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चंद्रकांता संतति-भाग-4 (बयान-1 से 5)

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बयान – 1

अब हम अपने किस्से को फिर उसी जगह से शुरू करते हैं जब रोहतासगढ़ किले के अंदर लाली को साथ लेकर किशोरी सेंध की राह उस अजायबघर में घुसी जिसका ताला हमेशा बंद रहता था और दरवाजे पर बराबर पहरा पड़ा रहता था। हम पहले लिख आए हैं कि जब लाली और किशोरी उस मकान के अंदर घुसीं उसी समय कई आदमी उस छत पर चढ़ गये और “धरो, पकड़ो, न जाने पावे!” की आवाज लगाने लगे। लाली और किशोरी ने भी यह आवाज सुनी। किशोरी तो डरी मगर लाली ने उसी समय उसे धीरज दिया और कहा, “तुम डरो मत, ये लोग हमारा कुछ भी नहीं कर सकते।”

लाली और किशोरी छत की राह जब नीचे उतरीं तो एक छोटी-सी कोठरी में पहुंचीं जो बिल्कुल खाली थी। उसके तीन तरफ दीवार में तीन दरवाजे थे, एक दरवाजा तो सदर था जिसके आगे बाहर की तरफ पहरा पड़ा करता था, दूसरा दरवाजा खुला हुआ था और मालूम होता था किसी दालान या कमरे में जाने का रास्ता है। लाली ने जल्दी में केवल इतना ही कहा कि ‘ताली लेने के लिए इसी राह से एक मकान में मैं गई थी’ और तीसरी तरफ एक छोटा-सा दरवाजा था जिसका ताला किवाड़ के पल्ले ही में जड़ा हुआ था। लाली ने वही ताली जो इस अजायबघर में से ले गई थी लगाकर उस दरवाजे को खोला, दोनों उसके अंदर घुसीं, लाली ने फिर उस ताली से मजबूत दरवाजे को अंदर की तरफ से बंद कर लिया, ताला इस ढंग से जड़ा हुआ था कि वही ताली बाहर और भीतर दोनों तरफ लग सकती थी।1 लाली ने यह काम बड़ी फुर्ती से किया, यहां तक कि उसके अंदर चले जाने के बाद तब टूटी हुई छत की राह वे लोग जो लाली और किशोरी को पकड़ने के लिए आ रहे थे नीचे इस कोठरी में उतर सके। भीतर से ताला बंद करके लाली ने कहा, “अब हम लोग निश्चिंत हुए, डर केवल इतना ही है कि किसी दूसरी राह से कोई आकर हम लोगों को तंग न करे, पर जहां तक मैं जानती हूं और जो कुछ मैंने सुना है उससे तो विश्वास है कि इस अजायबघर में आने के लिए और कोई राह नहीं है।”

लाली और किशोरी अब एक ऐसे घर में पहुंचीं जिसकी छत बहुत ही नीची थी, यहां तक कि हाथ उठाने से छत छूने में आती थी। यह घर बिल्कुल अंधेरा था। लाली ने अपनी गठरी खोली और सामान निकालकर मोमबत्ती जलाई। मालूम हुआ कि यह एक कोठरी है जिसके चारों तरफ की दीवार पत्थर की बनी हुई तथा बहुत ही चिकनी और मजबूत है। लाली खोजने लगी कि इस मकान से किसी दूसरे मकान में जाने के लिए रास्ता या दरवाजा है या नहीं।

जमीन में एक दरवाजा बना हुआ दिखा जिसे लाली ने खोला और हाथ में मोमबत्ती लिए नीचे उतरी। लगभग बीस-पचीस सीढ़ियां उतरकर दोनों एक सुरंग में पहुंचीं जो बहुत दूर तक चली गई थी। ये दोनों लगभग तीन सौ कदम के गई होंगी कि यह आवाज दोनों के कानों में पहुंची – “हाय, एक ही दफे मार डाल, क्यों दुख देता है।”

यह आवाज सुनकर किशोरी कांप गई और उसने रुककर लाली से पूछा, “बहिन, यह आवाज कैसी है आवाज बारीक है और किसी औरत की मालूम होती है।”

लाली – मुझे मालूम नहीं कि यह आवाज कैसी है और न इसके बारे में बूढ़ी मांजी ने मुझे कुछ कहा ही था।

किशोरी – मालूम पड़ता है कि किसी औरत को कोई दुख दे रहा है, कहीं ऐसा न हो कि वह हम लोगों को भी सतावे, हम दोनों का हाथ खाली है, एक छुरा तक पास में नहीं।

लाली – मैं अपने साथ दो छुरे लाई हूं, एक अपने वास्ते और एक तेरे वास्ते। (कमर से एक छुरा निकालकर और किशोरी के हाथ में देकर) ले एक तू रख। मुझे खूब याद है, एक दफे तूने कहा था कि मैं यहां रहने की बनिस्बत मौत पसंद करती हूं, फिर क्यों डरती है देख मैं तेरे साथ जान देने को तैयार हूं।

किशोरी – बेशक मैंने ऐसा कहा था और अब भी कहती हूं, चलो बढ़ो अब कोई हर्ज नहीं, छुरा हाथ में है और ईश्वर मालिक है।

दोनों फिर आगे बढ़ीं, बीस-पचीस कदम और जाकर सुरंग खतम हुई और दोनों एक दालान में पहुंचीं। यहां एक चिराग जल रहा था, कम-से-कम सेर भर तेल उसमें होगा, रोशनी चारों तरफ फैली हुई थी और यहां की हर एक चीज साफ दिखाई दे रही थी। इस दालान के बीचोंबीच एक खंभा था और उसके साथ एक हसीन, नौजवान और खूबसूरत औरत जिसकी उम्र बीस वर्ष से ज्यादे न होगी बंधी हुई थी, उसके पास ही छोटी-सी पत्थर की चौकी पर साफ और हल्की पोशाक पहिरे एक बुड्ढा बैठा हुआ छुरे से कोई चीज काट रहा था, इसका मुंह उसी तरफ था जिधर लाली और किशोरी खड़ी वहां की कैफियत देख रही थीं। उस बूढ़े के सामने भी एक चिराग जल रहा था जिससे उसकी सूरत साफ-साफ मालूम होती थी। उस बुड्ढे की उम्र लगभग सत्तर वर्ष के होगी, उसकी सफेद दाढ़ी नाभि तक पहुंचती थी और दाढ़ी तथा मूंछों ने उसके चेहरे का ज्यादा भाग छिपा रखा था।

उस दालान की ऐसी अवस्था देखकर किशोरी और लाली दोनों हिचकीं और उन्होंने चाहा कि पीछे की तरफ मुड़ चलें मगर पीछे फिरकर कहां जाएं इस विचार ने उनके पैर उसी जगह जमा दिये। उन दोनों के पैर की आहट इस बुड्ढे ने भी पाई, सिर उठाकर उन दोनों की तरफ देखा और कहा – “वाह-वाह, लाली और किशोरी भी आ गईं। आओ-आओ, मैं बहुत देर से राह देख रहा था।”

बयान 2

कंचनसिंह के मारे जाने और कुंअर इंद्रजीतसिंह के गायब हो जाने से लश्कर में बड़ी हलचल मच गई। पता लगाने के लिए चारों तरफ जासूस भेजे गये। ऐयार लोग भी इधर-उधर फैल गये और फसाद मिटाने के लिए दिलोजान से कोशिश करने लगे। राजा वीरेंद्रसिंह से इजाजत लेकर तेजसिंह भी रवाना हुए और भेष बदलकर रोहतासगढ़ किले के अंदर चले गये। किले के सदर दरवाजे पर पहरे का पूरा इंतजाम था मगर तेजसिंह की फकीरी सूरत पर किसी ने शक न किया।

साधू की सूरत बने हुए तेजसिंह सात दिन तक रोहतासगढ़ किले के अंदर घूमते रहे। इस बीच में उन्होंने हर एक मोहल्ला, बाजार, गली, रास्ता, देवल, धर्मशाला इत्यादि को अच्छी तरह देख और समझ लिया, कई बार दरबार में भी जाकर राजा दिग्विजयसिंह और उसके दीवान तथा ऐयारों की चाल और बातचीत के ढंग पर ध्यान दिया और यह भी मालूम किया कि राजा दिग्विजयसिंह किस-किस को चाहता है, किस-किस की खातिर करता है, और किस-किस को अपना विश्वासपात्र समझता है। इन सात दिन के बीच में तेजसिंह को कई बार चोबदार और औरत बनने की जरूरत पड़ी और अच्छे-अच्छे घरों में घुसकर वहां की कैफियत और हालत को भी देख-सुन आये। एक दफे तेजसिंह उस शिवालय में भी गये जिसमें भैरोसिंह और बद्रीनाथ ने ऐयारी की थी या जहां से कुंअर कल्याणसिंह को पकड़ ले गये थे।

तेजसिंह ने उस शिवालय के रहने वालों तथा पुजारियों की अजब हालत देखी। जब से कुंअर कल्याणसिंह गिरफ्तार हुए थे तब से उन लोगों के दिल में ऐसा डर समा गया था कि वे बात-बात में चौंकते और डरते थे, रात में एक पत्ती के खड़कने से भी किसी ऐयार के आने का गुमान होता था, साधू-ब्राह्मणों की सूरत से उन्हें घृणा हो गई थी, किसी संन्यासी, ब्राह्मण, साधू को देखा और चट बोल उठे कि ऐयार है, किसी मजदूर को भी अगर मंदिर के आगे खड़ा पाते तो चट उसे ऐयार समझ लेते और जब तक गर्दन में हाथ दे हाते के बाहर न कर देते चैन न लेते! इत्तिफाक से आज तेजसिंह भी साधू की सूरत बने शिवालय में जा डटे। पुजारियों ने देखते ही गुल करना शुरू किया कि ‘ऐयार है, ऐयार है, धरो, पकड़ो, जाने न पाए!’ बेचारे तेजसिंह बड़ा घबराए और ताज्जुब करने लगे कि इन लोगों को कैसे मालूम हो गया कि हम ऐयार हैं क्योंकि तेजसिंह को इस बात का गुमान भी न था कि यहां के रहने वाले कुत्ते, बिल्ली को भी ऐयार समझते हैं, मगर यकायक वहां से भाग निकलना भी मुनासिब न समझाकर रुके और बोले –

तेज – तुम कैसे जानते हो कि हम ऐयार हैं

एक पुजारी – अजी हम खूब जानते हैं कि सिवाय ऐयार के कोई दूसरा हमारे सामने आ नहीं सकता है! अजी तुम्हीं लोग तो हमारे कुंअर साहब को पकड़ ले गये हो या कोई दूसरा बस-बस यहां से चले जाओ, नहीं तो कान पकड़ के खा जाएंगे।

‘बस – बस, यहां से चले जाओ’ इत्यादि सुनते ही तेजसिंह समझ गये कि ये लोग बेवकूफ हैं, अगर हमारे ऐयार होने का इन्हें विश्वास होता तो ये लोग ‘चले जाओ’ कभी न कहते बल्कि हमें गिरफ्तार करने का उद्योग करते, बस इन्हें भैरोसिंह और बद्रीनाथ डरा गये और कुछ नहीं।

तेजसिंह खड़े सोच ही रहे थे कि इतने में एक लंगड़ा भिखमंगा हाथ में ठीकरा लिये लाठी टेकता वहां आ पहुंचा और पुजारीजी की जयजयकार करने लगा। सूरत देखते ही पुजारी चिल्ला उठा और बोला, “लो देखो, एक दूसरा ऐयार भी आ पहुंचा, अबकी शैतान लंगड़ा बनकर आया है, जानता नहीं कि हम लोग बिना पहचाने नहीं रहेंगे, भाग नहीं तो सिर तोड़ डालूंगा।”

अब तेजसिंह को पूरा विश्वास हो गया कि ये लोग सिड़ी हो गये हैं, जिसे देखते हैं उसे ही ऐयार समझ लेते हैं। तेजसिंह वहां से लौटे और सोचते हुए खिड़की की राह2 दीवार के पार हो जंगल में चले गए कि अब यहां के ऐयारों से मिलना चाहिए और देखना चाहिए कि वे कैसे हैं और ऐयारी के फन में कितने तेज हैं।

इस किले के अंदर गांजा पिलाने वालों की कई दुकानें थीं जिन्हें यहां वाले ‘अड्डा’ कहा करते थे। चिराग जलने के बाद ही से गंजेड़ी लोग वहां जमा होते जिन्हें अड्डे का मालिक गांजा बनाकर पिलाता और उनसे एवज में पैसे वसूल करता। वहां तरह-तरह की गप्पें उड़ा करती थीं जिनसे शहर भर का हाल झूठ-सच मिला-जुला लोगों को मालूम हो जाया करता था।

शाम होने के पहले ही तेजसिंह जंगल से लौटे, लकड़हारों के साथ-साथ बैरागी के भेष में किले के अंदर दाखिल हुए और सीधे अड्डे पर चले गये जहां गंजेड़ी दम पर दम लगाकर धुएं का गुब्बार बांध रहे थे। यहां तेजसिंह का बहुत कुछ काम निकला और उन्हें मालूम हो गया कि महाराज के यहां केवल दो ऐयार हैं, एक का नाम रामानंद, दूसरे का नाम गोविंदसिंह है। गोविंदसिंह तो कुंअर कल्याणसिंह को छुड़ाने के लिए चुनार गया हुआ है, बाकी रामानंद यहां मौजूद है। दूसरे दिन तेजसिंह ने दरबार में जाकर रामानंद को अच्छी तरह देख लिया और निश्चय कर लिया कि आज रात को इसी के साथ ऐयारी करेंगे क्योंकि रामानंद का ढांचा तेजसिंह से बहुत कुछ मिलता था और यह भी जाना गया था कि महाराज सबसे ज्यादा रामानंद को मानते हैं और अपना विश्वासपात्र समझते हैं।

आधी रात के समय तेजसिंह सन्नाटा देख रामानंद के मकान में कमंद लगाकर चढ़ गये। देखा कि धुर ऊपर वाले बंगले में रामानंद मसहरी के ऊपर पड़ा खर्राटे ले रहा है, दरवाजे पर पर्दे की जगह पर जाल लटक रहा है जिसमें छोटी-छोटी घंटियां बंधी हुई हैं। पहले तो तेजसिंह ने उसे एक मामूली पर्दा समझा मगर ये तो बड़े ही चालाक और होशियार थे, यकायक पर्दे पर हाथ डालना मुनासिब न समझकर उसे गौर से देखने लगे। जब मालूम हुआ कि नालायक ने इस जालदार पर्दे में बहुत-सी घंटिया लटका रखी हैं तो समझ गए कि यह बड़ा ही बेवकूफ है, समझता है कि इन घंटियों के लटकाने से हम बचे रहेंगे। इस घर में जब कोई पर्दा हटाकर आवेगा तो घंटियों की आवाज से हमारी आंख खुल जायगी, मगर यह नहीं समझता कि ऐयार लोग बुरे होते हैं।

तेजसिंह ने अपने बटुए में से कैंची निकाली और बहुत सम्हालकर पर्दे से एक-एक करके घंटी काटने लगे। थोड़ी ही देर में सब घंटियों को काट के किनारे कर दिया और पर्दा हटाकर अंदर चले गए। रामानंद अभी तक खर्राटे ले रहा था। तेजसिंह ने बेहोशी की दवा उसके नाक के आगे की, हलका धूरा सांस लेते ही दिमाग में चढ़ गया, रामानंद को एक छींक आई जिससे मालूम हुआ कि अब इसे घंटों तक होश में न आने देगी।

तेजसिंह ने बटुए में से एक अस्तुरा निकालकर रामानंद की दाढ़ी और मूंछ मूंड़ ली और उसके बाल हिफाजत से अपने बटुए में रखकर उसी रंग की दूसरी दाढ़ी और मूंछ उसके लगा दी जो उन्होंने दिन ही में किले के बाहर जंगल में तैयार की थी। तेजसिंह इतने ही काम के लिए रामानंद के मकान पर गए थे और इसे पूरा कर कमंद के सहारे नीचे उतर आए तथा धर्मशाला की तरफ रवाना हुए।

तेजसिंह जब बैरागी साधू के भेष में रोहतासगढ़ किले के अंदर आए थे तो उन्होंने धर्मशाला3 के पास एक बैठक वाले के मकान में छोटी-सी कोठरी किराये पर ले ली थी और उसी में रहकर अपना काम करते थे। उस कोठरी का एक दरवाजा सड़क की तरफ था जिसमें ताला लगाकर उसकी ताली ये अपने पास रखते थे, इसलिए उस कोठरी में आने-जाने के लिए उनको दिन और रात एक समान था।

रामानंद के मकान से जब तेजसिंह अपना काम करके उतरे उस वक्त पहर भर रात बाकी थी। धर्मशाला के पास अपनी कोठरी में गए और सबेरा होने के पहले ही अपनी सूरत रामानंद की-सी बना और वही दाढ़ी और मूंछ जो मूंड लाये थे दुरुस्त करके खुद लगा कोठरी से बाहर निकले और शहर में गश्त लगाने लगे, सबेरा होते तक राजमहल की तरफ रवाना हुए और इत्तिला कराकर महाराज के पास पहुंचे।

हम ऊपर लिख आए हैं कि रोहतासगढ़ में रामानंद और गोविंदसिंह केवल दो ही ऐयार थे। इन दोनों के बारे में इतना लिख देना जरूरी है कि इन दोनों में से गोविंदसिंह तो ऐयारी के फन में बहुत ही तेज और होशियार था और वह दिन-रात वही काम किया करता था। रामानंद भी ऐयारी का फन अच्छी तरह जानता था मगर उसे अपनी दाढ़ी और मूंछ बहुत प्यारी थी इसलिए वह ऐयारी के वे ही काम करता था जिसमें दाढ़ी और मूंछ मुंड़ाने की जरूरत न पड़े और इसलिए महाराज ने भी उसे दीवान का काम दे रखा था। इसमें भी कोई शक नहीं कि रामानंद बहुत ही खुशदिल, मसखरा और बुद्धिमान था और उसने अपनी तदबीर से महाराज का दिल अपनी मुट्ठी में कर लिया था।

रामानंद की सूरत बने हुए तेजसिंह महाराज के पास पहुंचे, मामूल से बहुत पहले रामानंद को आते देख महाराज ने समझा कि कोई नई खबर लाया है।

महाराज – आज तुम बहुत सबेरे आये! क्या कोई नई खबर है?

रामा – (खांसकर) महाराज, हमारे यहां कल तीन मेहमान आये हैं।

महा – कौन-कौन?

रामा – एक तो खांसी जिसने मुझे बहुत ही तंग कर रखा है, दूसरे कुंअर आनंदसिंह, तीसरे उनके चार ऐयार जो आज ही कल में किशोरी को यहां से निकाल ले जाने का दावा रखते हें।

महा – (हंसकर) मेहमान तो बड़े नाजुक हैं। इनकी खातिर का भी कोई इंतजाम किया गया है या नहीं

रामा – इसीलिए तो सरकार मैं आया हूं। कल दरबार में उनके ऐयार मौजूद थे। सबके पहले किशोरी का बंदोबस्त करना चाहिए, उनकी हिफाजत में किसी तरह की कमी न होनी चाहिए।

महा – जहां तक मैं समझता हूं वे लोग किशोरी को तो किसी तरह नहीं ले जा सकते, हां वीरेंद्रसिंह के ऐयारों को जिस तरह भी हो सके गिरफ्तार करना चाहिए।

रामा – वीरेंद्रसिंह के ऐयार तो अब मेरे पंजे से बच नहीं सकते, वे लोग सूरत बदलकर दरबार में जरूर आयेंगे, और ईश्वर चाहे तो आज ही किसी को गिरफ्तार करूंगा मगर वे लोग बड़े ही धूर्त और चालबाज हैं, प्रायः कैदखाने से भी निकल जाया करते हैं।

महा – खैर हमारे तहखाने से निकल जायेंगे तो समझेंगे कि चालाक और धूर्त हैं।

महाराज की इतनी ही बातचीत से तेजसिंह को मालूम हो गया कि यहां कोई तहखाना हे जिसमें कैदी लोग रखे जाते हैं, अब उन्हें यह फिक्र हुई कि जहां तक हो सके इस तहखाने का ठीक-ठीक हाल मालूम करना चाहिए। यह सोच तेजसिंह ने अपनी लच्छेदार बातचीत से महाराज को ऐसा उलझाया कि मामूली समय से भी आधे घंटे की देर हो गई। ऐसा करने से तेजसिंह का अभिप्राय यह था कि देर होने से असली रामानंद अवश्य महाराज के पास आवेगा और मुझे देख चौंकेगा, उसी समय मैं अपना काम निकाल लूंगा जिसके लिए उसकी दाढ़ी-मूंछ लाया हूं, और आखिर तेजसिंह का सोचना ठीक भी निकला।

तेजसिंह रामानंद की सूरत में जिस समय महाराज के पास आये थे उस समय ड्योढ़ी पर जितने सिपाही पहरा दे रहे थे सब बदल गए और दूसरे सिपाही अपनी बारी के अनुसार ड्योढ़ी के पहरे पर मुस्तैद हुए जो इस बात से बिल्कुल ही बेखबर थे कि रामानंद महाराज से मिलने के लिए महल में गये हैं।

ठीक समय पर दरबार लग गया। बड़े-बड़े ओहदेदार, नायब, दीवान, तहसीलदार, मुंशी, मुत्सद्दी इत्यादि और मुसाहब लोग दरबार में आकर जमा हो गये। असली रामानंद अपनी दीवान की गद्दी पर आकर बैठ गया मगर अपनी दाढ़ी की तरफ से बिल्कुल ही बेखबर था। उसे तेजसिंह का मामला कुछ भी मालूम न था, तो भी यह जानने के लिए वह बड़ी उलझन में पड़ा हुआ था कि उस दरवाजे के जालीदार पर्दे में की घंटियां किसने काट डाली थीं। घर भर के आदमियों से उसने पूछा और पता लगाया मगर पता न लगा, इससे उसके दिल में शक हुआ कि इस मकान में जरूर कोई ऐयार आया मगर उसने आकर क्या किया सो नहीं जाना जाता, हां मेरे इस खयाल को उसने जरूर मटियामेट कर दिया कि घंटियां लगे हुए जालीदार पर्दे के अंदर मेरे कमरे में चुपके से कोई नहीं आ सकता, उसने बता दिया कि यों आ सकता है। बेशक मेरी भूल थी कि उस पर्दे पर इतना भरोसा रखता था, पर तो क्या खाली यही बताने के लिये वह ऐयार आया था।

इन्हीं सब बातों को सोचता हुआ रामानंद अपने जरूरी कामों से छुट्टी पा दरबारी कपड़े पहन बन-ठनकर दरबार की ओर रवाना हुआ। बेशक आज उसे कुछ देरी हो गई थी और वह सोच रहा था कि महाराज दरबार में जरूर आ गये होंगे, मगर वहां पहुंचकर उसने गद्दी खाली देखी और पूछने से मालूम हुआ कि अभी तक महाराज के आने की कोई खबर नहीं। रामानंद क्या सभी दरबारी ताज्जुब कर रहे थे कि आज महाराज को देर क्यों हुई।

रामानंद को महाराज बहुत मानते थे, यह उनका मुंहलगा था, इसीलिए सभों ने वहां जाकर हाल मालूम करने के लिए इसको ही कहा। रामानंद खुद भी घबराया हुआ था और महाराज का हाल मालूम किया चाहता था, अस्तु थोड़ी देर बैठकर वहां से रवाना हुआ और ड्योढ़ी पर पहुंचकर इत्तिला करवार्ई।

रामानंद रूपी तेजसिंह बैठे महाराज से बातें कर रहे थे कि एक खिदमतगार आया और हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया। उसकी सूरत से मालूम होता था कि वह घबराया हुआ है और कुछ कहना चाहता है मगर आवाज मुंह से नहीं निकलती। तेजसिंह समझ गये कि अब कुछ गुल लिखा चाहता है, आखिर खिदमतगार की तरफ देखकर बोले –

तेज – क्यों क्या कहना चाहता है

खिद – मैं ताज्जुब के साथ यह इत्तिला करते डरता हूं कि दीवान साहब (रामानंद) ड्योढ़ी पर हाजिर हैं।

महा – रामानंद!

खिद – जी हां।

महा – (तेजसिंह की तरफ देखकर) यह क्या मामला है

तेज – (मुस्कुराकर) महाराज, बस अब काम निकला ही चाहता है। मैं जो कुछ अर्ज कर चुका वही बात है। कोई ऐयार मेरी सूरत बना आया है और आपको धोखा दिया चाहता है, लीजिये इस कम्बख्त को तो मैं अभी गिरफ्तार करता हूं फिर देखा जायगा। सरकार उसे हाजिर होने का हुक्म दें फिर देखें मैं क्या तमाशा करता हूं। मुझे जरा छिप जाने दें, वह आकर बैठ जाय तो मैं उसका पर्दा खोलूं।

महा – तुम्हारा कहना ठीक है, बेशक कोई ऐयार है, अच्छा तुम छिप जाओ, मैं उसे बुलाता हूं।

तेज – बहुत खूब, मैं छिप जाता हूं, मगर ऐसा है कि सरकार उसकी दाढ़ी-मूंछ पर खूब ध्यान दें, मैं यकायक पर्दे से निकलकर उसकी दाढ़ी उखाड़ लूंगा क्योंकि नकली दाढ़ी जरा ही-सा झटका चाहती है।

महा – (हंसकर) अच्छा-अच्छा, (खिदमतगार की तरफ देखकर) देख उससे और कुछ मत कहियो, केवल हाजिर होने का हुक्म सुना दे।

तेजसिंह दूसरे कमरे में जाकर छिप रहे और असली रामानंद धीरे-धीरे वहां पहुंचे जहां महाराज विराज रहे थे। रामानंद को ताज्जुब था कि आज महाराज ने देर क्यों लगाई, इससे उसका चेहरा भी कुछ उदास-सा हो रहा था। दाढ़ी तो वही थी जो तेजसिंह ने लगा दी थी। तेजसिंह ने दाढ़ी बनाते समय जान-बूझकर कुछ फर्क डाल दिया था, जिस पर रामानंद ने तो कुछ ध्यान न दिया मगर वही फर्क अब महाराज की आंखों में खटकने लगा। जिस निगाह से कोई किसी बहरूपिये को देखता है उसी निगाह से बिना कुछ बोले-चाले महाराज अपने दीवान साहब को देखने लगे। रामानंद यह देखकर और भी उदास हुआ कि इस समय महाराज की निगाह में अंतर क्यों पड़ गया है।

तरद्दुद और ताज्जुब के सबब रामानंद के चेहरे का रंग जैसे-जैसे बदलता गया तैसे-तैसे उसके ऐयार होने का शक भी महाराज के दिल में बैठ गया। कई सायत बीतने पर भी न तो रामानंद ही कुछ पूछ सका और न महाराज ही ने उसे बैठने का हुक्म दिया। तेजसिंह ने अपने लिए यह मौका बहुत अच्छा समझा, झट बाहर निकल आये और हंसते हुए एक फर्शी सलाम उन्होंने रामानंद को किया। ताज्जुब और डर से रामानंद के चेहरे का रंग उड़ गया और वह एकटक तेजसिंह की तरफ देखने लगा।

ऐयारी भी कठिन है। इस फन में सबसे भारी हिस्सा जीवट का है। जो ऐयार जितना डरपोक होगा उतना ही जल्द फंसेगा। तेजसिंह को देखिए, किस जीवट का ऐयार है कि दुश्मन के घर में घुसकर भी जरा नहीं डरता और दिन दोपहर सच्चे को झूठा बना रहा है! ऐसे समय अगर जरा भी उसके चेहरे पर खौफ या तरद्दुद की निशानी आ जाय तो ताज्जुब नहीं कि वह खुद फंस जाय।

तेजसिंह ने रामानंद को बात करने की भी मोहलत न दी, हंसकर उसकी तरफ देखा और कहा, “क्यों बे! क्या महाराज दिग्विजयसिंह के दरबार को तैंने ऐसा-वैसा समझ रखा है! क्या तू यहां भी ऐयारी से काम निकालना चाहता है यहां तेरी कारीगरी न लगेगी, देख तेरी गदहे की-सी मुटाई मैं पिचकाता हूं।”

तेजसिंह ने फुर्ती से रामानंद की दाढ़ी पर हाथ डाल दिया और महाराज को दिखाकर एक झटका दिया। झटका तो जोर से दिया मगर इस ढंग से कि महाराज को बहुत हल्का झटका मालूम हो। रामानंद की नकली दाढ़ी अलग हो गई।

इस तमाशे ने रामानंद को पागल-सा बना दिया। उसके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं। यह समझकर कि यह ऐयार मुझ सच्चे को झूठा किया चाहता है उसे क्रोध चढ़ आया और वह खंजर निकालकर तेजसिंह पर झपटा, पर तेजसिंह वार बचा गए। महाराज को रामानंद पर और भी शक बैठ गया। उन्होंने उठकर रामानंद की कलाई जिसमें खंजर लिए था मजबूती से पकड़ ली और एक घूंसा उसके मुंह पर दिया। ताकतवर महाराज के हाथ का घूंसा खाते ही रामानंद का सिर घूम गया और वह जमीन पर बैठ गया। तेजसिंह ने जेब से बेहोशी की दवा निकाली और जबर्दस्ती रामानंद को सुंघा दी।

महा – क्यों इसे बेहोश क्यों कर दिया?

तेज – महाराज, गुस्से में आया हुआ और अपने को फंसा जान यह ऐयार न मालूम कैसी-कैसी बेहूदी बातें बकता, इसलिए इसे बेहोश कर दिया। कैदखाने में ले जाने के बाद फिर देखा जायगा।

महा – खैर यह भी अच्छा ही किया, अब मुझसे ताली लो और तहखाने में ले जाकर इसे दारोगा के सुपुर्द करो।

महाराज की बात सुन तेजसिंह घबराये और सोचने लगे कि अब बुरी हुई। महाराज से तहखाने की ताली लेकर कहां जाऊं मैं क्या जानूं तहखाना कहां है और दारोगा कौन है! बड़ी मुश्किल हुई! अगर जरा भी नाहीं-नुकर करता हूं तो उल्टी आंतें गले पड़ती हैं। आखिर कुछ सोच-विचारकर तेजसिंह ने कहा –

तेज – महाराज भी साथ चलें तो ठीक है।

महा – क्यों?

तेज – दारोगा साहब इस ऐयार को और मुझे देखकर घबरायेंगे और उन्हें न जाने क्या-क्या शक पैदा हो। यह पाजी अगर होश में आ जायेगा तो जरूर कुछ बात बनावेगा, आप रहेंगे तो दारोगा को किसी तरह का शक न होगा।

महा – (हंसकर) अच्छा चलो हम भी चलते हैं।

तेज – हां महाराज, फिर मुझे पीठ पर यह भारी लाश लादे ताला खोलने और बंद करने में भी मुश्किल होगी।

महाराज ने अपने कलमदान में से ताली निकाली और खिदमतगार से एक लालटेन मंगवाकर साथ ले ली। तेजसिंह ने रामानंद की गठरी बांध पीठ पर लादी। तेजसिंह को साथ लिए हुए महाराज अपने सोने वाले कमरे में गये और दीवार में जड़ी हुई एक अलमारी का ताला खोला। तेजसिंह ने देखा कि दीवार पोली है और उस जगह से नीचे उतरने का एक रास्ता है। रामानंद की गठरी लिए हुए महाराज के पीछे-पीछे तेजसिंह नीचे उतरे, एक दालान में पहुंचने के बाद छोटी-सी कोठरी में जाकर दरवाजा खोला और बहुत बड़ी बारहदरी में पहुंचे। तेजसिंह ने देखा कि बारहदरी के बीचोंबीच में छोटी-सी गद्दी लगाए एक बूढ़ा बैठा कुछ लिख रहा है जो महाराज को देखते ही उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर सामने आया।

महा – दारोगा साहब, देखिए आज रामानंद ने दुश्मन के एक ऐयार को फांसा है, इसे अपनी हिफाजत में रखिए।

तेज – (पीठ से गठरी उतार और उसे खोलकर) लीजिए, इसे सम्हालिए, अब आप जानिए।

दारोगा – (ताज्जुब से) क्या यह दीवान साहब की सूरत बनाकर आया था

तेज – जी हां, इसने मुझी को फजूल समझा।

महा – (हंसकर) खैर चलो, अब दारोगा साहब इसका बंदोबस्त कर लेंगे।

तेज – महाराज, यदि आज्ञा हो तो मैं ठहर जाऊं और इस नालायक को होश में लाकर अपने मतलब की बातों का कुछ पता लगाऊं, सरकार को भी अटकने के लिए मैं कहता परंतु दरबार का समय बिल्कुल निकल जाने और दरबार न करने से रियाया के दिल में तरह-तरह के शक पैदा होंगे और आजकल ऐसा न होना चाहिए।

महा – तुम ठीक कहते हो, अच्छा मैं जाता हूं, अपनी ताली साथ लिए जाता हूं और ताला बंद करता जाता हूं, तुम दूसरी राह से दारोगा के साथ आना। (दारोगा की तरफ देखकर) आप भी आइएगा और अपना रोजनामचा लेते आइएगा।

तेजसिंह को उसी जगह छोड़ महाराज चले गए। रामानंद रूपी तेजसिंह को लिए दारोगा साहब अपनी गद्दी पर आये और अपनी जगह तेजसिंह को बैठाकर आप नीचे बैठे। तेजसिंह ने आधे घंटे तक दारोगा को अपनी बातों में खूब ही उलझाया इसके बाद यह कहते हुए उठे, “अच्छा अब इस ऐयार को होश में लाकर मालूम करना चाहिए कि यह कौन है” और ऐयार के पास आए। अपनी जेब में हाथ डाल लखलखे की डिबिया खोजने लगे, आखिर बोले, “ओफओह, लखलखे की डिबिया तो दीवानखाने में ही भूल आये, अब क्या किया जाय।’

दारोगा – मेरे पास लखलखे की डिबिया है, हुक्म हो तो लाऊं।

तेज – लाइए मगर आपके लखलखे से यह होश में न आयेगा क्योंकि जो बेहोशी की दवा इसे दी गई वह मैंने नये ढंग से बनाई है और उसके लिए लखलखे का नुस्खा भी दूसरा है, खैर लाइये तो सही शायद काम चल जाय।

“बहुत अच्छा” कहकर दारोगा साहब लखलखा लेने चले गये, इधर निराला पाकर तेजसिंह ने दूसरी डिबिया जेब से निकाली जिसमें लाल रंग की कोई बुकनी थी, एक चुटकी रामानंद के नाक में सांस के साथ चढ़ा दी और निश्चिंत होकर बैठे। अब सिवा तेजसिंह के दूसरे का बनाया लखलखा उसे कब होश में ला सकता है, हां दो-एक रोज तक पड़े रहने पर वह आप से आप चाहे भले ही होश में आ जाए।

दमभर में दारोगा साहब लखलखे की डिबिया ले आ पहुंचे, तेजसिंह ने कहा, “बस आप ही सुंघाइये और देखिये इस लखलखे से कुछ काम निकलता है या नहीं।”

दारोगा साहब ने लखलखे की डिबिया बेहोश रामानंद के नाक से लगाई पर क्या असर होना था, लाचार तेजसिंह का मुंह देखने लगे।

तेज – क्यों व्यर्थ मेहनत करते हैं, मैं पहले ही कह चुका हूं कि लखलखे से काम नहीं चलेगा। चलिये महाराज के पास चलें, इसे यों ही रहने दीजिये, अपना लखलखा लेकर फिर लौटेंगे तो काम चलेगा।

दारोगा – जैसी मर्जी, इस लखलखे से तो काम नहीं चलता।

दारोगा साहब ने रोजनामचे की किताब बगल में दाबी और तालियों का झब्बा और लालटेन हाथ में लेकर रवाना हुए। एक कोठरी में घुसकर दारोगा साहब ने दूसरा दरवाजा खोला, ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियां नजर आईं। ये दोनों ऊपर चढ़ गये और दो-तीन कोठरियों से घुसते हुए एक सुरंग में पहुंचे। दूर तक चले जाने के बाद इनका सिर छत से अड़ा। दारोगा ने एक सुराख में ताली लगाई और खटका दबाया, एक पत्थर का टुकड़ा अलग हो गया और ये दोनों बाहर निकले। यहां तेजसिंह ने अपने को एक कब्रिस्तान में पाया।

इस संतति के तीसरे भाग के चौदहवें बयान में हम इस कब्रिस्तान का हाल लिख चुके हैं। इसी राह से कुंअर आनंदसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह उस तहखाने में गये थे। इस समय हम जो हाल लिख रहे हैं वह कुंअर आनंदसिंह के तहखाने में जाने के पहले का है, सिलसिला मिलाने के लिए फिर पीछे की तरफ लौटना पड़ा। तहखाने के हर एक दरवाजे में पहले ताला लगा रहता था मगर जब से तेजसिंह ने इसे अपने कब्जे में कर लिया (जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा) तब से ताला लगाना बंद हो गया, केवल खटकों पर ही कार्रवाई रह गई।

तेजसिंह ने चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखा और मालूम किया कि इस जंगल में जासूसी करते हुए कई दफे आ चुके हैं और इस कब्रिस्तान में भी पहुंच चुके हैं मगर जानते नहीं थे कि यह कब्रिस्तान क्या है और किस मतलब से बना हुआ है। अब तेजसिंह ने सोच लिया कि हमारा काम चल गया, दारोगा साहब को इसी जगह फंसाना चाहिए जाने न पावें।

तेज – दारोगा साहब, हकीकत में तुम बड़े ही जूतीखोर हो।

दारोगा – (ताज्जुब से तेजसिंह का मुंह देख के) मैंने क्या कसूर किया है जो आप गाली दे रहे हैं ऐसा तो कभी नहीं हुआ था!

तेज – फिर मेरे सामने गुर्राता है! कान पकड़ के उखाड़ लूंगा!

दारोगा – आज तक महाराज ने भी कभी मेरी ऐसी बेइज्जती नहीं की थी।

तेजसिंह ने दारोगा को एक लात ऐसी मारी कि बेचारा धम्म से जमीन पर गिर पड़ा। तेजसिंह उसकी छाती पर चढ़ बैठे और बेहोशी की दवा जबर्दस्ती नाक में ठूंस दी। बेचारा दारोगा बेहोश हो गया। तेजसिंह ने दारोगा की कमर से और अपनी कमर से भी चादर खोली और उसी में दारोगा की गठरी बांध ताली का गुच्छा और रोजनामचे की किताब भी उसी में रख पीठ पर लाद तेजी के साथ अपने लश्कर की तरफ रवाना हुए तथा दोपहर दिन चढ़ते-चढ़ते राजा वीरेंद्रसिंह के खेमे में जा पहुंचे। पहले तो रामानंद की सूरत देख वीरेंद्रसिंह चौंके मगर जब बंधे हुए इशारे से तेजसिंह ने अपने को जाहिर किया तो वे बहुत ही खुश हुए।

बयान 3

तेजसिंह के लौट आने से राजा वीरेंद्रसिंह बहुत खुश हुए और उस समय तो उनकी खुशी और भी ज्यादे हो गई जब तेजसिंह ने रोहतासगढ़ आकर अपनी कार्रवाई करने का खुलासा हाल कहा। रामानंद की गिरफ्तारी का हाल सुनकर हंसते-हंसते लोट गये मगर साथ ही इसके कि कुंअर इंद्रजीतसिंह का पता रोहतासगढ़ में नहीं लगता बल्कि मालूम होता है कि रोहतासगढ़ में नहीं हैं, राजा वीरेंद्रसिंह उदास हो गये। तेजसिंह ने उन्हें हर तरह से समझाया और दिलासा दिया। थोड़ी देर बाद तेजसिंह ने अपने दिल की वे सब बातें कहीं जो वे किया चाहते थे, वीरेंद्रसिंह ने उनकी राय बहुत पसंद की और बोले –

वीरेंद्र – तुम्हारी कौन-सी ऐसी तरकीब है जिसे मैं पसंद नहीं कर सकता! हां यह कहो कि इस समय अपने साथ किस ऐयार को ले जाओगे

तेज – मुझे तो इस समय कई ऐयारों की जरूरत थी मगर यहां केवल चार मौजूद हैं और बाकी सब कुंअर इंद्रजीतसिंह का पता लगाने गये हैं, खैर कोई हर्ज नहीं! पंडित बद्रीनाथ को तो इसी लश्कर में रहने दीजिए, उन्हें किसी दूसरी जगह भेजना मैं मुनासिब नहीं समझता क्योंकि यहां बड़े ही चालाक और पुराने ऐयार का काम है, बाकी ज्योतिषीजी, भेरों और तारा को मैं अपने साथ ले जाऊंगा।

वीरेंद्र – अच्छी बात है, इन तीनों से तुम्हारा काम बखूबी चलेगा।

तेज – जी नहीं, मैं तीनों ऐयारों को अपने साथ नहीं रखा चाहता बल्कि भैरों और तारा को तो वहां का रास्ता दिखाकर वापस कर दूंगा, इसके बाद वे दोनों थोड़े से लड़कों को मेरे पास पहुंचाकर फिर आपको या कुंअर आनंदसिंह को लेकर मेरे पास आवेंगे, तब वह सब कार्रवाई की जायगी जो मैं आपसे कह चुका हूं।

वीरेंद्र – और यह दारोगा वाली किताब जो तुम ले आये हो क्या होगी

तेज – इसे फिर अपने साथ ले जाऊंगा और मौका मिलने पर शुरू से आखिर तक पढ़ जाऊंगा, यही तो एक चीज हाथ लगी है।

वीरेंद्र – बेशक उम्दा चीज है, (किताब तेजसिंह के हाथ से लेकर) रोहतासगढ़ तहखाने का कुल हाल इससे तुम्हें मालूम हो जायगा बल्कि इसके अलावे वहां का और भी बहुत कुछ भेद मालूम होगा।

तेज – जी हां, इसमें दारोगा ने रोज-रोज का हाल लिखा है, मैं समझता हूं वहां ऐसी-ऐसी और भी कई किताबें होंगी जो इसके पहले के और दारोगाओं के हाथ से लिखी गई होंगी।

वीरेंद्र – जरूर होंगी, और इससे उस तहखाने के खजाने का भी पता लगता है।

तेज – लीजिए अब यह खजाना भी हमीं लोगों का हुआ चाहता है! अब हमें यहां देर न करके बहुत जल्द वहां पहुंचना चाहिए, क्योंकि दिग्विजयसिंह मुझे और दारोगा को अपने पास बुला गया था, देर हो जाने पर वह फिर तहखाने में आवेगा और किसी को न देखेगा तो सब काम ही चौपट हो जायगा।

वीरेंद्र – ठीक है, अब तुम जाओ देर मत करो।

कुछ जलपान करने के बाद ज्योतिषीजी, भैरोसिंह और तारासिंह को साथ लिए हुए तेजसिंह वहां से रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुए और दो घंटे दिन रहते ही तहखाने में जा पहुंचे। अभी तक तेजसिंह रामानंद की सूरत में थे। तहखाने का रास्ता दिखाने के बाद भैरोसिंह और तारासिंह को तो वापस किया और ज्योतिषीजी को अपने पास रखा। अब की दफे तहखाने से बाहर निकलने वाले दरवाजे में तेजसिंह ने ताला नहीं लगाया, उन्हें केवल खटकों पर बंद रहने दिया।

दारोगा वाले रोजनामचे के पढ़ने से तेजसिंह को बहुत-सी बातें मालूम हो गईं जिन्हें यहां लिखने की कोई जरूरत नहीं, समय-समय पर आप ही मालूम हो जायगा, हां उनमें से एक बात यहां लिख देना जरूरी है। जिस दालान में दारोगा रहता था उसमें एक खंभे के साथ लोहे की एक तार बंधी हुई थी जिसका दूसरा सिरा छत में सूराख करके ऊपर की तरफ निकाल दिया गया था। तेजसिंह को किताब के पढ़ने से मालूम हुआ कि इस तार को खींचने या हिलाने से वह घंटा बोलेगा जो खास दिग्विजयसिंह के दीवानखाने में लगा हुआ है क्योंकि उस तार का दूसरा सिरा उसी घंटे से बंधा है। जब किसी तरह की मदद की जरूरत पड़ती थी तब दारोगा उस तार को छेड़ता था। उस दालान की बगल की एक कोठरी के अंदर भी एक बड़ा-सा घंटा लटकता था जिसके साथ बंधी हुई लोहे की तार का दूसरा हिस्सा महाराज के दीवानखाने में था। महाराज भी जब तहखाने वालों को होशियार किया चाहते थे या और कोई जरूरत पड़ती थी तो ऊपर लिखी रीति से वह तहखाने वाला घंटा भी बजाया जाता और यह काम केवल महाराज का था क्योंकि तहखाने का हाल बहुत गुप्त था, तहखाना कैसा है और उसके अंदर क्या होता है यह हाल सिवाय खास-खास आठ-दस आदमियों के और किसी को भी मालूम न था, इसके भेद मंत्र की तरह गुप्त रखे जाते थे।

हम ऊपर लिख आये हैं कि असली रामानंद को ऐयार समझकर महाराज दिग्विजयसिंह तहखाने में ले आए और लौटकर जाते समय नकली रामानंद अर्थात तेजसिंह और दारोगा को कहते गये कि तुम दोनों फुरसत पाकर हमारे पास आना।

महाराज के हुक्म की तामील न हो सकी क्योंकि दारोगा को कैद कर तेजसिंह अपने लश्कर में ले गये और ज्यादा हिस्सा दिन का उधर ही बीत गया था जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं। जब तेजसिंह लौटकर तहखाने में आये तो ज्योतिषीजी को बहुत-सी बातें समझाईं और उन्हें दारोगा बनाकर गद्दी पर बैठाया, उसी समय सामने की कोठरियों में से खटके की आवाज आई। तेजसिंह समझ गये कि महाराज आ रहे हैं, ज्योतिषीजी को तो लिटा दिया और कहा कि “तुम हाय-हाय करो, मैं महाराज से बातचीत करूंगा।” थोड़ी देर में महाराज उस तहखाने में उसी राह से आ पहुंचे जिस राह से तेजसिंह को साथ लाए थे।

महा – (तेजसिंह की तरफ देखकर) रामानंद, तुम दोनों को हम अपने पास आने के लिए हुक्म दे गये थे, क्यों नहीं आये, और इस दारोगा को क्या हुआ जो हाय-हाय कर रहा है

तेज – महाराज, इन्हीं के सबब से तो आना नहीं हुआ। यकायक बेचारे के पेट में दर्द पैदा हो गई, बहुत-सी तरकीबें करने के बाद अब कुछ आराम हुआ है।

महा – (दारोगा के हाल पर अफसोस करने के बाद) उस ऐयार का कुछ हाल मालूम हुआ

तेज – जी नहीं, उसने कुछ भी नहीं बताया, खैर क्या हर्ज है, दो-एक दिन में पता लग ही जायगा, ऐयार लोग जिद्दी तो होते ही हैं।

थोड़ी देर बाद महाराज दिग्विजय वहां से चले गये। महाराज के जाने के बाद तेजसिंह भी तहखाने से बाहर हुए और महाराज के पास गये। दो घंटे तक हाजिरी देकर शहर में गश्त करने के बहाने से बिदा हुए। पहर रात से कुछ ज्यादा गई थी कि तेजसिंह फिर महाराज के पास गये और बोले –

तेज – मुझे जल्द लौट आते देख महाराज ताज्जुब करते होंगे मगर एक जरूरी खबर देने के लिए आना पड़ा।

महा – वह क्या

तेज – मुझे पता लगा है कि मेरी गिरफ्तारी के लिए कई ऐयार आये हुए हैं, महाराज होशियार रहें। अगर रात भर मैं उनके हाथ से बच गया तो कल जरूर कोई तरकीब करूंगा, यदि फंस गया तो खैर।

महा – तो आज रात भर तुम यहीं क्यों नहीं रहते

तेज – क्या उन लोगों के खौफ से बिना कुछ कार्रवाई किये अपने को छिपाऊं यह नहीं हो सकता।

महा – शाबाश, ऐसा ही मुनासिब है, खैर जाओ जो होगा देखा जायगा।

तेजसिंह घर की तरफ लौटे, रामानंद के घर की तरफ नहीं बल्कि अपने लश्कर की तरफ। उन्होंने इस बहाने अपनी जान बचाई और चलते हुए। सबेरे जब दरबार में रामानंद न आए, महाराज को विश्वास हो गया कि वीरेंद्रसिंह के ऐयारों ने उन्हें फंसा लिया।

बयान 4

अपनी कार्रवाई पूरी करने के बाद तेजसिंह ने सोचा कि अब असली रामानंद को तहखाने से ऐसी खूबसूरती के साथ निकाल लेना चाहिए जिससे महाराज को किसी तरह का शक न हो और यह गुमान भी न हो कि तहखाने में वीरेंद्रसिंह के ऐयार लोग घुसे हैं या तहखाने का हाल किसी दूसरे को मालूम हो गया है, यह काम तभी हो सकता है जब कोई ताजा मुर्दा हाथ लगे।

रोहतासगढ़ से चलकर तेजसिंह अपने लश्कर में पहुंचे और सब हाल वीरेंद्रसिंह से कहने के बाद कई जासूसों को इस काम के लिए रवाना किया कि अगर कहीं कोई ताजा मुर्दा जो सड़ न गया हो या फूल न गया हो मिले तो उठा लावें और लश्कर के पास ही कहीं रखकर हमें इत्तिला दें। इत्तिफाक से लश्कर से दो-तीन कोस की दूरी पर नदी के किनारे एक लावारिस भिखमंगा उसी दिन मरा था जिसे जासूस लोग शाम होते-होते उठा लाये और लश्कर से कुछ दूर रख तेजसिंह को खबर की। भैरोसिंह को साथ लेकर तेजसिंह मुर्दे के पास गये और अपनी कार्रवाई करने लगे।

तेजसिंह ने उस मुर्दे को ठीक रामानंद की सूरत का बनाया और भैरोसिंह की मदद4 से उठाकर रोहतासगढ़ तहखाने के अंदर ले गये और तहखाने के दारोगा (ज्योतिषीजी) के सुपुर्द कर और उसके बारे में बहुत-सी बातें समझा-बुझाकर असली रामानंद को अपने लश्कर में उठा लाये।

तेजसिंह के जाने के बाद हमारे नए दारोगा साहब ने खंभे से बंधे हुए उस तार को खींचा जिसके सबब से दिग्विजयसिंह के दीवानखाने वाला घंटा बोलता था। उस समय दो घंटे रात जा चुकी थी, महाराज अपने कई मुसाहबों को साथ लिए दीवानखाने में बैठे दुश्मन पर फतह पाने के लिए बहुत-सी तरकीबें सोच रहे थे, यकायक घंटे की आवाज सुनकर चौंके और समझ गये कि तहखाने में हमारी जरूरत है। दिग्विजयसिंह उसी समय उठ खड़े हुए और उन जल्लादों को बुलाने का हुक्म दिया जो जरूरत पड़ने पर तहखाने में जाया करते थे और जान के खौफ या नमकहलाली के सबब से वहां का हाल किसी दूसरे से कभी नहीं कहते थे।

महाराज दूसरे कमरे में गए, जब तक कपड़े बदलकर तैयार हों जल्लाद लोग भी हाजिर हुए। ये जल्लाद बड़े ही मजबूत, ताकतवर और कद्दावर थे। स्याह रंग, मूंछें चढ़ी हुई, पोशाक में केवल जांघिया, मिर्जई और कंटोप पहिरे, हाथ में भारी तेगा लिए बड़े ही भयंकर मालूम होते थे। महाराज ने केवल चार जल्लादों को साथ लिया और उसी मालूमी रास्ते से तहखाने में उतर गए। महाराज को आते देख दारोगा चैतन्य हो गया और सामने हाथ जोड़कर बोला, “लाचार महाराज को तकलीफ देनी पड़ी!”

महा – क्या मामला है

दारोगा – वह ऐयार मर गया जिसे दीवान रामानंदजी ने गिरफ्तार किया था।

महा – (चौंककर) हैं, मर गया!

दारोगा – जी हां, मर गया, न मालूम कैसी जहरीली बेहोशी दी गई थी कि जिसका असर यहां तक हुआ।

महा – यह बहुत ही बुरा हुआ, दुश्मन समझेगा कि दिग्विजयसिंह ने जान-बूझकर हमारे ऐयार को मार डाला जो कायदे के बाहर की बात है। दुश्मनों को अब हमसे जिद्द हो जायगी और वे भी कायदे के खिलाफ बेहोशी की जगह जहर का बर्ताव करने लगेंगे तो हमारा बड़ा नुकसान होगा और बहुत आदमी जान से मारे जायेंगे।

दारोगा – लाचारी है, फिर क्या किया जाय भूल तो दीवान साहब की है।

महा – (कुछ जोश में आकर) रामानंद तो पूरा उजड्ड है! झक मारने के लिए उसने अपने को ऐयार मशहूर कर रखा है, तभी तो वीरेंद्रसिंह का एक अदना ऐयार आया और उसे पकड़कर ले गया, चलो छुट्टी हुई!

महाराज की बातें सुनकर मन-ही-मन ज्योतिषीजी हंसते और कहते थे कि देखो कितना होशियार और बहादुर राजा क्या जरा-सी बात में बेवकूफ बना है। वाह रे तेजसिंह, तू जो चाहे कर सकता है।

महाराज ने रामानंद की लाश को खुद देखा और दूसरी जगह ले जाकर जमीन में गाड़ देने के लिए जल्लादों को हुक्म दिया। जल्लादों ने उसी तहखाने में एक जगह जहां मुर्दे गाड़े जाते थे ले जाकर उस लाश को दबा दिया, महाराज अफसोस करते हुए तहखाने के बाहर निकल आए और इस सोच में पड़े कि देखें वीरेंद्रसिंह के ऐयार लोग इसका क्या बदला लेते हैं।

बयान 5

ऊपर लिखी वारदात के तीसरे दिन दारोगा साहब अपनी गद्दी पर बैठे रोजनामचा देख रहे थे और उस तहखाने की पुरानी बातें पढ़-पढ़कर ताज्जुब कर रहे थे कि यकायक पीछे की कोठरी में खटके की आवाज आई। घबड़ाकर उठ खड़े हुए और पीछे की तरफ देखने लगे। फिर आवाज आई। ज्योतिषीजी दरवाजा खोलकर अंदर गये, मालूम हुआ कि उस कोठरी के दूसरे दरवाजे से कोई भागा जाता है। कोठरी में बिल्कुल अंधेरा था, ज्योतिषीजी कुछ आगे बढ़े ही थे कि जमीन पर पड़ी हुई एक लाश उनके पैर में अड़ी जिसकी ठोकर खा वे गिर पड़े मगर फिर सम्हलकर आगे बढ़े लेकिन ताज्जुब करते थे कि यह लाश किसकी है। मालूम होता है यहां कोई खून हुआ है, और ताज्जुब नहीं कि वह भागने ही वाला खूनी हो!

वह आदमी आगे-आगे सुरंग में भागा जाता था और पीछे-पीछे ज्योतिषीजी हाथ में खंजर लिए दौड़े जा रहे थे मगर उसे किसी तरह पकड़ न सके। यकायक सुरंग के मुहाने पर रोशनी मालूम हुई। ज्योतिषीजी समझे कि अब वह बाहर निकल गया। दम भर में ये भी वहां पहुंचे और सुरंग के बाहर निकल चारों तरफ देखने लगे। ज्योतिषीजी की पहली निगाह जिस पर पड़ी वह पंडित बद्रीनाथ थे, देखा कि एक औरत को पकड़े हुए बद्रीनाथ खड़े हैं और दिन आधी घड़ी से कम बाकी है।

बद्री – दारोगा साहब, देखिये आपके यहां चोर घुसे और आपको खबर भी न हो!

ज्यो – अगर खबर न होती तो पीछे-पीछे दौड़ा हुआ यहां तक क्यों आता!

बद्री – फिर भी आपके हाथ से तो चोर निकल ही गया था, अगर इस समय हम न पहुंच पाते तो आप इसे न पा सकते।

ज्यो – हां बेशक, इसे मैं मानता हूं। क्या आप पहचानते हैं कि यह कौन है याद आता है कि इस औरत को मैंने कभी देखा है।

बद्री – जरूर देखा होगा, खैर इसे तहखाने में ले चलो फिर देखा जायगा। इसका तहखाने से खाली हाथ निकलना मुझे ताज्जुब में डालता है।

ज्यो – यह खाली हाथ नहीं बल्कि हाथ साफ करके आई है। इसके पीछे आती समय एक लाश मेरे पैर में अड़ी थी मगर पीछा करने की धुन में मैं कुछ जांच न कर सका।

पंडित बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी उस औरत को गिरफ्तार किए हुए तहखाने में आये और उस दालान या बारहदरी में जिसमें दारोगा साहब की गद्दी लगी रहती थी पहुंचे। उस औरत को खंभे के साथ बांध दिया और हाथ में लालटेन ले उस लाश को देखने गये जो ज्योतिषीजी के पैर में अड़ी थी। बद्रीनाथ ने देखते ही उस लाश को पहचान लिया और बोले, “यह तो माधवी है!”

ज्यो – यह यहां क्योंकर आई! (माधवी की नाक पर हाथ रखकर) अभी दम है, मरी नहीं। यह देखिए इसके पेट में जख्म लगा है। जख्म भारी नहीं है, बच सकती है।

बद्री – (नब्ज देखकर) हां बच सकती है, खैर इसके जख्म पर पट्टी बांधकर इसी तरह छोड़ दो, फिर बूझा जायगा। हां थोड़ा-सा अर्क इसके मुंह में डाल देना चाहिए।

बद्रीनाथ ने माधवी के जख्म पर पट्टी बांधी और थोड़ा-सा अर्क भी उसके मुंह में डालकर उसे वहां से उठा दूसरी कोठरी में ले गए। इस तहखाने में कई जगह से रोशनी और हवा पहुंचा करती थी, कारीगरों ने इसके लिए अच्छी तरकीब की थी। बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी माधवी को उठाकर एक ऐसी कोठरी में ले गये जहां बादाकश की राह से ठंडी-ठंडी हवा आ रही थी और उसे उसी जगह छोड़ आप बारहदरी में आए जहां उस औरत को जिसने माधवी को घायल किया था खंभे के साथ बांधा था। बद्रीनाथ ने धीरे से ज्योतिषीजी से कहा कि “आज कुंअर आनंदसिंह और उनके थोड़ी ही देर बाद मैं बीस-पचीस आदमियों को साथ लेकर यहां आऊंगा। अब मैं जाता हूं, वहां बहुत कुछ काम है, केवल इतना ही कहने के लिए आया था। मेरे जाने के बाद तुम इस औरत से पूछताछ लेना कि यह कौन है, मगर एक बात का खौफ है।”

ज्यो – वह क्या है

बद्री – यह औरत हम लोगों को पहचान गई है, कहीं ऐसा न हो कि तुम महाराज को बुलाओ और वे आ जाएं तो यह कह उठे कि दारोगा साहब तो राजा वीरेंद्रसिंह के ऐयार हैं!

ज्यो – जरूर ऐसा होगा, इसका भी बंदोबस्त कर लेना चाहिए।

बद्री – खैर कोई हर्ज नहीं, मेरे पास मसाला तैयार है। (बटुए में से एक डिबिया निकालकर और ज्योतिषीजी के हाथ में देकर) इसे आप रखें जब मौका हो तो इसमें से थोड़ी-सी दवा इसकी जबान पर जबर्दस्ती मल दीजिएगा, बात की बात में जुबान ऐंठ जायगी फिर यह साफ तौर पर कुछ भी न कह सकेगी। तब जो आपके जी में आवे महाराज को समझा दें।

बद्रीनाथ वहां से चले गये। उनके जाने के बाद उस औरत को डरा-धमका और कुछ मार-पीटकर ज्योतिषीजी ने उसका हाल मालूम करना चाहा मगर कुछ न हो सका, पहरों की मेहनत बर्बाद गई। आखिर उस औरत ने ज्योतिषीजी से कहा, “ज्योतिषीजी, मैं आपको अच्छी तरह से जानती हूं। आप यह न समझिए कि माधवी को मैंने मारा है, उसको घायल करने वाला कोई दूसरा ही था, खैर इन सब बातों से कोई मतलब नहीं क्योंकि अब तो माधवी भी आपके कब्जे में नहीं रही।”

ज्यो – माधवी मेरे कब्जे में से कहां जा सकती है

औरत – जहां जा सकती थी वहां गई, जहां आप रख आये थे वहां जाकर देखिये है या नहीं।

औरत की बात सुनकर ज्योतिषीजी बहुत घबड़ाए और उठ खड़े हुए, वहां गए जहां माधवी को छोड़ आए थे। उस औरत की बात सच निकली। माधवी का वहां पता भी न था। हाथ में लालटेन ले घंटों ज्योतिषीजी इधर-उधर खोजते रहे मगर कुछ फायदा न हुआ, आखिर लौटकर फिर उस औरत के पास आये और बोले, “तेरी बात ठीक निकली मगर अब मैं तेरी जान लिये बिना नहीं रहता, और अगर सच-सच अपना हाल बता दे तो छोड़ दूं।”

ज्योतिषीजी ने हजार सिर पटका मगर उस औरत ने कुछ भी न कहा। इसी औरत के चिल्लाने या बोलने की आवाज किशोरी और लाली ने इस तहखाने में आकर सुनी थी जिसका हाल इस भाग के पहले बयान में लिख आये हैं क्योंकि इसी समय लाली और किशोरी भी वहां आ पहुंची थीं।

ज्योतिषीजी ने किशोरी को पहचाना, किशोरी के साथ लाली का नाम लेकर भी पुकारा, मगर अभी यह नहीं मालूम हुआ कि लाली को ज्योतिषीजी क्योंकर और कब से जानते थे, हां किशोरी और लाली को इस बात का ताज्जुब था कि दारोगा ने उन्हें क्योंकर पहचान लिया क्योंकि ज्योतिषीजी दारोगा के भेष में थे।

ज्योतिषीजी ने किशोरी और लाली को अपने पास बुलाकर कुछ बात करना चाहा मगर मौका न मिला। उसी समय घंटे के बजने की आवाज आई और ज्योतिषीजी समझ गये कि महाराज आ रहे हैं। मगर इस समय महाराज क्यों आते हैं! शायद इस वजह से कि लाली और किशोरी इस तहखाने में घुस आई हैं और इसका हाल महाराज को मालूम हो गया है।

जल्दी के मारे ज्योतिषीजी सिर्फ दो काम कर सके, एक तो किशोरी और लाली की तरफ देखकर बोले, “अफसोस, अगर आधी घड़ी की भी मोहलत मिलती तो तुम्हें यहां से निकाल ले जाता, क्योंकि यह सब बखेड़ा तुम्हारे ही लिए हो रहा है।” दूसरे उस औरत की जुबान पर मसाला लगा सके जिससे वह महाराज के सामने कुछ कह न सके। इतने ही में मशालचियों और कई जल्लादों को लेकर महाराज आ पहुंचे और ज्योतिषीजी की तरफ देखकर बोले, “इस तहखाने में किशोरी और लाली आई हैं, तुमने देखा है’

दारोगा – (खड़े होकर) जी अभी तक तो यहां नहीं पहुंचीं।

राजा – खोजो कहां हैं, यह औरत कौन है

दारोगा – मालूम नहीं कौन है और क्यों आई है मैंने इसी तहखाने में इसे गिरफ्तार किया है, पूछने से कुछ नहीं बताती।

राजा – खैर किशोरी और लाली के साथ इसे भी भूतनाथ पर चढ़ा देना (बलि देना) चाहिए क्योंकि यहां का बंधा कायदा है कि लिखे आदमी के सिवा दूसरा जो इस तहखाने को देख ले उसे तुरंत बलि दे देना चाहिए।

सब लोग किशोरी और लाली को खोजने लगे। इस समय ज्योतिषीजी घबड़ाये और ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि कुंअर आनंदसिंह और हमारे ऐयार लोग जल्द यहां आवें जिससे किशोरी की जान बचे।

किशोरी और लाली कहीं दूर न थीं, तुरंत गिरफ्तार कर ली गईं और उनकी मुश्कें बंध गयीं। इसके बाद उस औरत से महाराज ने कुछ पूछा जिसकी जुबान पर ज्योतिषीजी ने दवा मल दी थी, पर उसने महाराज की बात का कुछ भी जवाब न दिया। आखिर खंभे से खोलकर उसकी भी मुश्कें बांध दी गईं और तीनों औरतें एक दरवाजे की राह दूसरी संगीन बारहदरी में पहुंचाई गयीं जिसमें सिंहासन के ऊपर स्याह पत्थर की वह भयानक मूरत बैठी हुई थी जिसका हाल इस संतति के तीसरे भाग के आखिरी बयान में हम लिख आये हैं। इसी समय आनंदसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह वहां पहुंचे और उन्होंने अपनी आंखों से उस औरत के मारे जाने का दृश्य देखा जिसकी जुबान पर दवा लगा दी गई थी। जब किशोरी को मारने की बारी आई तब कुंअर आनंदसिंह और दोनों ऐयारों से न रहा गया और उन्होंने खंजर निकालकर उस झुंड पर टूट पड़ने का इरादा किया मगर न हो सका क्योंकि पीछे से कई आदमियों ने आकर इन तीनों को पकड़ लिया।

  1. इस मकान में जहां-जहां लाली ने ताला खोला उसी ताली और इसी ढंग से खोला।
  2. रोहतासगढ़ किले की बड़ी चारदीवारी में चारों तरफ छोटी – छोटी बहुत – सी खिड़कियां थीं जिनमें लोहे के मजबूत दरवाजे लगे रहते थे और दो सिपाही बराबर पहिरा दिया करते थे। फकीर, मोहताज और गरीब रियाया अक्सर उन खिड़कियों (छोटे दरवाजों) की राह जंगल में से सूखी लकड़ियां चुनने या जंगली फल तोड़ने या जरूरी काम के लिए बाहर जाया करते थे, मगर चिराग जलते हुए ये खिड़कियां बंद कर दी जाती थीं।
  3. रोहतासगढ़ में एक ही धर्मशाला थी।
  4. मुर्दा अक्सर ऐंठ जाया करता है इसलिए गठरी में बांध नहीं सकते, लाचार हो दो आदमी मिलकर उठा ले गये।

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