विलुप्त होती- अखड़ा संस्कृति
लोक नृत्य, लोकगीत आदिवासी जन-जीवन को उल्लसित करने का एक सर्वोत्तम माध्यम है। नृत्य, संगीत आदिवासी जीवन के रग-रग में, पल-पल में रचा बसा है। हर प्रांत के जन-जातीय जीवन में कमोबेश यही स्थिति पाई जाती है। छोटा नागपुर की कुडुख (उरांव) जनजाति भी इससे अछूती नहीं है। यहां के लोकगीतों में, विभिन्न कार्यक्रमों में गाए जाने वालो गीतों में, आदिवासी लोगों की पीड़ा, वेदना, कष्ट, यंत्रणा एवं सामाजिक स्थिति का दारूण चित्रण मिलता है, एवं उनके कष्टमय इतिहास के उतार-चढ़ाव की झलक मिलती है। शासकों, साहूकारों और जमींदारों ने उनका भरपूर शोषण किया। बेगारी प्रथा में पिसते पूर्वजों की पीड़ा का उल्लेख उन गीतों में मिलता है। सामाजिक व्यवस्था ने पूर्वजों के कवि हृदय को झिंझोड़ा और उन्होंने अपनी भावना को गीतों में व्यक्त किया और कलाकारों ने उसे नृत्य में प्रदर्शित किया। सबसे उल्लेखनीय बात तो यह है कि उन्होंने अपनी वेदना और पीड़ा को गीत-संगीत और नृत्य के माध्यम से भुला दिया या कहें मात दी। हर प्रकार के कष्टों की भरमार होने के बावजूद वे नाच गाकर अपना मन बहलाया करते थे। यह सहनशीलता की पराकाष्ठा थी।
गांव के जवान और शारीरिक रूप से सक्षम पुरूष बेगारी प्रथा के तहत साहूकारों, जमीनदारों, शासकों की सेवा में स्वयं का खर्चा-पानी लेकर दिन-रात लगे रहते थे; कभी भारी बोझा ढोने, कभी शिकार प्रेमी राजाओं के अमोद-प्रमोद के लिए शिकार का खेदा करने जंगल-जंगल भटकते थे। इस दौरान सुस्ताने हेतु थोड़ा समय मिलने पर अपनी पीड़ा को गीतों में उंड़ेलते तथा उस अनुरूप नृत्य की संरचना करते थे। ये गीत मौसम अनुसार बदलते हैं और तदनुसार ही नृत्य और लय-ताल होते हैं। उनके गीतों की तान, लय और ताल से गिरि-कंदरा, जंगल-घाटी गूंजते थे। ऐसा लगता था मानों प्रकृति पुत्र, मां प्रकृति को अपनी व्यथा से अवगत कराते थे। इस प्रकार वे कोटवारों, सिपाहियों की बेरहम पिटाई, राजा के कारिन्दों के अत्याचार, शोषण, जुल्म व अन्य शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा को भुलाते थे। गजब थी उनकी सहनशक्ति, धैर्य, हिम्मत, साहस और आशावादिता और अजब थी उनकी सृजनात्मकता। यदि वे सब गुण उनमें विद्यमान न होते तो शायद आधे से अधिक तो तत्काल अवसाद के शिकार हो जाते और असमय ही काल कवलित हो गए होते परन्तु आने वाली पीढ़ी के उज्जवल भविष्य की आशा में, अच्छे दिनों की उम्मीद संजोए वे हर पीड़ा-कष्ट को सहते रहे और अपनी छोटी-छोटी जमीन से चिपके रहे। इस प्रकार दुनिया भर के कष्ट झेलते हुए अपनी अस्मिता को संभाले रहे। बेगार से फुर्सत होने पर वे स्व-रचित गीत गाते, तान छेड़ते अपने प्रियजनों के पास वापस लौटते थे और इस प्रकार मानों अपनी सकुशल वापसी की सूचना देते थे । अन्याय और शोषण के दंश का जवाब अपनी जिन्दादिली, नृत्य और संगीत से ही देते थे। इस प्रकार वे अनजाने ही एक समृद्ध संस्कृति के स्वरूप की बुनियाद रख रहे थे। यह सब उनकी संघर्षशीलता एवं सहिष्णुता के अलिखित ग्रंथ थे, जो आने वाली पीढ़ी के लिए अनमोल धरोहर के रूप में दिए जाने वाले थे।
गांवों के बीच में एक खुली जगह होती थी जो आज भी देखी जा सकती है। इस खुली जगह को ” अखड़ा ” कहा जाता है। यह वह जगह होती है जहां, गांव के रहवासी सामूहिक रूप से खुशियां मनाते, खाते-पीते, नाचते-गाते या अन्य कार्यक्रम करते थे। दिन भर खेत-खलिहान, जंगल आदि में काम करने के बाद शाम होते ही इसी अखड़ा में वे जमा होते, सामूहिक नृत्य करते और दिन-भर की थकान एवं अन्य परेशानियों को भूल जाते थे। गांव के नायक छैला के ढोल की एक थाप सुनकर उसके साथियों के पांव फड़कने लगते थे और सब अखड़ा की ओर दौड़े आते थे। युवा-वृद्ध और बच्चे सभी उस सामूहिक नृत्य में भाग लेते थे। युवतियाँ एक दूसरे का हाथ थामें अपने ही युवा साथियों द्वारा रचित गीत गातीं, झूमतीं, गोल घेरे में नृत्य करतीं थीं और युवक उस गोल घेरे के बीच मांदर, ढोल, नगाड़े, डफली, झांझ मंजीरा बजाते ताल से ताल मिलाते नृत्य करते थे। सुर, ताल, लय का एक अनूठा संगम, एक विशुद्ध मनोरंजन। नृत्य के गीत, रोजमर्रा की जिन्दगी में घटित घटनाओं पर आधारित, प्रकृति के वर्णन, हास-परिहास, श्रृंगार रस से सने, सामाजिक स्थिति को दर्शाने वाले स्थानीय कवि हृदय छैलाओं एवं संवेदनशील लोगों द्वारा रचित होते जो सीधे-सरल और हृदय की गहराई से निकल रहे होते थे। रात ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती, नृत्य का आनंद बढ़ता जाता था। चूंकि अगली सुबह से काम में लग जाना होता था अतः एक निश्चित समय के बाद नृत्य का अंत होता और सब अपने घर या धुमकुड़िया, सोने के लिए चलो जाते थे। दिन भर की थकान दूर करने का, मनोरंजन का सबसे सुंदर माध्यम यही सामूहिक नृत्य था।
एक समय था जब हर घर में कोई न कोई वाद्य (यंत्र) जैसे मांदर, ढोलक, नगाड़ा, डफली, झांझ, मुरली आदि होता था। हर घर में रूचि के बाजे की व्यवस्था की जाती थी। दुपहरी में खेत या जंगल से वापस होने पर शौकीन युवा मांदर, ढोलक पर दो-दो हाथ आजमा ही लेते थे। चरवाहे किसी पेड़ की छांव में बैठे मुरली की तान छेड़ते थे। दिन भर के आराम के बाद अखड़ा भी शाम होते ही जीवन्त हो उठता था। रात्रि भोजन के बाद सब अखड़ा की ओर खिंचे चले आते थे और नृत्य में बेहिचक जुट-जाते थे। मौसम के अनुसार गीत, नृत्य शैली और ताल हुआ करते थे, झूमर, करम, जेठवारी, टुंटा, ख़द्दी, सरहुल और न जाने कितने प्रकार के नृत्य हुआ करते थे। अखड़ा आबाद रहता था।
अखड़ा आज भी अपनी जगह है परन्तु अपने दुर्भाग्य पर रोता हुआ वीरान पड़ा है। अपने पुराने दिनों की याद में वह खामोश पड़ा है। उसे गांव के युवक-युवतियों, बाल-वृद्धों के झूमते थिरकते कदमों का इंतजार रहता है। वह जो मस्तानी युवा मंडली के मस्ती भरे कदमों की थिरकन से उनके नपे तुले लययुक्त कदमों से गौरवान्वित महसूस करता था तथा नवयौवनाओं के कोकिल कंठों के मस्ती भरे गानों से गुंजायमान हुआ करता था, आज मायूस हो गया है। यदा-कदा डीजे की धुन पर थिरकते युवा कदमों से उसे कुछ संतोष अवश्य मिल जाता है पर वह आनन्द कहां, जब गीत के बोलों के साथ ताल से ताल मिलाकर झूमते कदम थिरकते होते थे। उन गीतों में गांव की सरलता और निश्छलता की झलक थी जो दिल की गहराई से आती थी, उस थिरकन में मस्ती थी, विशुद्ध आनंद था, धरातल की छाप थी, इतिहास की गूंज थी, पीड़ा और कसक की अभिव्यक्ति थी।
अब सरल सुलभ बाजे (वाद्य यंत्र) घरों से गायब हो रहे है। पहले वाद्य यंत्रों की भरमार हुआ करती थी। आज वे गिनती के रह गए हैं, जो हैं उन्हें कुछ विशेष अवसरों पर उपयोग में लाने के लिए सुरक्षित रखा जाता है। पहले, दिन की दुपहरी या दिन में कभी-भी मांदर ढोलक की आवाज सुनने को मिलती थी। अब वह सब दुर्लभ हो गया हैं। आषाढ़ के महीने में आसमान में जब काले-काले मेघ घिर आते थे, वर्षा की पहली फुहारें पड़ती थीं, तब कवि हृदय ग्रामवासी अपने को, रोक नहीं पाते थे। वे इस मौसम का स्वागत आषाढ़ी गीतों की हांक लगाकर करते थे। चरवाहे चारागाहों में मवेशी चराते गीतों की हांक लगते थे, पूरा वातावरण गीतमय, संगीतमय हो उठता था, आज वहां अजीब से खामोशी छाई रहती है। यह पता नहीं चलता है कि कब आषाढ़ आया और कब भादों बिदा हो गया। बारिश का स्वागत अखड़ा में नृत्य करके किया करते थे। आज अखड़ा में सन्नाटा पसरा रहता है।
शादी ब्याह के मौसम में मंडपों में वैवाहिक रस्म अदा होने के साथ-साथ गीतों का आदान-प्रदान हुआ करता था। इन गीतों में भी समाज का इतिहास गुंथा हुआ होता था। पूर्वजों ने अपनी पीड़ा और संघर्ष को गीतों में उंडेला और नई पीढ़ी तक पहुंचाया था। कितने अर्थपूर्ण होते थे वे गीत, परन्तु आज मंडपों में लगभग वीरानी छाई रहती है। इतिहास के जो किस्से, कहानियां गीतों में वर्णित थे, अब विस्मृत होते जा रहे हैं, क्योंकि एक संपन्न समृद्ध संस्कृति को सहेजने के यथा संभव गंभीर प्रयास नहीं हुए। अखड़ा से यह संबंध विच्छेद अचानक कैसे हुआ? युवाओं का अखड़ा से संबंध बड़ा गहरा और पुराना रहा है। आज अखड़ा के प्रति यह बेरूखी क्यों? समय परिवर्तनशील है, समय के साथ परिवर्तन आता है और नवीनता में आकर्षण होता है। मनुष्य का स्वभाव ही है कि हर नई चीज की ओर आकर्षित होता है। जब अखड़ा युग था तब घर में मिट्टी के दीये जलाए जाते थे, कुछ बड़े लोग लालटेनें जलाते थे। कस्बों में पेट्रोमैक्स (गैस) जलाए जाते थे। फिर आयी बिजली, अपनी तमाम चकाचौंध, तामझाम और आकर्षण के साथ। फिर सिनेमा प्रदर्शन का चलन प्रारंभ हुआ। सिनेमा की धूम और चकाचौंध ने सबको आकर्षित किया। पास पड़ोस का युवा सिनेमा की ओर आकर्षित हुआ और वह आकर्षण इतना सम्मोहक और संक्रामक हुआ कि जो युवा वर्ग शाम घिरते अखड़ा में जमा होकर नाच-गाकर मनोरंजन करता था, अब वह सिनेमा के छलावापूर्ण मनोरंजन का दीवाना बन गया। लिहाजा अखड़ा धीरे-धीरे सुनसान होने लगा और यह सूनापन उत्तरोत्तर बढता ही गया। पहले तो सिनेमा प्रदर्शन की अस्थाई व्यवस्था थी, फिर स्थाई सिनेमा हाल बन गये। इसके बाद हर शो में युवाओं की भीड़, जुटने लगी। जीवन शैली करवट बदलने लगी और बिजली के प्रसारण के साथ विद्युत चलित मनोरंजन के साधनों की बाढ़ सी आ गई और सब उस बाढ़ की चपेट में आ गए। इसके बाद टी. वी. का जमाना आया। रही-सही कसर इसने पूरी कर दी। पहले तो किसी संपन्न किसान के यहां टी. वी. आई तो गांव की पूरी भीड़ वहीं जुड़ने लगी। फिर बिजली कनेक्शन जैसे-जैसे बढ़ने लगा, टी. वी. घर-घर में आ गई। इसका आकर्षण ही ऐसा है कि यह हर परिवार की आवश्यकता बन गई। अब तो समय मिला नहीं कि क्या बच्चे, क्या बूढ़े टी. वी. के सामने जम जाते है-न सामाजिकता न अखड़ा से रिश्ता। आज का युवा मौसमी गाने भले ही न जाने, बच्चे अपने पाठ याद करें या न करें विभिन्न चैनलों में प्रसारित होने वाले सीरियलों और उसकी समय सारिणी मुखाग्र याद रहती है। पढ़ने वाले बच्चों की पहली पसंद टी. वी. ही रह गई है जो माता-पिता के लिए एक गंभीर परेशानी का विषय है। अन्य बातें याद रहें न रहें रिमोट कंट्रोल एवं टी. वी. आपरेट करने की सारी विधियां उन्हें याद हैं।
पहले जब परिवार में लड़का जवान होता था, तो उसके लिए मांदर ढोलक आदि बाजे की व्यवस्था करना मां-बाप अपना कर्त्तव्य समझते थे, अब तो इन मिट्टी और काठ के बाजों की कोई जिद नही करता, वरन-मनोरंजन के सर्व सुविधा संपन्न इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के जुगाड़ में ध्यान रहता है। अब तो सी.डी. एवं डी.जे. के छोटे स्वरूप ने गांव-घर में कब्जा कर रखा है। पर्व-त्यौहारों पर स्वर लहरी के साथ ढोल-मांदर की थाप के साथ झूमना थिरकना देखा जा सकता है, सारी आवश्यकताएं सी.डी. ही पूरी कर देता है। इसी में गीत और ताल की पूरी व्यवस्था है, बस यंत्र में सी.डी. फंसाओ और गीत और ताल हाजिर, युवाओं को थिरकना ही तो है। पद-संचलन की विविधता इतनी जटिल कि आम आदमी के वश में नहीं। धुन परिवर्तन के साथ ही नर्तक कदमों की लय, गति और स्थिति परिवर्तित करते हैं, परन्तु जहां तक नृत्य के साथ गीत के बोल उच्चरित करने का प्रश्न है इसमें गीत गाने का महत्व नहीं है। साज और आवाज का ऐसा समन्वय रहता है कि व्यक्तिगत गायन वादन महत्वहीन रहता है। पूरा नृत्य रोबोटिक नृत्य लगता है-युवा ही इसके दीवाने हैं।
अखड़ा नृत्य में भाग लेने वालों की सहभागिता, सहजता, स्वाभाविकता देखी जा सकती है। कोई भी उम्र का दर्शक जोश में आकर नृत्य करने हेतु शामिल हो सकता है क्योंकि इसमें गीत सरल और पद-संचलन सहज एवं स्वाभाविक है। इस प्रकार मूल अखड़ा नृत्य और इलेक्ट्रॉनिक अखड़ा नृत्य में जमीन-आसमाँ का फर्क है। अखड़ा नृत्य कहीं पर भी आसानी से नृत्य किया जा सकता है जबकि इलेक्ट्रॉनिक आधारित नृत्य में मशीन आवश्यक है ताकि धुन प्रसारित किया जा सके। इसमें यंत्र चालू और कदम यंत्रवत आड़े-तिरछे चलना चालू। इसमें कृत्रिमता का समावेश स्पष्ट झलकता है जबकि अखड़ा नृत्य में एक स्वाभाविकता रहती है। इसकी सहजता तथा इसमें सबकी सहभागिता, गीत नृत्य में एकात्मकता ही इसकी खासियत है।
सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण पहलू है ग्रहणशीलता। इस गुण के कारण समय-समय पर दूसरे गांवों में प्रवास होने अथवा अन्यत्र आयोजित कार्यक्रमों में सहभागी होने से उस स्थान या अवसर विशेष की कुछ विशेषताओं, विविधताओं या नवीनताओं का प्रचार-प्रसार स्वमेव हो जाता है। यह मानवीय विशेषता है, कि मनुष्य जो भी नवीनता देखता या सीखता तथा अनुभव करता है उसे वह अपने साथियों में बांटता है, साझा करता है। यह बात नृत्य या संगीत, लय हो या ताल हो सब बातों में लागू होती है। इस ग्रहणशीलता के कारण कला के ज्ञान और उसके संवर्धन में सहयोग मिलता है और सांस्कृतिक ज्ञान की वृद्धि होती जाती है। जहां दो संगीत प्रेमी साथी मिले वे नवीनता को साझा करने में चूकते नहीं और यह इतना संक्रामक होता है कि पूरी मंडली को ज्ञात हो जाता है। वह नजारा भी बदल गया है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने इस क्षेत्र में भी हल्ला बोल दिया है। बची खुची कसर मुट्ठी भर मोबाईल नामक यंत्र ने पूरी कर दी। इस नाजुक सी चीज ने दुनिया को मुट्ठी में समेट दिया है। व्यक्तिगत रूप से मिलने जुलने की प्रवृत्ति भी लुप्त सी हो गई है। सामाजिकता सिमट कर मुट्ठी भर परदे में सीमित हो गई। अब शौकीनों का मिलकर धूम मचाना, गाना, बजाना, नाचना बीते जमाने की बात हो गई। अब तो मन पसंद गाने मोबाईल में डाऊनलोड कर लो और काम करते सुनते जाओ। सामाजिकता ही खंडित होती जा रही है। अखड़ा संस्कृति ही प्रभावित हो गई। इलेक्ट्रॉनिक सुविधा ने अखड़ा के जलवे को पूरी तरह प्रभावित कर दिया।
सारी बातें की जाएं तो एक अंतहीन चर्चा होती रहेगी। जो संस्कृति विरासत में पूर्वजों से मिली, उसकी वर्तमान पीढ़ी ने यथोचित कदर नहीं की और न ही उसे सहेजने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास किए। छुट-पुट प्रयास अवश्य देखे जा सकते हैं। निर्जीव, सुनसान और खामोश पड़े अखड़ा की स्थिति वही है जैसे, नदी बांध के शांत तट व जंगल पहाड़ों के नीरव व सुनसान इलाके। संस्कृति का वह पहलू जो कभी जनजातीय समाज की जीवन्तता और मस्ती का सूचक था, समाप्ति की कगार पर है। निर्जीव पड़े अखड़ा को अब भी एक अदद छैला और उसकी मस्तानी टोली का इंतजार है जो उसके बीते यौवन को लौटा दे और भूले बिसरे अखड़ा गीतों से उन्हें सराबोर कर दे। जनजातीय संस्कृति की मौलिकता पर अब बनावटी और आधुनिकता ने स्थान ले लिया है। छोटा नागपुर क्षेत्र की विभिन्न जनजातियों के अखड़ा स्थल अब भी अस्तित्व में है परन्तु लोकनृत्य के बगैर सूने और बेजान हैं और अपनी हालात पर आंसू बहाने को विवश है।