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बैल की बिक्री – सियारामशरण गुप्त

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मोहन बरसों से ज्वालाप्रसाद का ऋण चुकाने की चेष्टा में था. परन्तु चेष्टा कभी सफल न होती थी. मोहन का ऋण दरिद्र के वंश की तरह दिन पर दिन बढ़ता ही जाता था. इधर कुछ दिनों से ज्वालाप्रसाद भी कुछ अधीर से हो उठे थे. रूपये अदा करने के लिए वह मोहन के यहाँ आदमी पर आदमी भेज रहे थे.

समय की खराबी और महाजन की अधीरता के साथ मोहन को एक चिंता और थी. वह थी जवान लड़के शिबू की निश्चिन्तता. उसे घर के कामकाज से सरोकार न था.

उस दिन कलेवा करके शिबू बाहर निकल रहा था. मोहन ने पीछे से कहा : ‘लल्लू, आज मुझे एक जगह काम पर जाना है. बैल की सार साफ करके तुम उसे पानी पिला देना.’

शिबू ने बाप की ओर मुड़कर कहा : ‘मुझसे यह बेगार न होगी. मुझे भी एक जगह जाना है. वाहियात काम के लिए मुझे फुरसत नहीं.’
मोहन झुंझला पड़ा. क्रुद्ध होकर बोला : ‘कैसा है रे! बैल को पानी पिलाना वाहियात काम बताता है?’

‘ठीक तो कहता हूँ,नाराज़ क्यों होते हो? कितनी बार कहा – इसे बेच दो, अकेला बंधा बंधा खा रहा है. किसी काम आता हो तो बात भी है. ‘

‘ चुप रह! घर में जोड़ी होती तो इतनी बातें बनाना न आता. बैल किसान के हाथ-पैर होते हैं. एक हाथ टूट जाने पर कोई दूसरा भी कटा नहीं डालता. मैं इसका जोड़ मिलाने की फिक्र में हूँ, तू कहता है – बेच दो. दूर हो. जहाँ जाना हो, चला जा. मैं सब कर लूंगा. ‘

मोहन कुछ देर ज्यों का त्यों खड़ा रहकर, बड़बड़ाता हुआ उठा और जाकर बैल को थपथपाने लगा. शिबू ने उसकी जो अवज्ञा की थी मानो उसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए अपने हृदय का समस्त प्यार ढालने लगा.

उस दिन मोहन ने सार की सफाई और अच्छी तरह की. बैल को पानी पिलाने ले गया, नहलाया और बहुत देर उसकी सेवा करता रहा. इस तरह आज इतना समय लग गया, जितना लगना न चाहिए था. यह बात उसे उस समय मालूम हुई, जब ज्वालाप्रसाद के आदमी ने आकर बाहर से पुकारा – ‘मोहन है?’

मोहन सुनकर सन्न सा खड़ा रह गया. उसे शिबू पर गुस्सा आया. अगर वह पाजी बैल को नहला – धुला कर उसे चारा – पानी दे देता तो वह इस आदमी को घर थोड़े मिलता. शंकित मन से बाहर निकलकर बोला : ‘कौन, रामधन भैया? आओ तमाखू पी लो.’

रामधन ने रुखाई से कहा : ‘हमें फुरसत नहीं है. इसी दम मेरे साथ चलो. तुम्हारे पीछे फिरते – फिरते पैरों में छाले पड़ गये. परन्तु मालिक साहब के दर्शन ही नहीं होते!’

मोहन ने देखते ही समझ लिया, मामला ठीक नहीं है. चुपचाप भीतर से लाकर अंगोछा कंधे पर डाला और उसके पीछे हो लिया.
रामधन के साथ वह ज्वालाप्रसाद की कोठी पर जा पहुंचा.

ज्वालाप्रसाद ने अपने स्वर में संसार भर का क्रोध भरकर कहा :’ वादे बहुत हो चुके. अब हमारे रुपए अदा कर दो, नहीं तो अच्छा न होगा.’
मोहन ने कहा : ‘मालिक की बातें! खाने को मिलता नहीं, रुपये कहाँ से आएँ?’

बातों ही बातों में ज्वालाप्रसाद की जीभ की ज्वाला बेहद बढ़ उठी. नमकहराम, सुअर आदि जितनी उपाधियों से वह गरीब मढ़ दिया गया.
मोहन घर न जा सका. रुपये अदा कर दो और चले और चले जाओ, बस इतनी ही बात थी.

शिबू ने तीसरे पहर घर आकर देखा – दद्दा नहीं हैं. मालूम हुआ – सवेरे ज्वालाप्रसाद के आदमी के साथ गये थे. दोपहर को रोटी खाने भी नहीं आए.

शिबू झपाटे के साथ घर से निकलकर ज्वालाप्रसाद के यहाँ जा पहुंचा. बाप को मुंह सुखाए, पसीने-पसीने एक जगह बैठा देखा. बोला : ‘चलो, आज रोटी नहीं खानी है?’

आवाज सुनकर दूर से ज्वालाप्रसाद ने कहा : ‘ कौन है, शिबुआ? दाम लाया या यों ही लिवाने आ गया.’

शिबू ने अपने कर्कश कंठ को और भी कर्कश करके कहा : ‘तुम अपनी रुपट्टी लोगे या किसी की जान? अरे, कुछ तो दया होती! बूढ़े ने सवेरे से पानी तक नहीं पिया. तुम कम से कम चार दफे भोजन ठूंस चुके होगे!’

शिबू ने बाप का हाथ पकड़ा और उसे झकझोरता हुआ साथ ले गया.

ज्वालाप्रसाद हतबुद्धि होकर ज्यों के त्यों बैठे रहे. उन्होंने शिबू के जैसा निर्भय आदमी देखा न था.

आजकल डाकुओं का बड़ा जोर था. यह शिबुआ भी तो कहीं डाकुओं में नहीं है?कैसा ऊँचा – पूरा हुष्ट – पुष्ट पट्ठा है! बोलने में किसी का डर नहीं,चलने में किसी का बंधन नहीं.

दिनभर फिर किसी काम में ज्वालाप्रसाद का मन नहीं लगा. बार बार उसका तेजपूर्ण चेहरा उन्हें याद आता रहा.

दो दिन में ही ऐसा जान पड़ने लगा – मानो मोहन बहुत दिनों का बीमार हो. दिनभर वह बैल के विषय में ही सोचा करता था. रात को उठकर कई बार बैल के पास जाता.

फैसला हुआ कि बैल को बेच दिया जाय. हाट जाने के एक दिन पहले मोहन ने शिबू से कहा : ‘बेटा, मेरी एक बात मानना. बैल किसी भले आदमी को देना जो उसे अच्छी तरह रखे. दो – चार रुपये कम मिलें तो ख्याल न करना.’

शिबू बिगड़कर बोला : ‘तुम्हारी तो बुद्धि बिगड़ गई है. जब देखो, बैल बैल की रट लगाए रहते हो. मैं मर जाऊँ तो भी शायद तुम्हें बैल के जितना रंज न हो. बैल जिए या भाड़ में जाए, जो ज्यादा दाम देगा, मैं उसी को बेच दूंगा. उस कसाई के रुपये उसके मत्थे मार दूँ, मैं तो इतना ही चाहता हूँ.

जिस समय बैल की रस्सी खोलकर शिबू हाट के लिए जा रहा था, वहाँ मोहन न था. किसी काम के लिए जाने की बात कर वह पहले ही बाहर चला गया था.

बैल बेचकर शिबू घर लौट रहा था. रुपये उसकी अंटी में थे. फिर भी उसकी चाल में वह तेजी नहीं थी, जो जाते समय थी. न जाने कितनी बातें उसके भीतर आ-जा रही थीं. बैल के बिना उसे सूना – सूना मालूम हो रहा था. उसके ध्यान में आता, मानो विदा होते समय बैल भी उदास हो गया था. उसकी आँखों में आँसू छलक आए थे. बैल का विचार दूर करता, तो बाप का सूखा हुआ चेहरा सामने आ जाता. बैल और बाप मानो एक ही चित्र के दो रुख थे. उसके हृदय का औद्धत्य आज अपने आप पराजित हो गया था.

घने वन में पक्की सड़क. दोनों ओर के वृक्षों की छाया. दूर-दूर तक आदमी का चिह्न तक नहीं दिखाई देता था. बीच बीच में कुछ हिरण छलांगे मारते हुए सड़क पार कर जाते थे. अचानक शिबू ने देखा – एक जगह बहुत सी बैलगाड़ियां खोली हुई हैं. दो – तीन सौ आदमी सड़क के पास खंदकों में चुपचाप दूर तक श्रेणीबद्ध बैठे हुए हैं. शिबू ने समझा –सड़क पर पुलिस के आदमी हैं. कुछ वसूल कर लेने के लिए इन आदमियों को परेशान कर रहे हैं. पुलिस का विचार आते ही उसका गर्वित हृदय विद्रोही हो उठा. विचारों की शृंखला छिन्न भिन्न हो गई. वह तेजी से चलने लगा.

‘कौन है, खबरदार, खड़ा रह!’

शिबू ने देखा –पुलिस के सिपाहियों की पोशाक में बंदूकें लिए हुए आदमी हैं. बीच सड़क पर एक कपड़ा बिछा हुआ है. उस पर रुपये – पैसे और गहनों का ढेर लगा हुआ है. शिबू को समझने में देर नहीं लगी – डाकू हैं, सिपाही नहीं.

हां तो, एक डाकू फिर से कड़ककर बोला : ‘ कौन है, चला ही आ रहा है? खड़ा हो जा. रख दे जो कुछ तेरे पास हो.’

शिबू ने देखा – अब रुपये जाते हैं. उसे रुपयों का मोह कभी न था. रुपया – पैसा उड़ाना ही उसका काम था. पर ये रुपये! ये रुपये किस तरह आए हैं, यह बात वह अभी अभी अनुभव करता आ रहा था. एक क्षण के एक हिस्से में उसे बाप का सूखा हुआ चेहरा याद आया और दूसरे क्षण महाजन का, जिसने रुपये चुकाने के लिए उन्हें तीसरे पहर तक भूखा – प्यासा रोक रखा था. ज्यादा विचार करने का अवसर न था. वह छाती तानकर खड़ा हो गया. बोला : ‘मैं रुपये नहीं दूंगा.’

डाकू शिबू का सुदृढ़ कंठस्वर सुनकर अवाक् रह गया. वह बंदूक का कुंदा मारने के लिए उस पर झपटा. शिबू ने बंदूक के कुंदे को इस तरह पकड़ लिया, जिस तरह संपेरे साँप का फन पकड़ लेते हैं. अपने को आगे ठेलता हुआ वह बोला : ‘तुम मुझे मार सकते हो, परंतु रुपये नहीं छीन सकते. ये रुपये मेरे बाप के कलेजे के खून में तर हैं. मेरे जीतेजी महाजन के सिवा इन्हें कोई नहीं ले सकता.’ यह कहकर शिबू ने अपने पूरे वेग के साथ निकल जाना चाहा. तब तक पांचों डाकुओं ने घेरकर उसे पकड़ लिया. वह उच्च कंठ से फिर चीत्कार कर उठा : ‘ छोड़ दो. मैं रुपया नहीं दूंगा. ‘

        शिबू का चीत्कार सुनकर लुटे हुए लोग खंदकों में से उठकर खड़े हो गए. देखने लगे –कौन है, जो प्रत्यक्ष मौत का सामना कर रहा है!
डाकुओं ने एकदम देखा – वे केवल पांच हैं और दो-तीन सौ आदमी उनके विपक्ष में उठ खड़े हुए हैं. उन्हें विस्मय करने का भी अवसर न मिला कि उन्होंने बंदूक के बल पर एक एक, दो दो करके इतने आदमी कैसे लूट लिए हैं.

       शिबू का साहस देखकर उधर लुटे हुए लोगों का भय भी दूर हो रहा था. देखने तक का समय न था, परन्तु डाकुओं ने स्पष्ट देख लिया – एक साथ सब लोगों के भाव बदल गए हैं. डाकू बंदूकें हाथ में लिए हुए तेजी से सड़क के नीचे उतर गए. लूट का माल उठाने में समय नष्ट करने की अपेक्षा अपने प्राण लेकर भागना ही उन्हें अधिक मूल्यवान प्रतीत हुआ. थोड़ी ही देर में वे आँखों से ओझल हो गए.

लोगों ने आकर शिबू को चारों ओर से घेर लिया. अधिकांश स्त्री – बच्चे और पुरुष अब तक भय के मारे कांप रहे थे. भीड़ में से एक आदमी निकलकर शिबू के पास आया. बोला :  ‘कौन है, शिबू! तुमने आज इतने आदमियों को……’

शिबू ने देखा – वह ज्वालाप्रसाद है. शरीर पर धोती के सिवा और कोई वस्त्र नहीं. डाकुओं ने रुपये – पैसे के साथ उसके वस्त्र भी उतरवाकर रखवा लिए थे. ज्वालाप्रसाद को देखते ही शिबू के मुँह पर घृणा के भाव दिखाई दिए. कमर से रुपये निकालकर उसने कहा : ‘ बड़ी बात, शिबू तुम्हें आज यहीं मिल गया. लो, अपने रुपये चुकता कर लो. अब लुट जाएं तो मैं जिम्मेदार नहीं.’

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Raghuraj singh

Imotional story

kya kroge

words ko pura black kardo jisse words clear dikhe .abhi padne me thodi si problem ho rahi hai

Raghu

Excellent story.