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इमिग्रेशन कथा

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इण्डिया से बाहर, एशिया के भी बाहर, एक नए देश में जब मैंने अपना आशियाना बनाने का फ़ैसला किया, तब सबसे पहला सवाल जो मेरे मन में आया। कहाँ? उस नए देश में कहाँ?

अपने देश में कब हमने इस सवाल का सामना किया था? जहाँ नियति में बदा था वहाँ पैदा हो गए और लो जी हो गए.. लखनवी, इलाहाबादी या इंदौरी। हमने कब तय किया?

तरुणाई में, आगे की पढ़ाई के लिए कई तरह के फ़ॉर्म भरे, परीक्षाएँ दी और जहाँ से बुलावा आ गया वहाँ के हो गए.. भोपाल, गोवा या कोचीन। हमने कब सर खुजलाया था?

कॉलेज परिसर में जितनी कम्पनियाँ आयीं, सब के इम्तिहान दिए और जिसने हमें चुन लिया उसके साथ चल पड़े.. दिल्ली, मुम्बई या हैदराबाद। हमने कब सोच-सोच कर रातें काली कीं कि कहाँ जाएँगे?

कभी नहीं। हर बार किसी ना किसी ने हमारे लिए निर्णय ले लिया। ए बावरे नैन, उधर नहीं इधर आओ और हम चल पड़े। जीवन के तीन दशक बीत रहे बिना इस उधेड़बुन के कि कहाँ जाएँ, कहाँ रहें।

अब यह यक्ष प्रश्न घटोत्कच-सा कद लिए रास्ता रोके खड़ा है। कभी ठिठोली करता है “पासवर्ड बोल, रास्ता खोल नहीं तो, यहीं पर कर रॉक एंड रोल”

कुछ देर तो प्रश्न के यूँ प्रकट होने, उसके मायावी आकार पर, उसकी ठिठोली पर स्तब्ध रहे, फिर कुछ देर किंकर्तव्यविमूढ़ हुए और तब धीरे से अपने आप में लौटे कि कुछ तो सोचना होगा। अब निर्णय की ज़िम्मेदारी हम पर आयी है। “हर जगह तन्ने बचाने तेरा पप्पा ना आएगा” हम्मम्म….

तय हुआ कि सोचना तो हमें ही पड़ेगा। बस, फिर क्या था, हमने गम्भीर विचारक की मुद्रा में ठुड्डी हथेली पर टिकाई और लगे शून्य में घूरने। “कहाँ? मतलब कहाँ जाएँ? कहाँ ठीक रहेगा?” मन में यह गूँज और उसकी अनुगूँज गुंजायमान हो गयी और हमें लगा, चलो सोचना शुरू कर दिया हमने। जब कुछ देर हो गयी यह शोर-शराबा सुनते हुए तो ध्यान आया, “अरे! यह क्या सोच रहे हैं हम! तरह-तरह से सवाल ही सोचे डाल रहे हैं। बड़े भाई, जवाब सोचना है, जवाब। अरे यार! सोचना नहीं है, नहीं-नहीं। ढूँढना है। जवाब ढूँढना है।”

यकायक उत्साह दामिनी चमकी और कड़क कर बोली, “ ढूँढना है? लो, बस, एक एप्प भर की दूरी है.. गूगल पर जानकारी पूरी है”। हमने तुरन्त कम्प्यूटर स्क्रीन पर छापा” best places to live in Australia” और भरपूर जोश में यह माउस बटन दबा के छोड़ा और चला दिया दिव्यास्त्र। पलक झपकते स्क्रीन पर धूमकेतु समान कुछ शहरों के नाम आतिश हो उठे। सिडनी, मेल्बर्न, ब्रिस्बेन, एडलेड और पर्थ।

अब या तो हम अक्कड़-बक्कड़ से चुन लेते या फिर और सोचने का बीड़ा उठाते। लेकिन क्यूँकि हम दरअसल इंटेलेकचुअल टाइप के प्राणी हैं, तो हमने आगे और सोचने, ढूँढने की ठानी।

हमने भौगोलिक नक़्शा देखा और रेगिस्तान देखकर पर्थ सबसे पहले हटा दिया.. रेत के टीले सुहाते तो हैं, पर पेड़ की छाँव की बात और ही है। फिर एडलेड भी हट गया और बच रहे तीन शहर। ब्रिस्बेन के बीच लुभावने लगे, मेल्बर्न का खुलापन और सिडनी का मौसम। यह तीनों ही घुमक्कड़ी के लिहाज़ से लाजवाब हैं, लेकिन ज़िन्दगी सिर्फ़ यायावरी तो नहीं कुछ और भी है।

जीवन गाड़ी चलाने के लिए रोजगार निहायत ज़रूरी है इसलिए अब देखना था कि रोजी का जुगाड़ कहाँ जल्दी बनेगा? कुछ औफ़िशीयल साइट्स ढूँढी और तीनों शहरों के डाटा चेक किए। सिडनी ने बाज़ी मार ली। लो भई, शहर भी नक्की हुआ। अब शहर में कहाँ? कौन सा गली मोहल्ला ठीक रहेगा?

शहरों में शहर: सिडनी। बोलने में भी अंग्रेज़ियत का भरपूर एहसास।

आजकल गूगल मैप्स पर एक लचीला सा कंकाल विहीन जिंजरब्रेड मैन क़िस्म का घुमक्कड़ आदमी प्रतिपल उपस्थित रहता है। आपको किसी भी देश के किसी भी गली मोहल्ले में ताँकाझांकी करनी हो, ये आपकी मदद को तत्पर रहता है। ये महाशय आपको पलक झपकते उन गलियों में घुमा देंगे। आगे आपकी जैसी श्रद्धा हो।

सिडनी के गली मोहल्ले के बारे में गूगल मैप्स से जो जानकारी मिली वह कुछ अधकचरा टाइप की थी और निर्णय लेने में किसी तरह मददगार नहीं हो पा रही थी। तब हमने फेसबुक तारनहार को याद किया।

अँधा क्या चाहे?? दो आँखें। और सोशल मीडिया जीवी क्या चाहे? एक अदद फ़ेसबुक पेज जिसका नाम हो “Indians in Sydney”

बस जी, हमने आनन फानन उस पेज से जुड़ने की अर्जी डाल दी। अगले ही दिन हमें उसकी सदस्यता दे दी गयी और हमने छूटते ही अपनी जिज्ञासा वहाँ प्रकट कर दी। लोगों ने भरपूर मार्गदर्शन किया और तीन मोहल्ले उभर कर आये.. पैरामेटा, हैरिस पार्क और वेस्टमीड। गौरतलब यह कि 90% प्रवासी भारतीय इन्ही जगहों में बसे हुए हैं।

हमने बताया नहीं शायद, पर हम ठहरे अच्छा खासा प्रश्नपत्र। हमने अगला सवाल दाग दिया कि ऐसा होने की क्या वजह है? भई, न जाने क्यूँ इस बार जवाब कुछ खास नहीं मिले और बहुत ही कम मिले। ख़ैर…

हम मायूस होने ही वाले थे कि चमत्कार हुआ। हमें हमारी बहुत बहुत, मतलब, बहुत ही दूर की भाभी का नंबर मिला। दूरी इतनी है कि हमारी ननद की दोस्त की भाभी की भाभी। अहो भाग्य! हम ऐसे देश के वासी हैं जहाँ इतनी दूरी होने पर भी ननद भाभी का रिश्ता बन जाता है, तो झटपट वह बन गयी भाभी और हम ननद। ओहो! हम ऐसे आह्लादित हुए कि एक मुद्दे की बात तो बताना रह ही गया। वो यह कि हमारी यह जो नयी नयी भाभी हैं, यह सिडनी में रहती हैं और वो भी पिछले २ साल से। एंड नो वंडर..वो पैरामेटा में ही रहती हैं। लग गया ना हमारा जैकपोट।

हमने उनसे बात की तो उन्होंने बड़े हर्ष से हमें बधाई दी और फिर आश्वस्त भी किया कि पैरामेटा ही हमारे लिए बिलकुल सही है। और तो और उन्होंने हमें सिडनी के प्रवासी भारतीयों के व्हाट्सएप्प ग्रुप में भी जोड़ दिया। यह तो ऐसा हो गया कि अन्धे को आँख के साथ-साथ स्टाइलिश गौगल्स भी मिल गए। अब तो हमारी पाँचों उँगलियाँ घी में और सर कढ़ाई में था। तल डालो, जितने पकौड़े तलने हैं सवालों के।

उस ग्रुप में मुझे कई सारे संवेदनशील और मददगार “हिन्दुस्तानी” मिले। जो बड़ी नयी और हैरत की बात थी। हैरानी क्यूँ? इस पर बात फिर कभी होगी। हाँ, तो, हैरत अपनी जगह और सवाल अपनी जगह। मेरे एक-एक सवाल पर ढेरों जवाब आते। कई लोग तो इतने प्यारे हैं कि कॉल करके मुझे समझाते। मुझे लगा इन्सानों की किसी नयी प्रजाति से पाला पड़ रहा है। इनमें से बहुत से प्यारे लोग आज मेरे अच्छे दोस्त भी हैं।

कई जवाबों में से एक जवाब, जो बहुत दिनों तक मेरे जेहन में गूँजता रहा, वह था “परदेस में हम लोगों को मिलजुल कर रहना चाहिए। कभी कोई कम्युनल दंगा भड़क गया तो एकजुट होकर लड़ना आसान है। कहीं अकेले फंस गए तो…..”

‘कम्युनल दंगा’! कब हुआ था पिछली बार ऑस्ट्रेलिया में? 2005 में। पिछले १३ सालों की शांति व्यवस्था भी लोगों के डर को मिटाने में कामयाब नहीं हो पाई कि वह वहाँ सुरक्षित हैं। उस पर हैरानी यह भी कि जितने प्रवासी भारतीय आज वहाँ हैं उनमें से शायद २% ने भी वह दौर अपनी आँखों से नहीं देखा है। फिर भी इतने डरे हुए हैं!

अनावश्यक डरों से मुक्ति पाने के लिए तो मैंने अपनी मिट्टी छोड़ इतनी दूर जाने का फ़ैसला लिया। थक चुकी थी मैं अपनी बेटी को डराते-डराते, इंसानों पर भरोसा न करना सिखाते। कहीं अकेले आने-जाने नहीं दे सकती। कोई अनजान निष्पाप हृदय से भी अगर दुलार में उसके गाल छू दे तो उसे सतर्क हो जाने को समझाना। किसी बड़ी उम्र के सज्जन को दादा, मामा और चाचा न बनाने को कहना। हद तो यह कि कोई मुस्कुराहट से देखे तो नमस्ते भी न करना। यह कैसे समाज में रह रही है मेरी बेटी? अगर वह अपनी सुरक्षा के लिए ही हर समय चिंतित रहेगी तो बाकी चिंतन मनन कब करेगी? अपनी दुनिया, अपने जीवन को बचाने की सोच जीवन बेहतर बनाने की कब होगी?

मुझे कुछ करना था, मेरी बेटी के लिए। उसे वहाँ से निकालना था। यह आसान नहीं था क्यूँकि मेरी जड़ें उसी मिट्टी में बंधी हैं जहाँ से मुझे अब उखड़ना था। मेरे बूढ़े होते माता-पिता के प्रति मेरी जिम्मेदारियाँ भी मुझे रोक रहीं थीं। भावनात्मक तौर पर यह बहुत कठिन फ़ैसला था जो लिया जाना नितान्त ज़रूरी था।

मैंने सिडनी की आपराधिक जानकारियों पर भी नज़र रखना शुरू किया और यह देखकर मन दहल गया कि सिडनी में सबसे असुरक्षित जगहों में पैरामेटा, हैरिस पार्क, वेस्टमीड के नाम आते हैं। कम्युनल नहीं, यहाँ रोज़मर्रा वाले अपराध होते हैं। आत्महत्या, हत्या, चोरी, लूट और रेप।

एक समाचार पत्र में पढ़ी वह ख़बर तो मुझे भुलाये नहीं भूलती। आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं याद करके। अपराधी ने एक १२ साल की भारतीय लड़की का रेप किया और बच्ची ने समाचार पत्र को बताया कि बलात्कारी ने उससे कहा, “इण्डिया में तो यह अब तक तुम्हारे साथ कितनी बार हो गया होता”

इतनी रिसर्च के बाद मैंने पक्का कर लिया कि चाहे कम्युनल दंगे में अकेले फंस जाऊँ पर उस जगह हरगिज नहीं जाऊँगी जहाँ फिर मेरा डर मुझपर अपना फंदा कस ले।

इण्डियन मोहल्ले में तो नहीं जाना, तो चलो, अब वैसा ही कुछ करते हैं जो यहाँ हमारे साथ अनायास ही हो गया। जहाँ रोजी रोटी का जुगाड़ बन जाए उस जगह के आस पास रहेंगे। सिडनी में CBD (Central Business District) इलाक़ा है। यहाँ सभी बड़े ऑफ़िस होते हैं और शहर की लगभग 90% नौकरियाँ होती हैं। तो क्यूँ न इस इलाक़े के आस पास रहा जाये? हाँ, यही ठीक रहेगा। यहाँ का क्राइम इंडेक्स भी बहुत कम है। यहाँ कीमतें बढ़ी हुई हैं होटल्स की हों या किराए के घर की। लेकिन मानसिक और आर्थिक बोझ में अगर चयन करना है, तो मैं आर्थिक बोझ चुन लूँगी। हमने AirBnB वेबसाइट से शुरुवात के एक महीने टिकने के लिए CBD के पास ठिकाना ढूँढना शुरू किया।

इन्टरनेट ने मनुष्य को अपार शक्तियों का मालिक बना दिया है। उसे दिव्य दृष्टि दे दी है। दिल्ली में बैठे सिडनी के एक होटल का मुआयना कर पा रहे हैं लोग। उस होटल के आस पास और क्या क्या है, यह जानना भी कितना सहज हो गया है! मैं उस समय की कल्पना भी नहीं कर सकती जब मेरे मम्मी पापा ने पहाड़ छोड़कर लखनऊ आने का निर्णय लिया था। कैसी अज्ञात और निर्वात सी रही होगी वह अनुभूति? कैसी उत्कट रही होगी वह चाहना! कैसा अद्भुत साहस रहा होगा उनमें? जहाँ जा रहे हैं उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते। वहाँ के लोग बोली अलग बोलते होंगे ये जानकारी तो होगी, पर वह कैसे रहते हैं? उनके घर कैसे होते हैं? घर में पानी कैसे आता होगा? क्या वहाँ घरों में गाय होती होगी? दूध कैसे घर आता होगा? ऐसे न जाने कितने विस्मय और कौतूहल मन में लिए मेरे मम्मी पापा ने वह साहसिक कदम उठाया होगा। मुझे उनके संघर्ष ने हमेशा प्रेरणा दी है कि अज्ञात से मत डरो, बढे चलो..बढे चलो।

आज जब मैंने उन्हें अपना AirBnB वाला बुक्ड होटल दिखाया तो वह कैसे सुखद आश्चर्य में घिर गए। निश्चिन्त भी हुए कि वहाँ रहने की क्या क्या सुविधाएँ हमें मिलेंगी। फिर मुस्कुराते हुए एक दूसरे को देखकर पहाड़ी में बोले, “अहा रे बखता (समय की बलिहारी)!!”

इस तरह इंटरनेट की असीम कृपा से हमने निर्णय ले ही लिया कि हम कहाँ रहेंगे। जगह निर्धारित हुई। होटल निर्धारित हुआ। टिकिट आरक्षित हो गयीं और अब आया सबसे विकट समय अपनी रंगारंग झाँकी की एक झलक लुटाते हुए। 12 साल की गृहस्थी में क्या नहीं जोड़ रखा था: AC, फ्रिज, वाशिंग मशीन,.. लगभग एक अंतहीन लिस्ट। अब इस लिस्ट में सबका नाम बदलने का समय आ गया। सबका नाम अब ‘माया’ है।

क्या लेके आया बन्दे? क्या लेके जायेगा? न.. न यह केवल मेटाफोरिक बात नहीं है। सच है। मैं २ सूटकेस लेके इस शहर आई थी, बस वही साथ जायेगा।

घर का सारा सामान ऑने-पोने दाम में बेचने की दुखदायी, कष्टप्रद और थकाऊ प्रक्रिया शुरू हुई। धीरे-धीरे कमरे खाली होने लगे और हम बिना संसाधनों के कैसे गुज़र-बसर करेंगे, एक तरह से, इसका अभ्यास शुरू हो गया।

यूँ तो लगभग सभी चीज़ों से मोह के धागे तोड़े, लेकिन उन धागों के पैनेपन का एहसास तब सबसे अधिक हुआ जब बेटी के खिलौने, स्टडी टेबल और उसके पुस्तकालय की किताबें एक एक कर घर से बाहर हुई। मेरी बेटी के लिए भी यह बहुत विचित्र, विस्मयकारी, दुखदायी और खिन्न करने वाला प्रकरण था। उसके लिए विस्थापित होने का यह पहला अवसर और पहला अनुभव था। उसकी नाज़ुक उँगलियाँ इन मज़बूत धागों के खिंचाव से कहीं- कहीं चुटहिल भी हुई। आँसुओं से घाव धोकर और मन पर, सोच पर कई बैंडएड लगाकर वो सफ़र तय हुआ। आज भी कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि अत्याचार किया हमने, अपनी बेटी पर। फिर यह सोचकर खुद को हिम्मत देते हैं कि भविष्य में चलकर बेटी को समझ आएगा कि ऐसा क्यूँ किया हमने उसके साथ? हालांकि यह भी सच ही है कि समझ आ जाने पर भी दुःख तो दुःख ही रहता है और उसकी टीस भी वैसी ही चुभती है।

यूँ तो घरवालों से दूर रहते हमें लगभग 17 साल हो चुके थे। यह पापा ही थे जिन्होंने अपने आँसू छिपाकर 17 साल पहले मुझे हॉस्टल के कमरे में छोड़ा था। तब मेरी माँ और मेरी आँखों में आँसू थे। बिछड़ने का दुःख था और पापा एकदम सहज थे या निष्ठुर हो गए थे। उन्होंने ज़रा भी नहीं जताया कि उन्हें कोई दुःख है। बल्कि वह झिड़कते हुए बोले थे- “क्या रोना धोना कर रहे हो। अरे! जब मन हो तो घर आ जाना। घर निकला थोड़ी दिया है तुमको। मन लगाकर पढ़ो, अब यह कर्मभूमि है तुम्हारी।” आज जब मैंने बाहर जाने की बात की, तो वो रो पड़े। उनकी आँखों के आँसू मेरे गले में आज भी गाँठ बनकर रुके हुए हैं। न जाने बढ़ती उम्र का तकाज़ा है या मानस में परदेस जाकर कभी वापस न आने वाले किस्सों का पैठा आतंक? आज वह निष्ठुरता का स्वांग नहीं कर सके। आज हमारे रोल बदल गए थे। आज मैं निष्ठुर थी और मैंने हँसते हुए कहा- “क्या पापा, एक फ्लाइट भर की दूरी है। यहाँ भी तो ऐसा ही था। यहाँ भी रोज़ फ़ोन पर बात होती थी वहाँ भी होगी। विडियो कॉल होती है। आप जब बुलाओगे हम आ जायेंगे।” अपने मम्मी-पापा के सामने एक बार भी नही रोई मैं। कभी नहीं जताया कि डर लग रहा है। चिंता हो रही है और बुरा लग रहा है। बस एक निर्दयी, निर्मोही और दुस्साहसी की तरह पेश आई।

3+1 BHK के फैलाव से हम 6 सूटकेस में सिमट चुके थे और अपने सभी परिजनों के साथ मेल-मिलाप कर, उनके साथ समय बितााकर हमने देश से विदा लेने की पूरी तैयारी कर ली। नियत दिन पर फ्लाइट में बैठ गए, एक नयी उड़ान भरने को। जाते हुए अपनी मिट्टी को यही कहा।

मुझे तुम याद करना और मुझको याद आना तुम

मैं एक दिन लौटके आऊँगा, यह मत भूल जाना तुम

अच्छा, फ्लाइट वाले चाहे जितना भी प्रचार प्रसार लें कि बड़ी सुविधाजनक है हमारी सेवा। जो खावे सोई जाने कि इनकी सेवा का मेवा। खट्टा ही होता है। कम से कम, इकॉनोमी क्लास में सफ़र करने वालों के लिए तो यह वाक़ई ‘suffer’ करना ही होता है। छोटी सी जगह में कैसे-तैसे ठसकर बैठो। उनका बकवास सा एक्ज़ोटिक खाना नोश फरमाओ। सुरक्षा पेटी से पेट कसे रहो। जबरन का अंटार्टिका वाला तापमान बनाकर उन्होंने जो कृपा बरसाई है, उसके प्रकोप से बचने के लिए उनके पतले से कम्बल में पनाह लो। और सोने पर सुहागा यह कि अगली सीट का यात्री सोने लगे, तो अपनी सीट आपके मुँह तक ले आये। उसे भी क्या कहें? बेचारा, वह भी किसी तरह suffer ही काट रहा है। हाँ, थोड़ा ख़ुशकिस्मत है कि सो पाता है। मेरी तो अजीब समस्या है ट्रेन हो, बस हो या फ्लाइट, हमने यात्रा जागते हुए ही करनी है। शायद, हम हर बार नींद को भी किसी सूटकेस में पैक कर लेते हैं।

फ्लाइट में, मेरे पति ज्यादातर लोगों की तरह फ़िल्में निपटा रहे थे। मेरी बेटी भी कुछ देर कुछ देखने की कोशिश करती रही। कोशिश इसलिए कि किसी भी चैनल पर 5 मिनट से ज्यादा नहीं टिकी वह। उसके लिए फ्लाइट में सबकी अपनी स्क्रीन और अपनी मर्ज़ी का चैनल सेट करने की सुविधा बहुत ही आकर्षक और उत्साहित करने वाली होती है। घर में तो सब एक ही चैनल देखते हैं।

यहाँ यूँ माँ-पापा के साथ बैठकर अपनी मर्जी! ओह! निजता का अनुभव है, स्वतंत्रता का अनुभव है और वयस्कों से बराबरी का भी। बच्चों को बड़ी उत्कंठा होती है, बड़ों जैसा व्यवहार करने की तिस पर अगर दूसरे भी उन्हें बड़ों के समकक्ष समझें और वैसे ही व्यवहार करें, तो उनकी ख़ुशी का ठौर ठिकाना नहीं रहता। इसलिए फ़्लाइट वालों से बड़ा ही आत्मीय नाता है मेरी बेटी का और उनपर ऐसी अगाध श्रद्धा है कि हम जलभुन जाते हैं।

कुछ देर मैं उसे यह सुख ले लेने देती हूँ, उसकी बाल सुलभ हरकतों और चेहरे से फूटती खुशियों का रस पी लेती हूँ। थोड़ी देर हो जाने पर मैं बलात उससे यह सुख छीन लेती हूँ। इसके बाद मैंने और मेरी बेटी ने एक बोर्ड गेम खेला और फिर मैंने उसे सुला लिया। हम तीनों की सीटें साथ थी, तो बेटी का सर अपनी गोद में रखा, उसके पैर पति की गोद में और बेटी के सोने की व्यवस्था हो गयी। मैं तनिक देर अपनी सोती हुई परी को निहारती रही फिर आँखें मूँद कर बैठ रही। मुझे फ्लाइट का मुँहफट टीवी स्क्रीन, जो मुँह पर ही फटा जा रहा हो, ज़रा नहीं सुहाता। थोड़ा तो पर्सनल स्पेस का लिहाज़ होना चाहिए। इसलिए, मेरी तो नाराज़गी ही चलती है उसके साथ।

मैं आँखें बंद किये कुछ सोच विचार में निकल लेती हूँ। या फिर किंडल पर कोई किताब पढ़ लेती हूँ। बीच-बीच में आजू-बाजू की सीट पर बैठे लोगों को त्रस्त होते हुए देख लेती हूँ। बहुत अच्छी गुणवत्ता का भले न हो, पर मनोरंजन हो ही जाता है। थोड़ा ढांढ़स भी बंध जाता है कि डूबे हम ही नहीं यूँ अकेले।

अमूमन, बेटी को सुलाने के बाद मैं और मेरे पतिदेव अपनी बातों में मशगूल हो जाते हैं। लेकिन इस बार मैंने उन्हें फ़िल्म देखने से नहीं रोका। मुझे बहुत अच्छी तरह उनकी मनोदशा पता थी। इस समय दिलासा देने की बातों का कोई औचित्य नहीं था। दुःख को कम करने की कोशिश अपने माता-पिता और अपनी ज़मीं से जुड़ाव को झुठलाने की बेहूदी कोशिश। वो अपना दुःख अपने ढंग से जी रहे थे।

कितना बेमानी लगता है “हमसफ़र” शब्द और इसका फ़लसफ़ा। हर इंसान का सफ़र सिर्फ़ उसका ही होता है। हर इंसान का दर्द उसे ही सहना होता है। चाहे दूसरे “हमदर्द” होने की कितनी ही मुग़ालते पालते रहें।

ख़ैर, इस तरह फ्लाइट की तमाम दुश्वारियाँ उठाते हुए, एक लम्बी हवाई यात्रा करके हम सुबह 11 बजे पहुँचे, सिडनी हवाईअड्डे पर। सामान लिया और धुक-धुक सी होने लगी। अभी यह लोग सारे बैग खुलवायेंगे। वैसे तो हमने कोई ऐसी निषेध वस्तु नहीं रखी है, पर यह बिन देखे क्यूँ भरोसा करने लगे हमारा?

बैग खोलने में परेशानी यह कि ऐसा लगता है किसी ने हमारी निजता पर आक्रमण कर दिया है। थोड़ी शर्म भी होती है क्यूँकि बैग पैक भी ऐसे किये थे जैसे रसगुल्ले से भरे बंगाली बाबू का मुँह। अगर जो कहीं खोलते ही रसगुल्ले का जरा भी रस चू गया तो सफाई भी हमे ही करनी होगी। और खोलते ही सबसे पहले क्या निकलकर बाहर आएगा, इसका अनुमान लगाना भी नामुमकिन। पर हमारे हाथ में था ही क्या? जैसी प्रभु और इमीग्रेशन वालों की इच्छा। हमने मन में दोनों को याद किया, सारे बैग इकट्ठा किये और चले आगे। वहीं पर मनी एक्सचेंज का काउंटर मिल गया.. तो रुपयों को डॉलर में डाई और लैमिनेट करवा लिया। डॉलर यहाँ क़ागज नहीं प्लास्टिक पर छपे होते हैं। थोड़ी देर में, एक काउंटर पर पहुँचे…

पहला सवाल हुआ, पहली बार आये हो?

शायद हमारे चेहरे की उड़ी हुई हवाईयाँ देखकर पूछा था या ऐसे ही शुरू करते हों, रोज़ ही, सबसे। खैर..

हमने एक सहज चिन्ता मुक्त मुस्कुराहट बिखेरने की भरसक कोशिश की और कहा, ‘हाँ’

उन्होंने पूछा, किसी तरह की दवाई लाये हो?

हमने कहा, ‘हाँ’

उन्होंने पूछा, रेगुलर हैं?

हमने एक बार फिर हामी भर दी।

अगला सवाल सोचकर हमने पर्स से 1000 रुपयों में बनवाया फ़र्जी प्रिस्क्रिप्शन हाथ में निकाल लिया, लेकिन उसकी अनुभवी आँखें बोल उठी, ‘रहने दो..यह फर्जीवाड़ा रहने दो’। दनादन उसने स्टाम्प मारे और मुस्कुराकर कहा, “वेलकम’ और हम पहली पगबाधा पार कर वहाँ से आगे बढ़ चले।

सामान चेक करवाने की जगह पहुँचे और यह लो! कोई बैग नहीं खोलना! कोई कुत्ता नहीं छोड़ा उन्होंने हमारे बैग पर। बस, उठाकर एक्स-रे वाले यंत्र में रख दिया और मुस्कुराकर कहा, “यू आर वेलकम”। कैसे-कैसे किस्से सुने थे हमने?

नाहक ही बदनाम कर रखा है इन्हें, यह तो कितने प्यारे लोग हैं। बस हमारी आँखों से आँसू ही झरना रह गए थे, हम इतना विह्वल हो उठे। कैसा-कैसा डर मन में बिठाये हुए थे और यहाँ तो कुछ हुआ ही नहीं। बिलकुल मक्खन की तरह फिसल कर बाहर निकल आये। वाह! अब ज़रा सीने में हवा भरी और गला ख़राशा.. ख़ुशी से लहराते हुए वहीं एक सीट पर बैठ गए और मुआयना शुरू किया, कौन सा सिम लें?

आजकल की दुनिया में सबसे ज़रूरी है फ़ोन, उससे प्राप्त होने वाली जानकारी और पहुँच। सोच विचार कर एक सिम ले लिया और फिर उसी की सुविधा का लाभ उठाते हुए ऊबर बुक कराई। वहीँ पर जाना पहचाना नाम दिखा ’मैक डोनोल्ड’ और जीवन में पहली बार उसकी टैग लाइन से मैंने इत्तेफ़ाक किया, “आय एम लविंग इट”। झटपट फ्रेंच फ्राइज और चाय ली।

हर जगह की चाय के साथ एक नायाब सा किस्सा जुड़ा होता है और एक अलग सा स्वाद भी। पहली बार इन्दौर गयी और वहाँ छोटू ने पूछा ‘कटिंग चाय कि चाय’? कटिंग चाय पी कर देखी जाय, यह सोचकर कटिंग बोल दी। जब सामने आई तो बड़ी निराशा हुई, चाय के आधे कप को कटिंग चाय बोलते हैं वहाँ। चाय का स्वाद बढ़िया था इसलिए एक और कटिंग चाय मंगवाई।

त्रिवेंद्रम में चाय बोली, तो एक छोटे से कप में नन्ही सी चाय मिली। स्वाद भी कुछ खास नहीं था। यहाँ, सिडनी में तीन तरह के विकल्प थे, स्मॉल, मीडियम और लार्ज कप। चाय भी कितनी तरह की! हमने दूध वाली चाय चुनी और सोचा स्मॉल कप में नन्ही सी चाय मिलेगी जिससे चाय पीने की संतुष्टि कतई नहीं मिलती, इसलिए मीडियम चाय बोल दी।

उफ़्फ़! उसने चाय का पूरा हौदा मेरे हाथ में थमा दिया। इतनी चाय! भाई, इतनी चाय दुनिया के कौन से हिस्से में पी जाती है? और कौन हैं वह महामानव जो इतनी चाय पी लेते हैं! चाय पिए बिना ही संतुष्टि मिल गयी। आधी चाय पी, आधी छोड़नी पड़ी और स्वाद ऐसा कि दोबारा चाय लेने से तौबा की। जाने किस प्रकार का दण्ड था यह! क्यूँ था!

यह अल्पाहार करके हम हवाई अड्डे के बाहर निकले तो देखा बारिश हो रही है। धीमी-धीमी बूँदें बड़े एहतियात से साफ़ सुथरी जमीं को छू रही हैं। मन खुश हो गया। इतने लम्बे सफ़र के बाद ईश्वर ने कैसे झटपट शावर की व्यवस्था कर दी। बूँदों ने एकदम रिफ्रेश कर दिया। शुक्रिया ऊपरवाले। शुक्रिया।

ऑस्ट्रेलिया में टेलस्ट्रा, वोडफ़ोन और ओपटस तीन बड़े खिलाड़ी हैं सिम की दुनिया के। टेलस्ट्रा सबसे महँगा और भरोसेमंद है । ओपटस अच्छे ऑफ़र से लुभाता है और सेवा भी बढ़िया है । वोडफ़ोन अपने में मस्त है । “ऐसा ही हूँ मैं” टाइप का अजय देवगन वाला स्वैग लिए।

ऊबर ली हमने कैंटरबरी के लिए। जो कि सिडनी हवाई अड्डे से 15 मिनट की दूरी पर था या कहिये 9 किलोमीटर की दूरी पर था। पूरे रास्ते हम गाड़ी के शीशे से बाहर ही देखते रहे। ऐसा लगा अपना ग्रेटर नॉएडा वाक़ई ग्रेटर हुआ चला जा रहा है। दिल से और यादों से बढ़ता हुआ इस शहर को अपने रंग में रंगा जा रहा हो। सिडनी की सडकों के दोनों तरफ़ वैसे ही पेड़ और फूलों वाले पौधे लगे हुए थे।

घर तसल्ली से, इत्मिनान से बने हुए और एक दूसरे से कोई गुत्थम्गुत्थी नहीं। कोई ऊँची सीमेंट की अट्टालिकाएं नहीं। सड़कें भी दूर से, सलीके से एक दूसरे से दुआ सलाम करती हुईं।

पहाड़ों की तरह लकड़ी के कलात्मक ढ़ंग से बने हुए सुघड़ मकान, जिनमें आगे से ढलान वाला आकर दिया गया है बारिश के पानी के बहाव के लिए। रास्ते किनारे तरह-तरह के पक्षी ऐसे विचर रहे थे मानो फुटपाथ उन्हीं के लिए बनाया गया है, बिलकुल निःसंकोच। जैसे उन्हें पता है कि गाड़ियों और इन्सानों से उन्हें कोई ख़तरा नहीं। मेरे पहाड़ में भी ऐसा ही होता है। भांति-भांति के पक्षी मनुष्यों के साथ प्रेम और सौहार्दपूर्ण ढ़ंग से धरा की गोद में खेलते हैं।

सिडनी तो एकदम चतुर नार सी निकली। घर आये परदेसी को उसके देश की सबसे अज़ीज़ झलक दिखाकर अपने सम्मोहन में बाँध लिया। मुझे लगा कि यह मेरा पहाड़ ही है। बिलकुल वैसी ही शांति और सुकून है इसकी हवाओं में।

बस बिजली और पानी की समस्या किसी तरह यहाँ मिल जाए, तो पहाड़ में होने का एहसास पूरा हो जाए। ख़ैर…

कभी-कभी माता-पिता जब खुशमिजाज़ मूड में होते हैं, तो अपने बच्चों को बिन बात ही दुलार देते हैं। कुछ छुट्टे दे देते हैं कि लो, आइसक्रीम खा लेना बिलकुल उसी तरह ईश्वर ने पहले फुहारों से तरोताजा किया और फिर इशारों में कह दिया, सही जगह आये हो। या कौन जाने मेरा मन ही सुबूत तलाश रहा हो, अपने विस्थापन के निर्णय के ठीक होने का।

वजह जो भी हो, मेरा मन झूम कर बोला- ‘मुड़ के तकना ठीक नहीं है, अब चाहे संसार पुकारे’।

रास्ते भर आनंदित होते हुए हम यथा स्थान पर पहुँचे और ऊबर वाले ड्राईवर भैय्या ने 90 डॉलर माँग लिए। जबड़ा जमीन छूने ही वाला था कि ड्राईवर से नज़रें दो चार हो गईं। कहीं यह अमीर देश का अमीर वाहनचालक हमें ग़रीब न समझ ले, इस ख्याल से हमने संभला हुआ ‘ओके’ कहा और 90*50 ऐसा मन में गणित लगाकर गाढ़ी पसीने की कमाई उसके हाथों में रख दी। अब कोई संशय नहीं रहा कि हम विकासशील देश से एक विकसित देश में आ गए हैं।

अब सामने नई मंजिल थी, तीसरी मंजिल। होटल की सबसे ऊँची मंजिल। आपको बता दूँ कि मेरे ऑफिस में सीढ़ियों की शुरुवात में सेब का चित्र बना था जो कि स्वास्थ्य वर्धन का प्रतीक था और कहता था लिफ्ट न लें, सीढ़ियों का इस्तेमाल करें। अब ऑफिस में तो ठीक है, एक पर्स और एक लैपटॉप लिए चढ़ जाते थे हम। यह बात कैसे याद आई मुझे कि यहाँ के लोग भी स्वास्थ्य के प्रति बड़े जागरूक हैं। तीन मंजिला इमारत में लिफ्ट नहीं होती। आप सीढ़ियों का ही इस्तेमाल करें।

हमारे पास 6 बड़े सूटकेस और ३ छोटे बैग थे। इतने सामान के साथ तीन मंजिल चढ़ना!!! पर अब हो ही क्या सकता था? हाँफते-कांपते पहुँचे भई कमरे तक और सोफे पर निढ़ाल हो गए। इतने सब कार्यक्रम में शाम के ५ बज गए थे। हमने कुछ देर में किचन का रुख किया और बिना ज्यादा तफ्शीश किये चाय बनाई और बिस्कुट डुबो डुबो कर पी।

आहा!! परमानन्द!!! बालकनी में गए और बाहर का नज़ारा देखकर मन बाग़ बाग़ हो उठा। आराम करते और रात के खान पान का इंतज़ाम करते, फिर उस इंतज़ाम को अन्जाम तक पहुँचाते पहुँचाते रात के 8 बज गए।

एक बार फिर हम बालकनी में गए। ओह! बचपन वाला आसमान!! कितने तारे भरे हुए हैं! मेरे बचपन में ऐसा आसमान हुआ करता था। जो, अक्सर, मैं लाइट जाने पर छत में लेटकर देखती थी। फिर वो तारे खोने लगे और जब मैं पहाड़ जाती तो वहाँ दिखते। ३ साल पहले, जब ग्रेटर नॉएडा आई तो वहाँ सालों बाद फिर तारों भरा आसमान देखा। और अब यहाँ। मन मयूर हो उठा। मेरा मन रेडियो का विविध भारती चैनल हो गया और गुनगुनाते हुए मैं सोने लेट गयी

झिलमिल सितारों का आँगन होगा,

रिमझिम बरसता सावन होगा

ऐसा सुन्दर सपना अपना जीवन होगा।

हम सभी यात्रा से इतने थके हुए थे कि लेटते ही आँख लग गयी और कई रातों के बाद ऐसा हुआ था जो हमने रात को सपना नहीं देखा। पूरी रात एक ही नींद ली और सुबह 10 बजे ही आँख खुली।

यह सुबह बड़ी ख़ास थी। बाहर से चिड़िया मीठा सा उलाहना दे रही थी, ‘उठ भी जाओ’। मुस्कुराते हुए उठकर बिस्तर पर बैठे, तब पहली बार ध्यान दिया कि किस ऊँचाई पर चढ़ कर सो रहे थे।

इतना ऊँचा स्प्रिंग का गद्दा। यह कितना मुलायम है और इसकी स्प्रिंग कितनी रवां! जहाँ बैठे थे वहाँ गड्ढा हो गया था हमारे वजन से और हमारे चारों तरफ़ गद्दा ऊँचा हो गया था।

ऐसे बिस्तर से उठना थोड़ी मेहनत का काम था और उसके बाद वहाँ से फ़र्श पर छलांग लगानी थी। मैं तो सोच रही थी छोटी-छोटी सीढ़ियाँ ही बना देते, यह लोग। खैर, ऐसा ही तब भी मेरे मन में आया था जब मैं पहली बार हॉलैंड गयी थी। एक बात तय थी कि मेरी बेटी को बेडरूम में ट्रेमपोलिन का मज़ा मिलने वाला था।

उठकर बाहर गयी तो सीधे बालकनी में पहुँची और सामने टेनिस लॉन में खेल चल रहा था। भाव विभोर सी मैं उधर ही देखने लगी। तभी एक खिलाड़ी की नज़र मुझ तक आई और उसने मुस्कुराकर कहा, “गुड मोर्निंग”। किसी अजनबी का यूँ दोस्ताना ढ़ंग से बात करना मेरे लिए नया तो न था। विदेशों में मैंने अक्सर ही देखा है कि लोग आते जाते एक दूसरे को यूँ ही दुआ सलाम करते जाते हैं। मैंने मुस्कुराकर हाथ हिला दिया।

कुछ देर उन्हें देखने के बाद मैंने ध्यान दिया कि टेनिस लॉन के दाहिनी तरफ़ जो स्विमिंग पूल है उसमें कुछ हलचल है। कल तो वो पानी बिलकुल शांत था। हाँ, हवा से कुछ तरंगें ज़रूर बनती थी। आज यह क्या? लगभग हर 30 इंच पर एक नन्हा सा चक्रवात बना हुआ है पूल में। कुछ समय अचरज से उसे निहारती रही, फिर गहरी साँस लेते हुए हॉल में आई।

हम AirBnB के जिस घर में थे, उसमें २ बेडरूम, 1 हाल, डाइनिंग एरिया, किचेन, वाशिंग एरिया और वाशरूम था। इसमें से 1 बेडरूम हमारा था और दूसरा बेडरूम जिसका था वो ३ दिन बाद आने वाला था। बाकी सभी कमरे और सुविधाएँ हम लोगों के बीच साझा थी।

हाल में दो बड़े आरामदायक काउच थे, टीवी था, डाइनिंग टेबल पर बहुत ख़ूबसूरत फूलों का वास था। सबको प्रेम और संतोष से निहारते हुए मैं किचेन में आई और पानी गरम करने को रख दिया। सुबह के बाकी व्यक्तिगत कामों से निवृत होकर मैं गुनगुना पानी लिए अपनी बेटी और अपने पति को उठाने गयी।

वो दोनों भी उत्साहित से उठे कि देखें क्या-क्या है यहाँ! और मेरी तरह मेरे पति और मेरी बेटी बालकनी में गए। तुरन्त ही दोनों में टेनिस मैच की बातें शुरू हो गयी और प्लान भी बन गया कि हम सब चलेंगे खेलने। नाश्ते की भी दरकार नहीं थी उन दोनों को। ऐसे उत्साहित पलों में मेरा किरदार ,अक्सर ही, वैम्प वाला हो जाता है। मैंने दोनों को टोका और पहले सुबह के काम निपटाकर, नाश्ते के बाद ही बाहर जाने की शर्त रखी। मेरे दोनों बच्चे मुँह बनाते हुए मेरी तरफ़ देखने लगे, पर मेरा फ़ैसला अटल था। इसलिए टेनिस का प्लान शाम को शिफ्ट हो गया।

इण्डिया और यहाँ के समय में 4:30 घंटे का अंतर होता है सर्दियों में और 5:30 घंटे का अंतर गर्मियों में। नाश्ता करके हमने दिन के 12:30 बजने का इंतज़ार किया और घर वालों को विडियो कॉल की। उत्साह से उनको सब चीज़ें दिखाई और जो दर्द और दुःख सा पसरा हुआ था हम लोगों के बीच उसे नए रंगों से सजाने की कोशिश की।

सूटकेस से ज़रूरी सामान निकालते, उसे यथास्थान लगाते हुए पहला दिन कैसे शाम तक आ पहुँचा, कोई अंदाज़ा नहीं। यात्रा की थकान ने पहली रात तो सोचने का मौका न दिया, पर आज यह भी सोचना था कि सोने का इंतज़ाम कैसे करें। इन गद्दों पर सोने से तो पूरा बदन दर्द हो जाता है। बस यूँही तरह-तरह की व्यवस्थाओं में दिन बीत गया और हम रात को कारपेट वाली फ़र्श पर कम्बल बिछा कर सो गए।

3 दिन यूँही नई जगह देखते हुए मजे-मजे में बीत गए और चौथी सुबह जब मैं उठकर बाहर आई तो 7 फुट का एक आदमी फंकी सी हाफ टीशर्ट और शॉर्ट्स में हाल के काउच पर विराजमान था। मुझे देखते ही उसने आवाज़-ए-बुलन्द में कहा- “गुड मोर्निंग, इट्स अ लवली सनी डे”।

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NUTAN SINGH

Bahut hi sundar kahani ,magar bina naukari mile pardes gaman me nadani ki jhalak dikhi.Betiyaan to ham sab ke ghar hain to kya desh se bahar hi unka bhavishya hai?.Hamsafar ke saath hote huye bhi sabko apna safar akele hi tay karna hota hai ,apnon se durr hote dukhi man ka sundar chitran .

Hema

कुछ नादान होना हौसलों को आज़ादी देता है वरना समझदारी तो बड़ी सख़्त वार्डन होती है हौसलों की। बेटियों का भविष्य सिर्फ़ देश के बाहर ही है ऐसा कहना तो अतिशयोक्ति होगा। लेकिन देश के बाहर सुरक्षा अधिक है और इस वजह से सोच का दायरा बड़ा हो जाता है। निडर होकर, बेफ़िक्र होकर जीने का स्वाद भारत में तो मिलना बहुत ही मुश्किल है। नूतन जी, आपने लेख पढ़ा और अपने प्रश्न लिखे इसके लिए आपका बहुत आभार। ऐसा लगा कि मैंने कुछ कहा तो किसी ने सुना और उत्तर भी दिया। बहुत शुक्रिया ?