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पहला सावन, पहली बारिश

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(सच्ची घटना से आंशिक प्रेरित)

हर्षिता जंगले से बाहर बारिश होती देख रही थी। उसने अपना हाथ बाहर निकाला, बहुत चेष्टा करने के बावजूद भी वो होती बारिश पर ऊँगली न छुआ सकी। उसकी साथ वाली ने रुखाई से पूछा “क्या हुआ? क्या कर रही है?”

हर्षिता ने कोई जवाब नहीं दिया। बस सोचने लगी।
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वो कभी अपनी ज़िन्दगी में ज़्यादा बोल नहीं पाती थी। पिताजी अक्सर कहते थे कि ‘अपनी मनमर्जी करनी है तो जा के अपने पति के घर करना। पति का घर ही तुम्हारा घर होगा’। हर्षिता कोई जवाब न दे पाई। बस इंतेज़ार करती रहती थी कि कब जायेगी, कब दूसरा कहलाने वाला घर पहला घर बनेगा। कब वो दिन आयेगा जब अपने ही घर से पराई हो जायेगी।

इस घर में, उसे कोई ख़ास प्यार मिला नहीं था। हाँ, उसकी ज़रूरतें बिना टोके ही पूरी कर दी जाती थीं। ‘जो भी चाहिए, माँ से कह दो, भाई ले आयेगा या पिता ले आयेंगे। बात करनी है तो अपनी माँ से करो, सहेलियों को फोन करो पर सुनों, पहले मोबाइल दिखाओ सहेली कहीं कोई सहेला तो नहीं है न?’

बंदिशें थीं ये बुरी बात थी पर उन बंदिशों की आदत पड़ गयी थी; ये ज़्यादा बुरी बात थी। हर्षिता का मन जब भी भारी होता था, वो ऊपर वाले से मनाने लगती थी कि बारिश हो जाए। बारिश उसे कुछ देर के लिए बहुत सुकून देती थी। गर्म झुलसती मिट्टी पर जब बूँदें गिरती थीं और वो अपने कमरे की खिड़की से देखती थी तो उसे ऐसा लगता था मानों साक्षात स्वर्ग जंगले के पार आ गया है। शायद इसीलिए श्रावण मास उसे सबसे अधिक प्रिय था। उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता था जब दिन-रात बारिश होती रहती थी। उसके 16वां जन्मदिन मनाते ही माँ ने उसे श्रावण के सारे सोमवार व्रत करवाने शुरु कर दिए थे। उसका जन्मदिन भी श्रावण में ही आता था, सो उसे इसलिए भी इस महीने का बहुत इन्तेज़ार रहता था।

जब शादी लायक बड़ी हुई तो आनन-फानन रिश्ते देखने शुरु किए। बाप रसूखदार थे सो उन्होंने चाहा कि लड़का सिर्फ धनवान ही नहीं, नामी और रसूखवाला भी होना चाहिए। ऐसे रिश्ते के बदले अच्छा दहेज़ भी देना था, पिता ने उसका भी इन्तेजाम कर दिया था। एक बहुत ही रसूखदार बदमाश के दाहिने हाथ का रिश्ता आया। लड़का खुद भी बहुत बड़ा बदमाश था। जिस रोज़ लड़का उनके घर में आया उस रोज़ सारा मोहल्ला अपने घर के बाहर और अपने छज्जों पर खड़ा था। मजाल है जो किसी की आवाज़ निकली हो।

रिश्ता तय हो गया। बहुत छोटे अंतराल बाद आषाढ़ मास के अंत में शादी भी गयी। हर्षिता शादी नहीं करना चाहती थी, पर कह न पाई। सहेलियां उसे अपने साथ नाचने के लिए ले गयी तो भी मना नहीं कर पाई, दूल्हे के भाइयों ने भी जब ज़िद की तो वो नाच उठी। शादी की पहली रात उसके पति ने जब घूँघट उठाया तो मुस्कुरा दिया। धीरे से बोला “आप तो बहुत सुन्दर हैं”

हर्षिता ने लजा के नज़र नीची कर ली।

“आप भी कुछ हमारे बारे में कहना चाहें तो कह सकती हैं” पतिदेव ने इतरा के गर्दन फुला ली।

“जी हम आपसे कुछ पूछ सकते हैं?”

“अरे क्यों नहीं, ज़रूर पूछिए! हम ईमानदारी से जवाब देंगे” पतिदेव उठ के बैठ गये।

“जी” हर्षिता फिर संकोच से घिरी और नज़र नीचे किए हुए ही बोली “आपका नाम क्या है?”

एक पल को हर्षिता का चेहरा देखने के बाद पति ज़ोर से हंसा। “आश्चर्य है कि शादी से अबतक आपको हमारा नाम ही न पता चला?”

हर्षिता भी मुस्कुरा दी। “जी किसी ने बताया ही नहीं”

“भला क्यों नहीं?”

“क्योंकि….. क्योंकि हमने पूछा ही नहीं”

पति फिर ज़ोर से हँसा। “भई आज के युग में, जहाँ मिनट भर में लड़कियां फेसबुक, ट्विटर पर लड़कों की कुंडली बांच लेती हैं; वहाँ आप जैसी लड़की भी मौजूद हैं? आश्चर्य है। मैं धन्य हुआ हर्षिता जी”

हर्षिता बस मुस्कुरा दी।

“अरे हाँ, आपने तो नाम पूछा था” फिर वो ज़रा अकड़कर बोला “हमें अमरदेव चौधरी कहते हैं”

हर्षिता कुछ देर एक टक देखती रही फिर संकोची मन से पूछ बैठी “इस नाम का अर्थ क्या है जी?”

अमरदेव ने तिरछी नज़रों से देखा फिर बोला “अमर का अर्थ तो आप जानती ही हैं, जो कभी न मरे, देव तो देवता को कहते ही हैं। सो हम वो देवता हैं जो अमर हैं” इतना कहते ही अमरदेव ख़ुद हँसने लगा। फिर बोला “अच्छा आपके नाम का अर्थ क्या है? हर्षिता कौन होती है?”

हर्षिता ने फिर मुँह नीचे कर लिया।

“आप नहीं जानती? आप अपने नाम का अर्थ नहीं जानतीं?” अमरदेव हैरान हुए बिना न रह सका!

हर्षिता ने ‘न’ में गर्दन हिला दी।

“हाहाहा, बहुत किस्मत वाले हैं हम जो हमें इतनी सीधी घरवाली मिली है, आप सात जन्मों तक हमारी ही पत्नी बनिएगा, ठीक है?” अमरदेव नीचे झुककर मुँह देखने लगा, फिर कोई जवाब न मिलता देख बोला “हर्षिता का मतलब होता है ख़ुश रहने वाली, हँसमुख, अब हँसिए ज़रा कि हमें लगे आपके पिताजी ने आपका नाम ग़लत नहीं रखा था”

हर्षिता मुस्कुरा दी। फिर धीरे से बोली “हम और एक बात पूछें आपसे?”

“निःसंकोच पूछिए”

“आप करते क्या हैं?”

“जो हम चाहते हैं” अमरदेव एक टक देखता हुआ बोला। फिर उसने आगे जोड़ा “जो भी हम चाह लें, जो भी हम करना चाहें वो हम कर देते हैं धर्मपत्नी जी, सारा जिला जानता है ये” अमरदेव ने गौर किया कि हर्षिता किसी सोच में गुम हो गयी है। वो अगले ही पल बोला “अब हम आपसे एक बात कहें?”

हर्षिता ने हाँ में सिर हिला दिया।

“इंटरव्यू हो चुका हो तो ज़रा पसरा जाए, इतना बड़ा पलंग है, पूर्णरूप से इस्तेमाल तो होना चाहिए कि नहीं?”

हर्षिता पीछे खिसककर सिरहाने की तरफ चली गयी और बोली “अगर थोड़ी देर और बातें करते रहते….”

“बातें बहुत हो गयीं हर्षिता जी, अब काम करने का वक़्त आ चुका है” इतना बोल अमरदेव मुस्कुराया।

“हमें अच्छा लग रहा था बात करना, हम इतना कभी बोले नहीं इकठ्ठा” हर्षिता बहुत धीरे से बोली पर अमरदेव ने सुन लिया।

“आपको बोलने का ही ‘सौक’ था तो अपने घर में बोलना था न, अपने माँ-पिताजी के आगे बोलते, दिन रात बोलते कौन रोकता आपको? अभी हम कह रहे हैं न कि बात हो गयी, जितनी होनी थी उससे ज़्यादा हो गयी। अब लेटना चाहिए। आपको बताया न हम वो करते हैं जो हम करना चाहते हैं। बूझे?” अबकी अमरदेव की आवाज़ में वो स्नेह नहीं था जो कुछ देर पहले हर्षिता ने महसूस किया था।

वो कुछ न बोली।

वो सारी रात कुछ बोल न सकी।

वो सारी रात ज़रा भी सो न सकी।

अगले दिन अमरदेव उसे एक दिन बाद वापस ले जाने के लिए उसके मायके छोड़ आए। हर्षिता की माँ ने एक बार हाल-चाल पूछा और कोई जवाब न मिलता पाकर जाने लगी तो हर्षिता ने पुकारा “माँ!”

उसकी माँ ने पलट के देखा

“अब तो शादी हो गयी मेरी, क्या अब भी मुझे सावन के सोमवार का व्रत रखना है?”

उसकी माँ हँस के चली गयीं। हर्षिता उन्हें जाता देख ख़ुद भी अपने कमरे में चली गयी। आज उसका मन हो रहा था कि ज़ोर की बारिश हो।

एक दिन की बजाए अमरदेव दो दिन बाद आनन-फानन घर घुसा और किसी आपातकालीन स्थिति का हवाला देकर तुरंत हर्षिता को घर ले गया। घर पहुँचते ही हर्षिता से बिना कुछ बोले गाड़ी उठाये कहीं के लिए निकल गया।

हर्षिता इंतेज़ार करती रही। सारा काम निपटने के बाद वो हाल में लगे बड़े से टीवी को खोलकर बैठ गयी। ______________________________________________________________________

हर्षिता के घर पहुँचने से पहले ही अमरदेव के पास बड़े भैया का फोन आया “तुरंत ‘अड्डे’ पर पहुँचों, कुछ पंगा हो गया है और जो भी हथियार घर पड़ा हो, लेकर आओ” अमरदेव हर्षिता को लेकर, वापस पहुँचाकर अड्डे पर गया।

अमर पहुँचा। पता लगा दारूबाजी का प्रोग्राम बना हुआ है। उसने जाते ही पैर छुए और धीरे से बोला “भैया कोई चिंता की बात?”

“लो! बताओ भई कोई इन्हें, नई-नई लुगाई आई है तो सरऊ काम धंधा भूल जाओगे?”

“अरे नहीं भैया, कैसी बात करते हैं, आप हुकम करिए, जैसा कहें वैसा हो जायेगा”

“सही है, सुना तुमने? पुलिस दबिश डालने वाली है यहाँ, हमें धर दबोचने के लिए” बड़े भैया ने अपना ग्लास ख़ाली किया।

“फिर उस हिसाब से तो हमें निकलना चाहिए न भैया यहाँ से?” अमरदेव ने अपना ग्लास संभालते हुए पूछा

“नहीं बे, वो डराने आ रहे हैं तो हम क्या डर जाएँ? तुम क्या डर गए? बोलो?”

“नहीं भैया, आपके रहते डर कैसा?”

तभी एक शख्स आया और बड़े भैया को मोबाइल थमा गया। पांच सेकंड हूँ-हूँ करते हुए वो सुनता रहा फिर “जीते रहो, तुम्हारा इनाम पहुँच जायेगा” कहकर फोन काट दिया।

“चलो बे सब लोग, मोर्चा संभालो, पार्टी होनी है आज। टीम निकल चुकी है हमें दबोचने, साला कोई भी ज़िन्दा नहीं जाना चाहिए” इतना कहकर बड़े भैया ने एक गन्दी सी गाली बकी।

अमरदेव ने संकोचवश पूछा “भैया, ये जो मण्डली आ रही है, इनका रिंग मास्टर वही है?”

“हाँ बे वही है, साला दो दशक से भगा रहा है हमें, अबकी नहीं भागेंगे, टंटा ख़त्म करेंगे मा****, का”
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टीवी देखते-देखते हर्षिता की आँख लग गयी। टीवी चैनल के शोर से उसकी आँख खुली। उसने देखा उसकी काम वाली न्यूज़ चैनल देख रही है जिसपे सब ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे हैं।

“दीदी उठिए, ग़जब हो गया” हर्षिता की खुली आँखें देख वो बोले बिना रह न सकी “दीदी, पुलिस वालों पर किसी ने गोलियां चला दी। कुछ बहुत घायल हैं, कुछ मर गए लगता है, अपने ही सहर की बात है”

हर्षिता कुछ न कह सकी। थोड़ी ही देर में पता चला कि अमरदेव जिसके साथ काम करता था, उसी ने ये काण्ड किया है। फिर ये भी क्लियर हो गया कि अमरदेव भी इस काण्ड में शामिल था। देर रात उसकी सास के पास अमरदेव का फोन आया “कुछ दिन बाहर रहेंगे अम्मा, अपना बाबूजी का ख्याल रखियेगा, हर्सिता से कहियेगा कि हम जल्द ही घर आयेंगे”
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हर्षिता की तंद्रा टूटी। साथ वाली ने फिर पूछा “कुछ खायेगी नहीं? बिना खाए मर जायेगी तू”

उसने कोई जवाब न दिया। बस बीते घटनाक्रम को याद करने लगी। उस काण्ड के कुछ समय बाद पुलिस उसे उठाकर ले गयी और दो हफ्ते की रिमांड पर डाल दिया। हफ्ते भर बाद ख़बर मिली कि अमरदेव पकड़ा गया। फिर समाचार से ही पता चला कि वो भागने की कोशिश कर रहा था इसलिए पुलिस ने एनकाउंटर कर दिया। ‘उनको मरे दो ही दिन तो हुए हैं’ वो मन ही मन बोली ‘फिर आज सोमवार भी है; माँ तो कहती ही थी कि सावन के सोमवार को व्रत रखना चाहिए, अच्छा पति मिलता है।‘ वो बैठी सोच रही थी कि कभी इस जेल से निकली तो माँ से ये ज़रूर पूछेगी कि ‘अच्छा पति कैसा होता है?’ वो जानती थी कि अगली पेशी में वो बरी हो जायेगी, जब वो ही नहीं रहा जिसकी पूछताछ होनी थी तो उसके यहाँ रहने का क्या तुक बनता है। लेकिन फ़िलहाल सामने होती बारिश को उसे छू कर महसूस करना था। पर लाख कोशिशों के बावजूद भी वो जंगले से हाथ बाहर निकाल बारिश नहीं छू पा रही थी।

उसका मन खिन्न हो गया ‘हुंह, इससे तो जब कुंवारी थी, तब सावन अच्छा था।‘ इतना सोचते ही वो रोने लगी।

साथ वाली ने तीसरी बार टोका “ओ हो कितना रोयेगी उस हरामी के लिए? इसी लायक था वो, अच्छा हुआ मर गया। तुझे तो ख़ुश होना चाहिए, मुझे देख, मैं अपने ही पति और ससुर को मारकर आई हूँ। सालों ने जीना हराम कर दिया था”

हर्षिता ने कोई जवाब न दिया। वो बस सावन की झूमती बारिश को देखती रही। उसके सोमवारी व्रत में क्या कमी रह गयी थी ये सोचती रही।

“अरे पगली, अभी मेरे सामने तो बोल ले कुछ, एक बार छूट गयी तो वैसे ही कुछ न बोल पायेगी। तुझे पता नहीं हमारा समाज विधवाओं को ज़्यादा बोलने का अवसर नहीं देता”

हर्षिता के आंसू रुके, उसने अनजान लड़की की तरफ देखा और मुस्कुरा दी। फिर बिना कुछ बोले बारिश को देखने लगी। शायद यही नियति थी।

पर नहीं! कुछ देर बार एक सिपाही आई और उसका सेल खोल दिया “तुमसे मिलने कोई आया है, जल्दी चलो वर्ना समय ख़त्म हो जायेगा”

हर्षिता उठी, महिला सिपाही ने हाथ में रस्सी बाँध दी और साथ ले गयी। मुलाकाती उसके पिता थे। उम्मीद से विपरीत उन्हें यहाँ पाकर हर्षिता आश्चर्यचकित हो गयी। मुलाकाती और कैदी के बीच एक जाली थी, वो जाली के सामने हाथ जोड़कर धीरे से बोले “मुझे माफ़ कर दे बेटा… मुझे माफ़ कर दे। मेरी महत्वकांक्षा तुझे भुगतनी पड़ रही है” इतना बोलते ही उनके आंसू निकलने लगे।

जाली के पार से हर्षिता उनके आंसू पोछने लगी, बोली वो अब भी कुछ नहीं, पर उसके मन को तसल्ली हुई कि श्रावण में आकाश से बरसती पहली बारिश न सही, पिता की आँखों से बरसती पहली बारिश तो उसने छू ही ली”

समाप्त

#सहर

©Siddharth Arora ‘Sahar’
Registered ®SWA ScreenwritersAssociation membership no। 47160

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