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पद्मावत-सिंहलद्वीप वर्णन खंड-चतुर्थ पृष्ठ-मलिक मुहम्मद जायसी

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पुनि देखी सिंघल फै हाटा । नवो निद्धि लछिमी सब बाटा ॥
कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंघलदीपी ॥
रचहिं हथौडा रूपन ढारी । चित्र कटाव अनेक सवारी ॥
सोन रूप भल भयऊ पसारा । धवल सिरीं पोतहिं घर बारा ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हीरा लाल सो अनबन जोती ॥
औ कपूर बेना कस्तूरी । चंदन अगर रहा भरपूरी ॥
जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा । ता कहँ आन हाट कित लाहा ?
कोई करै बेसाहिनी, काहू केर बिकाइ ।
कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गवाइ ॥13

अर्थ: इसके पश्चात सिंहलद्वीप के बाजार दिखते हैं, जहाँ हर रास्ते पर नव निधियाँ* और लक्ष्मी (धन) बिखरी पड़ी हैं. सर्राफा बाजार की दुकानें कुमकुम से लिपी हुई हैं,जहाँ सिंहलद्वीप के महाजन बैठे हुए हैं. ये चांदी को ढालकर कड़े बनाते हैं जो नाना प्रकार के चित्रों से सुसज्जित हैं. सोने-चांदी हर ओर बिखरे पड़े हैं. घर द्वार सफ़ेद रोली से पुते हुए हैं. हर ओर भांति-भांति के रत्न,माणिक,मोती,हीरे और लाल रखे हुए हैं. कपूर,खस,कस्तूरी,चंदन और अगर की सुगंध चारों ओर व्याप्त है. जिन्होंने इस बाजार में व्यवसाय नहीं किया उसे भला अन्य किस बाजार में लाभ हो सकता है?

कोई खरीद रहा ,कोई बेच रहा. किसी ने लाभ प्राप्त किया तो कोई मूल भी गंवा बैठा.

*नव निधियां- पद्म निधि, महापद्म निधि, नील निधि, मुकुंद निधि, नन्द निधि, मकर निधि, कच्छप निधि, शंख निधि, खर्व निधि।

पुनि सिंगारहाट भल देसा । किए सिंगार बैठीं तहँ बेसा ॥
मुख तमोल तन चीर कुसुंभी । कानन कनक जडाऊ खुंभी ॥
हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं । नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं ॥
भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौं फेरी ॥
अलक कपोल डोल हँसि देहीं । लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं ॥
कुच कंचुक जानौ जुग सारी । अंचल देहिं सुभावहिं ढारी ॥
केत खिलार हारि तेहि पासा । हाथ झारि उठि चलहिं निरासा ॥
चेटक लाइ हरहिं मन जब लहि होइ गथ फेंट ।
साँठ नाठि उटि भए बटाऊ, ना पहिचान न भेंट ॥14

अर्थ: इसके बाद सिंहलद्वीप का सुंदर वेश्या बाजार है, जहाँ वेश्याएँ श्रृंगार करके बैठी हैं. उनके मुख पान से रंगे हुए हैं और उन्होंने कुसुम्भी रंग के कपड़े पहन रखे हैं. कानों में सोने के रत्नजड़ित कर्णफूल पहन रखे हैं. उनके हाथों में वीणा है,जिनकी ध्वनि सुन कर मृग भी मोहित हो जाते हैं. गुजरने वाले पुरुष तो इस ध्वनि को सुन यूँ मुग्ध होते हैं कि एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाते. धनुष जैसे धनुष के साथ इनकी आंखे शिकारियों की तरह लगती हैं जो सान चढ़ाए बाणों की तरह अपनी दृष्टि से प्रहार करती हैं. उनके गालों पर उनके केश बिखरे हुए हैं. राह चलने वालों पर जब ये हँस कर नजर डालती हैं तो अपनी तिरछी नज़र से मानो उनके प्राण ले लेती हैं. कंचुकी में कसे उनके स्तन मानो दो पासे हैं, जिन पर से सुंदर ढंग से साड़ी हटा कर वो कई खिलाड़ियों को हारने पर विवश कर देती हैं और ये हारे हुए खिलाड़ी सब कुछ गंवा कर निराश लौट जाते हैं.

जब तक व्यक्ति की गाँठ में पूँजी होती है, ये वेश्याएँ उसका मन हरने का प्रयत्न करती हैं और गाँठ की पूँजी नष्ट होते ही पहचानती भी नहीं.

लेइ के फूल बैठि फुलहारी । पान अपूरब धरे सँवारी ॥
सोंधा सबै बैठ ले गाँधी । फूल कपूर खिरौरी बाँधी ॥
कतहूँ पंडित पढँहिं पुरानू । धरमपंथ कर करहिं बखानू ॥
कतहूँ कथा कहै किछु कोई । कतहूँ नाच-कूद भल होई ॥
कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा । कतहूँ पखंडी काठ नचावा ॥
कतहूँ नाद सबद होइ भला । कतहूँ नाटक चेटक-कला ॥
कतहुँ काहु ठगविद्या लाई । कतहुँ लेहिं मानुष बौराई ॥
चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच ।
जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच ॥15

अर्थ: बाजारों में मालिनें फूल ले-लेकर बैठी हैं. गंधी इत्र लेकर बैठे हैं. बहुतों ने कपूर की टिक्कियाँ बाँध रखी हैं. कहीं पंडित बैठे पुराण पढ़ रहे हैं और धर्म के रास्ते का बखान कर रहे हैं. कहीं पर कोई किसी कथा का वाचन कर रहा है तो कहीं नाच-गान का कार्यक्रम हो रहा है. कहीं कोई बहेलिया पक्षियों को पकड़ कर ला रहा है तो कहीं कोई कठपुतली वाला कठपुतली के खेल दिखा रहा है. कहीं पर सुंदर गायन हो रहा है तो कहीं नाटक और बाजीगरी के खेल. कहीं कोई ठग विद्या लेकर आया है और लोगों को मूर्ख बनाकर लूट रहा है.

चतुर चोर, ठग और धूर्त आपस में सांठगांठ कर यूँ बैठे हैं कि सिर्फ सजग व्यक्ति ही अपनी पूँजी उनसे बचा पाते हैं.

पुनि आए सिंघल गढ पासा । का बरनौं जनु लाग अकासा ॥
तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी । ऊपर इंद्र लोक पर दीठी ॥
परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका । काँपै जाँघ, जाइ नहिं झाँका ॥
अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो सपत-पतारहिं जाई ॥
नव पौरी बाँकी, नवखंडा । नवौ जो चढे जाइ बरम्हंडा ॥
कंचन कोट जरे नग सीसा । नखतहिं भरी बीजु जनु दीसा ॥
लंका चाहि ऊँच गढ ताका । निरखि न जाइ, दीठि तन थाका ॥

हिय न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ सुमेर ।
कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर ॥16

अर्थ: अब सिंहल गढ़ यानी सिंहलद्वीप के किले की ओर चलते हैं. उसका क्या वर्णन करें. यह इतना ऊँचा है कि जैसे आकाश छू रहा है. ऐसा लगता है जैसे इसकी नींव पाताल लोक में नागराज वासुकी की पीठ पर रखी गई है, जबकि इसका ऊपरी सिरा इन्द्रलोक की ओर जाता दिखाई देता है. इसके चारों ओर गहरी खाई खुदी हुई है. इसमें झाँकने पर पाँव कांपने लगते हैं. इसके तल तक दृष्टि नहीं जाती और भय होता है कि गिरने पर सीधे पाताल तक पहुँच जाएंगे. इस किले में नौ द्वार और नौ मंजिलें हैं. जो इन नौ मंजिलों तक चढ़ने में सफल हो जाता है, वह मानो ब्रह्मांड को जीत लेता है. सोने से बने इस किले में तरह-तरह के नग और शीशे जड़े हुए हैं, जिनके कारण यह ऐसा प्रतीत होता है,जैसे तारों से भरे आकाश में बिजली चमक रही हो. यह किला लंका से भी ऊँचा है ,जहाँ तक पहुँचने में दृष्टि और शरीर दोनों थक जाते हैं.

इसकी ऊँचाई न ह्रदय में समाती है , न नजर यहाँ तक पहुँच पाती है. ऐसा लगता है,जैसे साक्षात् सुमेरू पर्वत सामने खड़ा हो.

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