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कुली लाइंस को पढ़ते हुए

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“अतीत की रीसती छत से

मेरा वर्तमान

ठोप- ठोप टपक रहा

भविष्य के पेंदाहीन पात्र में”

अभियन्यु अनत ( मॉरीशस  के कवि )

कुली लाइंस एक साहित्यिक पुस्तक भर नहीं है, बल्कि इतिहास के उस दौर का चलचित्र (मनमोहन देसाई मार्का  नहीं, बल्कि आर्ट मूवी की तरह) है, जिससे कि हममें से ज्यादातर लोग परिचित नहीं है, थोड़ा बहुत जानते भी हैं, किंतु उस जानकारी की और गहराई में जाने से बचते हैं- कारण यही पेश किए जाते हैं कि कैसी बातें करते हैं, गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा होना है, ये सब ही दोहराकर, दूसरों से ज्यादा खुद को बहला कर सुकून  पाने  की,  अपराध बोध से बचने की कोशिश ही तो करते हैं।

          हमारे बहुत सारे देश वासी लगभग डेढ़ सौ साल पहले सुनहरे भविष्य के फेर में अपनी मिट्टी को छोड़कर दूसरे देश चले गए।  रिश्ते,नाते, गुजरे बचपन सबको खुद से अलहदा करके और कभी उनकी वापसी नहीं हो पाई। उनकी ही गाथा है कुली लाइंस।

          हमें इतिहास भी ऐसा पढ़ाया गया है कि अंग्रेज़ों ने,  पश्चिम ने इस देश को,  विश्व को ये सब दिया, लेकिन उस देने की आड़ के पीछे कैसे घृणित उद्देश्य थे, अपनी तरक्की को पाने, बरकरार रखने के लिए। दूसरों का शोषण, एक तरह से रक्त से सुसज्जित कुकर्म। सिर्फ इसलिए कि औरों से विशाल, बेहतर बनना/रहना है।

         इस साजिश ने क्या-क्या छीन लिया, हमारे पाठ्यक्रम में, हमारी सांस्कृतिक चर्चाओं, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी  में,  जाने क्यों (मेरी समझ के अनुसार सुनियोजित साजिश) इनको स्थान देने से वंचित कर दिया गया।

         ऐसी चीजों को हमसे दूर रखने का नतीजा ये रहा कि पेज थ्री में छपने वाला मसाला, सेलिब्रिटीज के दुःख जैसे कि दो केलों के लिए ४७० का बिल क्यों बन गया? बार जल्दी बंद क्यों हो जाते हैं? रुपहले परदे पर दिखाई देने वालों के कपड़ों की मैचिंग, उनके बच्चों ने क्या किया, या नहीं किया-  इन सब पर ही देश की जनता को देखना, सोचना चाहिए। एक लड़की ने एक आंख कैसे बंद की,  जिसके चलते वो देशव्यापी चर्चा का केंद्र बन जाए।  इस पतन के माहौल में बाह्य अवलोकन ही आपका पैमाना है, इस विचार का हमारे मन में समा जाना,  उस सोच के कुशल  तरीके से लागू करने के ही दुष्परिणाम हैं।

          कुली लाइंस एक ऐसा ही दस्तावेज़ है, जिसे पढ़ कर मुझे बहुत कुछ नवीन जानने और ऊपर कही बातों पर मंथन करने और लिखने का मौका दिया। हकीकत में गिरमिटियाओं के बारे में जानकारी पाना बहुत ही ह्दयविदारक भी रहा। बहुत सारे अफ़सोस मेरे मन में जन्म लेने लग गए।

           लेखक प्रवीण कुमार झा बहुत ही श्रम के बाद इस  रचना को मूर्तरूप दे पाए होंगे, यह साफ़ जाहिर होता है। जिस देश में इतिहास के प्रति रूचि में लगातार ह्रास हो रहा है, वहाँ दूसरे देशों में जाकर इतिहास को खंगालना, फिर लिखना भी, एक दुसाध्य राह पर सब कुछ खो कर चलने के बाद ही संभव हो पाता है। निस्संदेह झा साहब ने  इतिहास में अपना नाम दर्ज़ करा लिया  है।

           इस शोध लेखन के दौरान वो अथक श्रम के चलते होने वाली शारीरिक पीड़ा, थकान, मानसिक वेदना से भी जरुर गुजरे होंगे, मुझे कुछ ऐसा ही लगता है।

           मन का बार-बार भारी होना,कुछ डेढ़ सौ साल पहले के लोगों के लिए, जो कि प्रवीण जी के संबंधी नहीं है,  जिनके अक्स उनके सामने नहीं थे,  फिर भी उनकी कहानी को जानने की कोशिशों ने, उनकी दुख भरी गाथा ने उन्हें उद्वेलित तो रोज ही किया होगा, जागते हुए भी और सोते हुए भी।

इस अध्ययन के चलते  कई सनसनीखेज  जानकारियां भी हाथ लगी  कि

१-हम नौकरीपेशा लोग कुली हैं। कुली एक तमिल शब्द है, जिसका मतलब काम के बदले पैसा प्राप्त  करने वाला। मुझे अब आप लोग कुली भी कहेंगे तो भी कहीं, कोई शिकायत नहीं।

२-विस्मय करने वाली बात यह भी है कि कुछ स्त्रियां भी इस मजदूरी या गुलामी की राह में गई इसलिए भी कि उन्हें स्वतंत्रता चाहिए थी, जी हां देह की स्वतंत्रता।

३-शायद हम भारतीय विश्व की सबसे अधिक बिखरी हुई/फैली हुई जनसंख्या है।

मालदीव, सूरीनाम, फिजी, त्रिनिदाद, गयाना, रियूनियन द्वीप ऊपर लिखे गए कथन की ही पुष्टि करते नज़र आते है।

           ये उस काल की गाथा है, जब संसार पर राज करने की चाह रखने वाले कुछ देशों को सस्ते मज़दूर  चाहिए थे, गन्ना उगाने के लिए, चाय बागानों के लिए, अमानवीय परिस्थितियों में काम करने या बिना शिकायत किए मरने खपने के लिए।

           उस काल में पासपोर्ट-वीसा जैसी प्रक्रियाओं का अस्तित्व ही नहीं था। एक देश का दूसरे देश में कोई  राजनयिक हो, ऐसा भी नहीं था। समुद्री जहाज ही दूसरे देशों तक पहुंचने का जरिया थे।

           पश्चिम की अवधारणा ही यह रही है कि बुराई से धन कमाया जा सकता है, तो जरूर ही कमाया जाना चाहिए, इसलिए कानून को,  लोगों की सोच को ऐसे तोड़ो-मरोड़ो, ऐसे आवरण पहना दो कि बुराई को भी कानूनी, सामाजिक मान्यता मिल जाए।

           अमेरिका अपने देशवासियों को हथियार बेचने को मजबूर है। कारण मोटा मुनाफा है, भले ही इस व्यवस्था से नाराज, परिवार से वंचित कोई सिरफिरा, उन हथियारों से किसी बार में, नाइट-क्लब में, बच्चों के स्कूल-कालेज में कत्लेआम ही कर दे।

           इस व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण मसाला यह भी है कि जो इन सबके चलते ऊपर चढ़े,  जीवन में उन्नति कर गए,  वो संख्या में भले ही गिने-चुने हों, उनको बारे में ही जनता,  समाज जान पाए और तोते की तरह यही दोहराते रहे कि यह बहुत बड़ी अच्छाई है।

गिरमिटिया (कुली) की शुरुआत

अब चूँकि गुलाम प्रथा के खिलाफ इंग्लैंड, फ्रांस जैसे देशों के अंदर ही भरपूर विरोध होने लगा था, तो सस्ते गिरमिटिया के तंत्र को रच डाला गया, एक तरह से यह गुलामी को कानूनी जामा पहनाने की सफल कोशिश थी। इन गुलाम गिरमिटियों  से आज आप मिल नहीं सकते। गिरमिटिया शब्द की उत्पत्ति भी दिलचस्प है-एग्रीमेंट, गिरमेंट और अंत में गिरमिट।

            दूसरे देशों (भारत, चीन) से सस्ते मज़दूरों को उनके उपनिवेशों में मज़दूरी के लिए कैसे भी लाया जाए, इसके लिए लालच, फ़र्ज़ी सपने, झूठ कहा जाना कि फिजी कोलकाता के आस-पास ही कोई जगह है। सूरीनाम को सीरी  राम बतला कर इनको बरगलाया गया। किसी से कहा गया तुम्हें बस लेटे रहना ही होगा,   वहां नारियल पानी तुम्हारे  मुँह पर खुद ही आ टपकेगा।

            अनपढ़, निरक्षरों से उनको गुलाम बनाने के कागज़ों पर अंगूठे लगा दिए गए। आरकाटी (एजेंटों) को मोटा लालच दिया गया, ज्यादा लोगों की भर्ती करने के लिए। ऐसा आकर्षण पैदा किया गया कि बहुत सारे ब्राह्मण नमक के पानी में घंटों हाथ डालकर बैठे रहते कि उनके हाथ खुरदुरे बन जाए,  क्योंकि नरम हाथों वाले मज़दूरी के लिए पहली पसंद नहीं होते थे।

            ये लोग मारीशस को मारीच, सुरीनाम को सरनाम कहने लगते थे। गिरमिटिया जल्दी मिले, इसलिए देश के लघु कुटीर  उद्योगों को तबाह भी किया गया कि बेरोजगारों की फसल, भले ही मुरझाती हुई क्यों न हो, रहे तो सही।

            रेल तो पहुँचायी,  पर इसलिए कि देश पर कब्ज़ा, नियंत्रण करना सुगम हो,  इंग्लैंड के पक्के माल की  हर जगह उपलब्धता कराई जाए, लेकिन कहारों का क्या होगा, काश्तकारों, किसानों, बुनकरों का क्या होगा, अंग्रेज  सरकार ने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं। अँगरेज़ अफसर ईमानदार हुआ करते थे, इस पर भी सवाल पैदा होने लगते  हैं,क्योंकि इस घिनौनी साजिश के क्रियान्वयन में उन सबका भी हिस्सा बंधा हुआ था।

            इन लोगों को जहाज़ों में भरकर, ठूंस-ठूंस कर भेजा गया, पुरुषों को “जहाज़ी भाई” और औरतों को “जहाज़िन कहा जाता था। इनके गले में लटके टिन टिकट ही इनकी पहचान थे (आजकल के आधार कार्ड की तरह)।  इन महीनों चलने  वाली यात्राओं के दौरान कागजों में मरने वालों का अनुपात ५ प्रति हज़ार से लेकर १९ प्रति हज़ार तक रहता था। बहुत सारे तो यात्रा के दौरान ही समुद्र में छलांग लगाकर जाने कहाँ चले गए। कुत्तों के बिस्किट भी  खाने को मजबूर किए गए, महिलाओं का यौन शोषण भी यात्रा के दौरान होता था। कई जहाज़ यात्रा के दौरान ही डूब  भी गए।

जब किसी तरह वहां पहुंचे भी  तो

“स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से

लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से”

                 गोरे मानते थे कि इन भारतीयों की सांस से भी रोग फैल जाते हैं, “ब्लूडी बास्टर्ड” इन गिरमिटियाओं को कोड़े मारने  के समय गोरों के प्रिय शब्द थे।  गोरे पिटाई भी वीकेंड पर करते थे, जिससे कि सोमवार से पहले मज़दूर के घाव  भर जाएँ।

                 गिरमिटिया घिसते रहे, लड़ते, संघर्ष करते रहे, लेकिन अगले दिन के लिए खुद को ज्यादातर ने ज़िंदा रखा। त्याग की भावना ऐसी थी, कि कभी एक गिरमिटिया महिला से किसी ने बलात्कार कर दिया, तीन गिरमिटियाओं ने बलात्कारी की हत्या कर दी, पुलिस ने सात दूसरे गिरमिटियाओं को पकड़ लिया। वो सभी फांसी चढ़ गए, लेकिन उन तीन गिरमिटियों का नाम अपनी जुबान पर नहीं लेकर आए।

                 सेशेल्स द्वीप में अफ़्रीकी  भी आये।  उनकी संस्कृति तो खतम हो गयी, लेकिन गिरमिटियाओ के साथ ऐसा नहीं हुआ। इन्होंने मारीशस में गंगा खोज निकाली।

                गिरमिटियाओं को अपना देश बहुत याद आता,  चिट्टी लिखते कि घर वापसी के लिए पैसे इकट्ठा  कर रहे हैं, लेकिन उतने पैसे कभी जमा नहीं हुए। कोई कहता कि “जियरा में आग लगा है। अब मौत इसी पार होई।” भारत  की आज़ादी के बाद देश  वापस आना  चाहते  थे, लेकिन नेहरू जी का ऐसा कहना कि ‘थेथ्थर लोग आ गए’, ने सब गुड़-गोबर कर दिया।

                अब डेढ़ सौ ,दो सौ सालों के भीतर बहुत कुछ खोने, अपनी जमीन को जबरदस्ती भुलाने, अपने धर्म को त्यागने के बाद आज उनके वंशज उन देशों में काफी तरक्की कर गए हैं, प्रधानमंत्री जैसे पदों पर भी विराजमान हैं। वी एस नायपाल भी गिरमिटिया ही थे।

               आज ये भारतीय नागरिक नहीं हैं, किन्तु भारत थोड़ा-बहुत ही सही, इनके अंदर ज़िंदा तो है, इन्होंने  धर्म परिवर्तन भी मजबूरी में कर लिया, लेकिन मूल स्थान के प्रति यादें अंगडाई लेती ही रहती है। आज भी भारत की चर्चा, गंगा स्नान का जिक्र इनके अंदर खुशियों का संचार करने लगता है, लेकिन ताजमहल को चांदनी रात में देखकर रोमांटिक कविता गढ़ने वाले भी उन मजदूरों के बारे में कहां सोचते हैं, जिनके हाथ काट दिए गए थे। वैसे ही भारतवासी भी उन देशवासियों के बारे में जानना नहीं चाहते।

               लिखने वालों ने भी कोशिश नहीं की। वैसे भी ये लोग धनवान, रसूखदार नहीं थे,  भीड़ वैसे भी किसको लिखने के लिए मजबूर करती है, उकसाती है। टाईटेनिक के काफी सारे सवार तो  बहुत धनवान थे,  तो पिक्चर भी बनी,खूब लिख भी डाला गया। यहां तो  बिना छत वाली झोपड़ी के निर्धन निवासी थे।

               गिरमिटियाओं ने अपना   इतिहस  लिखना नहीं चाहा , वो इसे  भूलना  चाहते थे  और अंग्रेज़  इसे छुपाना । प्रवीण जी के अंदर के लेखक को इस विस्थापन, पलायन, विषम परिस्थितियों में भी कायम हमारे पूर्वजों की जिजीविषा ने उकसाया, श्रम करवाया- शारीरिक भी और मानसिक भी। दिमाग से, दिल से, लिखा भी जबरदस्त।
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