सिंहासन बत्तीसी पहली पुतली – रत्नमंजरी
राजा भोज ने जब खुदाई में प्राप्त राजा विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठने का प्रयत्न किया तो सिंहासन की पहली पुतली रत्नमंजरी ने उन्हें रोकते हुए कहा- “हे राजन! राजा विक्रम के इस सिंहासन पर वही बैठ सकता है, जो उनकी तरह प्रतापी, दानवीर और न्यायप्रिय हो। मैं आपको राजा विक्रम की कथा सुनाती हूँ। इसे सुनकर आप स्वयं निश्चय करें कि आप इस सिंहासन के योग्य हैं या नहीं।”
इतना कहकर रत्नमंजरी ने कथा कहनी शुरू की।
आर्यावर्त में एक राज्य था जिसका नाम था अम्बावती। वहाँ के राजा गंधर्वसेन ने चारों वर्णों की स्त्रियों से चार विवाह किये थे। ब्राह्मणी के पुत्र का नाम ब्रह्मणीत था। क्षत्राणी के तीन पुत्र हुए- शंख, विक्रम तथा भर्तृहरि। वैश्य पत्नी ने चन्द्र नामक पुत्र को जन्म दिया तथा शूद्र पत्नी ने धन्वन्तरि नामक पुत्र को। ब्रह्मणीत को गंधर्वसेन ने अपना दीवान बनाया, पर वह एक दिन राज्य छोड़कर चुपचाप कहीं चला गया। कुछ समय भटकने के बाद वह धारा नगरी पहुँचा और वहाँ ऊँचा ओहदा प्राप्त किया तथा एक दिन राजा का वध करके खुद राजा बन गया। काफी दिनों के बाद उसने उज्जैन लौटने का विचार किया, लेकिन उज्जैन आते ही उसकी मृत्यु हो गई।
इधर क्षत्राणी के पुत्रों में विक्रम सर्वाधिक योग्य था। बड़े पुत्र शंख को शंका हुई कि उसके पिता विक्रम को योग्य समझकर उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते हैं। उसने एक दिन सोए हुए पिता का वध करके स्वयं को राजा घोषित कर दिया। हत्या का समाचार दावानल की तरह फैला और उसके सभी भाई प्राण रक्षा के लिए भाग निकले। विक्रम को छोड़कर बाकी सभी भाइयों का पता उसे चल गया और वे सभी मार डाले गए। बहुत प्रयास के बाद शंख को पता चला कि विक्रम घने जंगल में सरोवर के बगल में एक कुटिया में रह रहा है तथा कंदमूल खाकर घनघोर तपस्या में रत है। वह उसे मारने की योजना बनाने लगा और एक तांत्रिक को उसने अपने षड्यंत्र में शामिल कर लिया।
योजनानुसार तांत्रिक विक्रम को भगवती आराधना के लिए राज़ी करता तथा भगवती के आगे विक्रम के सर झुकाते ही शंख तलवार से वार करके उसकी गर्दन काट डालता। मगर विक्रम ने खतरे को भाँप लिया और तांत्रिक को सर झुकाने की विधि दिखाने को कहा। शंख मन्दिर में छिपा हुआ था। उसने विक्रम के धोखे में तांत्रिक की हत्या कर दी। विक्रम ने झपट कर शंख की तलवार छीन कर उसका सर धड़ से अलग कर दिया। शंख की मृत्यु के बाद उसका राज्यारोहण हुआ।
एक दिन शिकार के लिए विक्रम जंगल गए। मृग का पीछा करते-करते सबसे बिछड़कर बहुत दूर चले आए। उन्हें एक महल दिखा और पास आकर पता चला कि वह महल तूतवरण का है जो कि राजा बाहुबल का दीवान है। तूतवरण ने बात ही बात में कहा कि विक्रम बड़े ही यशस्वी राजा बन सकते हैं, यदि राजा बाहुबल उनका राजतिलक करें। उसने यह भी बताया कि अगर बाहुबल भगवान शिव द्वारा प्रदत्त अपना स्वर्ण सिंहासन विक्रम को दे दें तो विक्रम चक्रवर्ती सम्राट बन जाएंगे। बाहुबल ने विक्रम का न केवल राजतिलक किया, बल्कि खुशी-खुशी उन्हें स्वर्ण सिंहासन भी भेंट कर दिया।
राजा विक्रमादित्य ने लौटते ही सभा की और पंडितों को बुलाकर कहा, ‘मैं एक अनुष्ठान करना चाहता हूं। आप देखकर बताएं कि मैं इसके योग्य हूं या नहीं।’
पंडितों ने कहा, ‘आपका प्रताप तीनों लोकों में छाया हुआ है। आपका कोई बैरी नहीं। जो करना हो, कीजिए। अपने खानदान के सब लोगों को बुलाइए, सवा लाख कन्या दान और सवा लाख गायें दान कीजिए, ब्राह्मणों को धन दीजिए, जमींदारों का एक साल का लगान माफ कर दीजिए।’
राजा ने ऐसा ही किया। कालांतर में वह चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए और उनकी कीर्तिपताका सर्वत्र लहरा उठी।
इतना कहकर पुतली रत्नमंजरी बोली, ‘हे राजन्! आपने अगर कभी ऐसा दान किया है तो सिंहासन पर अवश्य बैठें।’
पुतली की बात सुनकर राजा भोज निराश हो कर चुपचाप पीछे हट गए।
October 7, 2020 @ 11:07 am
Bahut dinon ke baad pdhne ko mili. Par jaane kyun dimag me ye yaad chhai hui thi ki isme koi paheli si rehti hai.
Pori kahani pdh kr jyada mza aaega.
Jari rakhiye