सच-शूल-राम कुमार भ्रमर
मिस रस्तोगी थोड़ी देर सोफ़े पर अधलेटी-सी पड़ी टेलीफोन की ओर देखती रही। लग रहा था कि अब भी बोल रहा है-“पहचाना? मैं प्रकाश बोल रहा हूँ—प्रकाश खन्ना—“
“कब आए? किस ट्रेन से? तार कर दिया होता। कहाँ हो? स्टेशन पर?” एक ही साँस में एकाएक मिस रस्तोगी पचासों सवाल पूछ बैठी थी।
“आऊँगा, तब सब बताऊँगा। फिलहाल सिर्फ इतना जान लो कि कल शाम तक ठहरूँगा।“
“पर यहाँ कब आओगे? अभी आ रहे हो? गाड़ी भेजूँ?” न जाने क्या हो गया था मिस रस्तोगी को। उन्होंने फिर से दसियों सवाल टेलीफोन में उड़ेल दिए थे।
“जहाँ भी होऊँगा, सुबह दस तक तुम्हारे यहाँ जरूर पहुँच जाऊँगा। गाड़ी-बाड़ी की जरूरत नहीं है।“
मिस रस्तोगी भावुकता में शायद और कुछ भी कहती, किन्तु उधर से उन्होंने रिसीवर रख दिया था।
उन्होंने फोन से दृष्टि हट ली और भूलने की कोशिश की कि अभी-अभी कोई ऐसा आदमी आ गया है, जिसने एक खलबलाहट से भर दिया है उन्हें। वह उठी और बगीचे में आयी।
बगीचा गहरे एकांत में डूबा हुआ है। घर के हर कमरे और मन के हर कोने से कहीं अधिक गहरा एकांत। क्या जरूरत थी प्रकाश से इतना अपनापा जताने की? इस तरह मिस रस्तोगी ने जाहिर कर दिया था कि वह अकेली हैं। अकेलेपन से आक्रांत। उन्हें लगा कि एकांत और सघन हो उठा है। शाम ने इस एकांत को और बढ़ दिया था। पेड़ और पौधे सिलसिलेवार। जब यह घर लिया-लिया ही था, तब यहाँ बगीचा जंगल की तरह बिखरा हुआ था। बेतरतीब पेड़, घास और झाड़-झंखाड़। पर महीनों तक अपनी शामें लगाकर मिस रस्तोगी ने इसे तरतीबवार कर दिया था। फूल, पेड़ और पौधे सब सिलसिलेवार लगे हुए हैं।
क्या इस तरह किसी सन्नाटे को आबाद किया जा सकता है? मिस रस्तोगी को लगा कि पलकों पर भारीपन आ गया है। कभी-कभी सजावट के बावजूद सन्नाटा रहता है। यहाँ सन्नाटा है और शामों में यह सन्नाटा और बढ़ जाता है।
प्रकाश का फोन आने से थोड़ी देर पहले मिसेज कपूर आयी थीं। महिला समाज-सुधारक संस्थान की सेक्रेटरी है वह। अरुणा रस्तोगी नए साल में इस संस्था की अध्यक्षा हुई है। ऐसी न जानी कितनी संस्थाएं हैं, जिन्हें वह संभालती है। समाज-सुधार का काम ऐसा ही होता है। मिसेज कपूर ने कुछ पत्रों पर उनके दस्तखत लिए थे, अपनी विधवा बुआ के लिए संस्था से सिलाई-मशीन दिलाने को सिफारिश की थी और चली गई थीं। मिस रस्तोगी ने उन्हें रोकना चाहा था।
“नहीं-नहीं मिस रस्तोगी! अब नहीं, किसी और दिन आऊँगी। वे सब इंतज़ार कर रहे होंगे। शाम होने लगी है।“ वह उठी थी और इस तरह दौड़ती हुई-सी कमरे से चली गई थी जैसे बाहर कुछ लोग पुकार रहे हों—कौन? शायद मिसेज कपूर के पति और दोनों बच्चे।
क्या मिस रस्तोगी को कोई इस तरह पुकार सकता है? मौन आवाज में?
अचानक अरुणा रस्तोगी को लगा कि चलते-चलते काँटा चुभ गया है। बगीचे में कैक्टस भी है, गुलाब भी। किसी का भी काँटा चुभ सकता है। काँटा? उन्होंने तलवा सहलाया। काँटा नहीं था शायद। कोई चीज गई थी, पर दर्द कितना हुआ था, जैसे काँटा हो। गहरे तक कुरेद गया काँटा।
वह थक गई। जैसे कई मील पैदल चल चुकी हों। एक नशा-सा सारे जिस्म पर छा गया है। बुढ़ापा नहीं है। प्रौढ़ हैं। लोग लाख कहते रहे कि अरुणा रस्तोगी अब भी पचीस-तीस के भीतर लगती हैं, पर वह जानती है कि बुढ़ापा शुरू होने को है। चालीस के करीब आ चुकी हैं वह। बुढ़ापा नशा ही तो होता है।
मिस रस्तोगी एक ओर पड़ी गार्डन-चेयर पर जा बैठी। हल्का-सा अँधेरा उन पर और आस-पास फ़ाइल गया है। नौकरानी ने बगीचे के बरामदे का स्विच ऑन कर दिया है। कमजोर प्रकाश बिखर गया है। मिस रस्तोगी को वह अच्छा नहीं लगता है। सच पर कितने बड़े झूठ उढ़ाने की कोशिश करता है आदमी। यह रोशनी भी अँधेरे के साथ कुछ ऐसा ही कर रही है।
“सुनो! नौकरानी जा रही थी, मिस रस्तोगी ने उसे रोका, वह खड़ी हुई है। जानती है कि वह हर आदेश कुछ रुककर धीमी-सी आवाज में इस तरह देती है जैसे शब्दों को कपड़े से छानकर बाहर निकालती हो। “स्विच ऑफ कर जाओ।“ सपाट आवाज में वह बोली। नौकरानी ने वैसा ही किया। एकाएक फिर से वातावरण में भयावह सन्नाटा फ़ाइल गया। अँधेरा और सन्नाटा। मिस रस्तोगी की इच्छा हुई कि डरे। पर अजीब बात है, कभी-कभी चाहकर भी डर नहीं लगता। क्या सचमुच कभी-कभी आदमी की इच्छा होती है कि वह सच में जिए।
आज लग रहा है जैसे मिस रस्तोगी ने अपने हर सच पर तर्कों भरे इतने झूठ उढ़ा दिए हैं कि उन्हें गिना नहीं जा सकता। वे सब भीड़ बन गए हैं और एकांत में कोलाहल करते हैं। वे सब मिस रस्तोगी से जवाब तलब करते हैं।
कितने ही लोग, कितने ही सच और कितने ही सवाल।
प्रकाश खन्ना, उज्ज्वल मिश्र और अजय चटर्जी —
हठात मिस रस्तोगी को लगा कि अँधेरा बहुत हो गया है, बहुत गहरा। वह नौकरानी को बुलाना चाहती थी-एकांत तोड़ने के लिए, पर उन्होंने ऐसा किया नहीं। रोशनी होते ही वह देख लेगी कि मिस रस्तोगी की उदासी पिघलकर आँखों से बहने लगी है। न जाने क्या सोचे वह? मिस रस्तोगी नहीं चाहती हैं कि किसी को मालूम हो जाए कि वह औरत है। सब-जैसी, साधारण, सामान्य और कमजोर औरत। सार्थकता के बावजूद असमर्थ
वे सब तर्कों पर कसे गए थे। मिस रस्तोगी ने कॉलेज में पहला साल गुजारा था और वे भीड़ की तरह उनके इर्द-गिर्द घिर आए थे।
अरुणा रस्तोगी कॉलेज में बहुत टेज और खूबसूरत लड़की के नाते मशहूर थी। कॉलेजों की राष्ट्रीय वाद-विवाद प्रतियोगिता में उन्होंने शील्ड ली थी और सिर्फ कॉलेज ही नहीं, पूरे शहर में मशहूर हो गई थी। न जाने कितने सहपाठियों ने उन्हें बधाइयाँ दी थी और न जाने कितनों ने प्रेम-प्रस्ताव रखे थे। और ऐसे हर प्रस्ताव के उत्तर में उनका एक जवाब था-“प्लीज! मुझे सोचने दीजिए।“
पूरे चार साल तक सोचती रही थी मिस रस्तोगी। क्या सचमुच सोचती रही थी?
वे क्रमशः थकते-हारते छँटते गए थे और अंत में रह गया था सिर्फ प्रकाश खन्ना। उसके चेहरे पर एक रूखापन आ गया था। उसने अपना सवाल भी बदल दिया था-“क्यों अरुण, सोचा कुछ?”
“सोच रही हूँ।“ शरमाहट में डूबा जवाब।
पर अजीब आदमी था प्रकाश। ऐसे हर जवाब पर हँस देता था। कहता-“ठीक है, सोच लो। सोचने के लिए पूरी ज़िंदगी होती है।“
फाइनल परीक्षाएँ हो चुकी थीं। अंतिम दिन कॉरीडोर में प्रकाश से भेंट हो गयी। मिस रस्तोगी उससे डरने लगी थीं। डर जैसी बात थी। सामने आते ही वह उन्हें पिघलाने लगता था। “क्यों, सोच कुछ?”
चुप रह गयी मिस रस्तोगी। वह बिल्कुल सामान्य था और सहज ढंग से सवाल कर रहा था। जाने क्यों सब अच्छा लगा। बिल्कुल ठीक और समय पर हो रहा था सब। कोई तर्क उस क्षण उसके दिमाग में नहीं था। बोली थी- “हूँ, सोच लिया है।“
“क्या?”
“तुम्हारे फ़ेवर में।“ कहते-कहते अरुणा रस्तोगी काँप-सी गयी।
“सच?” वह लगभग चीख पड़ा। स्वभाव के विपरीत बेकाबू होकर उसने मिस रस्तोगी की हथेलियाँ थाम ली थी। कितना भावुक हो गया था वह? उसकी आवाज भर्रा गयी थी—“सच? मैं न कहता था अरुणा, ज़िंदगी तर्क में कुछ और है, यथार्थ में कुछ और। वह सब तुम्हारी जिद थी, सिर्फ वाद-विवाद के प्लेटफॉर्म की जिद।“
अचानक ही मिस रस्तोगी, अरुणा रस्तोगी को लगा था कि प्रकाश खन्ना उनका अपमान कर रहा है। शायद वह कह रहा था कि ‘कोई लड़की कुँवारी नहीं रह सकती। तुम्हें एक सहारे की जरूरत है!’ एक तर्क दिमाग में फैल गया था—क्यों नहीं मिस रस्तोगी इस चुनौती का जवाब बन जाएं। मिस रस्तोगी हार नहीं सकतीं। एक निश्चय तुरंत उन पर हावी हो गया था। एकाएक ही वह चल पड़ी थी। प्रकाश के लिए उस क्षण वह बड़ी अस्वाभाविक हो गई थी। वह हैरान-सा देखता ही रह गया था।
एक चैलेंज की तरह स्वीकारा था उन्होंने प्रकाश को। सिर्फ प्रकाश को ही नहीं, सारी पुरुष-जाति को। लगता था कि कोई कारण है, पर क्या कारण है—अरसे तक पता ही न लगा था। बस, लगता था कि हर पुरुष गलत है। इसी झोंक में उन्होंने एक दिन एकाएक प्रकाश से अपने आपको काट लिया था। जैसे एक प्रदर्शनी देखी थी-देखी गई और बिसरा दी गई।
वह सब कितना क्रूर और निर्मम हो गया था? एक बार उनकी सहेली मिली थी उनसे। बिल्कुल उसी वक्त की बात है, जब प्रकाश खन्ना को उन्होंने ठुकरा दिया था। बोली थी—“तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, अरुण !”
“क्या हुआ?” वह बहुत रूखी होने लगी थीं।
“तुमने प्रकाश से बहुत बुरा व्यवहार किया है।“
इसका मतलब है कि प्रकाश खन्ना उन्हें बदनाम भी कर रहा है। शोषक पुरुष ! एक तिलमिलाहट से भर उठी थीं अरुणा रस्तोगी। पूछा था—“क्यों?”
“तुमने उसे पाँच साल बहकाए रखा।“ सहेली ने आरोप लगाया था, “आजकल-आजकल करती रही। बीच में स्वीकार भी लिया था, फिर अचानक तोड़ दिया।“
और निरुत्तर हो गयी थीं मिस रस्तोगी। न जाने क्या-क्या कहती रही थी वह, फिर चली गई थी। मिस रस्तोगी के मन का पुरुष-विरोध अधिक सघन हो उठा था। विद्रोहिणी हो उठी थीं वह। पचासों लेख और पुस्तकें लिख-लिखकर उन्होंने तर्कों से यह साबित भी करना शुरू कर दिया था कि पुरुष-जाति निम्न है। उन्होंने संस्थाएँ बनाई थी, भाषण दिये थे और सैकड़ों नई उम्र की लड़कियों में अपने विचित्र तर्क और बागी विचार ला दिए थे। पुरुष-विरोधी एक आंदोलन ही चला दिया था उन्होंने।
क्यों?
इस क्यों का जवाब उनके अपने पास भी न था। बस, लगता था कि बिना कारण ही कई बातें अच्छी लगती हैं। पुरुष-द्रोह का निर्णय भी कुछ वैसा ही था। पिता उन्हें समझाते थे-“विवाह के मामले में वैसे नहीं सोचा जाता है, अरुणा! जिस तरह तुम सोचा करती हो। विवाह के बिना आदमी अधूरा रह जाता है। पचासों कुंठाएँ उसे घेर लेती हैं। सारा जीवन पछतावे से भरा रहता है।“
“पर विवाह के बाद कुंठाएँ न घेरती हों, ऐसी बात तो है नहीं। उसके बाद भी पछतावा हो सकता है। अक्सर पछतावा ही होता है। जीवन में हर क्षण किसी न किसी रूप में कुंठाएँ मौजूद हैं।“ अरुणा रस्तोगी इस तरह जवाब दिए जाती थी, जैसे डिबेट में बोल रही हों। विपक्ष के हर प्रश्न को काट देना उनका धर्म बन गया था।
क्यों? शायद इसलिए कि बचपन से ही उन्होंने अपने पिता को पुरुष के रूप में ही देखा था। उस पुरुष के रूप में, जो स्त्री का शोषक होता है। मिस रस्तोगी ने देखा था कि उनके पिता अक्सर रात को बदल जाया करते थे। वह अपनी पत्नी यानी मिस रस्तोगी की माँ से हर आदेश इस तरह पूरा करवाते थे जैसे वह उनकी गुलाम हो। शुरू-शुरू में मिस रस्तोगी समझ नहीं पाती थी कि उनके पिता और माँ में झगड़ा क्यों होता है। बस यह देखती रहती थी कि उनके पिता क्रोधित होकर पत्नी को पीटा करते हैं। पत्नी रात-रात भर रोती रहती थी। सहमी हुई अरुणा रस्तोगी चुपचाप देखती रहती। कभी-कभी जी होता कि माँ की पीठ, पेट और माथे पर आए उन चोटों के निशानों को सहलाए जो उनके पिता की मार ने उन्हें दिए हैं। पर साहस न हो पाता था। कितनी क्रूर दृष्टि होती थी उनके पिता की। मिस रस्तोगी सोचती हैं तो भयभरी एक सिहरन उन्हें घेर लेती है।
वह जब भी अपनी माँ से एकांत में रोने का कारण पूछती, वह रूँधी हुई आवाज में कहती-“कुछ नहीं, बस यों ही—।“
वह चकित भाव से समझने की कोशिश करती रहतीं-कोई आदमी बिना कारण तो रोता नहीं है।
थोड़े दिनों बाद ही उन्हें कारण समझ में आने लगा था। वह कॉलेज में आ गयी थीं उन दिनों। वातावरण में फैली हवाओं और घर के माहौल में व्याप्त फुसफुसाहटों ने उन्हें कारण बताया था। उनके पिता निहायत बाजारू औरतों से संबंध बनाए हुए हैं। माँ यह बर्दाश्त नहीं कर सकती। कोई स्त्री बर्दाश्त नहीं कर सकती। पहली बार विद्रोह का अंकुर दिमाग में पनपा था—पनपा और फैल गया था।
और इसी बीच उनकी माँ मरी। जहर अरुणा रस्तोगी के दिमाग में फैल गया। प्रतिशोध और घृणा का जहर। समूचे पुरुष-समाज के लिए।
कभी-कभी उन्हें स्वयं से डर लगता था-कहीं वह गलत तो नहीं है? ऐसे हर क्षण वह तर्कों से स्वयं को सही कर लिया करती थीं। इस तरह सोचकर वह स्वयं नितांत स्त्री हो जाएगी और अचानक मिस रस्तोगी भूल-सुधार कर लेतीं। ऐसा ही भूल-सुधार उन्होंने खन्ना के साथ किया था। पहले स्वीकृति और फिर अस्वीकृति देकर।
एक दिन अचानक ही उन्हें लगा था जैसे प्रकाश खन्ना ने जवाब में उन्हें अपमानित कर दिया है। उसने विवाह कर लिया था। मिस रस्तोगी के नाम निमंत्रण-पत्र भेजा था उसने। मिस रस्तोगी चाहती थी कि प्रकाश खन्ना को बधाई दे दे। औपचारिकता से ही सही, पर बधाई दे। पर साहस नहीं हुआ था उन्हें। क्यों? यह अरसे तक नहीं समझ सकीं थीं। खुद को नहीं समझ सकी थीं।
एक द्वन्द्व से घिर गयी थी वह। उन्हें प्रकाश खन्ना पर क्रोध आने लगा था। बिल्कुल औसत दरजे का आदमी है वह! प्रेम का नाटक मिस रस्तोगी के साथ रचाता रहा था और विवाह—
पर कितना मूर्खतापूर्ण विचार था यह? प्रकाश खन्ना ने तो प्रस्ताव किया था, मिस रस्तोगी ने ही उसे अस्वीकार कर दिया। पर प्रकाश को यों किसी दूसरी लड़की से तो—
तो क्या प्रकाश अरुणा रस्तोगी की ही तरह जीवन बर्बाद कर लेता?
मगर अरुणा रस्तोगी ने तो जीवन बर्बाद किया नहीं है।
हो सकता है प्रकाश के अनुसार यह एकांत जीवन बर्बाद करना ही हो। बेहूदा बात है। मिस रस्तोगी बिल्कुल सही हैं।
छटपटा उठी थीं मिस रस्तोगी। पर कितनी अवश? वह प्रकाश का कुछ भी नहीं कर सकतीं। कुछ भी नहीं। अपने पिता का ही क्या कर सकी थीं वह? अतृप्ति उनके गले तक आ गयी थी। हमेशा की तरह तर्क उन्होंने भावनाओं पर लाद दिए थे। सब ठीक है। ठीक ही हो रहा है। जो जिस तरह सोचता है, ठीक है। अब अपनी-अपनी तरह तृप्त हैं।
और तभी उन्हें लगा था कि ऐसा नहीं है। कुछ है जरूर, जो सालता है। मन के अनजान कोनों तक तकलीफ पहुँचाता है।
क्या है वह? बहुत दिनों तक मालूम ही न हुआ था। लगता था कि टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों से भरा एक चित्र है और मिस रस्तोगी उसमें भटक रही हैं किसी सीधी लकीर की तलाश में।
अचानक ही एक एहसास मिस अरुणा रस्तोगी के तर्कों पर सवार हो गया था। बड़ी साधारण-सी घटना थी, लेकिन मन पर इस तरह छा गयी थी जैसे एक दिशा में जन्मा अँधेरे का बादल हो और थोड़ी देर में ही सारे आकाश पर घिर आया हो।
अजय चटर्जी से भेंट हुई थी उनकी। कोलकाता की किसी महिला संस्था में भाषण करने गयी थी वह। अजय वहीं मिल गया था, बरसों बाद। कितना बदल चुका था वह! कनपटियों के बाल सफेद होने लगे थे। शरारती आँखों में एक प्रौढ़ता आ बैठी थी और हँसी में गांभीर्य। अब से बारह वर्ष पहले का कॉलेज वाला अजय न जाने कहाँ गुम हो चुका था उस अजय में।
किसी प्राइवेट फर्म का मैनेजर था वह। उस समारोह में सपत्नीक पहुँचा था। दो बच्चे साथ थे। मिस रस्तोगी उस क्षण बहुत ध्यान नहीं दे सकी थी उन सब पर। आयोजकों और प्रशंसकों की भीड़ में घिरी हुई थी। मिस रस्तोगी को अपने घर आने का निमंत्रण और अपना पता देकर वह चला गया था। दूसरे दिन वह उसके घर पहुँची थी।
बहुत सादा रहन-सहन था अजय चटर्जी का। ड्रॉइंग-रूम में एक सोफ़ा पड़ा हुआ था और दो-तीन तस्वीरें लगी थीं। एक में अजय अकेला था- कॉलेज वाला अजय और दूसरी तस्वीर में वह अपनी पत्नी और दोनों बच्चों के साथ। कितने खूबसूरत बच्चे! सबसे छोटे बच्चे ने तुतलाते हुए पूछा-“आप अतेली आयी हैं?” इस प्रश्न ने उनका दिमाग मथ डाला।
अजय और उसकी पत्नी ने उनकी बहुत खातिरदारी की थी। बातचीत के दौरान अजय बताता रहा था कि वे कितने खुश हैं और उनके बच्चे कितने समझदार हैं—धीरे-धीरे उनकी बातचीत मिस रस्तोगी के दिल-दिमाग में एक खलबलाहट भरने लगी थी। जैसे सारा तन और मन हल्की आँच पर रखा हुआ हो और क्रमशः उबलने लगा हो। कितना खुश, कितनी शान्ति, कितनी मिठास। मिस रस्तोगी झेल नहीं पा रही थीं अजय की सुखी ज़िंदगी।
क्या मिस रस्तोगी स्वयं इतना छोटा सुखी परिवार जुटाकर शांतिपूर्ण जीवन नहीं बिता सकती थी? जगह-जगह अपने पागलपन भरे विचारों का प्रचार-प्रसार कर क्या पा लिया है उन्होंने?
यहीं अजय की पत्नी ने पूछ डाला-“शादी न करने में क्या तुक है?” उन्हें एक थप्पड़-सा लगा।
मिस रस्तोगी यदि प्रकाश से फोन पर रूखा-सा व्यवहार करतीं तो शायद वह मिलने की बात न कहता, पर क्या ऐसा किया जाना ठीक होता?
क्या ठीक है, क्या नहीं—इस उलझन में पड़े बिना मिस रस्तोगी को चाहिए था कि वह उससे कतरा जाएँ। क्या सच से इस तरह कतराना चाहिए?
कब-कब सच से नहीं कतराईं हैं मिस रस्तोगी? हर बार वह ऐसा ही करती रही हैं और हर बार उन्होंने सच का कोई तकलीफदेह शूल हृदय से उतार लिया है। वे सब इकठ्ठे हो गए हैं और चुभते हैं। तीखी वेदना पहुँचाते हैं और इसीलिए उन्होंने आज निर्णय किया कि वह इस बार सच का सामना करेंगी, उन स्मृतियों का सामना करेंगी, जो उन्हें हमेशा काटती रही हैं।
सन्नाटा अधिक गहरा हो गया है और इस सन्नाटे में अनवरत होती हुई झींगुरों की आवाज मिस रस्तोगी को चीरती-सी लगती है।
एकाएक वह उठ पड़ी। शून्य फैला था दिमाग में। यंत्रवत घर में आयी। रोशनी है। नौकरानी ने पूछा था-“खाना लगा दूँ?” मिस रस्तोगी ने जवाब नहीं दिया। अक्सर ऐसा होता है और नौकरानी इस चुप्पी का अर्थ जानती है—इंकार।
मिस रस्तोगी ड्रॉइंग-रूम में चली आयीं। महंगी साज-सज्जा है इसमें। खूबसूरत फ़्रेमों में कैद तस्वीरें दीवारों पर लटकी हुई हैं पर कितनी अजीब बात है कि इसके बावजूद एकांत।
मिस रस्तोगी क्रमशः उन तस्वीरों को देख रही हैं। एक में माता-पिता के साथ हैं, दूसरी में कुछ सहपाठिनों के साथ, तीसरी में पिकनिक के दौरान—
यह तस्वीर प्रकाश ने ली थी। शून्य के बीच फिर से एक सितारा उग आता है। फोन आया था उसका। कल आएगा।
मिस रस्तोगी को आज तक इस तस्वीर से जुड़े संवाद याद हैं। पिकनिक के वक्त अचानक ही प्रकाश उनके सामने आ खड़ा हुआ था, कैमरा हाथ में—रेडी! इससे पहले कि वह कुछ कहे, उसने क्लिक कर दिया था। क्लिक—एक याद!
उस वक्त का प्रकाश ! कितने साल हो चुके हैं इस तस्वीर को खिंचे। इस बीच प्रकाश कितना बदल गया होगा और मिस रस्तोगी?
वह सोफ़ा-चेयर पर निढाल-सी आ गिरी। सब बदल गया है। इतना बदल गया है कि विश्वास नहीं होता कि कभी कुछ सच था।
“आप अतेली आयी हैं?” अजय चटर्जी के बच्चे ने पूछा था। उस क्षण निरुत्तर रहीं मिस रस्तोगी ने उत्तर में सारा घर तस्वीरों, खिलौनों, खूबसूरत फर्नीचर से सजा डाला था। किन्तु क्या वह अपना एकांत दूर कर सकीं? नहीं! हर बार बच्चे का सवाल दिमाग में कौंध उठता। और उसी से जुड़ी हुई एक और याद! अजय की पत्नी का थप्पड़—‘इसमें क्या तुक है कि विवाह न किया जाए।‘
वह उठी और दूसरे कमरे में चली आयी। सोने के कमरे में। सो जाना चाहती हैं। बिस्तरे पर आकर लेट गयीं। डबल-बेड बिछा रखा है, पर क्यों? कोई जवाब नहीं है। इर्द-गिर्द रैकों में ढेर-से खूबसूरत खिलौने सजे हुए हैं। कई साल से उन्हें खरीद रखा है, पर आज तक नहीं टूटे। कभी सोचा था उनसे मन बहाल जाएगा, किन्तु वे सब सताने लगे। एकांत में डरावने हो उठते हैं और लगता है जैसे पूछते हैं कि उनका वहाँ क्या औचित्य है?
सर भारी हो उठा है। लगता है, माथा फट पड़ेगा। मिस रस्तोगी ने नौकरानी को आवाज दी और जब वह आ गयी तब घुटती हुई आवाज में कहा—“पानी।“ थोड़ी देर में वह पानी ले आयी। वह जानती है कि इस पानी का उपयोग क्या है।
मिस रस्तोगी ने सिरहाने रखी शीशी से दो गोलियाँ निकालकर पानी के घूँट के साथ गले से नीचे उतार लीं। सन्नाटा और सन्नाटे में बिखरी हुई आवाजें—पहचाना? मैं प्रकाश हूँ—आप अतेली आयी हैं—रेडी—
मिस रस्तोगी लेट गयीं। थोड़ी ही देर में सो जायेंगी। कल आएगा प्रकाश खन्ना। किसी भी वक्त आ सकता है। क्या कहेगी? कुछ तो कहना ही होगा। क्या सामना कर पायेंगी वह? कुछ नए शूल दे जाएगा। सच-शूल।
सन्नाटे पर एक और सन्नाटा फैलने लगा है। नींद की गोली का सन्नाटा। सच पर झूठ का सन्नाटा। मिस रस्तोगी की नसों में ढीलापन आ समाया है। धीरे-धीरे यह ढीलापन दिमाग तक फैल जाएगा—फैल रहा है।
इस क्षण मिस रस्तोगी यह भी नहीं सोच पा रही हैं कि सुबह फिर होगी, हर दिन होगी।
वह सुबह आ ही गया। इतने सुबह कि मिस रस्तोगी जागी ही नहीं थीं। नौकरानी ने उन्हें जगाया और जब उन्होंने आँखें खोलीं तब डरते-डरते उसने बताया कि वह आए हुए हैं।
“कौन?”
“कोई प्रकाश बाबू—“
“ओह !” मिस रस्तोगी ने अलसाई आवाज में कहा—“उनसे कहो, मैं आती हूँ।“
नौकरानी जा रही थी—
मिस रस्तोगी को लगा कि कोई फिर से जगा रहा है। क्या कर रही है अरुणा रस्तोगी? वह प्रकाश खन्ना है। क्या सामना कर सकेगी वह? “सुनो!” वह लगभग चीखी। नौकरानी रुक गई।
“उनसे कहो कि—कि—मैं नहीं हूँ। घर में नहीं हूँ।“ मिस रस्तोगी की आवाज काँप रही थी।
“पर बीबी जी, मैंने उनसे कहा है कि सो रही हैं। उन्होंने कहा था कि आप को जगा दूँ।“
मिस रस्तोगी झल्लाई—“तुमने क्यों कहा कि मैं सो रही हूँ? क्यों?” फिर वह चुप हो गई। क्या करें? मिलें? मिल पायेंगी? थोड़ी देर बाद बोली—“उनसे कहो कि वह जाग नहीं रही हैं। रात को देर से सोई थीं। फिर से किसी वक्त आयें।“
नौकरानी जा रही है। जी होता है कि उसे रोक लें और दौड़कर प्रकाश खन्ना के सामने जा पहुँचे। ढेर-से सवाल कर दे। उसके करीब बैठ जाए। पर शरीर अब भी शिथिल है। दिमाग में सन्नाटा अब भी भरा हुआ है।
वह चली गई। थोड़ी देर बाद लौटी।
“चले गए?”
“हाँ।“
“कुछ कहा उन्होंने?” मिस रस्तोगी को लगता है कि उसने कुछ न कुछ जरूर कहा होगा।
“जी नहीं।“
“ओह!” वह थक गई। एकाएक उठी और दूसरे कमरे में जा पहुँची। खिड़की से देखा कि वह जा रहा था। थकी और ढीली चाल से। प्रकाश खन्ना ! वह फाटक के करीब था, मुड़ते वक्त उसने कुछ निरीह भाव से मिस रस्तोगी के मकान की ओर देखा और फिर गायब हो गया।
मिस रस्तोगी का जी हुआ कि रो पड़े। क्यों? बिना कारण? बस, रो पड़ना चाहिए। वह पुनः सोने के कमरे में चली आयी—
डबल-बेड, खूबसूरत रैक, सजे खिलौने, एक ओर सजी मिस रस्तोगी की तार्किक पुस्तकें—तुतलाता हुआ एक सवाल—आप अतेली आयी हैं—अतेली—अतेली—एक शोर भर उठा है मिस रस्तोगी के घर और मन में—खिलौने सवाल कर रहे हैं—क्यों हैं हम? अब तक क्यों नहीं टूटे हम? इतनी बेशर्म उम्र? इतने अकेले हम?
अचानक मिस रस्तोगी क्रोध से भर उठीं। उन्होंने झपटकर खिलौने तोड़ डाले। आवाजों से कमरा गूँज उठा। शीशे, रैक, पुस्तकें, तस्वीरें—सब कुछ तोड़-फोड़ दिया। वह तब तक यह सब करती रहीं, जब तक कि थक न गईं।
नौकरानी आ खड़ी हुई थी और हैरान नजरों से उन्हें देख रही थी। मिस रस्तोगी चिल्लाई—“निकल जाओ। जाओ। मैं अकेली रह सकती हूँ। क्यों नहीं रह सकती।“ फिर वह बिस्तर पर आ गिरी और जोर-जोर से रो उठीं—बच्चों की तरह बिलख-बिलखकर –
ऐसे तो कभी रोती नहीं थी मिस रस्तोगी !