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अपभ्रंश का विकास

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अपभ्रंश मध्यकालीन आर्यभाषा के तीसरे चरण की भाषा है. अपभ्रंश शब्द का अर्थ है –भ्रष्ट या पतित. पतंजलि ने अपने महाभाष्य में ‘संस्कृत के शब्दों से विलग भ्रष्ट अथवा देशी शब्दों एवं अशुद्ध भाषायी प्रयोगों’ को अपभ्रंश कहा है. दंडी और भामह अपभ्रंश का उल्लेख मध्यदेशीय भाषा के रूप में करते हैं. दंडी ने अपभ्रंश को आभीरों की बोली कहा है. दंडी के ही परवर्ती रचनाकार राजशेखर ने अपभ्रंश को परिनिष्ठित एवं शिक्षित जनों की भाषा कहा है. स्पष्ट है कि एक दौर की भ्रष्ट-गंवारू भाषा ही अगले दौर में साहित्यिक भाषा बनी.

अपभ्रंश के भेद

अपभ्रंश के क्षेत्रीय रूपों को देखते हुए मार्कंडेय ने इसके 27 भेदों का उल्लेख किया है. डॉ तगारे के अनुसार, अपभ्रंश के तीन भेद हैं- पूर्वी , पश्चिमी और दक्षिणी . वैयाकरणों ने भी अपभ्रंश के तीन ही भेद स्वीकार किये हैं- नागर, उपनागर और ब्राचड. नागर अपभ्रंश ही हलके अर्थभेद और क्षेत्रभेद के साथ पश्चिमी अपभ्रंश या शौरसेनी अपभ्रंश कहलाता है. यही अपभ्रंश 8वीं से 10वीं शताब्दी के बीच में उत्तर भारतीय साहित्यिक भाषा बनी. डॉ सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार, सरहपा ,कणहपा के दोहाकोश और चर्यापद की भाषा भी मागधी अपभ्रंश नहीं है, बल्कि वह शौरसेनी अपभ्रंश की निकटवर्ती है. हेमचन्द्र ने शौरसेनी प्राकृत से पृथक व्याकरणिक वैशिष्ट्य लेकर उभरी हुई शौरसेनी अपभ्रंश की व्याकरणिक विशेषताएं लिख लेने के बाद लिखा: शेषं शौरसेनीवत् . मतलब शौरसेनी अपभ्रंश की जिन विशेषताओं का उल्लेख यहाँ नहीं किया गया है, उन्हें शौरसेनी प्राकृत की शेष विशेषताओं की तरह समझना चाहिए. पश्चिमी अपभ्रंश ही 5वीं शताब्दी से लेकर 10वीं शताब्दी के बीच बोलचाल की भाषा से ऊपर उठकर साहित्यिक भाषा बनी. यह बंगाल से गुजरात तक तथा बिहार से बरार तक फैली हुई थी. इस अपभ्रंश की महत्वपूर्ण साहित्यिक रचनाएं हैं- भविष्यत् कहा (धनपाल), महापुराण , जसहर चरिउ (पुष्पदंत), पउम चरिउ (स्वयंभू) , करकंड चरिउ (मुनि कनकामर), दोहाकोश और चर्यापद

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डॉ चन्द्रकुमार जैन

सार्थक