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मैथिली कोकिल विद्यापति

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रस सिद्ध और मैथिली कोकिल के नाम से विख्यात विद्यापति आदिकालीन कवियों में अन्यतम हैं. संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली – तीनों भाषाओं पर समान अधिकार रखने वाले विद्यापति अपनी रचनाओं में रसिक, चिंतक और भक्त की भूमिकाओं का समुचित निर्वाह करते नजर आते हैं. संस्कृत में पुरुष परीक्षा, भू परिक्रमा, शैव सर्वस्व सार, गंगा वाक्यावली आदि ; अवहट्ट में कीर्तिलता और कीर्तिपताका तथा मैथिली में पदावली उनकी रचना यात्रा के कीर्ति स्तंभ हैं. पदावली तो आज भी मिथिला क्षेत्र में विदापत के रूप में लोक जिह्वा पर विराजमान है.

भाषा ही नहीं, वर्ण्य विषयों की दृष्टि से भी विद्यापति संधियों के कवि हैं. भक्ति और श्रृंगार – दोनों रसों का मणिकांचन संयोग इनकी कविताओं में मिलता है. डॉ शिवप्रसाद सिंह के अनुसार,  “विद्यापति वस्तुतः संक्रमण काल के प्रतिनिधि कवि हैं, वे दरबारी होते हुए भी जन-कवि हैं, शृंगारिक होते हुए भी भक्त हैं, शैव या शाक्त या वैष्णव होते हुए भी वे धर्म- निरपेक्ष हैं, संस्कारी ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होते हुए भी विवेक संत्रस्त या मर्यादावादी नहीं है. इस प्रकार विद्यापति का व्यक्तित्व अत्यंत गुंफित और उलझा हुआ है. यह नाना प्रकार के फूलों की वनस्थली है, एक फूल का गमला नहीं. विद्यापति का व्यक्तित्व मिथिला की उस पृथ्वी की उपज है जिसमें धान की यौवन पूर्ण गंध और आमों के बौर की महक है. वह मिथिला जिसके स्वर्णगर्भित अंचलों में वाग्मती, कमला, गंडक और कोसी की धारायें निरंतर प्रवाहित हैं, जहां की काली अमराइय़ां नील मेघों से ढंकती हैं, और शरद चंद्र की चांदनी से सुधास्नात होती रहती हैं वह मिथिला जो तर्क करकश पंडितों के न्याय शास्त्रीय वाद-विवादों और युवतियों के प्रेम-गीतों को एक साथ अपने हृदय में सुलाये रहती है”

राधा और कृष्ण के प्रेम के मार्मिक क्षणों का जैसा वर्णन विद्यापति के यहाँ मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ प्रेम सिर्फ़ हृदय का ही नहीं है, बल्कि अपनी मांसलता में भी अद्वितीय है. राधा की वय: संधि की अवस्था का चित्रण देखिए :

“खने-खने नयन कोन अनुसरई;खने-खने-बसन-घूलि तनु भरई॥

खने-खने दसन छुटा हास, खने-खने अधर आगे करु बास॥

चऊंकि चलए खने-खने चलु मंद, मनमथ पाठ पहिल अनुबंध॥

हिरदय-मुकुल हेरि हेरि थोर, खने आंचर देअ खने होए भोर॥

बाला सैसव तारुन भेट, लखए न पारिअ जेठ कनेठ॥”

राधा की कमनीय काया में शैशव और तरुणाई की मुलाकात हो रही है. इन दोनों में कौन बड़ा है, कौन छोटा, इसका निर्णय नहीं हो सकता. राधा के नखशिख वर्णन में भी विद्यापति ने पूरी रूचि ली है..

” माधव कि कहब सुंदरी रूपे.

 कतन जतने बिहि आनि समारल, देखल नयन सरूपे॥

 पल्लव-राज चरन युग सोभित, गति गजराजक भाने.

 कनक-कदलि  पर  सिंह  समारल,  तापर मेरु समाने.

 मेरु उपर दुइ कमल फुलाएल, नाल बिना रुचि पाइ.

 मनि-मय हार धार बहु सुरसरि. तें नहिं कमल सुखाइ.

 अधर बिम्ब सन, दसन दाड़िम बिजु, रवि ससि उगथिक पासे.

 राहु  दूर  बसु  निअरे  न  आबथि,  तेनहि  करथि    गरासे॥

 सारंग   नयन   बयन   पुनि   सारंग   सारंग   तसु समधाने.

 सारंग  उपर  उगल   दस   सारंग,   केलि   करथि   मधु   पाने॥”

अर्थात्, उसके दोनों चरण कमल के समान शोभित हो रहे हैं. उसकी चाल हस्तिनी के समान (मस्त) है. सोने के केले के स्तंभ के समान उसकी जंघाएँ हैं, जिसके ऊपर सिंह के समान पतली कमर है. पतली कमर के ऊपर सुमेरू पर्वत के समान उन्नत वक्षस्थल सुशोभित हो रहा है. वक्षस्थल पर उसके स्तन यूँ लग रहे हैं, जैसे दो कमल खिले हुए हैं, जो बिना नाल के ही सुशोभित हो रहे हैं. उसके वक्षस्थल पर सुशोभित मणिमय हार की लड़ियाँ ऐसी लग रही हैं, जैसे पर्वत से अनेक धाराओं में गंगा निकल रही है. ये धाराएँ ही जैसे कमल रूपी पयोधरों को सूखने से रोके हुए हैं. उसके अधर बिंबा फल (कुंदरु) के समान लाल हैं और दंत पंक्तियाँ अनार के दानों की तरह. चंद्रमा के समान उसके सुंदर मुख पर सिंदूर का टीका सूर्य के समान शोभा दे रहा है. इस प्रकाश रवि और शशि के एक साथ उदित होने के कारण उज्ज्वल प्रकाश फैला है. वह अपने केश रूपी राहु को इनसे दूर बाँध कर रखती है, ताकि वह इन्हें ग्रस नहीं पाए. उसकी आँखें हरिण के नेत्रों के समान सुंदर हैं और वाणी कोयल के समान कोमल. उसके कटाक्ष कामदेव के बाणों से ज्यादा अचूक वार करते हैं. उसके कमल के समान ललाट पर उसकी लटें भौंरों के समान विचरण करते हुए मधुपान कर रही हैं.

प्रेम के हर पक्ष को विद्यापति की पदावली में देखा जा सकता है. यह प्रेम अपूर्व है. इस अनुभव को शब्द बयान नहीं कर सकते…

“सखि हे , कि पुछसि अनुभव मोय .

से हों पिरीति अनुराग बखानइत, तिल-तिले नूतन होय. 

जनम-अवधि हम रूप निहारल,नयन न तिरपित भेल .

सेहो मधु बोल स्रवनहि सूनल, स्रुति-पथ परस न भेल .

कत मधु जामिनि रभसे गमाओल,न बुझल कइसन केलि .

लाख-लाख जुग हिये-हिये राखल,तइयो हिय जरनि न गेल.”

यह प्रेम जितना आह्लादक है, वियोग उतना ही मार्मिक. विरहदग्ध नायिका के पास कोई नहीं है, जो उसके संदेश को कृष्ण तक पहुंचा सके…

” के पतिआ लय जायत रे, मोरा पिअतम पास.

हिय नहि सहय असह दुखरे, भेल माओन मास..

एकसरि भवन पिआ बिनु रे, मोहि रहलो न जाय.

सखि अनकर दुख दारुन रे, जग के पतिआय..”

संयोग के क्षणों की स्मृति वियोग को और ज्यादा दारुण बना देती है. उपवन, भौंरे, कोयल जैसे उपादान जो संयोग के क्षणों को पूर्णता प्रदान करते थे, वही वियोग के क्षणों में नायिका को पीड़ित करते हैं…

” कुसुमित कानन हेरि कमलमुखी मुदि रहए दु नयान

कोकिल कलरव मधुकर धुनि सुनि कर देई झाँपई कान”

विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी – यह सवाल अक्सर विद्वानों द्वारा उठाया जाता रहा है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार “ विद्यापति के पद अधिकतर शृंगार के ही हैं जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं. इन पदों की रचना जयदेव के गीतकाव्य के अनुकरण पर ही शायद की गई है. इनका माधुर्य अद्भूत है. विद्यापति शैव थे. इन्होंने इन पदों की रचना शृंगार काव्य की दृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं. विद्यापति को कृष्णभक्तों  की परंपरा में नहीं समझना चाहिये.” हजारी प्रसाद द्विवेदी की मान्यता शुक्लजी से भिन्न है-“राधा और कृष्ण के प्रेम प्रसंगों को यह पुस्तक प्रथम बार उत्तर भारत में गेय पदों में प्रकाशित करती है. इस पुस्तक के पदों ने आगे चलकर बंगाल, असम, और उड़ीसा के वैष्णव भक्तों को खूब प्रभावित किया और उन प्रदेशों के भक्ति साहित्य में नई प्रेरणा और प्राणधारा संचारित करने में समर्थ हुई. इसीलिए पूर्वी प्रदेशों में सर्वत्र यह पुस्तक धर्म ग्रंथ की महिमा पा सकी.”

वस्तुतः विद्यापति के बारे में सर्वाधिक संतुलित दृष्टिकोण रामवृक्ष बेनीपुरी का है- विद्यापति एक अजीब कवि हो गए हैं. राजा की गगनचुंबी अट्टालिका से लेकर गरीबों की टूटी हुई फूस की झोपड़ी तक में उनके पदों का आदर है. भूतनाथ के मंदिर और ‘कोहबर-घर’ में इनके पदों का समान रूप से सम्मान है. कोई मिथिला में जाकर तमाशा देखे. एक शिवपुजारी डमरू हाथ में लिये त्रिपुंड चढ़ाए, जिस प्रकार ‘कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ’ गाते –गाते तनमय होकर अपने आपको भूल जाता है, उसी प्रकार कलकंठी कामिनियां नववधू को कोहबर में ले जाती हुई “सुंदरि चललिहुं पहु घर ना, जाइतहि लागु परम ढरना” गाकर नव वर-वधू के हृदयों को एक अव्यक्त आनन्द-स्रोत में डुबो देती है. जिस प्रकार नवयिवक “ससन-पर  स खसु अम्बर रे देखल धनि देह” पढ़ता हुआ एक मधुर कल्पना में रोमांचित हो जाता है, उसी प्रकार एक वृद्ध “तातल सैकत बारिबुन्द सम सुत मित रमनि समाज, ताहे बिहास्रि मन ताइ समरपिनु अब मझु हब कौन काम, माधव हम परिनाम निरासा” गाता हुआ अपने नयनों से शत-शत अश्रुबूंद गिराने लगता है”

विद्यापति की भक्ति के बारे में कई मिथक मिथिला क्षेत्र में प्रचलित हैं. कहते हैं कि विद्यापति शिव के अनन्य उपासक थे और ‘उगना’ के नाम से स्वंय शिव ने विद्यापति के यहां नौकरी की थी. इसी प्रकार मिथिला क्षेत्र में यह भी मान्यता है कि जीवन के अंतिम समय में जब विद्यापति गंगा तट पर पहुंचने में असमर्थ हो गए, तो गंगा अपना रास्ता बदल उनसे मिलने आईं थीं. गंगा स्तुति के उनके पद अपनी मार्मिकता में अद्वितीय हैं-

“बड सुख सार पाओल तुअ तीरे

छोड़इत निकट नयन बह नीरे

    कर जोरि बिनमओ विमल तरंगे

    पुन दरसन होए पुनमति गंगे

एक अपराध छेमव मोर जानी

परसल माय पाय तुअ पानी

    कि करब जप तप जोग धेआने

    जनम कृतारथ एकहि सनाने

भनइ विद्यापति समदओं तोंही

अंत काल जनु बिसरह मोही “

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chandan

सुंदर वर्णन .

अनुयााााा अहिरे

अपरिमित सुंदर….इस भाषा की रचनाा पोस्ट करने के लिए बहुत आभार!