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होली -सुभद्रा कुमारी चौहान

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(1)

‘‘कल होली है.’’

‘‘होगी.’’

‘‘क्या तुम न मनाओगी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘नहीं?’’

‘‘न.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्या बताऊं क्यों?’’

‘‘आख़िर कुछ सुनूं भी तो.’’

‘‘सुनकर क्या करोगे?’’

‘‘जो करते बनेगा.’’

‘‘तुमसे कुछ भी न बनेगा.’’

‘‘तो भी.’’

‘‘तो भी क्या कहूं? क्या तुम नहीं जानते होली या कोई भी त्यौहार वही मनाता है जो सुखी है. जिसके जीवन में किसी प्रकार का सुख ही नहीं, वह त्यौहार भला किस बिरते पर मनावे?’’

‘‘तो क्या तुमसे होली खेलने न आऊं?’’

‘‘क्या करोगे आकर?’’

सकरुण दृष्टि से करुणा की ओर देखते हुए नरेश साइकिल उठाकर घर चल दिया. करुणा अपने घर के काम-काज में लग गई.

(2)

नरेश के जाने के आधे घंटे बाद ही करुणा के पति जगत प्रसाद ने घर में प्रवेश किया. उनकी आंखें लाल थीं. मुंह से तेज़ शराब की बू आ रही थी. जलती हुई सिगरेट को एक ओर फेंकते हुए वे कुर्सी खींचकर बैठ गए. भयभीत हिरनी की तरह पति की ओर देखते हुए करुणा ने पूछा,‘‘दो दिन तक घर नहीं आए, क्या कुछ तबीयत ख़राब थी? यदि न आया करो तो ख़बर तो भिजवा दिया करो. मैं प्रतीक्षा में ही बैठी रहती हूं.’’

उन्होंने करुणा की बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया. जेब से रुपए निकाल कर मेज़ पर ढेर लगाते हुए बोले,‘‘पंडितानी जी की तरह रोज़ ही सीख दिया करती हो कि जुआ न खेलो, शराब न पियो, यह न करो, वह न करो. यदि मैं, जुआ न खेलता तो आज मुझे इतने रुपए इकट्ठे कहां से मिल जाते? देखो पूरे पंद्रह सौ है. लो, इन्हें उठाकर रखो, पर मुझ से बिना पूछे इसमें से एक पाई भी न ख़र्च करना समझीं?’’

करुणा जुए में जीते हुए रुपयों को मिट्टी समझती थी. ग़रीबी से दिन काटना उसे स्वीकार था. परंतु चरित्र को भ्रष्ट करके धनवान बनना उसे प्रिय न था. वह जगत प्रसाद से बहुत डरती थी इसलिए अपने स्वतंत्र विचार वह कभी भी प्रकट न कर सकती थी. उसे इसका अनुभव कई बार हो चुका था. अपने स्वतंत्र विचार प्रकट करने के लिए उसे कितना अपमान, कितनी लांछना और कितना तिरस्कार सहना पड़ा था. यही कारण था कि आज भी वह अपने विचारों को अंदर ही अंदर दबाकर दबी हुई ज़बान से बोली,‘‘रुपया उठाकर तुम्हीं न रख दो? मेरे हाथ तो आटे में भिड़े हैं.’’ करुणा की इस इनकारी से जगत प्रसाद क्रोध से तिलमिला उठे और कड़ी आवाज़ से पूछा,‘‘क्या कहा?’’

करुणा कुछ न बोली नीची नज़र किए हुए आटा सानती रही. इस चुप्पी से जगत प्रसाद का पारा एक सौ दस डिग्री पर पहुंच गया. क्रोध के आवेश में रुपए उठाकर उन्होंने फिर जेब में रख लिए. ‘‘यह तो मैं जानता ही था कि तुम यही करोगी. मैं तो समझा था इन दो-तीन दिनों में तुम्हारा दिमाग़ ठिकाने आ गया होगा. ऊट-पटांग बातें भूल गई होगी और कुछ अकल आ गई होगी. परंतु सोचना व्यर्थ था. तुम्हें अपनी विद्वत्ता का घमंड है तो मुझे भी कुछ है. लो! जाता हूं अब रहना सुख से.’’ कहते-कहते जगत प्रसाद कमरे से बाहर निकलने लगे.

पीछे से दौड़कर करुणा ने उनके कोट का सिरा पकड़ लिया और विनीत स्वर में बोली,‘‘रोटी तो खा लो मैं रुपए रखे लेती हूं. क्यों नाराज़ होते हो?’’ एक ज़ोर के झटके के साथ कोट को छुड़ाकर जगत प्रसाद चल दिए. झटका लगने से करुणा पत्थर पर गिर पड़ी और सिर फट गया. ख़ून की धारा बह चली, और सारी जैकेट लाल हो गई.

(3)

संध्या का समय था. पास ही बाबू भगवती प्रसाद जी के सामने बाली चौक से सुरीली आवाज़ आ रही थी.

‘‘होली कैसे मनाऊं?’’

‘‘सैया बिदेस, मैं द्वारे ठाढ़ी, कर मल मल पछताऊं.’’

होली के दीवाने भंग के नशे में चूर थे. गानेवाली नर्तकी पर रुपयों की बौछार हो रही थी. जगत प्रसाद को अपनी दुखिया पत्नी का ख़्याल भी न था. रुपया बरसानेवालों में उन्हीं का सबसे पहिला नंबर था. इधर करुणा भूखी-प्यासी छटपटाती हुई चारपाई पर करवटें बदल रही थी.

‘‘भाभी, दरवाज़ा खोलो’’ किसी ने बाहर से आवाज़ दी. करुणा ने कष्ट के साथ उठकर दरवाज़ा खोल दिया. देखा तो सामने रंग की पिचकारी लिए हुए नरेश खड़ा था. हाथ से पिचकारी छूट कर गिर पड़ी. उसने साश्चर्य पूछा,‘‘भाभी यह क्या?’’

करुणा की आंखें छल छला आईं, उसने रूंधे हुए कंठ से कहा,‘‘यही तो मेरी होली है, भैय्या.’’

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ख़ान इशरत परवेज़

मार्मिक एवं ह्रदयस्पर्शी रचना।

Amarendra

सुभद्रा जी का गद्य पढ़कर भी बहुत अच्छा लगा