सायंकाल के चार बजे थे। मैं स्कूल से लौटकर घर में गरम-गरम चाय पी रहा था। किसी ने बाहर से पुकारा: “मास्टर साहब, मास्टर साहब, जरा बाहर आइए। एक आदमी आया है। बाघ की खबर लाया है।” बाघ का नाम सुनकर मैं उछल पड़ा। चाय का प्याला वहीं रखकर झट से बाहर आया। देखा, तो बाहर पश्मीने की चादर ओढ़े मेरे शिकारी मित्र पं लक्ष्मीदत्त थपलियाल खड़े हैं और उनकी बगल में एक हाड़ का कंकाल बूढ़ा खड़ा है। बातचीत से मालूम हुआ कि बाघ ने टिहरी से कुछ दूर एक ही साथ दो गायों का वध किया है। बंदूक उठाई, कारतूस जेब में डाले। लक्ष्मीदत्त जी तथा बूढ़े किसान को साथ लेकर जंगल की ओर चला। थोड़ी दूर चलकर बूढ़े ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा: “मालिक, ऊपर देखो। ठीक उस डाँड़े पर मेरी बड़ी गए मरी पड़ी है। वहाँ से चार फर्लांग पर पहाड़ की […]
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कैदखाने का हाल हम ऊपर लिख चुके हैं, पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। उस कैदखाने में कई कोठरियां थीं जिनमें से आठ कोठरियों में तो हमारे बहादुर लोग कैद थे और बाकी कोठरियां खाली थीं। कोई आश्चर्य नहीं, यदि हमारे पाठक महाशय उन बहादुरों के नाम भूल गये हों जो इस समय मायारानी के कैदखाने में बेबस पड़े हैं अस्तु एक दफे पुनः याद दिला देते हैं। उस कैदखाने में कुंअर इन्द्रजीतसिंह, कुंअर आनन्दसिंह, तारासिंह, भैरोसिंह, देवीसिंह और शेरसिंह के अतिरिक्त एक कुमारी भी थी जिसके मुख की सुन्दर आभा ने उस कैदखाने में उजाला कर रखा था। पाठक समझ ही गये होंगे कि हमारा इशारा कामिनी की तरफ है। यद्यपि वह ऐसी कोठरी में बन्द थी जिसके अन्दर मर्दों की निगाह नहीं जा सकती थी तथापि कुंअर आनन्दसिंह को इस बात पर ढाढ़स थी कि उनकी प्यारी कामिनी उनसे दूर नहीं है, मगर कुंअर इन्द्रजीतसिंह के रंज का […]
लौटते समय डॉक्टर साहब माया के जेठ, उनके पड़ोसी निगम और निगम की माँ ‘चाची’ सबसे अपील कर जाते — “आप लोग इन्हें समझाइये… कुछ खिलाइये, पिलाइये और हंसाइये।” निगम साधारणतः स्वस्थ, परिश्रमी और महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति है। वह चित्रकार है। पिछले वर्ष दिसम्बर में वह अमरीका में होने वाली एक प्रदर्शनी में भेजने के लिए कुछ चित्र बना रहा था। उसे इनफ्लूएंजा हो गया। बीमारी में विश्राम न करने के कारण उसका बुख़ार टिक गया। डॉक्टरों के परामर्श से इलाज में जलवायु की सहायता लेने के लिए वह भुवाली चला गया। उसे तुरन्त ही लाभ हुआ। स्वस्थ हो जाने पर वह ‘जरा और मृत्यु पर जीवन की विजय’ का एक चित्र बनाना चाहता था। इसी भावना को वह अपने चारों ओर अनुभव कर रहा था। स्वास्थ्य और जीवन के प्रति माया के निरुत्साह से उसके मन में दर्द-सा होता था। माया के गुम-सुम और चुप रहने पर भी निगम को […]
राजा रिपुदमनबहादुर उत्तरी ध्रुव को जीत कर योरुप के नगर-नगर से बधाइयाँ लेते हुए हिन्दुस्तान आ रहे हैं। यह ख़बर अख़बारों ने पहले सफ़े पर मोटे अक्षरों में छापी। उर्मिला ने ख़बर पढ़ी और पास पालने में सोते शिशु का चुम्बन लिया। अगले दिन पत्रों ने बताया कि योरुप के तट एथेन्स से हवाई जहाज़ पर भारत के लिये रवाना होते समय उन्होंने योरुप के लिये संदेश माँगने पर कहा कि उसे अद्भुत की पूजा की आदत छोड़नी चाहिये। उर्मिला ने यह भी पढ़ा। अब वह बम्बई आ पहुँचे हैं, जहाँ स्वागत की ज़ोर शोर की तैयारियाँ हैं। लेकिन उन्हें दिल्ली आना है। नागरिक आग्रह कर रहे हैं और शिष्ट-मंडल मिल रहा है। उसकी प्रार्थना सफल हुई तो वह दिल्ली के लिये कल रवाना हो सकेंगे। अख़बार के विशेष प्रतिनिधि का अनुमान है कि उनको झुकाना कठिन होगा। वह यद्यपि सब से सौजन्य से मिलते हैं, पर यह भी स्पष्ट […]
मायारानी की कमर में से ताली लेकर जब लाडिली चली गई तो उसके घंटे भर बाद मायारानी होश में आकर उठ बैठी। उसके बदन में कुछ-कुछ दर्द हो रहा था जिसका सबब वह समझ नहीं सकती थी। उसे फिर उन्हीं खयालों ने आकर घेर लिया जिनकी बदौलत दो घण्टे पहले वह बहुत ही परेशान थी। न वह बैठकर आराम पा सकती थी और न कोई उपन्यास इत्यादि पढ़कर ही अपना जी बहला सकती। उसने अपनी आलमारी में से नाटक की किताब निकाली और शमादान के पास जाकर पढ़ना शुरू किया, पर नान्दी पढ़ते-पढ़ते ही उसकी आंखों पर पलकों का पर्दा पड़ गया और फिर आधे घंटे तक वह गम्भीर चिन्ता में डूबी रह गई, इसके बाद किसी के आने की आहट ने उसे चौंका दिया और वह घूमकर दरवाजे की तरफ देखने लगी। धनपत उसके सामने आकर खड़ी हो गई और बोली – धनपत – मेरी प्यारी रानी, मैं देखती […]
सालों बाद मुझे एक शादी में सम्मिलित होने का अवसर मिला। अपने गांव, अपने रीति रिवाजों से परिपूर्ण शादियों का अलग ही मजा है। सारे रिश्तेदार-नातेदारों से मिलने का और ढ़ोल थापों पर गीत-गवनई के सगल का अलग ही आनंद है। उसपर ये शादी हमारे रिश्ते के लड़के का था,ये जानते ही मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा। लड़के की शादी यानी बारात प्रस्थान के बाद रात में जलुआ( जैसा कि हमारे गृहजिले में बोला जाता है) या डोमकच का खेल होना। डोमकच का नाम याद आते ही बचपन में उनींदी आंखों से देखे गए आधे-अधूरे दृश्य याद आ गये। दिल को तसल्ली मिला कि चलो इस बार तो पूरा ही देख लेंगे। बारात के विदा होने के कुछ वक्त पहले मैने सबसे पूछा कि “तब रात के जलुआ के तैयारी भ गइल?” (रात में होनेवाले जलुआ की तैयारी हो गयी?) कुछ नवयुवतियों ने बड़े विस्मय […]
“पापा ने कहा है कि अगर मैं उनकी पसंद के लड़के से शादी नहीं करूंगी तो वे अपनी जान दे देंगे। मैं अपने पापा के मौत की वज़ह नहीं बनना चाहती। मुझे माफ़ कर देना विक्रम। मैं तुम्हें कभी भूल नहीं पाऊंगी और तुम्हारे सिवा किसी और को कभी प्यार भी नहीं कर पाऊंगी।” अंशुमालिका ने रोते हुए विक्रम से कहा। “मैं तो तुम्हें माफ़ कर दूंगा, लेकिन मेरा दिल मुझे कभी माफ़ नहीं करेगा। यह हर पल तुम्हारी याद में तड़पेगा और मुझे रुलाएगा” इतना कहकर विक्रम अंशुमालिका से लिपट कर रोने लगा। अगले दिन अंशुमालिका की शादी गुरमीत के साथ हो गई और वह अपने ससुराल आ गई। दो दिन बाद गुरमीत अंशुमालिका को अपने साथ लेकर शहर आ गया, जहां वह किराए के कमरे में रहता था। गुरमीत दिखता तो बहुत ही मासूम और भोला-भाला था, लेकिन वह अव्वल दर्जे का कमीना और […]
बन्दिनी! “प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ, विफलत्वमेति बहु साधनता। अवलम्बनाय दिनभर्तुरभून्न पतिष्यतः करसहस्रमपि ।।” (माघ:) मुझे चैतन्य जानकर रामदयाल ने कहा,–“ ओ कैदी औरत! अब उठ और कोठरी का दरवाजा खोल। देख तो सही, कि कितना दिन चढ़ आया है! कानपुर से कोतवाल साहब और पुलिस के बड़े साहब भी आ गए हैं और तुझे बुला रहे हैं।” यह सुनकर मैंने बाहर की ओर देखा तो क्या देखा कि दिन डेढ़ पहर के अंदाज चढ़ आया है, मेरी कोठरी के सामने एक मूढ़े पर एक अंगरेज बैठे हैं और कई लाल पगड़ीवाले उनके अगल-बगल और पीछे खड़े हैं! यह देखकर मैंने रामदयाल से कहा कि,– “साहब को भेजो।” मैंने देखा कि, मेरी बात सुनकर रामदयाल चौकीदार ने उन साहब बहादुर के सामने जाकर कुछ कहा, जिसे सुनकर वे मूढ़े पर से उठकर मेरी खिड़की के पास आए और बहुत ही मीठेपन के साथ यों कहने लगे,– […]
बात सर्वाइवल की चल रही है पीटर स्काइलबर्ग उमेआ, स्वीडन के गहरे जंगलों में एसयूवी गाड़ी लेकर घूम रहे थे। वहाँ बेतहाशा बर्फ़ बिखरी हुई थी। उनकी गाड़ी फंस गयी। ऐसी फंसी की गाड़ी के चारों तरफ बर्फ़ ही बर्फ़ हो गयी। जो लोग स्वीडन के बारे में नहीं जानते हैं उन्हें बता दूँ कि स्वीडन क्षेत्रफल में उत्तरप्रदेश से दोगुना बड़ा है लेकिन आबादी है कुल एक करोड़। पर इस साढ़े चार लाख किलोमीटर वर्ग में फैले देश में रहने लायक ज़मीन थोड़ी ही है। ये आबादी और एरिया मैंने इसलिए बताया कि यूँ तो उमेआ एक छोटा सा शहर है पर यहाँ की आबादी एक लाख से भी कम है। इस गिनती की आबादी में से एक शख्स पीटर स्काइलबर्ग गाड़ी को बर्फ़ में फंसाकर ख़ुद अन्दर फंस गया। ठंड इतनी की हड्डियाँ जम जाएँ और सन्नाटा ऐसा कि मीलों दूर तक कोई बंदा न बन्दे की परछाई […]
मानवीय समाज में ऐसा कहीं नहीं मिला है जिसमें धर्म का अस्तित्व किसी न किसी रूप में न रहा हो या कोई भी मानव समाज धर्म से अलग रहा हो। धर्म सर्वत्र पाया जाता है। परंतु जनजातीय समाज में धर्म उतने ही सरल अथवा कहीं-कहीं उतने ही जटिल रूप में पाया जाता है-जितना कि विकसित तथा कहीं सभ्य कही जाने वाली जातियों में। मानव शास्त्रियों के अनुसार जनजातियों में धर्म की उत्पत्ति का मूल कारण भूत प्रेतों में विश्वास है। साधारणतः प्रत्येक जनजाति का एक अलग-अलग धर्म रहा है परंतु इसमें भी समय के साथ काफी परिवर्तन हुए हैं। अन्य धर्मों के निकट संपर्क में आने तथा जनजातियों के संस्कृतिकरण तथा आत्मसात करने की प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप धर्म के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं, जिससे इनका झुकाव परंपरागत धार्मिक रिवाजों से लगभग हट गया है। छोटा नागपुर की उरांव, मुण्डा, हो, खड़िया, संथाल […]
” हे यू कूल डूड ऑफ़ हिंदी ,टुडे इज द बर्थडे ऑफ़ हिंदी ,ईट्स आवर मदर टँग एन प्राइड आलसो ,सो लेटस सेलेब्रेट ।यू आर कॉर्डियाली इनवाटेड।लेट्स मीट एट 8 पीएम ,इंडीड देअर विल भी 8 पीएम,वेन्यू,,ब्लैक डॉग हैंग आउट कैफे, ब्लैक डॉग ,,,योर फेवरेट ब्रो “ मोबाईल पर ये खबर मिली जो कि मुझे निमंत्रण था हिंदी के जन्मदिन में शामिल होने का।मैं थोड़ा विचार करने लगा कि हिंदी दिवस पर हिंदी के लेखक को बुलाने के लिए क्या हिंदी के शब्दों का अकाल पड़ गया।वैसे भी हिंदी का लेखक होना किसी गन्धर्व के श्राप को झेलने का वरदान है।हिंदी का लेखन वो दरिद्र व्यापार है जो युगों युगों से माइनस में रहा है और समझदार लोग बताते हैं कि आने वाले अनंतकाल तक माईनस ही रहेगा।मुद्रास्फीति बढ़ती गयी ,लेखकों की इज्जत और मानदेय घटते गये ।हिंदी के लेखक के लिये रॉयल्टी की उम्मीद वैसे ही है जैसे गांधी […]
“क्या लाऊँ, साहब?” बड़ी ही नम्रता से उसने पूछा. मैने सुबह के अखबार पर नज़र गड़ाए हुए ही कहा, “चाय…. एक चाय ले आओ, और हाँ, जरा कड़क रखना.” वह फुर्ती से चला गया. कई घण्टे लगातार काम करने से उत्पन्न तनाव और दिसंबर की ठिठुरन के चलते मैं आफिस से निकलकर सीधा चाय के ढाबे पर ही आ बैठा था. “साहब और कुछ चाहिए.” कहकर उसने चाय का गिलास मुझे थमा दिया और केतली से जलता हाथ सहलाने लगा था. मैने अखबार बेंच के एक कोने पर रख दिया. फिर एकटक उसकी ओर देखा. वह एक नौ दस वर्ष का गोरा- चिटठा सुन्दर बालक था, उसने एक मोटी चीकट सी फटी हुई शर्ट और फटी नेकर पहनी हुई थी. वह कड़कड़ाती ठण्ड से कांप रहा था. उस बालक की दयनीय दशा देख मेरे ह्रदय में हूक सी उठी और मन पसीज आया. मैने पर्श से सौ रूपये के दो […]
गाँव के बाहर एक बूढ़ा पीपल का पेड़ खड़ा था। कितनी उम्र थी उसकी, ठीक-ठीक कोई नहीं बता सकता। बड़े-बूढ़े कहा करते थे, वह पेड़ गाँव के बसने के समय भी इतना ही बड़ा, ऐसा ही घना और ऐसा ही था, जैसा आज है। उसी पेड़ से उस गाँव का नाम भी पिपरा था। प्राचीनता के लिए तो दस गाँव जोड़कर उसकी ख्याति थी ही, उसके बारे में लोगों में एक भयप्रद कहानी भी प्रचलित थी। वह यह कि उस पर एक अत्यंत विकट ब्रह्मदैत्य रहता है। इस कारण उस पेड़ का भयंकर रूप लोगों की आँखों में और भी भयंकर लगता। संध्या होने पर मजाल किसकी कि उस राह से गुजरे। ऐसा ही आतंक था। मगर नथुनी नाई एक दिन बुरा फँसा। दोपहर का समय था। चिलचिलाती धूप थी। कौवों के काँव-काँव से दोपहर का सन्नाटा भयावना हो उठा था। पछाँह वायु पेड़-पौधों पर अलग पछाड़ खा रही थी। […]
खून की रात ! “समागते भये धीरो धैर्येणैवात्मना नरः। आत्मानं सततं रक्षेदुपायैर्बुद्धिकल्पितैः॥” (व्यासः) वे सब तो उधर गए और इधर मैं उस कोठरी की देख-भाल करने लगी। मैंने क्या देखा कि, “उस बड़ी सी छप्परदार कोठरी में आठ खाट बराबर-बराबर बिछ रही हैं, डोरी की ‘अरगनी’ पर कपड़े-लत्ते टंग रहे हैं, कोठरी के बीचोबीच आग जल रही है, एक कोने में बहुत से बड़े-बड़े लट्ठ सरिआए हुए हैं, दूसरे कोने में भरी हुई एक तोड़ेदार बंदूक रक्खी हुई है, तीसरे कोने में आठ गँड़ासे धरे हुए हैं और चौथे कोने में चार तलवारें खड़ी की हुई हैं !!! यह ठाठ देख कर मैंने एक तलवार स्थान से खींच ली और वह भरी हुई बन्दूक भी उठा ली। फिर उस कोठरी की उस जंगलेदार खिड़की के पास आ कर मैं खड़ी हो गई और उन चौकीदारों का आसरा देखने लगी, जो अब्दुल्ला की कोठरी की ओर गए थे। […]
चैत का महीना था, लेकिन वे खलियान, जहाँ अनाज की ढेरियाँ लगी रहती थीं, पशुओं के शरणास्थल बने हुए थे; जहाँ घरों से फाग और बसन्त का अलाप सुनाई पड़ता, वहाँ आज भाग्य का रोना था। सारा चौमासा बीत गया, पानी की एक बूँद न गिरी। जेठ में एक बार मूसलाधार वृष्टि हुई थी, किसान फूले न समाए। खरीफ की फसल बो दी, लेकिन इन्द्रदेव ने अपना सर्वस्व शायद एक ही बार लुटा दिया था। पौधे उगे, बढ़े और फिर सूख गए। गोचर भूमि में घास न जमी। बादल आते, घटाएं उमड़तीं, ऐसा मालूम होता कि जल-थल एक हो जाएगा, परन्तु वे आशा की नहीं, दुःख की घटाएँ थीं। किसानों ने बहुतेरे जप-तप किए, ईंट और पत्थर देवी-देवताओं के नाम से पुजाएं, बलिदान किए, पानी की अभिलाषा में रक्त के पनाले बह गए, लेकिन इन्द्रदेव किसी तरह न पसीजे। न खेतों में पौधे थे, न गोचरों में घास, न तालाबों […]
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…