तुम जो मिल गए हो…
हिंदी फिल्मों के लंबे और रोचक इतिहास में एक ऐसा समय भी आया जिसमें एक पुराने युग की शाम ढलने को हुई और एक नए युग ने अंगड़ाई ली और सब कुछ इतनी तेज़ी से हुआ कि न तो पात्र संभल पाए और न ही दर्शक और श्रोता। समय था सन् 1969 से 1972. शक्ति सामन्त कृत फ़िल्म आराधना के हिट होने साथ ही राजेश खन्ना का एक सुपरस्टार के रूप में राज्यभिषेक हो गया। एक ताक़तवर और प्रतापी राजा ने हिंदी फ़िल्म साम्राज्य का सिंहासन संभाला और तीन ही सालों में कटी पतंग, सफ़र, आनंद,अमर-प्रेम, हाथी मेरे साथी के अमोघ अस्त्रों से फ़िल्म जगत पर एकछत्र राज स्थापित कर दिया।
इस अश्वमेध यज्ञ में उनके सेनापति बनें अभिनेत-गायक किशोर कुमार। जो पार्ट-टाइम अभिनेता-गायक से फुल-टाइम गायक स्टार बन गए। राजेश खन्ना ने अपने राज्य में ऐलान कर दिया की उनकी फ़िल्म में यदि उनके लिए गायेगा तो में वो केवल और केवल किशोर कुमार ही होंगे।
जब यह सब हो रहा था तो हिंदी सिने संगीत में भी एक और समांतर क्रांति ने लगभग उसी समय ज़ोर पकड़ा। भारी ड्रम्स, बेस गिटार, बॉंगो-कांगो ड्रम्स, नयीं ध्वनियाँ और बाकमाल सुर और फीट-टैपिंग ताल (रिदम) से आर. डी. बर्मन ने संगीत साम्राज्य में अपना राज-पाट घोषित कर दिया। जी हाँ! हिन्दी फिल्म में आर. डी. बर्मन का संगीत न केवल आया बल्कि किसी भी संकोच को पीछे छोड़ कर, विश्व धुनों को भारतीय स्वाद में एक के बाद एक परोसने लगा।
अचानक नौशाद, मदन मोहन, अनिल बिस्वास, सलिल चौधरी, रवि बीते कल के नाम बन गए । उन्हीं दिनों जयकिशन की अचानक और असमय मौत भी पूर्णाहुति सिद्ध हुई । पुराने साथियों पर संकट आते ही 50s और 60s के गायक सितारे रहे मोहम्मद रफ़ी के करियर पर भी जैसे ग्रहण लग गया। न केवल अच्छा काम मिलना बंद हो गया, बल्कि लोग कहने लगे थे कि उनके गाने के दिन अब लद चुके। यहाँ तक कि जिन लोगों को संगीत की सीमित समझ थी, वे भी रफी साहब को कैसे गाना चाहिए यह सलाह देने लगे। नये ज़माने में अपनी पहचान और जगह बनाये रखने के संघर्ष के चलते रफी न केवल दबाव में आ गए बल्कि मानसिक तनाव का शिकार हो गए। आत्मविश्वास डगमगा गया।
गायन की समझ, पक्के रागों पर पकड़, रियाज़ से लगाव और काम के प्रति समर्पण यह सब रफ़ी की पहचान रहे थे। गले की महीन हरकत, और आवाज़ में अभिनय यह उनका ट्रेड-मार्क रहा था। रफ़ी साहब का हौसला तो टूटा परन्तु पुराने साथी नहीं छूटे। कोमल स्वभाव, निर्मल संबंध और निश्छल मन रफ़ी के साथी थे जो इस कठिन समय मे उनके काम आये। नौशाद ने आत्मविश्वास जगाए रखा। धैर्य और आशा बनाए रखी।
और फिर वो दिन भी आया जब पुराने मित्र मदन मोहन ने संदेशा देकर बुला भेजा। मदन मोहन ने बताया कि चेतन आनंद ने एक फ़िल्म में संगीत का न्योता दिया है। इससे पहले रफ़ी साहब कुछ बोलते मदन मोहन बोल पड़े “रफ़ी साहब! एक धुन है मेरे पास। सबसे जुदा। कैफ़ी उस धुन पर गाना लिख रहे हैं। गाना आप गायेंगे, क्योंकि यह धुन आपके लिए बनी है।” सशंकित रफ़ी साहब कुछ बोलते इससे पहले मदन मोहन ने ऐलान कर दिया कि “इस गाने को केवल आप ही निभा सकते हो और मेरा यह मानना है की यह गाना आपको दोबारा उसी शीर्ष पायदान पर पहुँचा देगा जो केवल आपका है।”
मदन मोहन के गिटार, जैज़, ब्लूउज़ के ढाँचे में बसी थी रफ़ी की दैविक आवाज़ का जादू और जो गीत बना वो था “तुम जो मिल गए हो…”। और रफ़ी साहब, मदन मोहन और हिंदी संगीत ने जैसे एक बार फिर अपने आपको पा लिया था। लोग वही थे, परन्तु अंदाज़ में एक नयापन था। यूँ लगा कि जैसे कभी कुछ खोया ही नहीं था। सब यहीं तो था। हिंदी सिने संगीत फिर मुस्कुरा उठा अपने गायन सम्राट को शोभित देख कर।
इस गाने में रफ़ी की आवाज़ अपने स्वर से एक बरसात की शाम पैदा कर देती है। गीली, भिगाती हुई, कमर तक डुबाती हुई। एक धुंधले आसमान और चमचमाते शहर के रंगों से सराबोर मूड के कोलाज को बुनती हुई।
गाने में रफ़ी का साथ देती है बारह-स्ट्रिंग बोइंग गिटार और अंग्रेजी बांसुरी पर पश्चिमी क्लासिक ओब्लाजैटो के नाजुक नोट। स्वर और संगीत का एक ऐसा संयोजन जो एक गीले रास्ते पर अनायास ही गर्मी पैदा कर सकता है। आप रफ़ी की आवाज और बैकग्राउंड म्यूजिक में हल्की बूंदाबांदी महसूस कर सकते हैं। चेहरे पर बारीक बौछार करती हुई।
रफ़ी के धीमे मुखड़े और एक अपरंपरागत गुनगुनाहट के बाद, आर्केस्ट्रा तेज़ी पकड़ता है। बोंगो, वुडविंड में आवेश भरता है, वायलिन हिलोर लेता है – और संगीत की गति में परिवर्तन सहज ही वर्षा की तीव्रता में परिवर्तन का आभास देता है। यह तब तक जारी रहता है जब तक संगीत चरम तक नहीं पहुंचता। और फिर दूर तक नीला आकाश और सूरज का निकल आना।
रफी की आवाज़ ब्लूज़ स्केल पर आधारित संरचना ज़रूर गाती है पर इसके मूल में है निर्विवाद रूप से राग-रागिनियों से सधी सर्वोत्कृष्ट आवाज़। यह विश्वास करना मुश्किल होता है कि यह वही व्यक्ति है जो अवसाद में चला गया था। जिस तरह से रफ़ी विशालता और विस्तार को पकड़ने के लिए “जहान” और “आसमान” शब्दों को अपने मुख में रोल करते हैं; जिस तरह से वाक्यांश ‘मिल गए हो’ को एक लौकिक उच्चारण देते हैं; बिछोह की तड़प को रेखांकित करते हैं;और शब्द ‘दूर’ को गाते हुए दूरी व्यक्त करते हैं वो अद्वितीय है। वास्तव में, जिस तरह इस गीत का चित्रण किया गया है – सुस्त स्थाई के बाद टॉप गियर में दौड़ते अंतरा और संचारी, और अंत में लता द्वारा शांत करने वाला एकालाप। यह गाना किसी भी महानगर के आकाश के ऊपर, बादलों का स्लेटी रंग, बारिश का आभास, पीले सोडियम लैंप, सफ़ेद एल.ई. डी. रोशनी से प्रभावित मनोदशाओं का एक कोलाज बना देता है।
गीत के संगीत में सुंदर सुर-ताल के साथ साथ एक शानदार सिम्फोनिक व्यवस्था है जो की सुनिश्चित करता है कि यह गाना बरसात की एक खूबसूरत शाम के साथ बराबर न्याय करे। ‘तुम जो मिल गए हो’ का संगीत एक खूबसूरत काँच का गिलास है और उसमे है रफ़ी की आवाज़। जैसे हल्के नशे से सुरूर भर देने वाली एक मंहगी फ्रेंच वाइन। यह एक धुंधली झिल्ली के पार चित्रित किसी चित्र जैसा गीत है जो कि एक श्रृंखला की तरह शुरू होता है, और धीरे-धीरे रंगों का एक ऐसा उपद्रव प्रकट करता है, जैसे कि टर्नर चित्रित पेंटिंग ‘डच बोट इन गेल’, या फिर कांस्टेबल द्वारा चित्रित ‘सेल्सबरी कैथीड्रल’ पेंटिंग। विस्तृता में सूक्ष्मता का दैवी एहसास।
तुम जो मिल गए हो… यह है वो धुन जो पुराने और नयें के बीच एक पुल बनीं। एक पुल जिस के ऊपर से चल कर रफी साहब ने पुराने युग की शाम को पार कर के नयें युग में शान से प्रवेश किया।
यह वो धुन जो मुझे हर बार खुद से मिलाती है। आज 31 जुलाई को जब मैं फिर से यह गाना सुन रही हूँ तो स्वयँ से अनायास कह बैठती हूँ… तुम जो मिल गए हो…ये जहाँ मिल गया।
Subodh
July 31, 2020 @ 1:55 pm
Excellent
Meenakshi
July 31, 2020 @ 8:23 pm
Thank you
विकास चौधरी
July 31, 2020 @ 2:08 pm
बहुत ही शानदार रफी साहब के समय की इतनी गहन जानकारियां और इतनी सटीकता से उनका विस्तार पूर्वक वर्णन आपकी संगीत के प्रति लिटरेचर के प्रति बॉलीवुड के प्रति और सबसे ऊपर उस समय पर हो रहे उतार चढ़ाव फेरबदल के प्रति इतना सटीक और गहन ज्ञान वाकई काबिले तारीफ है आपकी लेखनी बहुत ही सशक्त है चित्र खींच देती है और चित्र जैसे खुद ही उस समय को बयां करते हुए एक के बाद एक आगे बढ़ते रहते हैं आप निरंतर इस तरह के लेखों से पाठकों को यह कीमती जानकारी देते रहे आभार साधुवाद
निर्विकार नित्य
July 31, 2020 @ 3:01 pm
खूबसूरत गीत और गीत के बारे में बहुत ही रोचक और जानकारी से भरा लेख। बहुत सुन्दर वर्णन।
वीवीरेंद्र चौधरी
August 2, 2020 @ 7:55 pm
भारतीय सिनेमा के इतिहास के कुछ पहलुओ को
अगर नज़रअंदाज़ कर दिया जाए, तो बेहद रोचक लेख है!
Vinod Kumar Mehru
August 8, 2020 @ 2:49 pm
After reading entire, completely speechless. Great Madan Mohan ji, Laxmikant Pyare kali and Usha Khanna, producer Manmohan Desai ji aur Nasir Husaain ji was strong suporter of Rafi Sahab. In few songs where Kishore daa was not able to coup with song finally Rafi Sahab done justice to d song, like nafrat ki duniya and climax doha of film Amardeep, in both songs Rajesh Khanna was on d screen.
Vinod Kumar Mehru
August 8, 2020 @ 2:52 pm
Minakshi Choudhary ji, thank you very much for a excellent write up in memories of great Rafi Sahab. Minakshi ji I don’t have words to express . Be happy and healthy.
Narayanan Iyer
August 10, 2020 @ 3:30 pm
Bohot hi badiyaa Aapne vishtaaar Kiya is anmol gane Ka Jo
Rafi Sahab ne aur Madan Mohan saab ne kaifi Saab Ka kalam KO
Amar Kar diya .
Jee Haan yehi hai Rafi Sahab Ka come back gana , phir Rishi Kapoor ki Laila Majnu ke baad LP ki Jodi ne jyaadaatar Rafi Sahab se gavaaya khaaskar Manmohan Desai ki farmaish par .
R D Burman ne BHI Hum kisise kum Nahin mei Rafi sahab ko ache hit gane Di aur aakhirkar
Farishta Rafi Sahab ne ek aur record jeet li
Kya hua tera vaada mei Filmfare award aur National award donon unko Mili .
Yeh ek roohaani awwaz hai Jo Kabhi khatam Nahi ho Sakthi