कार्पस ड़ेलेक्टी – ए क्राइम इन्वेस्टीगेशन टर्म
सर सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने एक लघु कथा “किताबी क़त्ल” लिखा था जिसे एक बार उपन्यास के रूप में भी छापा गया था। अगर आप इस कहानी को पढेंगे तो आप क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन के एक नुक्ते से आसानी से परिचित हो जायेंगे। खैर, आप सभी को अगर ध्यान न हो तो मैं आप सभी की कृपा दृष्टि उस नुक्ते की ओर ले जाना चाहूँगा।
“किताबी क़त्ल” की कहानी में जब इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर मौकायेवारदात पर पहुँचता है तो उसे ऐसा लगता है की वहां क़त्ल हुआ है लेकिन उसे वहां लाश नज़र नहीं आती है। मौकायेवारदात से मिले कई सूत्रों से पता चलता है की वहां घर के मालिक का क़त्ल हुआ है लेकिन लाश न मिलने की सूरत में इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर उसे एक नुक्ते के रूप में लेता है। इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर ने इस नुक्ते को “कार्पस डेलिक्टी” का नाम दिया।
इस बिंदु पर जब थोड़ी बहुत इन्टरनेट द्वारा खोज बीन किया तो पता चला की इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर द्वारा बोला गया यह टर्म क्राइम इन्वेस्टीगेशन में बहुत मायने रखती है। “कार्पस डिलेक्टी” को अगर एक वाक्य में परिभाषित किया जाए तो “कार्पस डिलेक्टी” के सिद्धांत के अनुसार किसी व्यक्ति को तब तक अपराधी सिद्ध नहीं किया जा सकता जब तक यह सिद्ध नहीं हो जाता की अपराध हुआ है। मतलब की जब तक यह सिद्ध नहीं हो जाता है की आपका पर्स चोरी हुआ है तब तक आप किसी व्यक्ति को उस चोरी का दोष नहीं दे सकते।
किसी क़त्ल के तहकीकात के लिए “कार्पस डेलिक्टी” एक महत्वपूर्ण तथ्य है। जब किसी तहकीकात के दौरान यह पाया जाता है की कोई व्यक्ति गायब हो गया है और उससे कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता तो पुलिस उसे “गुमशुदगी” का केस मान लेती है। लेकिन जब इस तहकीकात के दौरान डिटेक्टिव को यह महसूस होता है की गुमशुदा व्यक्ति का क़त्ल हो गया है तो लाश को खोजना और क़त्ल से सम्बंधित सभी सबूतों को इकठ्ठा करना और यह सिद्ध करना की गुमशुदा व्यक्ति का क़त्ल हो गया है ताकि दोषी को सजा दी जा सके। इसे ही “कार्पस डेलिक्टी” कहते हैं।
डिटेक्टिव को यह महसूस होता है कि अगर किसी व्यक्ति का क़त्ल हो गया है लेकिन लाश नहीं मिल रहा है तो क्राइम इन्वेस्टीगेशन में इस टर्म को “कार्पस डेलिक्टी” कहते हैं। “कार्पस डेलिक्टी” को स्थापित करने के लिए सबसे आसान तरीका यही है कि लाश को खोज लिया जाए। लेकिन अगर लाश नहीं मिल पाता है तो इस जुर्म को साबित करने के लिए पुलिस के पास अधिक से अधिक ठोस परिस्थितिजन्य सबूत होना जरूर होता है।
जॉन जॉर्ज हैग नाम के ब्रिटिश सीरियल किलर को “एसिड बाथ मर्डरर” के नाम से भी जाना जाता है। सन १९४० में इस व्यक्ति ने कई सिलसिलेवार क़त्ल किये और क़त्ल के बाद बॉडी को एसिड के जरिये गला डाला। उसका सोचना था की अगर लाश नहीं मिलेगा तो कोई उसे पकड़ भी नहीं पायेगा। हैग ने “कार्पस ड़ेलेक्टी” के टर्म “कार्पस” को गलत समझा। उसके अनुसार “कार्पस” का मतलब लाश से था। उसका सोचना था की लाश नहीं मिले तो मर्डर का दोषी उसे करार नहीं दिया जाएगा। लेकिन फॉरेंसिक और परिस्थितिजन्य सबूतों ने उसे आखिरकार दोषी करार दिया।
“कार्पस डेलिक्टी” से सम्बंधित एक और केस है जो अमेरिका में घटित हुआ था। Robert Leonard Ewing Scott की पत्नी १९५५ से ही गायब थी। १९५६ में उसकी पत्नी के भाई ने पुलिस में उसके अचानक गुमशुदा का रिपोर्ट कर दिया। पुलिस ने रोबर्ट को जालसाजी के अपराध में गिरफ्तार किया लेकिन वह जमानत पर छुट गया और कनाडा भाग गया। सन १९५७ में उसे दुबारा पकड़ा गया और सन १९५७ में उसे क़त्ल के इलज़ाम में कोर्ट में पेश किया गया। रोबर्ट के पत्नी के कुछ अंश और व्यक्तिगत सामान उन्हें मिल चूका था। अमेरिकी इतिहास में पहली बार बिना लाश के सिर्फ परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर किसीको क़त्ल के दोषी करार दिया गया।