काजर की कोठरी-खंड 6
पारसनाथ अपने चाचा के हाल-चाल बराबर लिया करता था। उसने अपने ढंग पर कई ऐसे आदमी मुकर्रर कर रखे थे जो कि लालसिंह का रत्ती-रत्ती हाल उसके कानों तक पहुँचाया करते और जैसा कि प्रायः कुपात्रों के संगी-साथी किया करते हैं उसी तरह उन खबरों में बनिस्बत सच के झूठ का हिस्सा बहुत ज्यादे रहा करता था।
रात को लालसिंह के पास सूरजसिंह के आने की इत्तिला भी पारसनाथ को हो गई, मगर उसमें दो बातों का फर्क पड़ गया। एक तो उसका जासूस इस बात का पता न बता सका कि आने वाला कौन था, क्योंकि सूरजसिंह अपने को छिपाए हुए लालसिंह तक पहुँचे थे और इस बात का गुमान भी किसी को नहीं हो सकता था कि सूरजसिंह लालसिंह के पास आवेंगे, दूसरे जब सूरजसिंह के साथ लालसिंह बाहर चले गए, तब पारसनाथ को इस बात की खबर लगी।
शैतानी का जाल फैलानेवाला हरदम चौकन्ना ही रहा करता है, अस्तु, पारसनाथ का भी वही हाल था। खबर पाते ही वह लालसिंह की तरफ गया मगर कमरे के दरवाजे पर पहुँचते ही उसने सुना कि ‘लालसिंह किसी के साथ कहीं बाहर गए हैं।’ थोड़ी देर तक उनके आने का इंतजार किया, जब वे न आए तो लौटकर अपने स्थान पर चला गया, मगर इस बात का प्रबंध करता गया कि जब लालसिंह लौटकर आवें तो उसे खबर मिल जाए।
तरह-तरह के सोच और विचारों ने उसकी आँखों में नींद को आने न दिया और वह तीन पहर रात जाने तक भी अपनी चारपाई पर करवटें बदलता रहा। इस बीच में लालसिंह के लौट आने की भी उसे इत्तिला न मिली, जिससे उसके दिल का खुटका भी और बढ़ता ही गया। आखिर तरद्दुदों और फिक्रों से हाथापाई करती हुई निद्रा ने उसकी आँखों में अपना दखल जमा लिया और वह तीन-चार घंटे-भर के लिए बेखबर सो गया।
जब उसकी आँख खुली तो दिन कुछ ज्यादे चढ़ चुका था। आँख खुलने के साथ ही वह घबड़ाकर उठ बैठा और धीरे-धीरे यह बुदबुदाता हुआ अपनी कोठरी के बाहर निकला, “ओफ, बड़ी देर हो गई, चाचा कभी के आ गए होंगे” उसी समय उसके नौकर ने सामने पड़कर उसे झार दी, ”सरकार (लालसिंह) बरामदे में बैठे तंबाकू पी रहे हैं।”
जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह धोकर वह लालसिंह की तरफ रवाना हुआ और जब उनके बरामदे में पहुँचा तो उन्हें कुर्सी पर बैठे तंबाकू पीते देखा। अदब के साथ झुककर सलाम करने के बाद एक किनारे खड़ा हो गया। लालसिंह की कुर्सी के पास ही एक छोटी-सी चौकी बिछी हुई थी, जिस पर इशारा पाकर पारसनाथ बैठ गया और यह बातचीत होने लगी-
लालसिंह: रात को तुम कहाँ चले गए थे? जब हमने तुमको बुलाया तब तुम घर में नहीं थे।’ 1
पारसनाथ: (ताज्जुब से) “मैं तो रात को घर में ही था! किस समय आपने याद किया था?”
लालसिंह: “उस समय मैं अपने तरद्दुदों में डूबा हुआ था, इसलिए ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि कितनी रात गई होगी।”
पारसनाथ: ठीक है, तो बहुत रात न गई होगी, क्योंकि जब मैं लौटकर घर आया था तब पहर-भर से ज्यादे रात न गई थी।”
लालसिंह: “शायद ऐसा ही हो।”
पारसनाथ: “मैं रात को आपके पास आया भी था मगर सुना कि आप किसी अनजान आदमी के साथ बाहर गए हैं।”
लालसिंह: “उस समय तुम क्यों आए थे?”
पारसनाथ: “दो-एक नई खबरें जो कल मुझे मिली थीं वही आपको सुनाने के लिए आया था। मैंने सोचा था कि अगर जागते हों तो इसी समय-दिल का बोझ हलका कर लूँ।”
लालसिंह: “वह कौन-सी खबर थी?”
पारसनाथ: “उस खबर का असल मतलब यही था कि आज रात हरनंदन को रंडी के यहाँ बैठे आपको दिखा सकूँगा।”
लालसिंह: (कुछ सोचकर) “बात तो ठीक है, मगर मैं सोचता हूँ कि हरनंदन को रंडी के यहाँ देखने से मेरा मतलब ही क्या निकलेगा?”
पारसनाथ: (कुछ उदास होकर) “भला मेरे कहने का आपको विश्वास तो हो जाएगा! और मैंने जो आपकी आज्ञा से बहुत कोशिश करके और कई आदमियों को बहुत कुछ देने का वादा करके इस काम का बंदोबस्त किया है वह.. ।”
लालसिंह: (लापरवाही के ढंग पर) “खैर देने-लेने की कोई बात नहीं है, उन लोगों को जिनसे तुमने वादा किया है, जो कुछ कहोगे यदि उचित होगा तो दे दिया जाएगा, और जब हम लोग उनसे काम ही न लेंगे या हरनंदन को रंडी के घर देखने ही न जाएँगे, तो उन्हें कुछ देने की भी जरूरत ही क्या है?”
पारसनाथ: “आपको अख्तियार है, उसे देखने जाएँ या न जाएँ, मगर वे लोग तो अपना काम कर ही चुके हैं, और जब उन्हें कुछ देना पड़ेगा ही तो जरा-सी तकलीफ करने में हर्ज ही क्या है? और कुछ नहीं तो मुझे आपके आगे सच्चे बनने का.. ।“
लालसिंह: (बात काटकर) “केवल हरनंदन को रंडी के यहाँ दिखाकर तुम सच्चे नहीं बन सकते। तुमने हमें सरला के जीते रहने का विश्वास दिलाया है।“
पारसनाथ: “ठीक है, मगर मैंने साथ ही इसके यह भी तो कहा था कि सरला अगर मारी गई तो, या जीती है तो, मगर उसके साथ बुराई करनेवाला हरनंदन ही है। मैं सरला को भी खोज निकालने का बंदोबस्त कर रहा हूँ, मगर उसके पहिले हरनंदन की बदचलनी दिखाकर कुछ तो अपने बोझ से हलका हो जाऊँगा।“
लालसिंह: “हाँ, सो हो सकता है, मगर मेरा कहना यह है कि जब तक सरला का ठीक पता न लग जाए तब तक मैं हरनंदन की बदचलनी देखकर भी क्या जस लगा लूँगा? बिना सबूत के किसी तरह का शक भी तो उस पर नहीं कर सकता! क्योंकि उसका एक दोस्त ऐसा आदमी है, जिसकी महाराज के यहाँ बड़ी इज्जत है, उसका खयाल भी तो करना चाहिए। हाँ अगर सरला का पता लगता हो तो जो कुछ कहो देने या खर्च करने के लिए मैं तैयार हूँ।“
पारसनाथ: “सरला का पता भी शीघ्र ही लगा चाहता है। अभी कल ही उन लोगों ने मुझे सरला के जीते रहने का विश्वास दिलाया है, जिन लोगों ने आज हरनंदन को रंडी के यहाँ दिखा देने का प्रबंध किया है। यदि उनका पहिला उद्योग व्यर्थ कर दिया जाएगा तो आगे किसी काम में उनका जी न लगेगा और न फिर वे मेरे काम का कोई उद्योग ही करेंगे, बल्कि ताज्जुब नहीं कि मेरी बेइज्जती पर उतारू हो जाएँ।“
लालसिंह: “ठीक है, रुपया ऐसी ही चीज है। रुपए के वास्ते लोग सभी कुछ कर गुजरते हैं, भले-बुरे पर ध्यान नहीं देते। लेकिन जिस तरह वे लोग रुपए के लिए तुम्हारी बेइज्जती कर सकते हैं, उसी तरह तुम भी तो अपना रुपया बचाने के लिए बेइज्जती सह सकते हो। मेरे इस कहने का मतलब यह नहीं है कि मैं रुपए खर्च करने से भागता हूँ या रुपए को सरला से बढ़ के प्यार करता हूँ, मगर हाँ, व्यर्थ रुपए खर्च करना भी बुरा समझता हूँ। यों तो तुम जो कुछ कहोगे उन लोगों के लिए दूँगा, मगर घड़ी-घड़ी मेरे दिल में यही बात पैदा होती है कि रंडी के यहाँ हरनंदन को देख लेने से ही मेरा क्या मतलब निकलेगा?
मान लिया जाए कि उसकी बदचलनी का सबूत मिल जाएगा, तो मैं बिना कष्ट उठाए और बिना रुपए बर्बाद किए ही अगर यह मान लूँ कि हरनंदन बदचलन है तो इसमें नुकसान ही क्या है? बल्कि फायदा ही है। इसके अतिरिक्त मैं एक बात और भी सोचता हूँ, वह यह कि यदि मैंने रंडी के मकान पर जाकर हरनंदन को देख लिया और उसने मुझे अपने सामने देखकर किसी तरह की परवाह न की या दो-एक शब्द बेअदबी के बोल बैठा तो मुझे कितना रंज होगा?
अपने चाचा लालसिंह की दोरंगी और चलती -फिरती बातें सुनकर पारसनाथ कुछ नाउम्मीद और उदास हो गया। उसके दिल में तरह-तरह के खुटके पैदा होने लगे। लालसिंह की बातों से उसके दिली भेद का कुछ पता नहीं चला था और न रुपए मिलने की ही पूरी-पूरी उम्मीद हो सकती थी, अस्तु, आज बाँदी को क्या देंगे, इस विचार ने उसे और भी दुखी किया तथापि बलवती आशा ने उसका पीछा न छोड़ा और वह जल्दी के साथ कुछ विचारकर बोला, “आप तो हरनंदन को बड़ा नेक और सुजन समझते हैं, तो क्या उससे ऐसी बेअदबी होने की भी आशा करते हैं?”
लालसिंह: “जब तुम हमारे विचार को रद करके कहते हो कि वह नालायक और ऐयाश है तथा इस बात का सबूत देने के लिए भी तैयार हो, तो अगर मैं तुम्हें सच्चा मानूँगा तो जरूर दिल में यह बात पैदा होगी ही कि अगर वह मेरे साथ बेअदबी का बर्ताव करे तो ताज्जुब नहीं।“
पारसनाथ: (कुछ लाजवाब होकर) “खैर आप बड़े हैं, आपसे बहस करना उचित नहीं समझता, जो कुछ आप आज्ञा देंगे मैं वही करूँगा।“
लालसिंह: “अच्छा इस समय तुम जाओ, मैं स्नान-पूजा तथा भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर इस विषय पर विचार करूँगा, फिर जो कुछ निश्चय होगा तुम्हें बुलवाकर कहूँगा।“
उदास मुख पारसनाथ अपने चाचा के पास से उठकर चला गया और उसके रोब तथा बातों की उलझन में पड़कर यह भी पूछ न सका कि आप रात को किसके साथ कहाँ गए थे।
- यह बात लालसिंह ने बिलकुल झूठ कही।