नमक
यूं तो नमक एक खाद्य पदार्थ है या खाद्य पदार्थों को स्वाद बख्शने वाली चीज है, लेकिन इसकी महत्ता सर्वविदित है । नमक का महत्व इंसान की जिंदगी में इतना ज्यादा है कि इसे लेकर ‘‘नमकहलाल’’, ‘‘नमकहराम’’ और ‘‘नमकख्वार’’ जैसी उपमाएं बनीं । महात्मा गांधी जी को भी ‘‘गांधी’’, उनके नमक कानून तोड़ने को लेकर किए गये ‘‘दांडी मार्च’’ ने बनाया। बेशक, इस तीन अक्षरों वाले नाम की चीज के बिना जिन्दगी बेस्वाद हो जाती है। कालांतर में नमक पर अधिकार के लिए युद्ध भी हुए । राजा हो या रंक, अमीर हो या गरीब, उच्च वर्ग हो या दलित, शासक हो या शासित, हर वर्ग के भोजन का यह अभिन्न अंग होता है। नमक बिना कोई भी व्यंजन स्वादिष्ट नहीं बनता। इसलिए खाद्य सामग्रियों और अनाज की व्यवस्था के साथ साथ नमक की व्यवस्था करना भी आवश्यक होता है।
हमारे आदिवासी पुरखों के लिए नमक की व्यवस्था करना एक चुनौतीपूर्ण समस्या थी। चावल-दाल, सब्जी, तेल आदि वे स्वयं उपजा लेते थे, पर नमक के लिए उन्हें अन्य स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता था। आदि पुरखों ने नमक के लिए क्या व्यवस्था कर रखी थी, इसकी जानकारी नहीं है पर मेरे होश संभालने के समय से लेकर साठ के दशक एवं सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध तक मैंने नमक की व्यवस्था एवं सुरक्षा हेतु ग्रामवासियों के लगन, समर्पण एवं उत्साह को निकट से देखा था। जहां तक नमक का सवाल है अन्य सामानों की भांति यह भी सेठ-साहूकारों के पास ही मिलता था परन्तु उसे खरीदने के लिए हमारे पुरखों के पास नगद पैसे नहीं होते थे। अतः उन्हें जंगल से निकलकर शहर का रूख करना पड़ता था और सेठ-साहूकारों से नमक उधारी लेने को मजबूर होना पड़ता था; चूंकि वे अनपढ़ थे अतः सेठों के पास अपनी जमीन गिरवी रखते थे और अंततः नमक के पीछे उनकी कीमती जमीन उनसे वसूल ली जाती थी। एक ओर सेठ-साहूकारों की अपरिमित धूर्तता थी और दूसरी ओर आदिवासियों की जन्मजात सरलता और भोलापन था। इसी प्रकार हर जरूरत के लिए वे अपनी जमीन गिरवी रखकर अपना काम तो निपटाते थे, परन्तु इसके लिए उन्हें अपनी जमीन के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ती थी। सेठ-साहूकार तो धूर्त होते ही हैं और मौके की तलाश में रहते ही हैं कि कहां जाल डालें और माल समेट लें। वह वस्तु-विनिमय का युग था और वे इस रास्ते से हमारे पुरखों का भरपूर शोषण करते थे। जंगल पुरखों के जीवन का मूल आधार रहा है और इसी से वे अपनी हर आवश्यकता की पूर्ति करते थे। वनोपज उनकी आय का प्रमुख स्रोत रहा है। सेठ जानते थे कि वनोपज से भारी मुनाफा कमाया जा सकता है। चिरौंजी सूखे मेवे की श्रेणी में आने की वजह से शुरू से ही महंगी रही है और इसमें मुनाफे की भारी गुंजाईश थी, परन्तु हमारे पुरखे इस विशिष्ट वस्तु की महंगाई से एकदम ही अनभिज्ञ थे।
उस समय घने जंगल थे और चिरौंजी के पेड़ भी बहुतायत में थे। चिरौंजी में भारी मुनाफा और आदिवासियों की नमक को लेकर उत्कंठा को देखते हुए सेठों ने पासा फेंका कि एक किलो चिरौंजी के एवज में 20-30 किलो नमक मिलेगा। गांव वालों के मुंह खुले के खुले रह गए कि एक किलो चिरौंजी के लिए 20-30 किलो नमक मिल जाएगा ? उनके लिए चिरौंजी एक ऐसी चीज थी जो उन्हें मुफ्त में हासिल थी, जंगल में ढेर उपलब्ध थी, बस उसे इकठ्ठा करके, सुखाने, छिलने आदि की मेहनत ही तो करनी थी, जो वो वैसे भी अपने बाल-बच्चों के लिए करते ही थे । कुछ होशियार आदिवासियों ने सोचा कि मोल-भाव करेंगे तो नमक की मात्रा बढ़ भी सकती है, उनकी होशियारी इससे आगे सोच सकती ही नहीं थी। गांव वालों को चिरौंजी के वास्तविक बाजार मूल्य से कोई सरोकार नहीं था; उन्हें तो एक किलो चिरौंजी के बदले में 30-40 किलो नमक का ढेर दिखाई दे रहा था जो कई महीनों तक नमक की व्यवस्था की चिन्ता से मुक्त करने वाला था। उनके चेहरे पर चमक आ गई, फिर शुरू हुआ आदिवासियों के खून-पसीने की कमाई को उनसे लूटने का सुव्यवस्थित व्यापार, जिसमें आदिवासी लुट कर भी खुश होते थे ।
गर्मी का मौसम आते ही चिरौंजी के फल पकने को होते ही गांव वाले चिरौंजी फल एकत्रित करने जंगलों में धावा बोल देते थे और धूप-गर्मी, भूख-प्यास सहकर चिरौंजी एकत्रित करते थे। इसके ऊपरी छिलके के नीचे गुठली होती है जो बहुत सख्त होती है। छिलका साफ कर गुठली को चक्की में दलकर उसके अंदर की गिरी को साबूत निकालने की प्रक्रिया लंबी होती है जिसमें धैर्य की जरूरत होती है क्योंकि सारा काम हाथ से ही किया जाता है। इस काम में पूरा परिवार भिड़ा रहता और चिरौंजी फल तोड़कर लाने और उससे वास्तविक चिरौंजी गिरी निकालने की प्रक्रिया में 20-25 दिन का समय निकल जाता था तब जाकर एकाध किलो चिरौंजी प्राप्त होती थी। गांव वालों को इस बात का संतोष होता था कि प्राप्त चिरौंजी से कम से कम 40 किलो नमक तो घर में आ ही जाएगा। पूरा गांव इसी प्रक्रिया में जुटा रहता था।
इधर सेठ लोग ट्रक के ट्रक खड़ा नमक मंगाकर स्टाक तैयार रखते थे और सीजन के शुरू होते ही चिरौंजी के बदले नमक लेने हेतु आने वाले ग्रामीणों का इंतजार करते थे। उन्हें मालूम था कि गांव वाले आएंगे तो आखिर उन्हीं के दरवाजे। अतः वे इस बात से इत्मीनान में रहते। उधर गांव में नमक बदलने हेतु शहर जाने का बड़ा उत्साह देखा जा सकता था। शहर में लगभग 15-20 किलोमीटर दूर गांवों से 10-12 लोगों का समूह आवश्यक तैयारी के साथ मुर्गे के बांग देते ही, मुंह अंधेरे जलपान (बासी भात) पकड़कर निकल पड़ता था। सूरज चढ़ने के पूर्व नदी पहुंचने का लक्ष्य रहता था। नदी तट पर बासी भात खाकर वे जल्दी से जल्दी शहर (बाजार) पहुंचने की कोशिश करते थे क्योंकि रात होने के पहले अपनी अमूल्य कमाई को लेकर वापस घर पहुंचना भी जरूरी था। वे तेज चाल चलकर शहर की ओर बढ़ते थे। रास्ते में पड़ने वाले गांव वालों से दुआ-सलाम होता; वे पूछते ‘‘नमक लेने जा रहे हैं ?‘‘ वे जल्दी में कहते-‘‘हां‘‘। गांव वाले कहते-‘‘ वापसी में बताईए कि क्या भाव दे रहे हैं ?‘‘ वे ‘‘हां‘‘ कहते आगे बढ़ जाते। रूक कर बात करने का समय नहीं रहता था।
शहर पहुंचने में सुबह के आठ-नौ बज चुके होते थे। सेठ लोग पूरी तैयारी करके नमक लेने आने वाले गांव वालों की ताक में रहते थे। दूरस्थ गांव वाले समूहों में आते थे। जैसे ही उनकी झलक मिलती सेठ सतर्क हो जाते थे, वे उन्हें अपनी दूकान पर से सामान प्राप्त करने बुलाते, रिझाते और उनके आना-कानी करने पर वे उन्हें घेर लेते और चिरौंजी दाने की पोटली को हथियाने की कोशिश करते थे, ताकि वे उन्हीं की दुकान से नमक ले जाएं। छीना-छपटी होती और सेठों की चाल के सामने उनकी कुछ नहीं चलती थी। अंततः थक-हार कर मोल-भाव चलता। सेठ चालाकी से कम भाव बताते-विवाद होता-
‘‘एक किलो चिरौंजी के लिए 25 किलो नमक दूंगा।”
‘‘वाह! दूसरे सेठ तो 30-40 किलो नमक दे रहे हैं ?”
‘‘अरे भाई तुम्हारा माल थोड़ा हल्का है-अच्छा चलो हम 30 किलो नमक देते हैं, ठीक है?”
साथ गई आदिवासी की पत्नी कहती ‘‘फलां सेठ के यहां से हमारे गांव वाले एक किलो चिरौंजी का 40 किलो नमक कल ही लिए हैं, हम कैसे कम भाव में दे देंगे, हमारे माल में क्या कमी है? हमारी चिरौंजी दे दो हम वहीं से नमक ले लेंगे।‘‘
‘‘अरे माई, नाराज क्यों होती हो, आज भाव टूट गया है न! माल भी नहीं मिल रहा है, बड़ी मुश्किल से तो माल मिला है; दाम, गाड़ी भाड़ा, खर्चा सब बढ़ गया है; हमको भी तो कुछ बचना चाहिए। ठीक है, तुम कहते हो तो हम चालीस किलो नमक दे देंगे; हम ही घाटा सह लेंगे, एकाध किलो अतिरिक्त दे देंगे, ठीक है? अब तो खुश हो न?”
सेठ धूर्ततापूर्वक अपनी चाल चलता और ऐसा नाटक करता कि वह स्वयं घाटा सहकर उन गांव वालों पर एहसान कर रहा है।
चालीस किलो नमक की बात सुनकर गांव वालों के तेवर नरम हो जाते और आपस में कुछ सलाह कर सेठ को चिरौंजी देने तैयार हो जाते-एक-दो किलो नमक पुरौनी (अतिरिक्त) मिलने का भी आकर्षण रहता था। नमक का इतना अधिक महत्व जो था। उन्हें इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि एक किलो चिरौंजी के लिए 100 किलो नमक भी सस्ता सौदा था।
ग्राहक को मना लेने के बाद सेठ अब दूसरा दांव चलता था। माल (चिरौंजी) तौलाई में भी वह अपने हाथ की सफाई दिखा देता। किसान अपनी पूर्ण संतुष्टि तक अपने घर में चिरौंजी के वजन को सुनिश्चित करता परन्तु सेठ के तराजू में न जाने कौन सा जादू होता था कि उसके यहां तौलने पर वह कम ही निकलता।
किसान सोचता कि घर या गांव में उपलब्ध तौल के अनुसार चिरौंजी एक किलो से कुछ अधिक ही थी मगर सेठ के यहां पहुंचने तक न जाने क्या हो जाता है माल कुछ कम ही निकलता था । वह तराजू ऐसे पकड़कर दिखाता कि बांट वाला पलड़ा कुछ भारी ही दिखाई देता-वह डंडी मारने की कला होती थी। वह कहता-
‘‘देखो! तेरे सामने तौल रहा हूं, माल कुछ कम है कि नहीं‘‘ ?, लेकिन उसे मालूम रहता था कि चिरौंजी पूरे नाप की रहती थी और सौ ग्राम तक अतिरिक्त भी रहती थी। किसान बुझे मन से यह खेल देखता रह जाता-अब चूंकि माल सेठ के हाथ में रहता था अतः उसके नाप को ही मान लेने को वह विवश हो जाता। सेठ किसान को देख कहता-‘‘चलो हम एक किलो चिरौंजी ही मान लेते हैं आखिर तुम लोग भी तो इतनी मेहनत करके इसे तैयार किए हो।” ऐसा कहकर वह किसान पर सहानुभूति भरा एहसान और लाद देता था। किसान खुश हो जाता। फिर वह किसान को मोल-भाव के अनुसार 40 किलो नमक तौल देता और ऊपर से अपनी उदारता दिखाने के लिए एकाध किलो नमक पुरौनी और दे देता। किसान को संतोष हो जाता और वह अपने हिस्से का नमक अपने टोकनों में भरकर वापसी यात्रा की तैयारी करता। उसकी सहधर्मिणी इस सौदे में बराबर साथ रहती और उसकी टोकनी में भी उसकी क्षमता अनुसार नमक भरा जाता। समूह में पांच-छः परिवार के लोग होते थे और इस प्रकार 10-12 लोगों का समूह होता था। हरेक के साथ यही खेल चलता और सब कोई धूर्त सेठों के द्वारा ऐसे ही छले जाते। पूरा समूह यह सब ठगा सा देखता रह जाता था; फिर हर परिवार अपने हिस्से का नमक ढोकर वापसी यात्रा पर निकल पड़ता था। तब तक सूर्य सिर पर आ जाता था।
भीषण गर्मी में जब सूर्य ऊपर से आग बरसाता था और धरती तपकर गरम हो जाती थी तब वे बोझा ढोए पसीने से लथपथ, नंगे पांव भरी दुपहरी में चलते जाते थे। जिस नमक के लिए पिछले 20-25 दिनों से पूरा परिवार तपस्या कर रहा था वह आज उनके हाथ आया था। शायद यही उपलब्धि उनकी ऊर्जा का स्रोत होती थी। रास्ते में अनजान राहगीर मिलते और उनसे उत्सुकतावश पूछते-‘‘चरौंजी बदलने गए थे?” उनके सवाल के उत्तर में वे ‘‘हां‘‘ कहते। दूसरा सवाल होता-‘‘क्या भाव मिला?‘‘ वे थोड़ा गर्व से कहते-‘‘चालीस किलो‘‘। इस प्रकार दूरस्थ इलाकों में प्रचलित भाव का प्रचार-प्रसार होता और वे भी नमक के लिए शहर जाने की तैयारी करते। रास्ते में कहीं पीने के पानी की व्यवस्था एवं छाया देख वे कुछ देर विश्राम करते फिर अगले पड़ाव के लिए आगे बढ़ते।
उधर गांव में नमक लेकर आने वालों का इंतजार बेसब्री से होता। पूरा परिवार नमक की नई खेप के दर्शन के लिए उत्सुक रहता। शाम होते और अंधेरा घिरते तक में वे नमक लेकर आंगन में प्रवेश करते। एक अपूर्व खुशी पूरे परिवार में फैल जाती। ढिबरी या दीए के प्रकाश में वे उज्जवल सफेद खड़ा नमक को स्पर्श कर आनंद का अनुभव करते। पास पड़ोस वाले भी देखने और जानकारी लेने आते। घर में बड़ी मात्रा में नमक को देख चिरौंजी तोड़ने जाने से लेकर उसके बीज बनने तक के कठोर परिश्रम और कठिन तपस्या को वे भूल से जाते थे। यह उनके लिए नमक दिवस होता था जो एक पर्व के समान होता था। थकान मिटाने के लिए महुवे का पानी या हंड़िया जो भी उपलब्ध होता उसे पीकर रूखा-सूखा खाकर गहरी नींद सो जाते थे।
उधर सेठ की खुशी का ठिकाना नहीं रहता, नमक के ग्राहक रोजाना उसकी दूकान में आते, ग्राहक संख्या काफी रहती। हरेक ग्राहक से कम से कम एक किलो चिरौंजी प्राप्त होती। वह दूकान में नमक के ढेर लगाता; ग्राहक अपना माल तौलाता और नाप अनुसार अपने हिस्से का नमक प्राप्त करता था। सेठ के नमक का ढेर कम होता जाता और चिरौंजी का ढेर उसी अनुपात में बढ़ता जाता था, जिसे देख-देख सेठ गदगद हुआ जाता था। दिन ढलने पर वह चिरौंजी के ढेर को सावधानीपूर्वक सहेजता। सूर्य की अंतिम लाल किरणें उसके माथे पर पड़तीं। उसका चेहरा लाल हो जाता, माल समेटते हुए वैसे भी वह लाल हो जाता था, उसकी थकान जाती रहती। वह जमा चिरौंजी को संभाल कर सुरक्षित रखता। वह उसकी विशुद्ध कमाई होती थी। वह चैन की नींद सो जाता। कुछ सौ रुपयों के नमक बेचकर उसने हजारों रुपयों का शुद्ध मुनाफा कमाया था तो चैन की नींद क्यों न सोए!
नमक को घर तक लाकर किसान निश्चिंत नहीं रहता था। नमक की प्रवृत्ति आर्द्रता पाकर घुलने की होती है और सामने बरसात का मौसम होता था। बारिश में हवा में आर्द्रता की अधिकता के कारण नमक के घुलने की संभावना को देखते हुए उसे सुरक्षित रखने के चिन्ता रहती थी। इस हेतु उसके पास कोई अन्य तकनीक नहीं थी अतः वह परम्परागत तरीके से खून पसीने की कमाई ‘‘नमक‘‘ की सुरक्षा में जुट जाता। वह जंगल जाकर लव पत्ते तोड़ लाता और उन पत्तों से नमक रखने का पात्र (धाधू) बनाता। हरेक धाधू में 10-15 किलो नमक समाता था अतः आवश्यकतानुसार धाधू बनाकर उसमें नमक भरता और घर के चूल्हे के करीब या ऊपर बने लकड़ी के पटरे पर उन्हें रखकर निश्चिंत हो जाता था। चूल्हे के ताप से मौसम की नमी नमक पर अपना प्रभाव नहीं दिखा सकती थी। लगभग पूरे महीने की तपस्या के फल को सुरक्षित कर वह नमक जैसी अत्यावश्यक वस्तु की ओर से निश्चिंत हो जाता था।
सेठ लोग दिन भर मीठी-मीठी बातों से भोले-भाले गांव वालों को फांसते और उनके बहुमूल्य चिरौंजी को माटी के मोल झपट लेते। पूरे सीजन भर रोज का यही काम था। कौड़ी के मोल नमक के बदले वे प्रति ग्राहक सौ गुना महंगा माल हड़पते थे। क्षेत्र बड़ा था। दूर-दूर के गांवों से गांव वाले दल बनाकर इसी नमक के लिए शहर आते थे और सेठों को नमक तौलने और कीमती चिरौंजी समेटने से फुर्सत नहीं मिलती थी। नमक लेने वालों का मेला सा लगा रहता था। शहर का हर सेठ रोजाना कम से कम 20-25 किलो चिरौंजी का संग्रहण कर ही लेता था। ऐसी स्थिति में सेठ तो लाल होंगे ही। गांव वाले चिरौंजी की वास्तविक कीमत से बेखबर एक किलो चिरौंजी के बदले 40 किलो नमक को ही अधिक मूल्यवान समझते थे। उनके लिए नमक की मात्रा से मतलब था उसकी कीमत से नहीं।
आज से पचास साल पहले हमारे आदिवासी (कुंडुख) लोगों में व्यवसायिक भावना, वाणिज्य-व्यापार करने की सोच नहीं के बराबर थी। तात्कालिक समस्या का समाधान हो जाने को ही सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे और मात्रात्मक उपलब्धि को ही प्राथमिकता देते थे। उस समय खुदरा भाव में भी एक रूपए में 4-5 किलो नमक मिलता था और बहुत मुमकिन है कि सेठों को थोक भाव में एक रूपए में दस या बारह किलो तक नमक पड़ता रहा हे। यह मेरा अनुमान है-इससे कम या अधिक होने की भी संभावना है। यदि इसे ही सही मान लिया जाए तो एक रुपए में 4-5 किलो नमक के भाव से 40 किलो नमक की कीमत 8 या 10 रुपए ही हुई। उस समय चिरौंजी की कीमत गिरी से गिरी हालत में भी 100-115 रू. तक थी। इसका अर्थ यह हुआ कि सेठों को प्रति किलो चिरौंजी में 90 से 100 रू. का विशुद्ध मुनाफा हुआ और गांव के किसान के हाथ एक महीने की मेहनत-मजदूरी मात्र 8 से 10 रूपए ही हुई। इस प्रकार पूरे परिवार की मजदूरी 8 या 10 रुपए ही हुई और बाकी पैसों से सेठों की झोली भरती गई। सेठों ने एक रुपए से 3-4 रू. कमा लिए और 90-100 रू. प्रति किलो चिरौंजी मुफ्त में समेट लिए। देखा जाए तो सेठों के लिए चिरौंजी गांव के लोगों की ओर से सप्रेम भेंट ही साबित हुई।
उस समय तक गांव से इक्का-दु्क्का व्यक्ति सरकारी नौकरी में आने लगे थे और वे बड़े नगरों में रहते थे। उन्हें बड़े शहरों का हाव-भाव कुछ समझ में आने लगा था। चिरौंजी का वास्तविक भाव मालूम होने से उन्हें सेठों के द्वारा गांव वालों को चिरौंजी के संबंध में ठगे जाने का अफसोस हुआ, उन्होंने गांव वालों को वस्तु-स्थिति समझाने की कोशिश करते हुए उनसे कहा कि वे चिरौंजी के बदले नमक न लेकर नगद बेचें और यदि वे उन्हें ही चिरौंजी बेचना चाहें तो वे कुछ माल खरीदने को तैयार हैं। उन्होंने बताया कि चिरौंजी का भाव सौ रूपए चल रहा है और नमक एक रूपए में 4-5 किलो के भाव में मिलता है; उन्होंने समझाया कि वे एक किलो चिरौंजी के लिए 40 किलो नमक के प्रलोभन में न पड़ें क्योंकि 40 किलो नमक मात्र 10 रूपए का ही ही होगा; सौ रूपए से वे 400 से 500 किलो नमक खरीद सकते हैं पर इतना सारा नमक एक बार में खरीदने का कोई औचित्य नहीं है; इस रकम से आवश्यकतानुसार नमक लेकर बाकी पैसों से अपनी अन्य आवश्यकताएं पूरी कर सकते हैं-और अपनी स्थिति सुधार सकते हैं। आमने-सामने बात होने से ऐसा लगा कि गांव वाले सारी बातें समझ गए और वे नगदी में अपनी चिरौंजी देने के लिए तैयार हैं परन्तु दल के सदस्यों ने गुपचुप सलाह मश्विरा कर शहर जाकर 40 किलो नमक लेना ही बेहतर समझा, उन्हें इन नौकरी वालों की बात पर भरोसा नहीं हुआ। उन पर तो एक किलो चिरौंजी के लिए 40 किलो नमक के ढेर का भूत सवार था अतः उन्होंने शहर जाकर चिरौंजी के बदले नमक लेना उचित समझा। दूसरे ही दिन वे दल के साथ मुंह अंधेरे शहर जाकर सेठों को चिरौंजी की भेंट चढ़ाकर प्रसाद के रूप में 40 किलो नमक ले आए। नौकरी पेशा वालों को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने सर पीट लिया। इसे वे गांव वालों की मूढ़ता कहें या भोलापन वे समझ नहीं पा रहे थे।
पैसे को पैसा खींचता है, पूरे क्षेत्र के गांव वाले दल बांधकर चिरौंजी लेकर नमक बदलने आते, पूरे सीजन भर यही दौर चलता। सेठों के भंडार में नमक की जगह संग्रहीत चिरौंजी जमा होती जाती। कुछ सौ रूपयों के नमक बेचकर वे मालामाल हो रहे थे। जमा हुई चिरौंजी को बड़े व्यापारियों को ऊंचे दाम में बेचकर लाखों रूपयों का मुनाफा कमाने वाले थे और उन्होंने कमाया भी। यह नमक की माया थी।
जब तक जंगल रहे और चिरौंजी के झाड़ रहे यही सिलसिला चलता रहा। वनोपज के मामले में हमारे पुरखे बड़े खुशनसीब थे परन्तु इसका सही फायदा वे न ले सके। एक किलो चिरौंजी के लिए 40 किलो नमक लेकर तथा अन्य वनोपजों को इसी भांति माटी के मोल बेचकर वे अपनी जिन्दगी खींचते रहे। मेहनत वे करते थे और सेठ लोग फलते-फूलते थे। सेठ करोड़पति बनते गए और पुरखे जंगल की खाक छानते रह गए।
खड़ा नमक का प्रसंग चल रहा है तो इस नमक की एक खासियत याद आती है। जब तक खड़ा नमक का चलन रहा तब तक गांव वालों में रक्त चाप या घेंघा की शिकायत नहीं थी, सिवाय इक्का-दुक्का प्रकरण के। रूखा-सूखा खाकर भी वे स्वस्थ रहते थे। अब आयोडीन युक्त पैकेट वाले नमक का जमाना आ गया जो कि मनमाने दाम में बिक रहा है। हर कोई उज्जवल रवेदार नमक खा रहा है और रक्त चाप की बीमारी का शिकार हो रहा है। हर परिवार में रक्त-चाप के मरीज मिलेंगे। डाक्टर यही कहता है-‘‘नमक कम खाओ‘‘-कोई नहीं कहता ‘‘खड़ा नमक खाओ।‘‘ खड़ा नमक अब इतिहास की चीज बनकर रह गया है।
उपसंहार : जमाना बदल गया-जीवन शौली बदल गई; सेठ साहूकारों ने आदिवासी पुरखों को खूब लूटा जिसके ढेरों किस्से हैं-अब 21वीं सदी में इसी तर्ज पर हमारे सर्वनाश का नया फार्मूला बनाया जा रहा है। सावधान! एक किलो चिरौंजी के बदले 40 किलो नमक का स्वरूप बदलकर आने ही वाला है। अर्थात् इतिहास अब दुहराने की तैयारी में है। इस कार्यक्रम में बड़े लोगों की शह पर कार्पोरेट घराने अब हमें घेरने आ रहे हैं। ‘‘सबका साथ सबका विकास‘‘ की आड़ में पूरे आदिवासी क्षेत्र को लूटने-हथियाने की उच्च स्तरीय साजिश चल रही है। हमारे क्षेत्र में खनिज पदार्थों के भंडार होने की बात कहकर उन्हें निकालने का ठेका कार्पोरेट घरानों को देकर पूरे क्षेत्र को बेचकर क्षेत्र के रहवासियों को विस्थापित करने का कुचक्र चला जा रहा है। इसके लिए अपनी जमीन के एवज में क्षतिपूर्ति या मुआवजे के रूप में खरीदने की पेशकश होगी।
एक किलो चिरौंजी के बदले 40 किलो नमक के लिए तो पुरखे लुट गए, छले गए पर हमें जमीन विरासत में छोड़ गए। अब देखना यह है कि नई पीढ़ी इस धरोहर और आदिवासी जीवन के आधार जल, जंगल और जमीन के बदले में कुछ लाख रुपयों के बारे में क्या सोचती है। यहां याद रखने योग्य बात यह है कि देश की सर्वोच्च अदालत ने जमीन के नीचे दबे खनिज पदार्थों का मालिक या हकदार भू-स्वामी को ही माना है। खनिज पदार्थों की कीमत कोई दस-बीस लाख रुपए तो नहीं होगी, वह तो करोड़ों-अरबों रूपयों की होगी। ऐसी हालत में आप करोड़पति-अरबपति हो जिसका अंदाजा आप लगा नहीं सकते। कार्पोरेट घरानों की निगाह अरबों रुपयों की खनिज संपदा पर है और इस साजिश में शामिल बड़े (नेताओं) लोगों को अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने तथा अपनों को लाभ पहुंचाने पर है। इसके लिए यदि वे दस-बीस लाख रुपए दे भी दिए तो उनको कोई फर्क नहीं पड़ेगा। 40 किलो नमक की ढेर को देख गदगद होकर एक किलो चिरौंजी को सेठों को दान कर दिया सो कर दिया अब इकट्ठे दस-बीस लाख रुपयों की गड्डी देख अरबों रुपयों की विरासत को कार्पोरेट घरानों को भेंट न चढ़ा देना; वैसे भी आज की पीढ़ी खेती करने के मामले में आलसी हो गई है। इतने सारे नोटों की गड्डी देख मन विचलित न हो जाए; यदि मन डोल गया तो इन रुपयों से क्या बनाओगे, क्या ऐश करोगे क्या खाओगे पीओगे और आने वाली पीढ़ी के लिए क्या बचाओगे ? इस बार अगर चूक गए तो नमक के भी लाले पड़ जाएंगे और कार्पोरेट घरानों द्वारा छोड़े गए धूल-धुआं, गर्द-गुबार से जीवन तबाह करोगे। तब तुम पछताओगे, हाथ मलोगे, सिर धुनोगे पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। यह एक चेतावनी है, खतरा दबे पांव आ रहा है। पुरखों की विरासत की हिफाजत के लिए कमर कस लो और हर संभव संघर्ष एवं त्याग हेतु तत्पर रहने में ही तुम्हारा कल्याण है……….
June 8, 2020 @ 8:48 pm
शोषण का एक रूप यह भी…
June 8, 2020 @ 10:07 pm
बहुत शानदार लेख और जानकारी
June 9, 2020 @ 11:12 am
आदिवासियों का शोषण सदियों से होता आया है, अफसोस भूमि के सच्चे बेटों को उनका हक अब तक नहीं मिला ।
June 9, 2020 @ 11:44 pm
ab to jaag jao aur apni dharohar ko bacchao
Na sirf chetavni balki ek kadwa sach
Kudos
June 10, 2020 @ 11:40 am
I felt I was there with them,beautifully narrated
And sad to know they were fooled because of their innocence or unawareness?