न लगता था। घर में मैंने सब […]
लोग मुझे उन्मादिनी कहते हैं। क्यों कहते हैं, यह तो कहने वाले ही जानें, किन्तु मैंने आज तक कोई भी ऐसा काम नहीं किया है जिसमें उन्माद के लक्षण हों। मैं अपने सभी काम नियम-पूर्वक करती हूँ। क्या एक भी दिन मैं उस समाधि पर फूल चढ़ाना भूली हूँ? क्या ऐसी कोई भी संध्या गयी […]
वीरों का कैसा हो वसंत? आ रही हिमालय से पुकार है उदधि गरजता बार-बार प्राची-पश्चिम, भू नभ अपार. सब पूछ रहे हैं दिग-दिगंत वीरों का कैसा हो वसंत? फूली सरसों ने दिया रंग मधु लेकर आ पहुंचा अनंग वसु-वसुधा पुलकित अंग-अंग हैं वीर वेश में किंतु कंत वीरों का कैसा हो वसंत? गलबांही हो, या […]
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥ चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद? ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी? बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥ किये दूध के कुल्ले मैंने […]
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी […]
यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे मै भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे ले देती यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली किसी तरह नीची हो जाती यह कदम्ब की डाली तुम्हे नहीं कुछ कहता, पर मै चुपके चुपके आता उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता वही बैठ फिर […]