Skip to content

कटोरा भर खून खंड-4

5 1 vote
Article Rating

ऊपर लिखी वारदात के तीसरे दिन आधी रात के समय बीरसिंह के बाग में उसी अंगूर की टट्टी के पास एक लंबे कद का आदमी स्याह कपड़े पहिरे इधर-से-उधर टहल रहा है। आज इस बाग में रौनक नहीं, बारहदरी में लौंडियों और सखियों की चहल-पहल नहीं, सजावट को तो जाने दीजिये, कहीं एक चिराग तक नहीं जलता; मालियों की झोंपड़ी में भी अंधेरा पड़ा है। बल्कि यों कहता चाहिए कि चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। वह लंबे कद का आदमी अंगूर की टट्टियों से लेकर बारहदरी और उसके पीछे तोशेखाने तक जाता है और लौट आता है मगर अपने को हर तरह छिपाये हुए है, जरा-सा भी खटका होने से या एक पते के भी खड़कने से वह चौकन्ना हो जाता हैं और अपने को किसी पेड़ या झाड़ी की आड़ में छिपा कर देखने लगता है!

इस आदमी को टहलते हुए दो घण्टे बीत गये, मगर कुछ मालूम न हुआ कि वह किस नीयत से चक्कर लगा रहा है या किस धुन में पड़ा हुआ है। थोड़ी देर और बीत जाने पर बाग में एक आदमी के आने की आहट मालूम हुई। लंबे कद वाला आदमी एक पेड़ की आड़ में छिप कर देखने लगा कि यह कौन है और किस काम के लिए आया है।

वह आदमी जो अभी आया है सीधे बारहदरी में चला गया! कुछ देर तक वहाँ ठहर कर पीछे वाले तोशेखाने में गया और ताला खोलकर तोशेखाने के अन्दर घुस गया। थोड़ी देर बाद एक छोटा-सा डिब्बा हाथ में लिए हुए निकला और ताला बन्द करके बाग के बाहर की तरफ चला। वह थोड़ी ही दूर गया था के उस लंबे कद के आदमी ने जो पहिले ही से घात में लगा हुआ था, पास पहुँच कर पीछे से उसके दोनों बाजू मजबूत पकड़ लिये और इस जोर से झटका दिया कि वह सम्हल न सका और जमीन पर गिर पड़ा। लंबे कद का आदमी उसकी छाती पर चढ़ बैठा और बोला, “सच बता, तू कौन है, तेरा क्या नाम है, यहाँ क्यों आया, और क्या लिये जाता है?”

यकायक जमीन पर गिर पड़ने और अपने को बेबस पाने से वह आदमी बदहवास हो गया और सवाल का जवाब न दे सका। उस लंबे कद के आदमी ने एक घूँसा उसके मुँह पर जमा कर फिर कहा, “जो कुछ मैंने पूछा है उसका जवाब जल्द दे, नहीं तो अभी गला दबा कर तुझे मार डालूँगा!”

आखिर लाचार हो और अपनी मौत छाती पर सवार जान उसने जवाब दिया: “मैं बीरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम श्यामलाल है, मुझे मालिक ने अपनी मोहर लाने के लिए यहाँ भेजा था, सो लिए जाता हूँ। मैंने कोई कसूर नहीं किया, मालूम नहीं आप मुझे क्यों….”

इससे ज्यादे वह कहने नहीं पाया था कि उस लंबे कद के आदमी ने एक घूँसा और उसके मुँह पर जमा कर कहा, “हरामजादे के बच्चे, अभी कहता है कि मैंने कोई कसूर नहीं किया! मुझी से झूठ बोलता है? जानता नहीं, मैं कौन हूँ? ठीक॑ है, तू क्योंकर जान सकता है कि मैं कौन हूँ? अगर जानता तो मुझसे झूठ कभी न बोलता। मैं बोली ही से तुझे पहिचान गया कि तू बीरसिंह का आदमी नहीं है, बल्कि उस बेईमान राजा करनसिंह का नौकर है, जो एक भारी जुल्म और अँधेर करने पर उतारू हुआ है। तेरा नाम बच्चनसिंह है। मैं तुझे इस झूठ बोलने की सजा देता और जान से मार डालता, मगर नहीं, तेरी जुबानी उस बेईमान राजा को एक संदेशा कहला भेजना है, इसलिए छोड़ देता हूँ। सुन और ध्यान देकर सुन, मेरा ही नाम नाहरसिंह है, मेरे ही डर से तेरे राजा की जान सूखी जाती है, मेरे ही नाम से यह हरिपुर शहर काँप रहा है, और मुझी को गिरफ्तार करने के लिए तेरे बेईमान राजा ने बीरसिंह को हुक्म दिया था, लेकिन वह जाने भी न पाया था कि बेचारे को झूठा इल्जाम लगाकर गिरफ्तार कर लिया! ( मोहर का डिब्बा बच्चनसिंह के हाथ से छीन कर) राजा से कह दीजियो कि मोहर का डिब्बा नाहरसिंह ने छीन लिया, तू नाहरसिंह को गिरफ्तार करने के लिए वृथा ही फौज भेज रहा है।  न मालूम तेरी फौज कहाँ जाएगी और किस जगह ढूंढ़ेगी, वह तो हर दम इसी शहर में रहता है, देख सम्हल बैठ, अब तेरी मौत आ पहुँची, यह न समझियो कि कटोरा भर खून का हाल नाहरसिंह को मालूम नहीं है ! !

बच्चन० : कटोरा भर खून कैसा?

नाहर० : (एक मुक्का और जमाकर) ऐसा, तुझे पूछने से मतलब? जो मैं कहता हूँ, जाकर कह दे और यह भी कह दीजियो कि अगर बन पड़ा और फुरसत मिली तो आज के आठवें दिन सनीचर को तुझसे मिलूँगा। बस जा! हाँ, एक बात और याद आई, कह दीजियो कि जरा कुंअर साहब को अच्छी तरह बन्द करके रक्खें, जिसमें भण्डा न फूटे ! !

नाहरसिंह डाकू ने बच्चन को छोड़ दिया और मोहर का डिब्बा लेकर न-मालूम कहाँ चला गया। नाहरसिंह के नाम से बच्चन यहाँ तक डर गया था कि उसके चले जाने के बाद भी घण्टे-भर तक वह अपने होश में न आया। बच्चन क्या, इस हरिपुर में कोई भी ऐसा नहीं था जो नाहरसिंह डाकू का नाम सुनकर काँप न जाता हो।

थोड़ी देर बाद जब बच्चनसिंह के होश-हवास दुरुस्त हुए, वहाँ से उठा और राजमहल की तरफ रवाना हुआ। राजमहल यहाँ से बहुत दूर न था तो भी आध कोस से कम न होगा। दो घण्टे से भी कम रात बाकी होगी, जब बच्चनसिंह राजमहल की कई ड्योढ़ियाँ लांघता हुआ दीवानखाने में पहुँचा और महाराज करनसिंह के सामने जाकर हाथ जोड़ खड़ा हो गया। इस सजे हुए दीवानखाने में मामूली रोशनी हो रही थी, महाराज किमखाब की ऊँची गद्दी पर, जिसके चारों तरफ मोतियों की झालर लगी हुई थी, विराज रहे थे, दो मुसाहब उनके दोनों तरफ बैठे थे, सामने कलम-दवात-कागज और कई बन्द कागज के लिखे हुए और सादे भी मौजूद थे।

इस जगह पर पाठक कहेंगे कि महाराज का लड़का मारा गया है, इस समय वह सूतक में होंगे, महाराज पर कोई निशानी गम की क्यों नहीं दिखाई पड़ती?

इसके जवाब में इतना जरूर कह देना मुनासिब है कि पहिले जो गद्दी का मालिक होता था, प्रायः वह मुर्दे को आग नहीं देता था और न स्वयं क्रिया-कर्म करने वालों की तरह सिर मुंडा अलग बैठता था, अब भी कई रजवाड़ों में ऐसा ही दस्तूर चला आता है। इसके अतिरिक्त यहाँ तो कुंअर साहब के मरने का मामला ही विचित्र था, जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा।

बच्चन ने रुक कर सलाम किया और हाथ जोड़ सामने खड़ा हो गया। नाहरसिंह डाकू के ध्यान से डर के सारे वह अभी तक काँप रहा था।

महा० : मोहर लाया?

बच्चन० : जी.. लाया तो था.. .. मगर राह में नाहरसिंह डाकू ने छीन लिया।

महा० : (चौंक कर) नाहरसिंह डाकू ने?

बच्चन० : जी हाँ।

महा० : क्या वह आज इसी शहर में आया हुआ है?

बच्चन० : जी हाँ, बीरसिंह के बाग में ही मुझे मिला था।

महा० : साफ-साफ कह जा, क्या हुआ?

बच्चन ने बीरसिंह के तोशेखाने से मोहर लेकर चलने का और उसी बाग में नाहरसिंह के मिलने का हाल पूरा-पूरा कहा। जब बह संदेशा कहा, जो डाकू ने महाराज को दिया था, तो थोड़ी देर के लिए महाराज चुप हो गए और कुछ सोचने लगे, आखिर एक ऊँची सांस लेकर बोले—

महा० : यह शैतान डाकू न-मालूम क्यों मेरे पीछे पड़ा हुआ, है और किसी तरह गिरफ्तार भी नहीं होता। मुझे बीरसिंह की तरफ से छुट्टी मिल जाती तो कोई-न-कोई तरकीब उसके गिरफ्तार करने की जरूर करता। कुछ समझ में नहीं आता कि मेरी उन कार्रवाइयों का पता उसे क्योंकर लग जाता है, जिन्हें मैं बड़ी होशियारी से छिपा कर करता हूँ। (हरीसिंह की तरफ देख कर) क्यों हरीसिंह, तुम इस बारे में कुछ कह सकते हो?

हरी० : महाराज! उसकी बातों में अक्ल कुछ भी काम नहीं करती! मैं क्या कहूँ?

महा० : अफसोस! अगर मेरी रिआया बीरसिंह से मुहब्बत न रखती, तो मैं उसे एकदम मार कर ही बखेड़ा तय कर देता, मगर जब तक बीरसिंह जीता है, मैं किसी तरह निश्चिंत नहीं हो सकता। खैर, अब तो बीरसिंह पर एक भारी इल्जाम लग चुका है, परसों मैं आम दरबार करूँगा। रिआया के सामने बीरसिंह को दोषी ठहरा कर फाँसी दूँगा, फिर उस डाकू से समझ लूँगा, आखिर वह हरामजादा है क्या चीज!

महाराज ने आखिरी शब्द कहा ही था कि दरवाजे की तरफ से यह आवाज आई, “बेशक, वह डाकू कोई चीज नहीं है, मगर एक भूत है, जो हरदम तेरे साथ रहता हैं और तेरा सब हाल जानता है, देख इस समय यहाँ भी आ पहुँचा!”

यह आवाज सुनते ही महाराज काँप उठे, मगर उनकी हिम्मत और दिलाबरी ने उन्हें उस हालत में देर तक रहने न दिया; म्यान से तलवार खैंच कर दरवाजे की तरफ बढ़े, दोनों मुलाजिम लाचार साथ हुए, मगर दरवाजे में बिलकुल अंधेरा था, इसलिए आगे बढ़ने की हिम्मत न हुई, आखिर यह कहते हुए पीछे लौटे कि ‘नालायक ने अंधेरा कर दिया!

5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
सभी टिप्पणियाँ देखें