नाम में क्या रखा है – शेक्सपेयर
कल मैं अपने एक मित्र से बात कर रहा था जो अपने नाम को कुछ मॉडिफाई करने या किसी तखल्लुस के लिए मेरे साथ मशवरा कर रहे थे। मुझे हैरानी हुई कि एक अच्छे-ख़ासे नाम को भला क्यों मॉडिफाई किया जा रहा है; जवाब मिला कि ये यूनीक नहीं है। हालाँकि कुछ एक उदहारण देने के बाद मेरे मित्र ‘कृष्ण’ नाम की कीमत समझ गये लेकिन मेरे दिमाग में ये हलचल मच गयी कि क्या अनोखा नाम होना इतना ज़रूरी है?
जवाब मिला नहीं! अपने साधारण से नाम को अपनी क़ाबलियत से अनोखा बनाया जा सकता है। तब मेरे मन में पहला नाम पंकज त्रिपाठी जी का कौंधा। पंकज नाम सर्वसाधारण और जन-जन के बीच फैला हुआ है। गली में राजू रमेश सुरेश की भांति एक पंकज भी होता ही है लेकिन जब कोई लिखता है पंकज त्रिपाठी तो आपके ज़हन में कौन सा नाम कौंधता है ये अलग से लिखने की ज़रुरत नहीं।
पंकज जी का गोपालगंज से दिल्ली एनएसडी तक का सफ़र और फिर एनएसडी से मुंबई ‘रण’ तक की जर्नी आप सब बहुत से इंटरव्यूज़ में सुन-पढ़ चुके होंगे। हाल ही के दिनों में पंकज जी की इमेज ‘कालीन भैया’ के इर्द-गिर्द बन गयी है। पर कालीन भैया से इतर बरेली की बर्फी के ‘नरोत्तम मिश्रा’ उर्फ़ पापा मिश्रा लगते हैं या मसान के ‘साध्या जी’ को देख लगता है कि हाँ, ये हैं वाकई वाले पंकज त्रिपाठी।
जिसमें उनसे पूछो कि “क्या आप अकेले रहते हैं?”
“जी नहीं, हम पिताजी के साथ रहते हैं, पिताजी अकेले रहते हैं”
इन दो लाइन्स में जो मासूमियत है; ये है पंकज त्रिपाठी की यूएसपी।
एक जगह ऋषि दा (ऋषिकेश मुखर्जी) ने कहा था कि ‘अमिताभ के फिल्मी कैरियर की ये ट्रेजेडी है कि पहले ज़ंजीर रिलीज़ हुई और वो एंग्री यंग मैन बन गया, पहले अभिमान रिलीज़ हुई होती लोगों को अमिताभ का ज़्यादा पोटेंशियल नज़र आता।‘
यही बात पंकज जी पर लागू होती है कि उनकी नोटिसेबल फिल्म गैंग्स ऑफ वासेयपुर रही और ग्रे शेड करैक्टर को एक नया परिपक्व कलाकार मिल गया।
वहीं न्यूटन के आत्माराम पर अगर आप गौर फरमाओ तो वो नेगेटिव करैक्टर नहीं बल्कि लॉजिकल करैक्टर है।
आत्मा राम अपनी बन्दूक न्यूटन को पकड़ाकर पूछते हैं “पकड़िए इसे, भारी है न? ये देश का भार है और हमारे कंधे पर है”
ये पर्टिकुलर डायलॉग दांत पीसकर भी बोला जा सकता था लेकिन इतनी सादगी से, घूरते हुए डायलॉग बोलने का हुनर पंकज जी में देखने को मिलता है।
यही सोम्य स्टाइल आप ‘निल बटे सन्नाटा’ के प्रिंसिपल श्रीवास्तव में देखिए देखिए। बच्चों को पढ़ाते वक़्त इतने नेचुरल लगे हैं मानों बरसों की शिक्षक बनने की मुराद पूरी हुई हो। कोई लाउड नहीं, टिपिकल हमारे स्कूल के टीचर्स जैसे डांटते मारते नहीं बल्कि समझाते हुए।
स्त्री के ‘रुद्रा’ भैया का रोल क्यों इतना कम था इसपर तो हम दोस्तों में अक्सर डिस्कशन होता था। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि उसमें एक सीन जिसमें ‘स्त्री’ के बारे में बेसिक जानकारी रुद्रा भैया बांट रहे हैं; वो पूरी तरह पंकज जी ने खुद इम्प्रूव किया था। मतलब ये कि ‘आधार कार्ड लिंक है सबका’ उनकी खुद की खोज थी।
एक्टर के इतर पंकज जी भी बहुत अच्छे हैं। उनसे एनएसडी में बैठे एक स्टूडेंट ने फरमाइश की कि कोई डायलॉग सुना दीजिए तो उनका जवाब बहुत इंटरेस्टिंग आया “इसके पैसे लेता हूँ मैं”
लोग हँसने लगे तो उन्होंने समझाया “जो आप सिनेमा में देखते हो वो रॉ नहीं होता, फिल्टर्ड होता है। उसमें कैमरा, डीओपी, एडिटर सबका योगदान होता है, आप चाहते हैं कि मैं इन सबको भांजी मारकर आपको डायलॉग सुना दूँ? यही अगर मैं कहीं बाहर होता, आम जन/ दही-हांडी में होता और तब ये फरमाइश होती तो मैं सुनाता भी, पर क्योंकि आप अभिनय के छात्र हो, आपसे मैं ये उम्मीद नहीं करूंगा कि आप एक्टर की डायलॉग डिलीवरी में फंसकर रह जाओ। इससे आप अपनी हानि करोगे”
इतना मुखर होना आज के युग में रेयर ही देखने को मिलता है।
ऐसे वर्सटाइल एक्टर को साल के आख़िरी दिन नमन करना तो बनता है। इस साल उनका बाबूलाल का करैक्टर (लुका-छुपी) में कुछ हटके ज़रूर था। सुपर30 के नेताजी श्रीराम सिंह का छोटा-सा रोल पूरी फिल्म की यूएसपी रहा।
हालाँकि ताशकेंट फाइल्स में उनका करैक्टर कोई भी कर लेता तो ख़ास फर्क न पड़ता।
मुद्दा ये है कि आपका नाम क्या रखा गया ये बाद की बात है, आपने अपने नाम को किस मुकाम पर पहुँचाया या किस गर्त में धकेला, ये हुनर है या यही एब भी।
#सहर