बाँस की छतरी
आषाढ़ का महीना था। वर्षों बाद गाँव में आषाढ़ के महीने का आनन्द लेने का मौका मिला था। बादलों का उमड़ना-घुमड़ना, सूखी धरती पर बिछी हरियाली, कभी तेज फुहार, ठंडी हवाओं के झोंके, हवा के झोंको के साथ बगुलों का पंक्तिबद्ध उड़ना, खेती-बारी के कार्यों में आई तेजी से किसानों की व्यस्तता, हलवाहों का बैलों को हांकने की आवाज, चरवाहों का झुंडों के पीछे दौड़ना-भागना; खुशनुमा मौसम ! वर्षों बाद ऐसे वातावरण से रू-बरू होने का मौका हाथ आया था।
सूर्यास्त होने को आया था। भंडार कोने में काले-काले बादल घनीभूत हो रहे थे। कभी-कभी बादल गरज उठते थे। रह-रहकर बिजली चमक रही थी और आने वाली बारिश की सूचना दे रही थी। पुरखों के लिए भंडारकोने में बादलों का घिरना और उमड़ना-घुमड़ना एक शुभ संकेत माना जाता था। भंडारकोना अर्थात् पश्चिमोत्तर कोना। इस कोने में बादलों का उठना, गरजना और बिजली का रह-रहकर चमकना अर्थात् अच्छी बारिश का होना तय माना जाता था। इस कोने से बारिश की शुरूआत होने से पुरखों में यह मान्यता थी कि बारिश पूरी होगी और फसल के अच्छे होने की पूरी संभावना थी। अंधेरा बढ़ रहा था। ठंडी-ठंडी हवा बहने लगी थी। ऐसा लगने लगा कि पास-पड़ोस में बारिश हो रही है। हवा का रूख तेज हो रहा था। हमने जल्दी ही रात्रि का भोजन किया क्योंकि देहात में बिजली के आने-जाने का कोई भरोसा नहीं रहता। रात गहराने लगी थी। चारों ओर सन्नाटा था। देहात में लोग खाना खाकर जल्दी ही सो जाते हैं। बिजली चली गई थी। हल्की बारिश होने लगी थी। छत पर पड़ने वाली वर्षा की बूंदें एक मादक संगीत उत्पन्न कर रही थीं। उस संगीत के लय में नींद कब आ गई इसका पता ही न चला। झरोखों के रास्ते भटकी बूंदें चेहरे पर पड़ीं और नींद खुल गई। बारिश अब भी हो रही थी। बादल का गरजना और रह-रहकर बिजली का चमकना जारी था। आधी रात के बाद बारिश की रफ्तार कुछ कम हुई पर हल्की बारिश जारी थी। बारिश की थपकी से जो नींद आई तो सबेरे आंखें खुलीं। कमरे से बाहर देखा तो रिमझिम बारिश हो रही थी। आकाश मेघाच्छादित था। लगता था बारिश कभी भी तेज हो सकती थी। मैंने छाता लिया और बाहर का नजारा देखने निकला। आठ बज चुके थे। सारी प्रकृति रातभर वर्षा के बूंदों से नहाई ताजी और हंसमुख लग रही थी। मैं मैदान की इस छोर खड़ा मैदान के उस पार स्थित शाला-भवन को देख रहा था। साठ वर्ष पूर्व मैंने इसी शाला में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी। यह शाला भवन पिछले सौ सालों से उसी बुलंदी से खड़ा है। नियमित रख-रखाव एवं समय-समय पर सुधार कार्य होने से यह शाला-भवन एक गौरवमय इतिहास बयान करते हुए खड़ा है। हमारे समय में सामने और पीछे दरवाजे हुआ करते थे परंतु अब सुरक्षा कारणों से पीछे वाला दरवाजा बंद कर दिया गया है और घेराबंदी कर दी गई है। मैं शाला-भवन को निहारता अतीत में खो गया। पिछले सौ सालों में इस शाला ने क्षेत्र के हजारों-लाखों नौनिहालों को शिक्षित कर जीने की राह दिखाई। अब तो इसके साथ-साथ अंग्रेजी माध्यम स्कूल भी खुल गया है जिससे अतिरिक्त ताम-झाम में भी वृद्धि हुई है। क्या करें समय की मांग है। मेरा मन अतीत और वर्तमान के झूले में झूलने लगा। हल्की बारिश हो रही थी। स्कूली बच्चों का स्कूल पहुंचना शुरू हो गया था। हर बच्चा शाला गणवेश में था। हिन्दी माध्यम वालों का ड्रेस अलग था। अंग्रेजी माध्यम वाले बच्चे अलग ड्रेस टाई और जूता-मोजा पहने हुए थे। हमारे जमाने में कोई निर्धारित ड्रेस नही था। लोग गरीब थे अतः जिसको जो उपलब्ध होता वही लपेट कर स्कूल आता। बहुत कम ही थे जो पैंट कमीज पहने स्कूल आते थे शेष सब लंगोट बांधे आते थे। मुझे याद है चौथी कक्षा में प्रथम आने पर इनाम में मुझे हाफ पैंट और एक बनियान मिला था तब मैंने पैंट पहना था और उसके फटने तक पहना था। उसके फटने के बाद पुनः लंगोट में आ गया था। दादी मां स्थानीय जुलाहे से मेरे लिए लंगोट बुनवाती थी परंतु मुझे उसे कसकर बांधने में बड़ी कठिनाई होती थी। उस जमाने में स्कूली बच्चे पगडंडियों से होकर शाला आते थे; अब तो सारे गाँव सड़कों से जुड़ गए हैं, सड़कें बन गई हैं। कई बच्चे सायकिल से शाला पहुंच रहे थे और किन्ही-किन्ही बच्चों के पिता या भाई उन्हें मोटर सायकिल से शाला पहुंचा रहे थे। हल्की बारिश अब भी जारी थी। हर बच्चा छाता या (रेनकोट) बरसाती ओढ़े था। कोई बच्चा ऐसा न था जो भींगते हुए शाला आ रह
ा हो। मैंने खुले में आकर अपने पैतृक गांव की ओर से आने वाले स्कूली बच्चों को देखा। आधी सदी से भी अधिक लंबा समय निकल गया था जब हमारा परिवार शाला से लगभग तीन-चार किलोमीटर दूर गांव में रहता था। पिताजी शाला में मास्टर थे अतः हम स्कूल वाले गांव में आ गए थे। तब मैं भी गांव के अन्य सहपाठियों के साथ उसी रास्ते से स्कूल आता था। आज हमारे गांव के बच्चे भी सायकिल अथवा अन्य साधनों से शाला पहुंच रहे थे। समय कितना बदल गया था।
छोटे-छोटे बच्चों को छाता या बरसाती ओढ़े स्कूल आते देख, मैं पुनः अपने बचपन की ओर लौट गया। हमारे जमाने में गांव के कुछ ही लोगों के पास छाता (छतरी) हुआ करता था। हम लोग कपड़े के छाते को “चलानी छाता” कहते थे। इस छाते को संभाल कर रखते थे। इसके फटने पर या पुराना होने पर गांव-गांव में घूमने वाले छाता सुधारकों से सुधरवाते अथवा स्थानीय दर्जी से उपलब्ध कपड़े के टुकड़ों से पैबंद लगवाते थे जिससे छाते का मूल रंग रूप बदल जाता था परन्तु जैसा भी हो बारिश से बचाता ही था। जिनके पास चलानी छाता नहीं होता उनके पास बांस की छतरी अथवा लव पत्तों से बना ढक्कन नुमा साधन होता था जिससे बारिश से बचा जा सकता था। पत्तों से बने इस ढक्कन नुमा छाते की विशेषता यह थी कि इसे ओढ़ कर भारी बारिश के समय भी काम किया जा सकता था। इसकी एक अतिरिक्त विशेषता यह थी कि उसे ओढ़ने से शरीर को उष्मा प्राप्त होती थी। उसे ओढ़कर झड़ी में भी रोपनी या अन्य काम आराम से किया जा सकता था। इसे या तो कोरवा जनजाति के लोग बनाकर बेचते थे अथवा गांव के बड़े एवं कलाकार बुजुर्ग स्वयं बना लेते थे। इसे यदि गौर से देखा जाए तो यह बड़े टिड्डे के आकार का होता था और स्थानीय भाषा में इसे “गुंगू” कहते थे।
अपने गांव से आने वाले बच्चों को देख रहा था। हर बच्चे के हाथों में छाता था। मुझे अपना वह समय याद आ गया। तब मैं पहली-दूसरी कक्षा का विद्यार्थी था। हमारे समय में थोड़ी बड़ी उम्र से पढ़ाई शुरू करते थे। गांव के हमउम्र लड़कों में मैं फिर भी छोटा ही था। मेरे साथ के एक दो और साथी थे जो मुझसे थोड़े ही बड़े थे। हमारी एक टोली थी जिसका नायक गांव के पटेल का बेटा था। वह हमसे कुछ बड़ा था पर उससे हमारी खूब जमती थी। उसके पास भी छाता (चलानी छाता) था। हम तीन की वह टोली थी। हम साथ-साथ शाला आते और साथ-साथ वापस होते थे। बारिश होने की स्थिति में हम उसके यहां पहुंच जाते और वह शान से छाता निकालता था। हम तीनों छाता के नीचे साथ-साथ चलने की कोशिश करते परन्तु, अक्सर भींगने की स्थिति बन जाती थी। बच्चों को बारिश में भींगने में बड़ा आनन्द आता है। बारिश का आकर्षण ही कुछ अलग होता है। हमें साथ-साथ बारिश से बचाते चलने में असुविधा सी होती थी। छाते की नीचे भी भींगने की स्थिति देख बारिश का मजा लेने का लोभ बढ़ जाता था; अतः हमारे बीच एक सहमति बनी कि छाता स्वामी हमारे कपड़े और बस्ते संभाल ले और शेष बचे साथी नंगे बदन भींगते हुए शाला पहुंचें। लंगोट और कमीज को सूखा रखना जरूरी था क्योंकि गीले होने पर दूसरे दिन के लिए कपड़े नहीं थे।
बस्ते के नाम पर स्लेट और पेन्सिल (खड़िया) भर होते थे। छाता स्वामी राजी हो जाता और हम बारिश में भींगते आगे बढ़ते। हम कूदते-फांदते भींगते शाला पहुंचते थे और पीछे के दरवाजे से हाल में प्रवेश कर कपड़े पहन लेते थे और अपनी कक्षा में चले जाते थे। रास्ते में आबादी कम होने से किसी की हंसी उड़ाने की स्थिति नहीं बनती थी। उस उम्र में लाज-शर्म की परिभाषा भी ज्ञात नहीं थी। हमारी यह स्कीम पूरे मौसम भर चलती रहती थी। कभी तबीयत में ऊंच-नीच होने पर मां कहती थी कि मैं पिता जी के साथ-साथ स्कूल जाऊं क्योंकि वे मास्टर जी थे और उनके पास भी छाता था परंतु मैं बहाना बनाकर उनके संग स्कूल नहीं जाता था क्योंकि उनके संग जाने से भींगते और मस्ती करते स्कूल जाने का मजा कहॉं मिलता। उस जमाने में बारिश भी खूब हुआ करती थी। कई दिनों तक लगातार झड़ी का सिलसिला जारी रहता था। हमारे गांव और स्कूल के बीच खेतों की श्रृंखलाओं और एक पहाड़ी नाले को भी पार करना पड़ता था। खेतों की मेड़ यदि टूट जाए तो अन्य रास्ते ढूंढ़कर निकलना पड़ता था। नाला यदि अधिक भरा हो और प्रवाह तेज हो तो बड़ों या गांव वालों की मदद से नाला पार करना पड़ता था; इस प्रक्रिया में कभी स्कूल पहुंचने में विलंब हो जाता था पर अपनी मस्ती में कोई कमी नहीं होती थी।
वह समय शिक्षा के प्रचार के दौर का समय था। छोटी कक्षाओं के छात्र भी बड़े-बड़े लड़के हुआ करते थे। दूर-दूर के गांवों से लड़के पढ़ने आते थे। पढ़ने के प्रति उत्साह और झड़ी के दिनों में भी कक्षा में उपस्थिति देखते बनती थी। ऐसा था शिक्षा के प्रति लोगों में उत्साह। हम लोग तो छोटे थे परंतु हमारे साथ मूंछ दाढ़ी उग आए बड़े लड़के भी पढ़ते थे। उस समय छात्रावास की भी व्यवस्था थी अतः दूर इलाके के छात्र भी छात्रावास में रहकर पढ़ते थे। झड़ी होने पर भी शाला नहीं आने के बहाने नहीं बनाए जाते थे। हरएक के पास छाता हो यह संभव नहीं था। जिसके पास जो साधन उपलब्ध होता वही ओढ़कर वह स्कूल पहुंचता था। कई बच्चे बांस की छतरी या लव पत्ते से बने गूंगू ओढ़कर स्कूल आते थे। इन दोनों साधनों का उल्लेख लेख के शुरूआत में हो चुका है। बांस की छतरी या गुंगू का उपयोग अधिकतर बड़े लड़के करते थे; कुछ छोटे लड़के गुंगू का इस्तेमाल करते थे। इन दोनों साधनों का उपयोग करना भी बड़ी हिम्मत का काम था। इनका उपयोग अधिकतर निर्धन लोग ही करते थे और इनका उपयोग घरों और खेतों तक ही सीमित होता था। इन चीजों को देखकर कुछ शरारती बच्चों के द्वारा हंसी उड़ाने की संभावना बनी रहती थी परंतु इन सबके बावजूद इनका उपयोग करने वाले लड़के पूर्ण तन्मयता के साथ पढ़ने में मन लगाए रहते थे। उन्हें कोई लाज या शर्म नहीं होती थी। मैं ऐसे उत्साही लड़कों को बड़े ध्यान से देखता और उनसे प्रेरणा लेता था। मेरा मन गांव के कुछ बच्चों की ओर चला जाता जो इन चीजों के अभाव में स्कूल आने से वंचित थे। मैं उनको स्कूल लाने के विषय में सोचता और बांस की छतरी के उपयोग करने के बारे में चिन्तन करता। मैं बांस के छतरी के आकार-प्रकार देख किंचित सहम जाता और सोचता ‘‘काश! बांस की छतरी की साईज कुछ छोटी होती जो संभालने योग्य रहती।”
बारिश से बचने के इन साधनों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। बांस की छतरी दिखने में असुंदर, अनाकर्षक और भारी होती है। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह कभी नहीं मोड़ी जा सकती है। एक बार जो और जैसी बन गई वैसी ही टूटने-बिखरने तक चलती है। इसका उपयोग आम तौर पर बारिश से बचने के लिए होता है। धूप से बचने हेतु आम तौर पर इसका उपयोग नहीं होता। इसका सेवा काल दो या तीन वर्ष का होता है। इसको आने वाले मौसम तक सुरक्षित रखने के लिए बड़ी जगह एवं सुरक्षित जगह की आवश्यकता होती है। जो भी हो बारिश में यह अधिक लोगों को बचाती है। यह तेज हवाओं के साथ बारिश को झेल लेती है बशर्ते कि इसे संभालने वाला भी थोड़ा दमदार हो। यह मशीन से नहीं वरन जाति विशेष के कलाकार द्वारा ही बनाई जा सकती है।
गुंगू लव पत्तों से बना टिड्डेनुमा एक ढक्कन के समान होता है, जो एकल उपयोग हेतु होता है। यह तेज बारिश या झड़ी में भी काम करते समय ओढ़ा जा सकता है। इसे ओढ़ने से यही लाभ होता है कि यह ओढ़ने वाले को ऊष्मा भी प्रदान करता है। इसको रखने हेतु इसे खूंटी में टांग दिया जाता है। गरीबों के लिए यह पसंदीदा साधन होता था। इसे स्थानीय ग्रामीण भी बना सकते थे। यह अधिकतर दो मौसम झेल सकता था। कपड़े का छाता जिसे उस जमाने में ”चलानी छाता” भी कहते थे नाजुक होने के साथ इसके उपयोग में आसानी होती है। यह मोड़ा जा सकता है। इसे लेने-लाने में आसानी होती है। इसे हाथ में या कंधो पर लटका कर रखा जा सकता है। तेज हवाओं के साथ बारिश में यह स्वयं असहाय हो जाता है। हल्की या मध्यम बारिश के लिए यह उपयुक्त है परन्तु यदि हवा के तेज झोंके के साथ भारी बारिश हो तो इसके क्षतिग्रस्त होने का खतरा बढ़ जाता है। चलानी छाते का स्वरूप परिवर्तनशील है। इसे इच्छा एवं सुविधानुसार विभिन्न डिजाइन, रंग आकार-प्रकार का बनाया जा सकता है। इसका आकार इतना भी छोटा हो सकता है कि महिलाएं अपने वैनिटी बैग में आसानी से रख सकती है। बांस की छतरी के साथ ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं है।
यह बांस की छतरी किसी दूकान या शो रूम में नहीं मिलती है। यह दूर गांवों में “तूरी” जाति के लोगों द्वारा कभी गांव वालों की मांग पर और कभी जरूरत को देखते हुए स्व-प्रेरणा से बनाई जाती है। हमारे गांव के बगल में स्थित एक छोटे से गांव में जो जंगल के बीच में बसा है “तूरी” जाति के कुछ परिवार रहते हैं जो आस-पास के ग्रामीणों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। जब हम छोटे थे अर्थात् लगभग साठ-सत्तर वर्षों पूर्व, आस-पास में घने जंगल हुआ करते थे। जंगल में पहाड़ी बांस होते थे जिन्हें ये तूरी लोग काटकर लाते और उन्हें फाड़-छील कर लोगों की आवश्यकतानुसार उपयोग में आने वाले बर्तन, बांस के सामान बनाकर बेचते थे। बाजार के दिनों बाजार में अथवा गांव में घूम-घूम कर बांस के सामान बेचते थे। पहली बरसात शुरू होने के पहले इन सामानों की मांग बढ़ जाती थी अर्थात् धान बोआई के टोकने, अनाज रखने के टोकने, युवतियों के लिए मशरूम (पुटू), साग-भाजी संग्रहण के टोकने, सूप छतरी आदि उपयोगी सामानों की मांग अधिक रहती थी। धान कटाई के समय धान संचय करने के साधनों की जरूरत पड़ती थी। इस तरह तूरी लोगों का काम साल भर चलता रहता था। इस प्रकार ये तुरी लोग मौसम के अनुसार लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति में लगे रहते थे।
स्कूल में कुछ लड़कों को बारिश में बांस की छतरी लेकर आते देख मेरा भी मन बांस की छतरी लेकर स्कूल आने को मचल उठा लेकिन इस छतरी के उपयोग में किंचित कठिनाईयां थीं जिनके कारण मेरी इच्छा अर्थात् बांस की छतरी लेना अधर में लटकती नजर आ रही थी। बांस की छतरी दिखावे के लिए नहीं वरन, कुछ साधन विहीन साथियों को बारिश में स्कूल लाने में मदद करने हेतु था। अब बड़ी कक्षा में गया था अतः पहले जैसी हरकत नहीं कर सकता था। बारिश में भींगते हुए नंगे ही स्कूल जाना ठीक नहीं था। पिता जी के मान का भी प्रश्न था। वैसे बांस की छतरी लेकर जाना भी उपहास का सबब बन सकता था परन्तु इसे अनदेखा किया जा सकता था क्योंकि इस कार्य में साधन विहीन साथियों से सहयोग अपनत्व और ममत्व का भाव निहित था। जो भी हो मैंने बांस की छतरी लेने की ठान ली। बरसात सामने था। गर्मी में बुआई के लिए खेतों की तैयारी का काम जोरों पर चल रहा था। घर के सभी लोग खेत में काम करने गए थे। मां, दादी मां और हम बच्चे ही घर पर थे। गांव के दूसरे छोर पर एक आवाज सुनाई दी-
” छतरी ले लो छतरी !! ” इसके बाद ही एक आवाज और आई-
” टोकना तुनवा लो, टोकना !! “
मैं आवाज सुनकर अखड़ा की ओर देखने गया। मैंने देखा कि सुकरा “तूरी” बांस की चार नई छतरियां लेकर आया था, दो बड़े साईज की और दो छोटी साईज की।
छतरियां देखकर मैं चहक उठा-मैं दौड़कर घर आया-दादी मां खजूर की पत्तियों से चटाई गांथ रही थी।
“दादी मां, वह आदमी बांस की नई छतरियां लाया है; तुम कहती थी न छतरी लेनी है-ले दो न दादी” – मैं एक ही सांस में यह कह गया।
छतरी की बात सुन दादी मां ने अपना काम बंद किया और अखड़ा की ओर चल पड़ी। मैं उसके आगे-आगे दौड़ता छतरी वाले के यहां चला गया। मैं बहुत उत्साहित था। सुकरा तूरी पूरे परिवार के साथ ढेर सारे तैयार माल बेचने आया था। उसने छतरी के अतिरिक्त विभिन्न आकार के टोकने भी लाए थे। बुआई हेतु टोकने, साग-मशरूम संग्रहण हेतु उचित साइज के टोकने, अनाज रखने के टोकने, बच्चों के खोलने के लिए छोटी-छोटी टोकनियां, बांस के ढोलक आदि सब उपयोगी सामान लाए थे। उसकी पत्नी पुराने टोकनों की तुनाई के लिए एक ओर बैठ गई। देखते ही देखते वहां टोकने खरीदने, छतरी खरीदने वालों और टोकने तुनवाने वालों की भीड़ लग गई। सुकरा यह देख बड़ा प्रसन्न हो रहा था। कोई बांस की पुरानी छतरी भी तुनवाने ले आया था। वह जगह-जगह फट गई थी और किनारी उखड़ गई थी। सुकरा उसे सुधारने लग गया। मेरी नजर एक छोटी साइज की छतरी पर टिक गई उसमें लाल, हरी और काली पट्टी लगी हुई थी और आकर्षक लग रही थी। मुझे वह छतरी पसंद आ गई और मैं दादी को अपनी पसंद बताकर जिद करने लगा कि वह उसे खरीद ले। दादी नहीं मान रही थी। वह बड़े आकार वाली छतरी लेने के मूड में थी। अंततः मैंने उसे छोटी आकार वाली छतरी लेने हेतु मना लिया। मां भी कुछ पुराने टोकने तुनवाने आ गई। बोआई के लिए टोकने लेना भी जरूरी था। छतरी और टोकनों की कीमत तथा टोकने तुनने की मजदूरी मिलाकर सुकरा तुरी ने पंद्रह पइला (सेर) धान बताया। उस समय नगद का चलन उतना नहीं था अतः सामान की कीमत धान से चुकाया जाता था जो प्रायः सबके पास उपलब्ध था। सुकरा तूरी को भुगतान के बाद मैं छतरी लेकर शान से उसका मुआयना कर रहा था।
इतने में एक कोरवा महिला “गुंगू” बेचने हेतु पहुंच गई और “गुंगू” ले लो ! कहकर आवाज लगाने लगी। कोरवा लोग जंगल के बीच में रहकर ग्रामीण किसानों की आवश्यकतानुसार चीजें उपलब्ध कराते हैं। उस कोरवा महिला ने आग्रह पूर्वक कहा- “रख लो दीदी, चार गुंगू लाई थी। तीन तो बिक गए बस यही बाकी है। एक गुंगू लेकर कहां कहां जाऊंगी। रख लो न दीदी।” वह आशा भरी निगाह से मां की ओर देखने लगी। उन्हें उस वृद्ध कोरवा महिला पर दया आ गई। मां ने दादी मां की ओर देखा। दादी मां ने कहा- “एक गुंगू की जरूरत तो घर में है ही। रोपनी और निंदाई के समय इसकी जरूरत पड़ेगी। रख लो।” अतः मां ने गुंगू भी खरीद ली। वह कोरवा महिला समुचित दाम पाकर दुआएं देती चली गई। सुकरा तूरी भी अपनी छतरियां और अन्य टोकने बेचकर अपनी मजदूरी समेट कर खुशी-खुशी अपने घर चला गया। मैं बहुत उत्साहित था। घर में बांस की छतरी और गुंगू की चर्चा चलती रही। नौकर भी उस दिन बहुत खुश था। उसके साथ मेरी जमती थी। मैं उसे पटाने लगा कि बारिश में जब वह बैल चराने जाए या हल जोतने जाए तो पुराना एवं कई पैबंद लगा पुराना चलानी छाता से काम चला ले और मुझे बांस की छतरी स्कूल ले जाने दे। वह बोलता कि मैं उसे हवा पानी में संभाल नहीं पाऊंगा और स्कूल आते-जाते समय छतरी को ढोना-संभालना असुविधाजनक होगा। मैं कहता कि वह इसकी चिंता न करे। वह फिर कहने लगा- “घर वाले तुम्हें बांस की छतरी स्कूल ले जाने देंगे?” यह जरा कठिन प्रश्न था। मैं सोचता रहा और अंत में बोला कि मैं उन्हें मना लूंगा। जो भी हो उसने बात पते की कही थी। स्कूल खुलने का समय निकट था। मैंने मां को कहा- “मां, क्या मैं बारिश होने पर बांस की छतरी स्कूल ले जाऊॅं?”
यह सुनकर मां ने अचरज से कहा-“बांस की छतरी कैसे ले जाओगे? अभी तुम छोटे हो क्या उसे संभाल पाओगे? हवा-पानी में उसे संभालोगे कैसे? बड़े भैया (चचेरा) के साथ क्यों नहीं जाते हो?” मैंने आत्मविश्वास के साथ कहा-“अरी मां! मैं छतरी संभाल लूंगा; इसके लिए क्यों परेशान होती हो? अब मैं बड़ा हो रहा हूं। तुम बड़े भैया के साथ जाने को कहती हो वह तो हो ही नहीं सकता; तुम तो जानती ही हो वह कितने गुस्सैल हैं। बात-बात में गुस्सा करते और गाली बकते हैं। उनके साथ जाने के बदले मैं भींगते हुए स्कूल जाना पसंद करूंगा।”
मां ने कहा- “यह बात भी सही है।” वह कुछ सोचकर बोली-“ऐसा करो, उनके साथ नहीं तो पिता जी के साथ चले जाना।” मैंने नाराजगी के अंदाज में कहा-“अम्मा! मैं घर में भी पिता जी के साथ रहता हूं, स्कूल में भी उनके साए में रहूं; स्कूल आते-जाते समय भी उनके अनुशासन में रहूं ; अरे। कभी तो अपने दोस्तों के साथ मस्ती करने दो! मेरे दोस्त भी साथ में जाएंगे ; तुम तो जानती ही हो उनके पास छाता नहीं है। हम साथ में छतरी में बचते-बचाते आराम से जाएंगे और वापस आएंगे।” -इतना कहते मैं गर्व का अनुभव कर रहा था। इस पर मां ने अपना दांव खेला और मुझे निरूत्साहित करते हुए कहा-“ठीक है तुम बांस की छतरी शौक से ले लेना पर यह तो सोचो तुमको बांस की छतरी लेकर स्कूल आया देख दूसरे साथी तुम्हरी हंसी उड़ाएंगे और कहेंगे-“देखो, मास्टर जी का बेटा बांस की छतरी लेकर आया है। ऐसी स्थिति में तुमको कैसा लगेगा? अपने पिताजी के मान का भी ख्याल रखना चाहिए।”
मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा-“दोस्त लोग तो कुछ भी कहते हैं मां ! स्कूल में कई प्रकार के लड़के पढने आते हैं। अधिकतर बच्चे गरीब हैं। वे, अपने पास उपलब्ध साधनों का ही उपयोग करते हैं। कुछ लड़के बांस की छतरी और गुंगू भी लेकर आते हैं। उनकी भी हंसी उड़ाई गई पर उन्होंने दूसरों की बातों को ध्यान नहीं दिया। एक दो दिन उनकी हंसी उड़ाई गई फिर सब शांत और सामान्य हो गए। मैं भी चुपचाप उनकी व्यंग्यपूर्ण बातों को सुन लूंगा और उनकी ओर ध्यान ही नहीं दूंगा। मास्टर का बेटा हूं कहकर क्या चालानी छाता ही लेना जरूरी है क्या? बांस की छतरी से बारिश से दोस्तों को बचाते हुए लेने-लाने का मुझे संतोष तो रहेगा। बांस की छतरी कोई बुरी चीज है क्या? बांस की छतरी लेकर स्कूल जाने के मेरे बालहठ से घर में कुछ तनाव सा हो गया था। मुझे तो प्रसन्नता हो रही थी; अंततः मुझे मौन स्वीकृति मिल गई थी।
उस दिन मैं बहुत खुश था। दूसरे दिन मैंने अपने साथियों को बुलाया और उन्हें स्कूल में जाकर क्या करना है कैसा करना है इसके बारे में समझाया और हमने छतरी में कैसे बचते जाना है उसका अभ्यास भी किया साथ ही बारी-बारी से छतरी संभालने का अभ्यास भी किया। हम बड़े उत्साहित थे। दादी मां और माता जी हमारी हरकते देख-देख प्रसन्न हो रही थी। बचपन कितना मासूम होता है। उन दिनों की मासूमियत रह-रहकर यादों में उभर कर आ रही थी।
स्कूल खुला और बारिश भी चालू हो गई। बांस की छतरी लेकर स्कूल आने का एक अलग आनन्द और उत्साह था। मास्टर जी का बेटा बांस की छतरी लेकर स्कूल आया देख हंसी उड़ाने वालों की कोई कमी नहीं थी। गांव वाले भी इसमें पीछे नहीं थे पर अपने साथियों को बारिश से बचाते स्कूल लाने-लेने का संतोष अलग था जिसे हंसी उड़ाने वाले क्या समझें। मैं बांस की छतरी के बारे में सोचता अतीत में खो गया। स्कूल की घंटी बज गई थी। सारे बच्चे अपनी-अपनी कक्षा में पहुंच गए थे। पढ़ाई शुरू हो रही थी। छोटी कक्षाओं के बच्चे पूरे उत्साह के साथ ऊंची आवाज में ककहरा बांचने लगे; लगा जैसे पंछियों का झुंड कलरव करने लगा था। अपना बचपना आंखों के सामने तैर गया। इतने में बहू ने नाश्ते के लिए बुलाया और मैं घर आ गया। नाश्ते के बाद अपने कमरे में बैठा फिर अतीत में खो गया। बांस की छतरी और गुंगू अब इतिहास की चीजें बन गई हैं। आज के बच्चे उसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। विज्ञान की तरक्की घरेलू उपयोग की चीजों के अन्य विकल्पों और फैशन के चलन तथा आर्थिक स्थिति में सुधार ने, इन दोनों को चलन से बाहर कर दिया। जंगलों की अंधाधुंध कटाई ने “तूरी” लोगों के लिए पहाड़ी बांस की उपलब्धता को कठिन बना दिया। तूरी समाज के लोग आज भी हैं, पर उन्हें अपनी आजीविका के लिए मजदूरी करनी पड़ती है। बांस के सामानों की थोड़ी बहुत आवश्यकता गांव में होती ही है; तूरी लोग आज भी उन सामानों को बनाते बेचते हैं पर बांस की छतरी नहीं बनाते। प्लास्टिक और स्टील के प्रयोग ने उनकी आजीविका को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। बांस की छतरी अपनत्व ममत्व का प्रतीक थी परंतु फैशनेबल चालानी छाता ने मनुष्य को अपने तक ही सिमटा कर रख दिया।
December 2, 2020 @ 10:40 pm
bemisal lekh man ko vhhoo Gaya