अपनी पूरी ज़िंदगी … निस्वार्थ किसी के लिए गुज़ार देती है। बिना अपनी फिक्र किए ममता का चादर हमें ओढ़ा देती है। बिना जताए कोई एहसान, देती है हमें एक नया मुक़ाम माँ की इस ममता को मेरा सलाम। त्याग का प्याला पीकर संस्कारों की लहरों से सींचती है दिल की नगरी में बसाकर अपना रात-दिन हमारे नाम करती है। ममता और त्याग का संगम है, है वह एक ईश्वरीय वरदान। जिसके जीवन में होता यह अनोखा इंसान चमकती है उसकी दुनिया इंद्रधनुष समान। माँ की इस ममता को मेरा सलाम। नन्हे हाथों को थामकर देती है हमें एक खुला आसमान। सिखाती है खोलना अपने पंखों को हमारे सपनों को देती है एक नई उड़ान। माँ की इस ममता को मेरा सलाम।
कवित्त (1) बहुत दिनान के अवधि आस-पास परे, खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ। कहि कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखत हैं दै दै सनमान कौ। झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै, अब ना घिरत घनआनँद निदान कौ। अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान, चाहत चलन ये सँदेसौ लै सुजान कौ॥ (2) आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौ लौं कहा मो चकित दसा त्यों न दीठि डोलिहै। मौन हूँ सों देखिहो कितेक पन पालिहौ जू कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलिहै। जान घनआनंद यौं मोहिं तुम्हैं पैज परी जानियेगो टेक टरें कौन धौं मलोलिहै। रुई दिये रहौगे कहा लौं बहराइबे की? कबहूँ तो मेरियै पुकार कान खोलिहै॥ सवैया (1) तब तौ छबि पीवत जीवत हे, अब सोचन लोचन जात जरे। हित पोष के तोष सु प्रान पले, बिललात महा दु:ख दोष भरे॥ घनआनंद मीत सुजान बिना सब ही सुख-साज-समाज टरे। तब हार पहार […]
सरस्वती वंदना बानी जगरानी की उदारता बखानी जाइ, ऐसी मति उदित उदार कौन की भई। देवता प्रसिद्ध सिद्ध ऋषिराज तपवृद्ध, कहि कहि हारे सब कहि न काहू लई। भावी भूत वर्तमान जगत बखानत है, ‘केसोदास’ कयों हू ना बखानी काहू पै गई। पति बर्नै चार मुख पूत बर्नै पाँच मुख, नाती बर्नै षटमुख तदपि नई नई॥ पंचवटी-वन-वर्णन सब जाति फटी दु:ख की दुपटी कपटी न रहै जहँ एक घटी। निघटी रुचि मीचु घटी हूँ घटी जगजीव जतीन को छूटी तटी। अघ ओघ की बेरी कटी विकटी निकटी प्रकटी गुरु ज्ञान गटी। चहुँ ओरन नाचति मुक्ति नटी गुन धूरजटी वन पंचवटी॥ अंगद सिंधु तरयो उनको बनरा, तुम पै धनुरेख गई न तरी। बाँधोई बाँधत सो न बन्यो उन बारिधि बाँधिकै बाट करी॥ श्रीरघुनाथ-प्रताप की बात तुम्हैं दसकंठ न जानि परी। तेलनि तूलनि पूँछि जरी न जरी, जरी लंक जराई जरी॥
(1) के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास। हिए नहि सहए असह दु:ख रे भेल साओन मास॥ एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए। सखि अनकर दु:ख दारुन रे जग के पतिआए॥ मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल। गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल॥ विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस। आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास॥ (2) सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए। सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन होए॥ जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल॥ सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल॥ कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि॥ लाख लाख जुग हिअ-हिअ राखल तइओ हिअ […]
दीपों का शहर बनारस, भगवान शिव की नगरी बनारस, आस्था का शहर बनारस, ज्ञान की नगरी बनारस … न जाने कितने नामों और विशेषताओं से नवाजा जाता है इस शहर को। संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक है यह शहर जहाँ धर्म, आस्था और ज्ञान की त्रिवेणी बहती है। यह एक ऐसा शहर है जहाँ गंगा किनारे पत्थर की सीढ़ियों पर बैठकर खूबसूरत घाटों को निहारा जा सकता है। मंदिरों की घंटियों से निकलती मधुर ध्वनि जहाँ मन को सुकून देती है, वहीं उदय और अस्त होते सूरज की किरणें घाटों को एक अद्भुत और मनमोहक दृश्य प्रदान करती हैं। मंदिरों में गूँजते हुए संस्कृत श्लोक और मंत्र मनुष्य को संस्कृति और धर्म के सागर में डूबो ही लेते हैं। एक ऐसा शहर है यह जिसके रग-रग में अपनापन और प्यार छुपा है। बनारस की यह धरती महान कवियों, लेखकों, संगीतकारों और ऋषि-मुनियों की जननी है। बनारस भारत […]
(1) अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दुख सो जाइ किमि काढ़ी।। अब धनि देवस बिरह भा राती। जरै बिरह ज्यों दीपक बाती। काँपा हिया जनावा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।। घर घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रंग लै गा नाहू। पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिरै फिरै रंग सोई।। सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।। यह दुख दगध न जानै कंतू। जोबन जरम करै भसमंतू।। पिय सौं कहेहु सँदेसड़ा ऐ भँवरा ऐ काग। सो धनि बिरहें जरि मुई तेहिक धुआँ हम लाग।। (2) पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक दिसि तापा।। बिरह बाढ़ि […]
राघौ! एक बार फिरि आवौ। ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ।। जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे। क्यों जीवहिं, मेरे राम लाडिले ! ते अब निपट बिसारे।। भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे। तदपि दिनहिं दिन होत झावरे मनहुँ कमल हिममारे।। सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन कहियो मातु संदेसो। तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो।।
जननी निरखति बान धनुहियाँ। बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ।। कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे। “उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे”।। कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भइ जाहु भूप पहँ, भैया। बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया” कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी। तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी।।
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढे़ | नीरज नयन नेह जल बाढे़ || कहब मोर मुनिनाथ निबाहा | एहि तें अधिक कहौं मैं कहा || मैं जानऊँ निज नाथ सुभाऊ | अपराधिहु पर कोह न काऊ || मो पर कृपा सनेहु बिसेखी | खेलत खुनिस न कबहूँ देखी || सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू | कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू || मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही | हारेंहूँ खेल जितावहिं मोंही || महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन | दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन || बिधि ना सकेउ सहि मोर दुलारा | नीच बीचु जननी मिस पारा || यहउ कहत मोहि आजु न सोभा | अपनी समुझि साधु सुचि को भा || मातु मंदि मैं साधु सुचाली | उर अस आनत कोटि कुचाली || फरह कि कोदव बालि सुसाली | मुकता प्रसव कि […]
तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये पत्थर ये चट्टानें ये झूठे बंधन टूटें तो धरती को हम जानें सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है आधे आधे गाने तोड़ो तोड़ो तोड़ो ये ऊसर बंजर तोड़ो ये चरती परती तोड़ो सब खेत बनाकर छोड़ो मिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज को हम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को? गोड़ो गोड़ो गोड़ो
जैसे बहन ‘दा’ कहती है ऐसे किसी बँगले के किसी तरु (अशोक?) पर कोई चिड़िया कुऊकी चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरमुराए पाँव तले ऊँचे तरुवर से गिरे बड़े-बड़े पियराए पत्ते कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहाई हो— खिली हुई हवा आई, फिरकी-सी आई, चली गई। ऐसे, फुटपाथ पर चलते चलते चलते। कल मैंने जाना कि वसंत आया। और यह कैलेंडर से मालूम था अमुक दिन अमुक बार मदन-महीने की होवेगी पंचमी दफ़्तर में छुट्टी थी—यह था प्रमाण और कविताएँ पढ़ते रहने से यह पता था कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल आम बौर आवेंगे रंग-रस-गंध से लदे-फँदे दूर के विदेश के वे नंदन-वन होवेंगे यशस्वी मधुमस्त पिक भौंर आदि अपना-अपना कृतित्व अभ्यास करके दिखावेंगे यही नहीं जाना था कि आज के नगण्य दिन जानूँगा जैसे मैंने जाना, कि वसंत आया।
जल्दी जयपुर पहुँचने के चक्कर में जवाद इब्राहिम ने मुख्य मार्ग से न जाकर, जंगल से हो के जाने वाला ये छोटा रास्ता चुना था। हालाँकि उसकी पत्नी रुख़सार ने एतराज़ भी किया था। शाम का धुँधलका हो रहा था कि अचानक उसकी कार घुर्र-घुर्र कर बंद हो गयी। बस रुख़सार ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, “मैं कह रही थी कि मुख्य मार्ग से चलो, पर तुम्हें तो जल्दी पहुँचना था। वाह! कितनी जल्दी पहुँच गये।”, रुख़सार ने तंज़ कसते हुए कहा, “जाने कौन सा इलाका है, अँधेरा भी हो रहा है।” रुख़सार को बड़बड़ाता छोड़ जवाद गाड़ी से उतरा और अपनी लंबी शक्तिशाली टॉर्च की रोशनी इधर-उधर डाली। सड़क के दाहिनी ओर एक लाल बजरी वाला रास्ता था। किनारे पर लगे तीर के निशान के साथ बोर्ड पर लिखा था “संगमहल”। उसने कार में बैठी रुख़सार से कहा, “फ़िक्र न करो। हम सन्दलगढ़ की हवेली के आस पास के […]
जब हम सत्य को पुकारते हैं तब वह हमसे हटते जाता है जैसे गुहारते हुए युधिष्ठिर के सामने से भागे थे विदुर और भी घने जंगलों में सत्य शायद जानना चाहता है कि उनके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं कभी दिखता है सत्य और कभी ओझल हो जाता है और हम कहते रह जाते हैं कि रुको यह हम हैं जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर कि ठहरिए स्वामी विदुर यह मैं हूँ आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर वे नहीं ठिठकते यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य लेकिन पलटकर खड़ा ही रहता है वह दृढ़निश्चयी अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें और उसमें से उसी का हल्का-सा प्रकाश जैसा आकार समा जाता है हममें जैसे शमी वृक्ष के तने […]
1947 के बाद से इतने लोगों को इतने तरीक़ों से आत्म निर्भर, मालामाल और गतिशील होते देखा है कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए तो जान लेता हूँ मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी या मैं भला-चंगा हूँ और कामचोर और एक मामूली धोखेबाज़ लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच, लज्जा, परेशानी या ग़ुस्से पर आश्रित तुम्हारे सामने बिल्कुल नंगा, निर्लज्ज और निराकांक्षी मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से मैं तुम्हारा विरोधी, प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम कम से कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो
हिमालय किधर है? मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर पतंग उड़ा रहा था उधर-उधर-उसने कहा जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी मैं स्वीकार करूँ मैंने पहली बार जाना हिमालय किधर है?
Nicely written. Nagpanchami is one of that festivals which combines the good vibes of conservating forests and their dependents. The…