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चंद्रकांता संतति-भाग-1 (बयान-6 से 10)

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बयान – 6

बहुत-सी तकलीफें उठाकर महाराज सुरेंद्रसिंह और वीरेंद्रसिंह तथा इन्हीं की बदौलत चंद्रकांता, चपला, चंपा, तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने थोड़े दिन खूब सुख लूटा मगर अब वह जमाना न रहा। सच है, सुख और दुख का पहरा बदलता रहता है। खुशी के दिन बात की बात में निकल गये कुछ मालूम न पड़ा, यहां तक कि मुझे भी कोई बात उन लोगों की लिखने लायक न मिली, लेकिन अब उन लोगों से मुसीबत की घड़ी काटे नहीं कटती। कौन जानता था कि गया-गुजरा शिवदत्त फिर बला की तरह निकल आवेगा किसे खबर थी कि बेचारी चंद्रकांता की गोद से पले-पलाए दोनों होनहार लड़के यों अलग कर दिए जाएंगे कौन साफ कह सकता था कि इन लोगों की वंशावली और राज्य में जितनी तरक्की होगी, यकायक उतनी ही ज्यादे आफतें आ पड़ेंगी खैर खुशी के दिन तो उन्होंने काटे, अब मुसीबत की घड़ी कौन झेले हां बेचारे जगन्नाथ ज्योतिषी ने इतना जरूर कह दिया था कि वीरेंद्रसिंह के राज्य और वंश की बहुत कुछ तरक्की होगी, मगर मुसीबत को लिए हुए। खैर आगे जो कुछ होगा देखा जाएगा पर इस समय तो सबके सब तरद्दुद में पड़े हैं। देखिए अपने एकांत के कमरे में महाराज सुरेंद्रसिंह कैसी चिंता में बैठे हैं और बाईं तरफ गद्दी का कोना दबाए राजा वीरेंद्रसिंह अपने सामने बैठे हुए जीतसिंह की सूरत किस बेचैनी से देख रहे हैं। दोनों बाप-बेटा अर्थात देवीसिंह और तारासिंह अपने पास ऊपर के दर्जे पर बैठे हुए बुजुर्ग और गुरु के समान जीतसिंह की तरफ झुके हुए इस उम्मीद में बैठे हैं कि देखें अब आखिर हुक्म क्या होता है। सिवाय इन लोगों के इस कमरे में और कोई भी नहीं है, एकदम सन्नाटा छाया हुआ है। न मालूम इसके पहले क्या-क्या बातें हो चुकी हैं मगर इस वक्त तो महाराज सुरेंद्रसिंह ने इस सन्नाटे को सिर्फ इतना ही कह के तोड़ा, ”खैर चंपा और चपला की भी बात मान लेनी चाहिए।”

जीत – जो मर्जी, मगर देवीसिंह के लिए क्या हुक्म होता है

सुरेंद्र – और तो कुछ नहीं सिर्फ इतना ही खयाल है कि चुनार की हिफाजत ऐसे वक्त क्योंकर होगी

जीत – मैं समझता हूं कि यहां की हिफाजत के लिए तारा बहुत है और फिर वक्त पड़ने पर इस बुढ़ौती में भी मैं कुछ कर गुजरूंगा।

सुरेंद्र – (कुछ मुस्कराकर और उम्मीद भरी निगाहों से जीतसिंह की तरफ देखकर) खैर, जो मुनासिब समझो।

जीत – (देवीसिंह से) लीजिए साहब, अब आपको भी पुरानी कसर निकालने का मौका दिया जाता है, देखें आप क्या करते हैं। ईश्वर इस मुस्तैदी को पूरा करें।

इतना सुनते ही देवीसिंह उठ खड़े हुए और सलाम कर कमरे के बाहर चले गए।

बयान – 7

अपने भाई इंद्रजीतसिंह की जुदाई से व्याकुल हो उसी समय आनंदसिंह उस जंगल के बाहर हुए और मैदान में खड़े हो इधर – उधर निगाह दौड़ाने लगे। पश्चिम की तरफ दो औरतें घोड़ों पर सवार धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई पड़ीं। ये तेजी के साथ उस तरफ बढ़े और उन दोनों के पास पहुंचने की उम्मीद में दो कोस तक पीछा किए चले गए मगर उम्मीद पूरी न हुई क्योंकि पहाड़ी के नीचे पहुंचकर वे दोनों रुकीं और अपने पीछे आते हुए आनंदसिंह की तरफ देख घोड़ों को एकदम तेज कर पहाड़ी के बगल में घुसती हुई गायब हो गईं।

खूब खिली हुई चांदनी रात होने के सबब से आनंदसिंह को ये दोनों औरतें दिखाई पड़ीं और इन्होंने इतनी हिम्मत भी की, पर पहाड़ी के पास पहुंचते ही उन दोनों के भाग जाने से इनको बड़ा ही रंज हुआ। खड़े होकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। इनको हैरान और सोचते हुए छोड़कर निर्दयी चंद्रमा ने भी धीरे-धीरे अपने घर का रास्ता लिया और अपने दुश्मन को जाते देख मौका पाकर अंधेरे ने चारों तरफ हुकूमत जमाई। आनंदसिंह और भी दुखी हुए। क्या करें कहां जायें किससे पूछें कि इंद्रजीतसिंह को कौन ले गया

दूर से एक रोशनी दिखाई पड़ी। गौर करने से मालूम हुआ कि किसी झोंपड़ी के आगे आग जल रही है। आनंदसिंह उसी तरफ चले और थोड़ी ही देर में कुटी के पास पहुंचकर देखा कि पत्तों की बनाई हुई हरी झोंपड़ी के आगे आठ-दस आदमी जमीन पर फर्श बिछाये बैठे हैं जो कि दाढ़ी और पहिरावे से साफ मुसलमान मालूम पड़ते हैं। बीच में दो मोमी शमादान जल रहे हैं। एक आदमी फारसी के शेर पढ़कर सुना रहा है, और सब ‘वाह-वाह’ की धुन लड़ा रहे हैं। एक तरफ आग जल रही है और दो-तीन आदमी कुछ खाने की चीजें पका रहे हैं। आनंदसिंह फर्श के पास जाकर खड़े हो गए।

आनंदसिंह को देखते ही सबके सब उठ खड़े हुए और बड़ी इज्जत से उनको फर्श पर बैठाया। उस आदमी ने जो फारसी के शेर पढ़-पढ़कर सुना रहा था खड़े हो अपनी रंगीली भाषा में कहा, ”खुदा का शुक्र है कि शाहजादे चुनार ने इस मजलिस में पहुंचकर हम लोगों की इज्जत को फल्के हफ्तुम1 तक पहुंचाया। इस जंगल बियाबान में हम लोग क्या खातिर कर सकते हैं सिवाय इसके कि इनके कदमों को अपनी आंखों पर जगह दें और इत्र व इलायची की पेशकश करें!!”

केवल इतना ही कहकर इत्रदान और इलायची की डिब्बी उनके आगे ले गया। पढ़े-लिखे भले आदमियों की खातिर जरूरी समझकर आनंदसिंह ने इत्र सूंघा और इलायची ले ली, इसके बाद इनसे इजाजत लेकर वह फिर फारसी कविता पढ़ने लगा। दूसरे आदमियों ने दो-एक तकिए इनके अगल-बगल में रख दिए।

इत्र की विचित्र खुशबू ने इनको मस्त कर दिया, इनकी पलकें भारी हो गईं और बेहोशी ने धीरे-धीरे अपना असर जमाकर इनको फर्श पर सुला दिया। दूसरे दिन दोपहर को आंख खुलने पर इन्होंने अपने को एक दूसरे ही मकान में मसहरी पर पड़ा पाया। घबराकर उठ बैठे और इधर-उधर देखने लगे।

पांच कमसिन और खूबसूरत औरतें सामने खड़ी हुई दिखाई दीं जिनमें से एक सर्दार की तरह पर कुछ आगे बढ़ी हुई थी। उसके हुस्न और अदा को देख आनंदसिंह दंग हो गये। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों और बांकी चितवन ने उन्हें आपे से बाहर कर दिया, उसकी जरा-सी हंसी ने इनके दिल पर बिजली गिराई, और आगे बढ़ हाथ जोड़ इस कहने ने तो और भी सितम ढाया कि – ”क्या आप मुझसे खफा हैं’

आनंदसिंह भाई की जुदाई, रात की बात, ऐयारों के धोखे में पड़ना, सब-कुछ बिल्कुल भूल गए और उसकी मुहब्बत में चूर हो बोले – ”तुम्हारी-सी परीजमाल से, और रंज!!”

वह औरत पलंग पर बैठ गई और आनंदसिंह के गले में हाथ डाल के बोली, ”खुदा की कसम खाकर कहती हूं कि साल भर से आपके इश्क ने मुझे बेकार कर दिया! सिवाय आपके ध्यान के खाने-पीने की बिल्कुल सुध न रही, मगर मौका न मिलने से लाचार थी।”

आनंद – (चौंककर) हैं! क्या तुम मुसलमान हो जो खुदा की कसम खाती हो

औरत – (हंसकर) हां, क्या मुसलमान बुरे होते हैं

आनंदसिंह यह कहकर उठ खड़े हुए – ”अफसोस! अगर तुम मुसलमान न होतीं तो मैं तुम्हें जी जान से प्यार करता, मगर एक औरत के लिए अपना मजहब नहीं बिगाड़ सकता।”

औरत – (हाथ थामकर) देखो बेमुरौवती मत करो! मैं सच कहती हूं कि अब तुम्हारी जुदाई मुझसे न सही जायेगी!”

आनंद – मैं भी सच कहता हूं कि मुझसे किसी तरह की उम्मीद मत रखना।

औरत – (भौं सिकोड़कर) क्या यह बात दिल से कहते हो?

आनंद – हां, बल्कि कसम खाकर!

औरत – पछताओगे और मुझ-सी चाहने वाली कभी न पाओगे।

आनंद – (अपना हाथ छुड़ाकर) लानत है ऐसी चाहत पर!

औरत – तो तुम यहां से चले जाओगे

आनंद – जरूर!

औरत – मुमकिन नहीं।

आनंद – क्या मजाल कि तुम मुझको रोको!

औरत – ऐसा खयाल भी न करना।

”देखें मुझे कौन रोकता है!” कहकर आनंदसिंह उस कमरे के बाहर हुए और उसी कमरे की एक खिड़की जो दीवार में लगी हुई थी खोल वे औरतें वहां से निकल गईं।

आनंदसिंह इस उम्मीद में चारों तरफ घूमने लगे कि कहीं रास्ता मिले तो बाहर हो जायं मगर उनकी उम्मीद किसी तरह पूरी न हुई।

यह मकान बहुत लंबा-चौड़ा न था। सिवाय इस कमरे और एक सहन के और कोई जगह इसमें न थी। चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारों के सिवाय बाहर जाने के लिए कहीं कोई दरवाजा न था। हर तरह से लाचार और दुखी हो फिर उसी पलंग पर आ लेटे और सोचने लगे –

”अब क्या करना चाहिए! इस कम्बख्त से किस तरह जान बचे यह तो हो ही नहीं सकता कि मैं इसे चाहूं या प्यार करूं। राम-राम, मुसलमानिन से और इश्क! यह तो सपने में भी नहीं होने का। तब फिर क्या करूं लाचारी है, जब किसी तरह छुट्टी न देखूंगा तो इस खंजर से जो मेरी कमर में है, अपनी जान दे दूंगा।”

कमर से खंजर निकालना चाहा, देखा तो कमर खाली है। फिर सोचने लगे –

”गजब हो गया! इस हरामजादी ने तो मुझे किसी लायक न रखा। अगर कोई दुश्मन आ जाय तो मैं क्या कर सकूंगा बेहया अगर मेरे पास आ जावे तो गला दबाकर मार डालूं। नहीं, नहीं, वीरपुत्र होकर स्त्री पर हाथ उठाना! यह मुझसे न होगा, तब क्या भूखे-प्यासे जान दे देनी पड़ेगी मुसलमानिन के घर में अन्न-जल कैसे ग्रहण करूंगा! हां ठीक है, एक सूरत निकल सकती है। (दीवार की तरफ देखकर) इसी खिड़की से वे लोग बाहर निकल गई हैं। अबकी अगर यह खिड़की खुले और वह कमरे में आवे तो मैं जबर्दस्ती इसी राह से बाहर हो जाऊंगा।”

भूखे-प्यासे दिन गुजर गया, अंधेरा हुआ चाहता था कि वही छोटी-सी खिड़की खुली और चारों औरतों को साथ लिए वह पिशाची आ मौजूद हुई। एक औरत हाथ में रोशनी, दूसरी पानी, तीसरी तरह-तरह की मिठाइयों से भरा चांदी का थाल उठाए हुए और चौथी पान का जड़ाऊ डब्बा लिए साथ मौजूद थी।

आनंदसिंह पलंग से उठ खड़े हुए और बाहर निकल जाने की उम्मीद में उस खिड़की के अंदर घुसे। उन औरतों ने इन्हें बिल्कुल न रोका क्योंकि वे जानती थीं कि सिर्फ इस खिड़की ही के पार चले जाने से उनका काम न चलेगा।

खिड़की के पार तो हो गए मगर आगे अंधेरा था। इस छोटी-सी कोठरी में चारों तरफ घूमे मगर रास्ता न मिला, हां एक तरफ बंद दरवाजा मालूम हुआ जो किसी तरह खुल न सकता था, लाचार फिर उसी कमरे में लौट आए।

उस औरत ने हंसकर कहा, ”मैं पहले ही कह चुकी हूं कि आप मुझसे अलग नहीं हो सकते। खुदा ने मेरे ही लिए आपको पैदा किया है। अफसोस कि आप मेरी तरफ खयाल नहीं करते और मुफ्त में अपनी जान गंवाते हैं! बैठिए, खाइए, पीजिए, आनंद कीजिए; किस सोच में पड़े हैं!”

आनंद – मैं तेरा छुआ खाऊं

औरत – क्यों क्या हर्ज है खुदा सबका है, उसी ने हमको भी पैदा किया, आपको भी पैदा किया, जब एक ही बाप के सब लड़के हैं तो आपस में छूत कैसी!

आनंद – (चिढ़कर) खुदा ने हाथी भी पैदा किया, गदहा भी पैदा किया, कुत्ता भी पैदा किया, सूअर भी पैदा किया, मुर्गा भी पैदा किया – जब एक ही बाप के सब लड़के हैं तो परहेज काहे का!

औरत – खैर खुशी आपकी, न मानिएगा पछताइएगा, अफसोस कीजिएगा और आखिर झख मारकर फिर वही कीजिएगा जो मैं कहती हूं। भूखे-प्यासे जान देना मुश्किल बात है – लो मैं जाती हूं।

खाने – पीने का सामान और रोशनी वहीं छोड़ चारों लौंडियें उस खिड़की के अंदर घुस गईं। आनंदसिंह ने चाहा कि जब वह शैतान खिड़की के अंदर जाय तो मैं भी जबर्दस्ती साथ हो लूं – या तो पार ही हो जाऊंगा या इसे भी न जाने दूंगा, मगर उनका यह ढंग भी न लगा।

वह मदमाती औरत खिड़की में अंदर की तरफ पैर लटकाकर बैठ गई और इनसे बात करने लगी।

औरत – अच्छा आप मुझसे शादी न करें इसी तरह मुहब्बत रखें।

आनंद – कभी नहीं चाहे जो हो!

औरत – (हाथ का इशारा करके) अच्छा उस औरत से शादी करेंगे जो आपके पीछे खड़ी है वह तो हिंदुआनी है!

”मेरे पीछे दूसरी औरत कहां से आई!” ताज्जुब से पीछे फिर आनंदसिंह ने देखा। उस नालायक को मौका मिला, खिड़की के अंदर हो झट किवाड़ बंद कर दिया।

आनंदसिंह पूरा धोखा खा गए, हर तरह से हिम्मत टूट गई – लाचार फिर उसी पलंग पर लेट गये। भूख से आंखें निकली आती थीं, खाने-पीने का सामान मौजूद था मगर वह जहर से भी कई दर्जे बढ़कर था, दिल में समझ लिया कि अब जान गई। कभी उठते, कभी बैठते, कभी दालान के बाहर निकलकर टहलते, आधी रात जाते-जाते भूख की कमजोरी ने उन्हें चलने-फिरने लायक न रखा, फिर पलंग पर आकर लेट गये और ईश्वर को याद करने लगे।

यकायक बाहर धमाके की आवाज आई, जैसे कोई कमरे की छत पर से कूदा हो। आनंदसिंह उठ बैठे और दरवाजे की तरफ देखने लगे।

सामने से एक आदमी आता दिखाई पड़ा जिसकी उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। सिपाहियाना पोशाक पहिरे, ललाट में त्रिपुण्ड लगाये, कमर में नीमचा खंजर और ऊपर से कमंद लपेटे, बगल में मुसाफिरी का झोला, हाथ में दूध से भरा लोटा लिए आनंदसिंह के सामने आ खड़ा हुआ और बोला –

”अफसोस, आप राजकुमार होकर वह काम करना चाहते हैं जो ऐयारों-जासूसों या अदने सिपाहियों के करने लायक हों! नतीजा यह निकला कि इस चाण्डालिन के यहां फंसना पड़ा। इस मकान में आए आपको कै दिन हुए! घबराइये मत, मैं आपका दोस्त हूं, दुश्मन नहीं!”

इस सिपाही को देख आनंदसिंह ताज्जुब में आ गए और सोचने लगे कि यह कौन है जो ऐसे वक्त में मेरी मदद को पहुंचा। खैर जो भी हो, बेशक यह हमारा खैरख्वाह है, बदख्वाह नहीं।

आनंद – जहां तक खयाल करता हूं यहां आये दूसरा दिन है।

सिपाही – कुछ अन्न-जल तो न किया होगा!

आनंद – कुछ नहीं।

सिपाही – हाय! राजा वीरेंद्रसिंह के प्यारे लड़के की यह दशा!! लीजिए मैं आपको खाने-पीने के लिए देता हूं!

आनंद – पहले मुझे मालूम होना चाहिए कि आपकी जाति उत्तम है और मुझे धोखा देकर अधर्मी करने की नीयत नहीं है।

सिपाही – (दांत के नीचे जुबान दबाकर) राम-राम, ऐसा स्वप्न में भी खयाल न कीजिएगा कि मैं धोखा देकर आपको अजाति करूंगा। मैंने पहले ही सोचा था कि आप शक करेंगे इसीलिए ऐसी चीजें लाया हूं जिनके खाने-पीने से आप उज्र न करें। पलंग से पर उठिए, बाहर आइए।

आनंदसिंह उसके साथ बाहर गए। सिपाही ने लोटा जमीन पर रख दिया और झोले में से कुछ मेवा निकाल उनके हाथ में देकर बोला, ”लीजिए, इसे खाइये और (लोटे की तरफ इशारा करके) यह दूध है पीजिए।”

आनंदसिंह की जान में जान आ गई, प्यास और भूख से दम निकला जाता था, ऐसे समय में थोड़े मेवे और दूध मिल जाना क्या थोड़ी खुशी की बात है मेवा खाया, दूध पिया, जी ठिकाने हुआ, इसके बाद उस सिपाही को धन्यवाद देकर बोले, ”अब मुझे किसी तरह इस मकान के बाहर कीजिए।”

सिपाही – मैं आपको इस मकान के बाहर ले चलूंगा मगर इसकी मजदूरी भी तो मुझे मिलनी चाहिए।

आनंद – जो कहिए दूंगा।

सिपाही – आपके पास क्या है जो मुझे देंगे

आनंद – इस वक्त भी हजारों रुपये का माल मेरे बदन पर है।

सिपाही – मैं यह सब-कुछ नहीं चाहता।

आनंद – फिर

सिपाही – उसी कम्बख्त के बदन पर जो कुछ जेवर हैं मुझे दीजिए और एक हजार अशर्फी।

आनंद – यह कैसे हो सकेगा वह तो यहां मौजूद नहीं है और हजार अशर्फी भी कहां से आवें

सिपाही – उसी से लेकर दीजिए।

आनंद – क्या वह मेरे कहने से देगी?

सिपाही – (हंसकर) वह तो आपके लिए जान देने को तैयार है, इतनी रकम की क्या बिसात है।

आनंद – तो क्या आप मुझे यहां से न छुड़ावेंगे!

सिपाही – नहीं, मगर आप कोई चिंता न करें, आपका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता, कल जब वह रांड़ आवे तो उससे कहिए कि तुमसे मुहब्बत तब करूंगा जब अपने बदन का कुल जेवर और एक हजार अशर्फी यहां रख दो, उसके दूसरे दिन आओ तो जो कहोगी मैं मानूंगा। तुरंत अशर्फी मंगा देगी और कुल जेवर भी उतार देगी। नालायक बड़ी मालदार है, उसे कम न समझिये।

आनंद – खैर जो कहोगे करूंगा।

सिपाही – जब तक आप यह न करेंगे मैं आपको इस कैद से न छुड़ाऊंगा। आप यह न सोचिये कि उसे धोखा देकर या जबर्दस्ती उस राह से चले जायंगे जिधर से वह आती-जाती है। यह कभी नहीं हो सकेगा, उसके आने-जाने के लिए कई रास्ते हैं।

आनंद – अगर वह तीन-चार दिन न आवे तब?

सिपाही – क्या हर्ज है, मैं आपकी बराबर ही सुध लेता रहूंगा और खाने-पीने को पहुंचाया करूंगा।

आनंद – अच्छा ऐसा ही सही।

वह सिपाही कमंद लगाकर छत पर चढ़ा और दीवार फांद मकान के बाहर हो गया।

थोड़ी रात बच गई थी जो आनंदसिंह ने इसी सोच-विचार में काटी कि यह कौन है जो ऐसे वक्त में मेरी मदद को पहुंचा। इसे लालच बहुत है, कोई ऐयार मालूम पड़ता है। ऐयारों का जितना ज्यादे खर्च होता है उतना ही लालच भी करते हैं। खैर कोई हो, अब तो जो कुछ उसने कहा है करना ही पड़ेगा।

रात बीत गई, सबेरा हुआ। वह औरत फिर उन्हीं चारों लौंडियों को लिए आ पहुंची। देखा कि आनंदसिंह पलंग पर पड़े हैं और खाने-पीने का सामान ज्यों-का-त्यों उसी जगह रखा है जहां वह रख गई थी।

औरत – आप क्यों जिद करके भूखे-प्यासे अपनी जान देते हैं!

आनंद – इसी तरह मर जाऊंगा मगर तुमसे मुहब्बत न करूंगा, हां अगर एक बात मेरी मानो तो तुम्हारा कहा करूं।

औरत – (खुश होकर और उनके पास बैठकर) जो कहो मैं करने को तैयार हूं मगर मुझसे जिद न करो।

आनंद – अपने बदन पर से कुल जेवर उतार दो और एक हजार अशर्फी मंगा दो।

औरत – (आनंदसिंह के गले में हाथ डालकर) बस इतने ही के लिए। लो मैं अभी देती हूं!!

एक हजार अशर्फी लाने के लिए उसने दो लौंडियों को कहा और अपने बदन से कुल जेवर उतार दिए। थोड़ी ही देर में वे दोनों लौंडियां अशर्फियों का तोड़ा लिए आ मौजूद हुईं।

औरत – लीजिये, अब आप खुश हुए! अब तो उज्र नहीं

आनंद – नहीं, मगर एक दिन की और मोहलत मांगता हूं! कल इसी वक्त तुम आओ, बस मैं तुम्हारा हो जाऊंगा।

औरत – अब यह ढकोसला क्या निकाला आज भी भूखे-प्यासे काटोगे तो तुम्हारी क्या दशा होगी!

आनंद – इसकी फिक्र न करो, मुझे कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहने की आदत है।

औरत – लाचार, खैर यह भी सही, ठहरिये मैं आती हूं।

इतना कहकर आनंदसिंह को उसी जगह छोड़ चारों लौंडियों को साथ ले वह कमरे के बाहर चली गई। घंटा भर बीतने पर भी वह न लौटी तो आनंदसिंह उठे और कमरे के बाहर जा उसे ढूंढ़ने लगे मगर कहीं पता न लगा। बाहर की दीवार में छोटी-छोटी दो आलमारियां लगी हुई दिखाई दीं। अंदाज कर लिया कि शायद उस खिड़की की तरह यह भी बाहर जाने का कोई रास्ता हो और इधर ही से वे लोग निकल गई हों।

सोच और फिक्र में तमाम दिन बिताया, पहर रात जाते-जाते कल की तरह वही सिपाही फिर पहुंचा और मेवा-दूध आनंदसिंह को दिया।

आनंद – लीजिए आपकी फर्माइश तैयार है।

सिपाही – तो बस अब आप भी इस मकान के बाहर चलिए। एक रोज के कष्ट में इतनी रकम हाथ आई क्या बुरा हुआ।

सब – कुछ सामान अपने कब्जे में करने के बाद सिपाही कमरे के बाहर निकला और सहन में पहुंच कमंद के जरिये से आनंदसिंह को मकान के बाहर निकालने के बाद आप भी बाहर हो गया। मैदान की हवा लगने से आनंदसिंह का जी ठिकाने हुआ। समझे कि अब जान बची। बाहर से देखने पर मालूम हुआ कि यह मकान एक पहाड़ी के अंदर है, कारीगरों ने पत्थर तोड़कर इसे तैयार किया है। इस मकान के अगल-बगल में कई सुरंगें भी दिखाई पड़ीं।

आनंदसिंह को लिये हुए वह सिपाही कुछ दूर चला गया जहां कसे-कसाये दो घोड़े पेड़ से बंधे थे। बोला, ”लीजिये, एक पर आप सवार होइये, दूसरे पर मैं चढ़ता हूं, चलिए आपको घर तक पहुंचा आऊं।”

आनंद – चुनार यहां से कितनी दूर और किस तरफ है

सिपाही – चुनार यहां से बीस कोस है चलिये मैं आपके साथ चलता हूं, इन घोड़ों में इतनी ताकत है कि सबेरा होते-होते हम लोगों को चुनार पहुंचा दें। आप घर चलिये, इंद्रजीतसिंह के लिए कुछ फिक्र न कीजिये, उनका पता भी बहुत जल्द लग जायगा, आपके ऐयार लोग उनकी खोज में निकले हुए हैं।

आनंद – ये घोड़े कहां से लाये?

सिपाही – कहीं से चुरा लाए, इसका कौन ठिकाना है।

आनंद – खैर यह तो बताओ तुम कौन हो और तुम्हारा नाम क्या है।

सिपाही – यह मैं नहीं बता सकता और न आपको इसके बारे में कुछ पूछना मुनासिब ही है!

आनंद – खैर अगर कहने में कुछ हर्ज हो तो…

आनंदसिंह अपना पूरा मतलब कहने भी न पाये थे कि कोई चौंकाने वाली चीज इन्हें नजर आई। स्याह कपड़ा पहिरे हुए किसी को अपनी तरफ आते देखा। सिपाही और आनंदसिंह दोनों एक पेड़ की आड़ में हो गये, और वह आदमी इनके पास ही से कुछ बड़बड़ाता हुआ निकल गया जिसे यह गुमान भी न था कि इस जगह पर कोई छिपा हुआ मुझे देख रहा है।

उसकी बड़बड़ाहट इन दोनों ने सुनी, वह कहता जाता था – ”अब मेरा कलेजा ठण्डा हुआ, अब मैं घर जाकर बेशक सुख की नींद सोऊंगी और उस हरामजादे की लाश को गीदड़ और कौवे कल दिन भर में खा जायंगे जिसने मुझे औरत जानकर दबाना चाहा था और यह न समझा था कि इस औरत का दिल हजार मर्दों से भी बढ़कर है!”

आनंदसिंह और सिपाही दोनों उसकी तरफ टकटकी लगाये देखते रहे जिसकी बकवाद से मालूम हो गया था कि कोई औरत है, वह देखते-देखते नजरों से गायब हो गई।

सिपाही – बेशक इसने कोई खून किया है।

आनंद – और वह भी इसी जगह कहीं पास में, खोजने से जरूर पता लगेगा।

दोनों आदमी इधर-उधर ढूंढ़ने लगे, बहुत तकलीफ करने की नौबत न आई और दस ही कदम पर एक तड़पती हुई लाश पर इन दोनों की नजर पड़ी।

सिपाही ने अपने बगल से एक थैली निकाली और चकमक पत्थर से आग झाड़ मोमबत्ती जलाकर उस तड़पती लाश को देखा। मालूम हुआ कि किसी ने कटार या खंजर इसके कलेजे के पार कर दिया है, खून बराबर बह रहा है, जख्मी पैर पटकता और बोलने की कोशिश करता है मगर बोला नहीं जाता।

सिपाही ने अपनी थैली से एक छोटी बोतल निकाली जिसमें किसी तरह का अर्क भरा हुआ था। उसमें से थोड़ा अर्क जख्मी के मुंह में डाला। गले के नीचे उतरते ही उसमें कुछ बोलने की ताकत आई और बहुत ही धीमी आवाज में उसने नीचे लिखे हुए कई टूटे-फूटे शब्द अपने मुंह से निकालने के साथ ही दम तोड़ दिया।

”अफ…सोस, यह खूबसूरत पिशाची…तेजसिंह…की…जान…मेरी तरह…उसके फंदे में हाय! …इंद्रजीतसिंह को…!!”

उस बेचारे मरने वाले के मुंह से निकले हुए ये दो-चार शब्द कैसे ही बेजोड़ क्यों न हों मगर इन दोनों सुनने वालों के दिलों को तड़पा देने के लिए काफी थे। आनंदसिंह से ज्यादे उस सिपाही को बेचैनी हुई जो अपने में बहुत कुछ कर गुजरने की कुव्वत रखता था और जानता था कि इस वक्त अगर कोई हाथ कुंअर इंद्रजीतसिंह और तेजसिंह की मदद को बढ़ सकता है तो वह सिर्फ मेरा ही हाथ है।

सिपाही – कुमार, अब आप घर जाइए। इन टूटी-फूटी बेजोड़ मगर मतलब से भरी बातों को जो इस मरने वाले के मुंह से अनायास निकल पड़ा है सुनकर निश्चय हो गया कि आपके बड़े भाई और ऐयारों के सिरताज तेजसिंह किसी आफत में, जो बहुत जल्द तबाह कर देने की कुव्वत रखती है, फंस गये हैं। ऐसी हालत में मैं जो बहुत कुछ कर गुजरने का हौसला रखता हूं किसी तरह नहीं अटक सकता और मेरा मतलब तभी सिद्ध होगा जब उस औरत को खोज निकालूंगा जो अभी यह आफत कर गई और आगे कई तरह के फसाद करने वाली है।

आनंद – तुम्हारा कहना बहुत सही है मगर क्या तुम कह सकते हो कि ऐसी खबर पाकर मैं चुपचाप घर चले जाना पसंद करूंगा और जान से ज्यादे प्यारों की मदद से जी चुराऊंगा

सिपाही – (कुछ सोचकर) अच्छा तो ज्यादे बात करने का मौका नहीं है, चलिए। हां सुनिये तो, आपके पास कोई हरबा तो है नहीं, काम पड़ने पर क्या कर सकेंगे मेरे पास एक खंजर और एक नीमचा है, दोनों में जो चाहें एक आप ले लें।

आनंद – बस नीमचा मेरे हवाले कीजिए और चलिये।

आनंदसिंह ने नीमचा अपनी कमर में लगाया और सिपाही के साथ पैदल ही उस तरफ को बढ़ते चले जिधर वह खूनी औरत बकती हुई चली गई थी।

ये दोनों ठीक उसी पगडण्डी के रास्ते को पकड़े हुए थे जिस पर वह औरत गई थी। थोड़ी दूर पर सांस रोककर इधर-उधर की आहट लेते, जब कुछ मालूम न होता तो फिर तेजी के साथ बढ़ते चले जाते थे।

कोस भर के बाद पहाड़ी उतरने की नौबत पहुंची, वहां ये दोनों फिर रुके और चारों तरफ देखने लगे। छोटी-सी घंटी बजने की आवाज आई। घंटी किसी खोह या गड्ढे के अंदर बजाई गई थी जो वहां से बहुत करीब था जहां ये दोनों बहादुर खड़े हो इधर-उधर देख रहे थे।

ये दोनों उसी तरफ मुड़े जिधर से घंटी की आवाज आई थी। फिर आवाज आई, अब तो ये दोनों उस खोह के मुंह पर पहुंच गये जो पहाड़ी की कुछ ढाल उतरकर पगडंडी रास्ते से बाईं तरफ हटकर थी और जिसके अंदर से घंटी की आवाज आई थी। बेधड़क दोनों आदमी खोह के अंदर घुस गये। अब फिर एक बार घंटी बजने की आवाज आई और साथ ही एक रोशनी चमकती हुई दिखाई दी जिसकी वजह से उस खोह का रास्ता साफ मालूम होने लगा, बल्कि उन दोनों ने देखा कि कुछ दूर आगे एक औरत खड़ी है जो रोशनी होते ही बाईं तरफ हटकर किसी दूसरे गड्ढे में उतर गई। जिसका रास्ता बहुत छोटा बल्कि एक ही आदमी के जाने लायक था। इन दोनों को विश्वास हो गया कि वही औरत है जिसकी खोज में हम लोग इधर आये हैं।

रोशनी गायब हो गई मगर अंदाज से टटोलते हुए ये दोनों भी उस गड्ढे के मुंह पर पहुंच गये जिसमें वह औरत उतर गई थी। उस पर एक पत्थर अटकाया हुआ था लेकिन उस अनगढ़ पत्थर के अगल-बगल छोटे-छोटे ऐसे कई सुराख थे जिनके जरिये से गड्ढे के अंदर का हाल ये दोनों बखूबी देख सकते थे।

दोनों उसी जगह बैठ गये और सुराखों की राह से अंदर का हाल देखने लगे। भीतर रोशनी बखूबी थी। सामने की तरफ चट्टान पर बैठी वही औरत दिखाई पड़ी जिसने अभी तक अपने मुंह से नकाब नहीं उतारी थी और थकावट के सबब लंबी सांस ले रही थी। उसके पास ही एक कमसिन खूबसूरत हब्शी छोकरी बड़ा-सा छुरा हाथ में लिए खड़ी थी। दूसरी तरफ एक बदसूरत हब्शी कुदाल से जमीन खोद रहा था, बीच में छत के सहारे एक उल्टी लाश लटक रही थी, एक तरफ कोने में जल से भरा हुआ मिट्टी का घड़ा, एक लोटा और कुछ खाने का सामान पड़ा हुआ था। उस गड्ढे में इतना ही कुछ था जो लिख चुके हैं।

कुछ देर बाद उस औरत ने अपने मुंह से नकाब उतारी। अहा, क्या खूबसूरत गुलाब-सा चेहरा है मगर गुस्से से आंखें ऐसी सुर्ख और भयानक हो रही हैं कि देखने से डर मालूम पड़ता है। वह औरत उठ खड़ी हुई और अपने पास वाली छोकरी के हाथ से छुरा ले उस लटकती हुई लाश के पास पहुंची और दो अंगुल गहरी एक लकीर उसकी पीठ पर खींची।

हाय-हाय, ऐसी हसीन और इतनी संगदिली! इतनी बेदर्दी! अभी-अभी एक खून किये चली आती है और यहां पहुंचकर फिर अपने राक्षसीपन का नमूना दिखला रही है! वह लाश किसकी है कहीं यह भी कोई चुनार का खैरख्वाह या हमारे उपन्यास का पात्र न हो!

पीठ पर जख्म खाते ही लाश फड़की। अब मालूम हुआ कि वह मुर्दा नहीं है कोई जीता आदमी तकलीफ देने के लिए लटकाया गया है। जख्म खाकर लटका हुआ वह आदमी तड़पा और आह भरकर बोला –

”हाय, मुझे क्यों तकलीफ देती हो, मैं कुछ नहीं जानता!”

औरत – नहीं तुझे बताना ही होगा तू खूब जानता है। (पीठ पर फिर गहरी छुरी चलाकर) बता, बता।

उल्टा आदमी – हाय, मुझे एक ही दफे क्यों नहीं मार डालती मैं किसी का हाल क्या जानूं, मुझे इंद्रजीत से क्या वास्ता।

औरत – (फिर छुरी से काटकर) मैं खूब जानती हूं, तू बड़ा पाजी है, तुझे सब-कुछ मालूम है। बता नहीं तो गोश्त काट-काटकर जमीन पर गिरा दूंगी।

उल्टा आदमी – हाय, इंद्रजीतसिंह की बदौलत मेरी यह दशा!

अभी तक कुंअर आनंदसिंह और वह सिपाही छिपे-छिपे सब – कुछ देख रहे थे, मगर जब उस उल्टे हुए आदमी के मुंह से यह निकला कि ‘हाय इंद्रजीतसिंह की बदौलत मेरी यह दशा!’ तब मारे गुस्से के उनकी आंखों में खून उतर आया। पत्थर हटा दोनों आदमी बेधड़क अंदर चले गए और उस बेदर्द छुरी चलाने वाली औरत के सामने पहुंच आनंदसिंह ने ललकारा – ”खबरदार! रख दे छुरा हाथ से!!”

औरत – (चौंककर) हैं, तुम यहां क्यों चले आये खैर अगर आ ही गए हो तो चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखो। यह न समझो कि तुम्हारे धमकाने से मैं डर जाऊंगी। (सिपाही की तरफ देखकर) तुम्हारी आंखों में क्या धूल पड़ गई है अपने हाकिम को नहीं पहचानते

सिपाही – (खूब गौर से देखकर) हां ठीक है, तुम्हारी सभी बातें अनोखी होती हैं।

औरत – अच्छा तो आप दोनों आदमी यहां से जाइये और मेरे काम में हर्ज न डालिए।

सिपाही – (आनंदसिंह से) चलिए, इन्हें छोड़ दीजिए। जो चाहे सो करें आपका क्या!

आनंद – (कमर से नीमचा निकालकर) वाह, क्या कहना है! मैं बिना इस आदमी के छुड़ाए कब टलने वाला हूं!

औरत – (हंसकर) मुंह धो रखिए!

बहादुर वीरेंद्रसिंह के बहादुर लड़के आनंदसिंह को ऐसी बातों के सुनने की आदत कहां वह दो-चार आदमियों को समझते ही क्या थे ‘मुंह धो रखिए’ इतना सुनते ही जोश चढ़ आया। उछलकर एक हाथ नीचमे का लगाया जिससे वह रस्सी कट गई जो उस आदमी के पैर से बंधी हुई थी और जिसके सहारे वह लटक रहा था, साथ ही फुर्ती से उस आदमी को सम्हाला और जोर से जमीन पर गिरने न दिया।

अब तो वह सिपाही भी आनंदसिंह का दुश्मन बन बैठा और ललकारकर बोला, ”यह क्या लड़कपन है!”

हम ऊपर लिख चुके हैं कि इस सुरंग में दो औरतें और एक हब्शी गुलाम हैं। अब वह सिपाही भी उनके साथ मिल गया और चारों ने आनंदसिंह को पकड़ लिया, मगर वाह रे आनंदसिंह, एक झटका दिया कि चारों दूर जा गिरे। इतने में बाहर से आवाज आई –

”आनंदसिंह, खबरदार! जो किया सो ठीक किया अब आगे कुछ होसला मत करना नहीं तो सजा पाओगे!”

आनंदसिंह ने घबराकर बाहर की तरफ देखा तो एक योगिनी नजर पड़ी जो जटा बढ़ाए भस्म रमाये गेरुआ वस्त्र पहिरे दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में आग से भरा धधकता हुआ खप्पर जिसमें कोई खुशबूदार चीज जल रही थी और बहुत धुआं निकल रहा था, लिए हुए आ मौजूद हुई।

ताज्जुब में आकर सभी उसकी सूरत देखने लगे। थोड़ी देर में उस खप्पर से निकला हुआ धुआं सुरंग की कोठरी में भर गया और उसके असर से जितने वहां थे सभी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। बस अकेली वही योगिनी होश में रही जिसने सभों को बेहोश देख कोने में पड़े हुए घड़े से जल निकाल खप्पर की आग बुझा दी।

बयान – 8

अब थोड़ा-सा हाल शिवदत्तगढ़ का भी लिख देना मुनासिब मालूम होता है। यह हम पहले लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त को एक लड़का और एक लड़की भी हुई थी। इस समय लड़के की उम्र जिसका नाम भीमसेन है अठारह वर्ष की हो गई थी, पर लड़की किशोरी की उम्र अभी पंद्रह वर्ष से ज्यादे न होगी। इस समय बेचारी किशोरी शिवदत्तगढ़ में मौजूद नहीं है क्योंकि महाराज शिवदत्त ने रंज होकर उसे उसके ननिहाल भेज दिया है। रंज होने का कारण हम यहां पर नहीं लिखते क्योंकि यह बहुत पेचीदी बात है, खुलते-खुलते खुल जाएगी।

भीमसेन शिवदत्तगढ़ में मौजूद है। उसे सिपाहगिरी का बहुत शौक है, बदन में ताकत भी अच्छी है। तलवार, खंजर, नेजा, तीर, गदा इत्यादि चलाने में होशियार और राज-काज के मामले में भी तेज है मगर अपने पिता महाराज शिवदत्त की चाल को पसंद नहीं करता, पर फिर भी महाराज शिवदत्त को उससे बहुत ही ज्यादा प्रेम है।

एक दिन भीमसेन मामूली तौर पर बीस हमजोलियों को साथ ले घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने के लिए शिवदत्तगढ़ के बाहर निकला और एक ऐसे जंगल में गया जिसमें बनैले सूअर बहुत रहते थे। उसका इरादा भी यही था कि घोड़ा दौड़ाकर बरछे से सूअर को मारे।

जंगल में घूमने-फिरने लगे। एक ताकतवर और मजबूत सूअर भीमसेन की बगल से होता हुआ पूरब की तरफ भागा। भीमसेन ने भी उसके पीछे घोड़ा दौड़ाया, मगर वह बहुत तेजी के साथ भागा जा रहा था। इसलिए बहुत दूर निकल गया, उसके संगी – साथी सब पीछे छूट गये। यकायक भीमसेन ने देखा कि सामने की तरफ जिधर सूअर भागा जाता है एक औरत घोड़े पर सवार हाथ में बरछी लिए इस ताक में खड़ी है कि सूअर पास आवे तो बरछी से मार ले।

जब सूअर ऐसे ठिकाने पहुंचा जहां से वह औरत इतनी दूर रह गई जितनी दूर उसके पीछे भीमसेन था, वह बाईं तरफ को मुड़ा और पहले से ज्यादा तेजी के साथ भागा। भीमसेन और वह औरत दोनों ही ने उसके पीछे घोड़ा फेंका मगर भीमसेन से पहले उस औरत ने पहुंचकर बरछी मारी जिसके लगते ही वह सूअर गिरा।

अपना शिकार एक औरत के हाथ से मरते देख भीमसेन को क्रोध चढ़ आया और आंखें लाल हो गईं। ललकारकर औरत से बोला – ”तूने मेरे शिकार पर क्यों बरछी चलाई!”

औरत – क्या शिकार पर तुम्हारा नाम खुदा हुआ था

भीम – क्यों नहीं! मेरा जंगल, मेरा शिकार, इतनी देर से मैं इसके पीछे चला आ रहा हूं!

औरत – वाह रे तेरा जंगल और वाह रे तेरा शिकार! तीन कोस से दौड़े चले आते हैं, एक सूअर न मारा गया! शर्म तो आती नहीं उल्टे लाल आंखें कर मर्दानगी दिखा रहे हैं!!

भीम – क्या कहूं, तेरी खूबसूरती पर रहम आता है, औरत समझकर छोड़ देता हूं नहीं तो जरूर मजा चखा देता।

औरत – मैं भी छोकरा समझकर छोड़ देती हूं नहीं तो दोनों कान पकड़कर उखाड़ लेती!

भीम – (दांत पीसकर) बस अब सहा नहीं जाता। जुबान सम्हाल!

औरत – नहीं सहा जाता तो अपने हाथ से अपना मुंह पीट! यहां तो जुबान हमेशा यों ही चलती रही है और चलती रहेगी!

इस औरत की खूबसूरती, सवारी का ढंग, बदन की सुडौलता और फुर्ती यहां तक चढ़ी – बढ़ी थी कि आदमी घंटों देखा करे और जी न भरे मगर इसकी जली-कटी बातों ने भीमसेन को आपे से बाहर कर दिया। आंखों के आगे अंधेरा छा गया, बिना कुछ सोचे-विचारे उस औरत पर बरछी का वार किया। औरत ने बड़ी फुर्ती से बर्छी को ढाल पर रोका और हंसकर कहा, ”और जो कुछ हौसला रखता हो ला!”

घंटे भर तक दोनों में बरछी की लड़ाई हुई। इस समय अगर कोई इस फन का उस्ताद होता तो उस औरत की फुर्ती देख बेशक खुश हो जाता और ‘वाह-वाह’ या ‘शाबाश’ कहे बिना न रहता। आखिर उस औरत की बरछी जिसका फल जहर से बुझाया हुआ था भीमसेन की जांघ में लगा जिसके लगते ही तमाम बदन में जहर फैल गया और वह बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़ा।

बयान – 9

भीमसेन के साथियों ने बहुत खोजा मगर भीमसेन का पता न लगा, लाचार कुछ रात आते-आते लौट आये और उसी समय महाराज शिवदत्त के पास जाकर अर्ज किया कि आज शिकार खेलने के लिए कुमार जंगल में गये थे, एक बनैले सूअर के पीछे घोड़ा फेंकते हुए न मालूम कहां चले गये, बहुत तलाश किया मगर पता न लगा।

अपने लड़के के गायब होने का हाल सुन महाराज शिवदत्त बहुत घबरा गये। थोड़ी देर तक तो उन लोगों पर खफा होते रहे जो भीमसेन के साथ थे, आखिर कई जासूसों को बुलाकर भीमसेन का पता लगाने के लिए चारों तरफ रवाना किया और ऐयारों को भी हर तरह की ताकीद की, मगर तीन दिन बीत जाने पर भी भीमसेन का पता न लगा।

एक दिन लड़के की जुदाई से व्याकुल हो अपने कमरे में अकेले बैठे तरह-तरह की बातें सोच रहे थे कि एक खास खिदमतगार ने वहां पहुंच अपने पैर की धमक से उन्हें चौंका दिया। जब वे उस खिदमतगार की तरफ देखने लगे तो उसने एक लिफाफा दिखाकर कहा – ”चोबदार ने यह लिफाफा हुजूर को देने के लिए मुझे सौंपा है। उसी चोबदार की जुबानी मालूम हुआ कि कोई ऊपरी आदमी यह लिफाफा देकर चला गया, चोबदारों ने उसे रोकना चाहा था मगर वह फुर्ती से निकल गया।”

महाराज शिवदत्त ने वह लिफाफा लेकर खोला। अपने लड़के भीमसेन के हाथ का लेख पहचान बहुत खुश हुए, मगर चीठी पढ़ लेने से तरद्दुद की निशानी उनके चेहरे पर झलकने लगी। चीठी का मतलब यह था :

”यह जानकर आपको बहुत रंज होगा कि मुझे एक औरत ने बहादुरी से गिरफ्तार कर लिया, मगर क्या करूं लाचार हूं, इसका हाल हाजिर होने पर अर्ज करूंगा। इस समय मेरी छुट्टी तभी हो सकती है जब आप वीरेंद्रसिंह के कुल ऐयारों को जो आपके यहां कैद हैं छोड़ दें और वे खुशी-राजी से अपने घर पहुंच जाएं। मेरा पता लगाना व्यर्थ है, मैं बहुत ही बेढब जगह कैद किया गया हूं।

आपका आज्ञाकारी पुत्र –

भीम।”

चीठी पढ़कर महाराज शिवदत्त की अजब हालत हो गई। सोचने लगे, ”क्या भीम एक औरत ने पकड़ लिया वह बड़ा होशियार-ताकतवर और शस्त्र चलाने में निपुण था। नहीं, नहीं, उस औरत ने जरूर कोई धोखा दिया होगा! पर अब तो उन ऐयारों को छोड़ना ही पड़ेगा जो मेरी कैद में हैं! हाय, किस मुश्किल से ये ऐयार गिरफ्तार हुए थे और अब क्या सहज ही में छूटे जाते हैं, खैर लाचारी है क्या करें।”

बहुत देर तक सोच-विचार कर महाराज शिवदत्त ने बाकरअली ऐयार को बुलाकर कहा, ”वीरेंद्रसिंह के ऐयारों को छोड़ दो, जब तक वे अपने घर नहीं पहुंचते हमारा लड़का एक औरत की कैद से नहीं छूटता।”

बाकर – (ताज्जुब से) यह क्या बात हुजूर ने कही मेरी समझ में कुछ नहीं आया!

शिवदत्त – भीमसेन को एक औरत ने गिरफ्तार कर लिया है। वह कहती है कि जब तक वीरेंद्रसिंह के ऐयार न छोड़ दिये जायेंगे तुम भी घर न जाने पाओगे।

बाकर – यह कैसे मालूम हुआ

शिवदत्त – (चीठी दिखाकर) यह देखो खास भीमसेन के हाथ का लिखा हुआ है, इस चीठी पर किसी तरह का शक नहीं हो सकता।

बाकर – (पढ़कर) ठीक है, इतने दिनों तक कुमार का पता न लगना ही कहे देता था कि उन्हें किसी ने धोखा देकर फंसा लिया, अब यह भी मालूम हो गया कि औरत ने मर्दों के कान काटे हैं।

शिवदत्त – ताज्जुब है, एक औरत ने बहादुरी से भीम को कैसे गिरफ्तार कर लिया! खैर, इसका खुलासा हाल तभी मालूम होगा जब भीम से मुलाकात होगी और जब तक वीरेंद्रसिंह के ऐयार चुनार नहीं पहुंच जाते भीम की सूरत देखने को तरसते रहेंगे। तुम जाके उन ऐयारों को अभी छोड़ दो, मगर यह मत कहना कि तुम लोग फलानी वजह से छोड़े जाते हो बल्कि यह कहना कि हमसे और वीरेंद्रसिंह से सुलह हो गई, तुम जल्द चुनार जाओ। ऐसा कहने से वे कहीं न रुककर सीधे चुनार चले जाएंगे।

बाकरअली महाराज शिवदत्त के पास से उठा और वहां पहुंचा जहां बद्रीनाथ वगैरह ऐयार कैद थे। सभों को कैदखाने से बाहर किया और कहा – ”अब आप लोगों से हमसे कोई दुश्मनी नहीं, आप लोग अपने घर जाइए, क्योंकि हमारे महाराज से और राजा वीरेंद्रसिंह से सुलह हो गई।”

बद्रीनाथ – बहुत अच्छी बात है, बड़ी खुशी का मौका है, पर अगर आपका कहना ठीक है तो हमारी ऐयारी के बटुए और खंजर भी दे दीजिए।

बाकर – हां, हां, लीजिए, इसमें क्या उज्र है, अभी मंगाए देता हूं बल्कि मैं खुद जाकर ले आता हूं।

दो – तीन ऐयारों को साथ ले इन ऐयारों के बटुए वगैरह लेने के लिए बाकरअली अपने मकान की तरफ भागा, इधर पंडित बद्रीनाथ और पन्नालाल वगैरह निराला पाकर आपस में बातें करने लगे।

पन्ना – क्यों यारो, यह क्या मामला है जो आज हम लोग छोड़े जाते हैं

राम – सुलह वाली बात तो हमारी तबीयत में नहीं बैठती।

चुन्नी – अजी कैसी सुलह और कहां मेल! जरूर कोई दूसरा ही मामला है।

ज्योतिषी – बेशक शिवदत्त लाचार होकर हम लोगों को छोड़ रहा है।

बद्री – क्यों साहब भैरोसिंह, आप इस बारे में क्या सोचते हैं

भैरो – सोचेंगे क्या असल बात जो है मैं समझ गया।

बद्री – भला कहिये तो सही क्या समझे!

भैरो – इसमें शक नहीं कि हमारे साथियों में से किसी ने यहां के किसी मुड्ढ को पकड़ लिया है और इनको कहला भेजा है कि जब तक हमारे ऐयार चुनार न पहुंच जायेंगे उसको न छोड़ेंगे, बस इसी से ये बातें बनाई जा रही हैं, जिससे हम लोग जल्दी चुनार पहुंचें।

बद्री – शाबाश, बहुत ठीक सोचा, इसमें कोई शक नहीं। मैं समझता हूं कि शिवदत्त की जोरू, लड़का या लड़की पकड़ी गई है तभी वह इतना कर रहा है, नहीं तो दूसरे की वह परवाह करने वाला नहीं है, तिस पर हम लोगों के मुकाबले में।

भैरो – बस-बस, यही बात है और अब हम लोग सीधे चुनार क्यों जाने लगे जब तक कुछ दक्षिणा न ले लें।

बद्री – देखो तो क्या दिल्लगी मचाता हूं।

भैरो – (हंसकर) मैं तो शिवदत्त से साफ कहूंगा कि मेरे पैरों में दर्द है, तीन महीने में भी चुनार नहीं पहुंच सकता, घोड़े पर सवार होना मुश्किल है, बैल की सवारी से कसम खा चुका हूं, पालकी पर घायल, बीमार या अमीर लोग चढ़ते हैं, बस बिना हाथी के मेरा काम नहीं चलता, सो भी बिना हौदे के चढ़ने की आदत नहीं। तेजसिंह दीवान का लड़का बिना चांदी-सोने के हौदे पर चढ़ नहीं सकता!

चुन्नी – भाई, बाकर ने मुझे बेढब छकाया है। मैं तो जब तक बाकर की आधा माशे नाक न ले लूंगा यहां से टलने वाला नहीं चाहे जान रहे या जाय।

चुन्नीलाल की बात सुनकर सभी हंस पड़े और देर तक इसी तरह की बातचीत करते रहे, तब तक बाकरअली भी इन लोगों के बटुए और खंजर लिए हुए आ पहुंचा।

बाकर – लो साहबो, ये आपके बटुए और खंजर हाजिर हैं।

बद्री – क्यों यार, कुछ चुराया तो नहीं! और तो खैर बस, मुझे अपनी अशर्फियों का धोखा है, हम लोगों के बटुए में खूब मजेदार चमकती हुई अशर्फियां थीं।

बाकर – अब लगे झूठ-मूठ का बखेड़ा मचाने।

राम – (मुंह बनाकर) हैं, सच कहना! इन बातों से तो मालूम होता है, अशर्फियां डकार गये! (पन्नालाल वगैरह की तरफ देखकर) लो भाइयो, अपनी चीजें देख लो!

पन्ना – देखें क्या हम लोग जब चुनार से चले थे तो सौ-सौ अशर्फियां सभों को खर्च के लिए मिली थीं। वे सब ज्यों-की-त्यों बटुए में मौजूद थीं।

भैरो – भई मेरे पास तो अशर्फियां नहीं थीं, हां एक छोटी-सी पुटरी जवाहिरात की जरूर थी सो गायब है, अब कहिए इतनी बड़ी रकम कैसे छोड़कर चुनार जायें।

बद्री – अच्छी दिल्लगी है! दोनों राजों में सुलह हो गई और इस खुशी में लुट गए हम लोग! चलो एक दफे महाराज शिवदत्त से अर्ज करें, अगर सुनेंगे तो बेहतर है नहीं तो इसी जगह अपना गला काटकर रख जायेंगे, धन-दौलत लुटाकर चुनार जाना हमें मंजूर नहीं!

बाकर अली हैरान कि इन लोगों ने अजब ऊधम मचा रखा है, कोई कहता है मेरी अशर्फियां गायब हैं, कोई कहता है मेरी जवाहिरात की गठरी गुम हो गई, कोई कहता है हम लुट गये, अब क्या किया जाय हम तो इस फिक्र में हैं कि जिस तरह हो ये लोग जल्द चुनार पहुंचें जिससे भीमसेन की जान बचे, मगर ये लोग तो खमीरी आटे की तरह फैले ही जाते हैं। खैर एक दफे इनको धमकी देनी चाहिए।

बाकर – देखो तुम लोग बदमाशी करोगे तो फिर कैद कर लिए जाओगे!

बद्री – जी हां! मैं भी यही सोच रहा हूं।

पन्ना – ठीक है, जरूर कैद कर लिए जायेंगे, क्योंकि अपनी जमा मांग रहे हैं। चुपचाप चले जायें तो बेहतर है, जिससे बखूबी रकम पचा जाओ और कोई सुनने न पावे!

भैरो – यह धमकी तो आप अपने घर में खर्च कीजियेगा, भलमनसी इसी में है कि हम लोगों की जमा बाएं हाथ से रख दीजिए, और नहीं तो चलिए राजा साहब के पास, जो कुछ होगा, उन्हीं के सामने निपट लेंगे।

बाकर – अच्छी बात है, चलिए।

सब – चलिए, चलिए!!

यह मसखरों का झुंड बाकरअली के साथ महाराज शिवदत्त के पास पहुंचा।

बाकर – महाराज, देखिए ये लोग झगड़ा मचाते हैं।

भैरो – जी हां, कोई अपनी जमा मांगे तो कहिए, झगड़ा मचाते हैं!

शिव – क्या मामला है

भैरो – महाराज, मुझसे सुनिए, जब हमारे सरकार से और आपसे सुलह हो गई और हम लोग छोड़ दिये गए तो हम लोगों की वे चीजें भी मिल जानी चाहियें जो कैद होते समय जप्त कर ली गई थीं।

शिव – क्यों नहीं मिलेंगी!

भैरो – ईश्वर आपको सलामत रखे, क्या इंसाफ किया है! आगे सुनिए, जब हम लोगों ने अपनी चीजें मियां बाकर से मांगीं तो बस बटुआ और खंजर तो दे दिया मगर बटुए में जो कुछ रकम थी गायब कर गए। दो-दो, चार-चार अशर्फियां और दस-दस, बीस-बीस रुपये तो छोड़ दिये बाकी अपने कब्र में गाड़ आये! अब इंसाफ आपके हाथ है!

शिव – (बाकर से) क्यों जी, यह क्या मामला है!

बाकर – महाराज, ये सब झूठे हैं।

भैरो – जी हां, हम सबके सब झूठे हैं और आप अकेले सच्चे हैं

शिव – (भैरो से) खैर जाने दो, तुम लोगों का जो कुछ गया है हमसे लेकर अपने घर जाओ, हम बाकर से समझ लेंगे।

भैरो – महाराज सौ-सौ अशर्फियां तो इन लोगों की गई हैं। और एक गठरी जवाहिरात की मेरी गई है। अब बहुत बखेड़ा कौन करे बस एक हजार अशर्फियां मंगवा दीजिए हम लोग अपने घर का रास्ता लें, रकम तो ज्यादे गई है मगर आपका क्या कसूर।

बाकर – यारो गजब मत करो!

भैरो – हां साहब हम लोग गजब करते हैं, खैर लीजिए अब एक पैसा न मांगेंगे, जी में समझ लेंगे खैरात किया, अब चुनार भी न जायेंगे। (उठना चाहता है)

शिव – अजी घबराते क्यों हो, जो कुछ तुमने कहा है हम देते हैं। (बाकर से) क्या तुम्हारी शामत आयी है!

महाराज शिवदत्त ने बाकर अली को ऐसी डांट बताई कि बेचारा चुपके से दूर जा खड़ा हुआ। हजार अशर्फियां मंगवाकर भैरोसिंह के आगे रख दी गईं, ये लोग अपने बटुओं में रख उठ खड़े हुए, यह भी न पूछा कि तुम्हारा कौन कैद हो गया जिसके लिए इतना सह रहे हो, हां शिवदत्तगढ़ के बाहर होते-होते इन लोगों ने पता लगा ही लिया कि भीमसेन किसी ऐयार के पंजे में पड़ गया है।

शिवदत्तगढ़ के बाहर हो सीधे चुनार का रास्ता किया। दूसरे दिन शाम को जब चुनार पंद्रह कोस बाकी रह गया सामने से एक सवार घोड़ा फेंकता हुआ इसी तरफ आता दिखाई पड़ा। पास आने पर भैरोसिंह ने पहचाना कि शिवदत्त का लड़का भीमसेन है।

भीमसेन ने इन ऐयारों के पास पहुंचकर घोड़ा रोका और हंसकर भैरोसिंह की तरफ देखा जिसे वह बखूबी पहचानता था।

भैरो – क्यों साहब, आपको छुट्टी मिली (अपने साथियों की तरफ देखकर) महाराज शिवदत्त के पुत्र कुमार भीमसेन यही हैं।

भीम – आप ही लोगों की रिहाई पर मेरी छुट्टी बदी थी, आप लोग चले आये तो मैं क्यों रोका जाता

भैरो – हमारे किस साथी ने आपको गिरफ्तार किया

भीम – सो मुझे मालूम नहीं, शिकार खेलते समय घोड़े पर सवार एक औरत ने पहुंचकर नेजे से मुझे जख्मी किया, जब मैं बेहोश हो गया, मुश्कें बांध एक खोह में ले गई और इलाज करके आराम किया, आगे का हाल आप जानते हैं, मुझे यह न मालूम हुआ कि वह औरत कौन थी मगर इसमें शक नहीं कि थी वह औरत ही।

भैरो – खैर अब आप अपने घर जाइये, मगर देखिए, आपके पिता ने व्यर्थ हम लोगों से वैर बांध रखा है। जब वे राजकुमार वीरेंद्रसिंह के कैदी हो गये थे उस वक्त हमारे महाराज सुरेंद्रसिंह ने उन्हें बहुत तरह से समझाकर कहा कि आप हम लोगों से वैर छोड़ चुनार में रहें, हम चुनार की गद्दी आपको फेर देते हैं। उस समय तो हजरत को फकीरी सूझी थी, योगाभ्यास की धुन में प्राण की जगह बुद्धि को ब्रह्माण्ड में चढ़ा ले गये थे लेकिन अब फिर गुदगुदी मालूम होने लगी। खैर हमें क्या, उनकी किस्मत में जन्म-भर दुख ही भोगना बदा है तो कोई क्या करे, इतना भी नहीं सोचते कि जब चुनार के मालिक थे तब तो कुंअर वीरेंद्रसिंह से जीते नहीं, अब न मालूम क्या कर लेंगे!

भीम – मैं सच कहता हूं कि उनकी बातें मुझे पसंद नहीं मगर क्या करूं, पिता के विरुद्ध होना धर्म नहीं।

भैरो – ईश्वर करे इसी तरह आपकी धर्म में बुद्धि बनी रहे, अच्छा जाइये।

भीमसेन ने अपने घर का रास्ता लिया और हमारे चोखे ऐयारों ने चुनार की सड़क नापी।

बयान – 10

अब हम अपने पाठकों को फिर उसी खोह में ले चलते हैं जिसमें कुंअर आनंदसिंह को बेहोश छोड़ आये हैं अथवा जिस खोह में जान बचाने वाले सिपाही के साथ पहुंचकर उन्होंने एक औरत को छुरे से लाश काटते देखा था और योगिनी ने पहुंचकर सभों को बेहोश कर दिया था।

थोड़ी देर के बाद आनंदसिंह को छोड़ योगिनी बाकी सभों को कुछ सुंघाकर होश में लाई। बेहोश आनंदसिंह उठाकर एक किनारे रख दिए गए और फिर वही काम अर्थात लटकते हुए आदमी को छूरे से काट-काटकर पूछना कि ‘इंद्रजीतसिंह के बारे में जो कुछ जानता है बता’ जारी हुआ। सिपाही ने भी उन लोगों का साथ दिया। मगर वह आदमी भी कितना जिद्दी था! बदन के टुकड़े-टुकड़े हो गए मगर जब तक होश में रहा यही कहता गया कि हम कुछ नहीं जानते। हब्शी ने पहले ही से कब्र खोद रखी थी, दम निकल जाने पर वह आदमी उसी में गाड़ दिया गया।

इस काम से छुट्टी पा योगिनी ने सिपाही की तरफ देखकर कहा, ”बाहर जंगल से लकड़ी काट काम चलाने लायक एक छोटी-सी डोली बना लो, उस पर आनंदसिंह को रख तुम और हब्शी मिलकर उठा ले जाओ, चुनार के किले के पास इनको रख देना जिससे होश आने पर घर पहुंच जायं, तकलीफ न हो, बल्कि होश में लाने की तरकीब करके तुम इनसे अलग होना और जहां जी चाहे चले जाना, हम लोगों से अगर मिलने की जरूरत हो तो इसी जगह आना।”

सिपाही – मेरी भी यही राय थी, आनंदसिंह को तकलीफ क्यों होने लगी, क्या मुझको इसका खयाल नहीं!

योगिनी – क्यों नहीं, बल्कि मुझसे ज्यादे होगा। अच्छा तुम जाओ, जिस तरह बने इस काम को कर लो, हम लोग अब अपने काम पर जाती हैं। (दूसरी औरत की तरफ देखकर जिसने छुरी से उस लाश को काटा था) चलो बहन चलें, इस छोकरी को इसी जगह छोड़ दो मजे में रहेगी, फिर बूझा जायगा।

इन दोनों औरतों का अभी बहुत कुछ हाल हमें लिखना है इसलिए जब तक इन दोनों का असल भेद और नाम न मालूम हो जाये तब तक पाठकों के समझने के लिए कोई फर्जी नाम जरूर रख देना चाहिए। एक का नाम तो योगिनी रख ही दिया गया, दूसरी का वनचरी समझ लीजिए। योगिनी और वनचरी दोनों खोह के बाहर निकलीं और कुछ दक्खिन झुकते हुए पूरब का रास्ता लिया। इस समय रात बीत चुकी थी और सुबह की सफेदी के साथ लुपलुपाते हुए दो-चार तारे आसमान पर दिखाई दे रहे थे।

पहर दिन चढ़े तक ये दोनों बराबर चलती गईं, जब धूप कुछ कड़ी हुई जंगल में एक जगह बेल के पेड़ों की घनी छांह देखकर टिक गईं जिसके पास पानी का झरना बह रहा था। दोनों ने कमर से बटुआ खोला और कुछ मेवा निकालकर खाने तथा पानी पीने के बाद जमीन पर नरम-नरम पत्ते बिछाकर सो रहीं।

ये दोनों तमाम रात की जागी हुई थीं, लेटते ही नींद आ गई। दोपहर तक खूब सोईं। जब पहर दिन बाकी रहा उठ बैठीं और चश्मे के पानी से हाथ-मुंह धो फिर चल पड़ीं। इस तरह मौके-मौके पर टिकती हुई ये दोनों कई दिन तक बराबर चलती गर्ईं। एक दिन आधी रात तक बराबर चले जाने के बाद एक तालाब के किनारे पहुंचीं जो बगल वाली पहाड़ी के नीचे सटा हुआ था।

इस लंबे-चौड़े संगीन और निहायत खूबसूरत तालाब के चारों तरफ पत्थर की सीढ़ियां और छोटी-छोटी बारहदरियां इस तौर पर बनी हुई थीं जो बिल्कुल जल के किनारे ही पड़ती थीं। तालाब के ऊपर भी चारों तरफ पत्थर का फर्श और बैठने के लिए हर एक तरफ सिंहासन की तरह चार-चार चबूतरे निहायत खूबसूरत मौजूद थे। ताज्जुब की बात यह थी कि इस तालाब के बीच का जाट लकड़ी की जगह पीतल का इतना मोटा बना हुआ था कि दोनों तरफ दो आदमी खड़े होकर हाथ नहीं मिला सकते थे। जाट के ऊपर लोहे का एक बदसूरत आदमी का चेहरा बैठाया हुआ था।

तालाब के ऊपर चारों तरफ बड़े-बड़े सायेदार दरख्त ऐसे घने लगे हुए थे कि सभों की डालियां आपस में गुंथ रही थीं। दोनों उस तालाब पर खड़े होकर उसकी शोभा देखने लगीं। थोड़ी देर बाद दोनों एक चबूतरे पर बैठ गर्ईं मगर मुंह तालाब ही की तरफ किये हुए थीं।

यकायक जाट के पास का पानी खलबलाया और एक आदमी तैरता हुआ जल के ऊपर दिखाई दिया। इन दोनों की टकटकी उसी तरफ बंध गई। वह आदमी किनारे आया और ऊपर की सीढ़ी पर खड़ा हो चारों तरफ देखने लगा। अब मालूम हो गया कि वह औरत है। योगिनी और वनचरी ने चबूतरे के नीचे होकर अपने को छिपा लिया मगर उस औरत की तरफ बराबर देखती रहीं।

उस औरत की उम्र बहुत कम मालूम होती थी जो अभी-अभी तालाब से बाहर हो इधर-उधर सन्नाटा देख हवा में अपनी धोती सुखा रही थी। थोड़ी ही देर में साड़ी सूख गयी जिसे पहनकर उसने एक तरफ का रास्ता लिया।

मालूम होता है योगिनी और वनचरी इसी की ताक में बैठी थीं क्योंकि जैसे ही वह औरत वहां से चल खड़ी हुई वैसे ही ये दोनों उस पर लपकीं और जबर्दस्ती गिरफ्तार कर लेना चाहा, मगर वह कमसिन औरत इन दोनों को अपनी तरफ आते देख और इन दोनों के मुकाबले अपनी जीत न समझकर लौट पड़ी और फुर्ती के साथ उन दरख्तों में से एक पर चढ़ गई जो उस तालाब के चारों तरफ लगे हुए थे। योगिनी और वनचरी दोनों उस दरख्त के नीचे पहुंचीं, योगिनी खड़ी रही और वनचरी उसे पकड़ने के लिये ऊपर चढ़ी।

हम ऊपर लिख आये हैं कि यह दरख्त इतने पास-पास लगे हुए थे कि सभों की डालियां आपस में गुंथ रही थीं। वनचरी को पेड़ पर चढ़ते देख वह जलचरी ऊपर ही ऊपर दूसरे पेड़ पर कूद गई यह देख योगिनी ने उसके आगे वाले तीसरे पेड़ को जा घेरा, जिससे वह बीच ही में फंसी रह जाय और आगे न जाने पावे। मगर वह चालाकी भी न लगी। जब उस औरत ने अपने बगल वाले पेड़ को दुश्मनों से घिरा हुआ पाया, पेड़ के नीचे उतर आई और तालाब की सीढ़ियों को तै करते हुए धम्म से जल में कूद पड़ी। योगिनी और वनचरी भी साथ ही पेड़ से उतरीं और उसके पीछे जाकर इन दोनों ने भी अपने को जल में डाल दिया।

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